देशभक्ति / अन्तरा करवड़े
पूरा घर अंशुल के इर्द गिर्द जमा था। उसने रक्षा अकादमी की परीक्षा उत्तीर्ण की थी और अगले महीने से उसे ट्रेनिंग पर जाना था।
"आपकी माँ के थे चार - चार बेटे। सो एक का फौज में जाना सुहाया होगा उन्हें। मेरा एक ही दीपक है। मैं नहीं भेजने की इसे पूना।" माँ का कण्ठ अश्रुआर्द्र हो उठा था।
"लेकिन माँ! अंशुल की मर्जी जाने बगैर आप अपने इमोशन्स उसपर थोप तो नहीं सकती ना?" बहन अदिती तुनककर बोल पड़ी।
"और फिर मैं हूँ ना यहाँ आपके पास।" अदिती ने आगे कहा।
"तुम चुप रहो अदिती। अजी आप कुछ भी नहीं कहेंगे क्या?" माँ जल्द से लज्द निर्णय चाहती थी।
पापा वहीं कमरे में चक्कर काट रहे थे। जैसे कुछ सोच रहे हो। उनके लिये भी तो निर्णय लेना टेढ़ी खीर था। बरसों पुरानी फौजी परंपरा रही है गर में और अब इकलौता अँशुल। उनका भी कलेजा मुँह को आ रहा था। लेकिन निर्णय जो भी कुछ हो¸ इस वक्त दिल से नहीं दिमाग से लेना जरूरी था जिससे अँशुल का भविष्य और परिवार की परंपरा दोनों ही सुरक्षित रह सके। शाम को अदिती मुँह बनाए लॉन में टहल रही थी। उसे अचानक एक तरकीब सूझी।
दो दिनों के बाद माँ के हाथ में एक पर्ची थी और अंशुल घर से गायब! किसी सहपाठिनी से विवाह की बात लिखकर सारे घर को सकते में डाल गया था।
माँ वो चिट्ठी पढ़ती और रोती जाती।
"जाने कौन चुड़ैल है जो मेरे हीरे से लाल को ले गई अपने साथ! ये भी क्या उम्र है ये सब काम करने की? कहाँ तो मैं सपने सँजोए थी इसके आनेवाले कल के लिये और ये है कि हमारे मुख पर कालिख पोत गया है।"
अदिती और पापा दोनों तटस्थ थे। अँशुल घर से गायब।
"आपको कोई फर्क नहीं पड़ता है क्या? अब हम समाज में क्या मुँह दिखाएँगे? क्या कहेंगे कि हमारा बेटा किसी लड़की के साथ भाग गया? जाने क्या होगा अब! इससे तो अच्छा था कि वो पूना ही चला जाता।"
माँ विलाप करती रही। अदिती ने अँशुल का सामान बाँधना शुरू किया। पापा ने अँशुल के दोस्त के घर फोन किया।
"अँशुल! तुम्हारे कल का फैसला हो चुका है। तुम पूना जा रहे हो। जल्दी घर आ जाओ।"