देशी दर्शक और विदेशी मुहावरा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :18 मई 2015
सर रिचर्ड एटनबरो की 'गांधी' दुनिया के सभी देशों में सफल रही, परन्तु भारत में अपेक्षाकृत कम सफल रही है, जबकि उसकी डबिंग भी भारतीय भाषाओं में की गई थी। इसका कारण यह नहीं था कि भारतीय लोग राष्ट्रपिता की फिल्म नहीं देखना चाहते थे, भले ही उन्होंने गांधी के आदर्श पहले ही तज दिए थे। इसका कारण यह है कि 'गांधी' पश्चिम के सिनेमाई मुहावरे, भाषा व ग्रामर में बनी थी। वर्तमान में जो अमेरिकन फिल्में सफल हो रही हैं, उनका सिनेमाई भाषा से कुछ लेना-देना नहीं है, वे सनसनीखेज एक्शन फिल्में हैं। हमारे दर्शकों को अपेक्षाकृत कम बजट में बनी भारतीय एक्शन फिल्मों से विराट बजट में बनी अमेरिकन फिल्में पसंद आ रही हैं। अत: यह भारतीय दर्शक का मन भव्य बजट का है, क्योंकि भारतीय जीवनशैली भी इस समय भव्यता ग्रसित होकर बौनी हो गई है। जब भारतीय शिक्षण संस्थाएं अमेरिकन पाठ्यक्रम पढ़ा रही हों, तब उसके सिनेमा के दर्शक भी बदलेंगे। सारे ही क्षेत्रों में भारतीयता संकट में है और भारतीयता का अर्थ उस संकुचित मायने में नहीं है, जो राजनैतिक एजेन्डा है। वरन् उदात्त भारतीयता से यह जुड़ा है।
अनुराग कश्यप पहले और आखरी फिल्मकार नहीं हैं, जो विदेशी मुहावरे में अपना तथाकथित देशज फिल्म गढ़ता है। इस तरह के छद्म बुद्धिजीवी भारतीय सिनेमा की मुख्यधारा का प्रवाह बदलने का दम भरते हुए आए हैं और सिनेमा इतिहास के डस्टबिन में पड़े हुए हैं। इनमें से कोई साहसी अंग्रेजी में फिल्म बनाकर हॉलीवुड फतह का सपना लिए हादसे गढ़कर अपने विदेश में लगे जख्मों को भारतीय हल्दी के लेप से ठीक करता है। अगर जापानी अकीरा कुरोसावा को अमेरिका के फिल्मकार श्रद्धा से देखते थे, तो इसका कारण यह था कि वे जापानी संस्कृति में अखिल विश्व की महानता से भरी फिल्में बनाते थे। भारत के सत्यजीत राय से अधिक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार दुनिया के किसी भी फिल्मकार ने नहीं जीते। सत्यजीत राय हमेशा अपनी जमीन, भाषा और संस्कृति से जुड़ी फिल्में बनाते थे।
सार्थक सिनेमा का दावा करने वालों को जब भी सफल सितारों का साथ मिला है, वे बौरा जाते हैं। विशाल भारद्वाज ने अल्प बजट में 'मकबूल' रची, परन्तु अजय देवगन, करीना और सैफ मिलते ही उन्होंने ऑथेलो का दम भरते हुए 'ओंकारा' रची। नीग्रो ऑथेलो गोरों की रक्षा करने वाला वीर पुरुष था। विशाल का ओंकारा एक टुच्चे नेता के इशारे पर अपराध करता है, इसलिए उसके हाथों अपनी पत्नी की हत्या कोई सहानुभूति पैदा नहीं करती। शेक्सपीयर की कीर्ति का भारतीयकरण इस तरह हो सकता है कि ब्राह्मण बाहुल गांव की रक्षा एक वीर दलित करता है, परन्तु असहिष्णु भारतीय समाज इसे स्वीकार नहीं सकता। इसी तरह टोपोल की 'फिडलर ऑन द रूफ' भी ऊंची जाति की बस्ती में दलित की सुंदर बेटियों के लिए अमीरों की बहती लार और लम्पटता पर फिल्म को हम स्वीकार नहीं कर पाएंगे, क्योंकि जातिवाद हमारी नसों में प्रवाहित है।
बहरहाल, अनुराग कश्यप की 'बॉम्बे वेलवेट' के विश्वसनीय सेट्स, वेशभूषा इत्यादि की प्रशंसा नहीं हो पाई, क्योंकि फिल्म किसी दर्शक को बांधती नहीं। जिस फिल्म को देखकर आंखें नम हो जाए या खूब मुस्कुराएं, वो ही फिल्म हमें भाती है और कभी-कभी आंसू के मध्य से देखी मुस्कान भी हमें आती है। परन्तु कोई सनसनी या चकाचौंध से हम प्रभावित नहीं होते। फिल्म के पहले समालोचक मैक्सिम गोर्की का भी यही मत था कि फिल्म को मूवीज इसलिए नहीं कहते कि फिल्म चलती है, वरन् उसके प्रभाव से दिल में भावनाएं हिलोरें लेती हैं।
यह राष्ट्रीय त्रासदी है कि भारत में सिनेमा विधा की कोई भी पाठशाला मातृभाषा में शिक्षा नहीं देती और सारे उदाहरण भी यूरोप के सिनेमा के दिए जाते हैं। 'बॉम्बे वेलवेट' एक निर्जीव फिल्म है, बल्कि यह कैडेवर भी नहीं है कि मेडिकल के छात्रों को इसे चीर-फाड़कर शिक्षा दी जा सके।