देशी कपड़ा / प्रताप नारायण मिश्र

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मानव जाति का, खाने के उपरांत, कपड़े के बिना भी निर्वाह होना कठिन है। विशेषत: सभ्‍य देश के भोजनाच्‍छादन, रोटी कपड़ा, नानो नकफ इत्‍यादि शब्‍दों से ही सिद्ध है कि इन बातों में यद्यपि खाने बिना जीवन-रक्षा ही असंभव है, पर कपड़े के बिना भी केवल प्रतिष्‍ठा ही नहीं, बरंच आरोग्‍य, एवं असंभव नहीं है कि प्राण पर भी बाधा आवै। पर खेद का विषय है कि हम अपने मुख्‍य निर्वाह की वस्‍तु के लिए भी परदेशियों का मुँह देखा करें। हमारे देश की कारीगरी लुप्‍त हुई जाती है, हमारा धन समुद्र पार खिंचा जाता है। इत्‍यादि विषय बहुत सूक्ष्‍म हैं, उस पर जोर देने से लोग कहेंगे कि एडीटरी की सनक है, कविता की अत्‍युक्ति है, 'जिमि टिट्टिभ खग सुतै उताना' की नकल है; पर हमारे पाठक इतना देख लें कि जब हमको एक वस्‍तु उत्तम चिरस्‍थायिनी और अल्‍प मूल्‍य पर मिलती है तो बाहर से हम वह वस्‍तु क्‍यों लें।

गृहस्‍थ का यह धर्म नहीं है कि जब एक रुपया से काम निकलता है तब व्‍यर्थ डेढ़ उठावै। विलायती साधारण कपड़ा नैनसुख मलमल इत्‍यादि तीन आने से पाँच आने गल मिलता है, उसके दो अंगरखे साल भर बड़ी मुश्किल से चलते हैं, पर उसके मुकाबिले देशी कपड़ा (मुरादाबादी चारखाना, कासगंजी गाढ़ा इत्‍यादि) तीन आने गज का। कपड़ा यद्यपि, अरज कम होने के कारण, कुछ अधिक लगता है, पर उसके दो अंगरखे तीन वर्ष हिलाए नहीं हिलते। बाबू लोग यह न समझें कि अंग्रेजी फैशन का कपड़ा नहीं मिलता, नहीं, बहुत से अच्‍छे अँगरेज भी अब यही पहिनते हैं। शौकीन लोग यह भी खयाल न करें कि देशी कपड़े में नफासत नहीं होती, नहीं ढाके की मलमल, भागलपुरी टसर और मुर्शिदाबाद की गर्द अब अँगरेजी कपड़े को अपने आगे तुच्‍छ समझती हैं। अब ऐसा कोई तरह का कपड़ा नहीं है जो न बनता हो, और कुछ ही दिन लोग उत्‍साह दिखलावें तो बन सके। प्रयागराज में केवल इसीकी एक कोठी मौजूद है। हमारे कानपुर के सौभाग्‍य से श्रीयुक्‍त लाला छोटेलाल गयाप्रसाद महोदय ने भी देशी तिजारत कंपनी खोली है। यदि अब भी इस नगर और जिले के लोग देशी कपड़े को स्‍वयं पहिनने और दूसरों को सलाह देने में कसर करें तो देश का अभाग्‍य समझना चाहिए।

हम लोग और हमारे सहयोगीगण लिखते-लिखते हर गए कि देशोन्‍नति करो, पर यहाँ वालों का सिद्धांत है कि 'अपना भला हो देश चाहे चूल्‍हे में जाए', यद्यपि जब देश चूल्‍हे में जाएगा तो हम बच न रहेंगे। पर समझना तो मुश्किल काम है ना। सो भाइयो, यह तो तुम्‍हारे ही मतलब की बात है। आखिर कपड़ा पहिनोहीगे, एक बेर हमारे कहने से एक-एक जोड़ा देशी कपड़ा बनवा डालो। यदि कुछ सुभीता देख पड़े तो मानना, दाम कुछ दूने न लगेंगे, चलेगा तिगुने से अधिक समय। देशी लक्ष्‍मी और देशी शिल्‍प के उद्धार का फल सेंतमेंत। यदि अब भी न चेतो तो तुमसे ज्‍यादा भकुआ कौन? नहीं-नहीं हम सबसे अधिक, जो ऐसों को हितोपदेश करने में व्‍यर्थ जीवन खोते हैं!