देशी भाषाओं का पुनरूज्जीवन / रामचन्द्र शुक्ल
मराठी के प्रसिद्ध पत्र 'केसरी' में आजकल उपर्युक्त शीर्षक की लेखमाला निकल रही है। अब तक जो अंश निकला है उसका सार यह है
पचास वर्ष से देश में अंगरेजी भाषा का प्रचार खूब हो रहा है। मेरी समझ में अंगरेजी की शिक्षा को पूर्णता को पहुँचा कर भारतवासी रुकेंगे और देशी भाषाओं की ओर ध्याअन देंगे। इसके लक्षण दिखाई दे रहे हैं। इधर पाँच वर्ष के बीच में लोगों के विचारों ने खूब पलटा खाया है। विदेशी भावों को देशी रूप में लाने, नवीन कोश आदि बनने की चर्चा इत्यादि चारों ओर सुनाई पड़ने लगी है। देशी भाषाओं में लिखने और व्याख्यान देने की प्रवृत्ति भी बढ़ चली है। सन् 1894 में मि. जस्टिस रानडे ने यूनिवर्सिटी के सामने कहा था कि मराठी का प्रश्न Home rule स्वराज्य के प्रश्न के समान है।
अंगरेजी भाषा के अध्यपयन से देशी भाषा के प्रति अनुराग और ममत्व बढ़ा है। यद्यपि इस कथन में विरोधभास देख पड़ता है पर यह ठीक है। अंगरेजी के प्रचार के कारण देशी भाषाओं पर एक प्रकार का संकट आने के कारण उसकी रक्षा के विषय में अपने लोगों का ध्याणन गया है। पेशवाई के 150 वर्षों में मराठी भाषा की जो उन्नति नहीं हुई थी वह इधर पचास वर्ष के अंगरेजी शासन में हुई है। अंगरेजी भाषा और देशी भाषाएँ साथ-साथ चल सकती हें। यदि एक म्यान में दो तलवारें एक साथ नहीं रह सकतीं तो भिन्न भिन्न अवसरों पर रह सकती हैं। मनुष्य के मन और भाषा का भी यही सम्बन्ध है। एक भाषा का ज्ञान सदैव दूसरी भाषा का सहायक होता है। ऐसी अवस्था में कौन एक भाषा हिन्दुस्तान में जीवित रहेगी यह प्रश्न ही नहीं उठता। समाज को कार्यक्षमता के विचार से अनेक भाषाओं की आवश्यकता हुआ करती है। आजकल ऐसी ही आवश्यकता उपस्थित हुई है। महाराष्ट्र ही को लीजिये। यहाँ आजकल एक क्या चार भाषाओं के सीखने की जरूरत है। मराठी तो जन्म भाषा ही ठहरी। रही संस्कृत, वह मराठी का साथ नहीं छोड़ सकती। दन्तकथा, पूर्व इतिहास, धर्म, आदि सब संस्कृत से लिये हुए हैं।
वर्तमान स्थिति में केवल संस्कृत और मराठी से ही काम नहीं चल सकता क्योंकि समयानुकूल ज्ञान और व्यवहार आदि के लिए अंगरेजी की इतनी आवश्यकता है कि उसके बिना विद्वान से विद्वान पुरुष कुछ भी नहीं कर सकता। अंगरेजी न जाननेवालों की दशा नींद से उठकर सहसा उजाले में आने वाले आदमी के समान है। राजकाज, व्यापार, शिल्प आदि का निर्वाह बिना अंगरेजी जाने नहीं हो सकता। जो जगत् के भिन्न-भिन्न देशों में उत्पन्न उत्कृष्ट ज्ञान का सम्पादन करना चाहते हैं उनके लिए अंगरेजी को छोड़ और कोई गति नहीं। अगर आज पेशवाओं का समय होता तब भी राज्यप्रबन्ध आदि की उन्नति के लिए अंगरेजी सीखनी ही पड़ती। चीन और जापान का उदाहरण प्रत्यक्ष है।
लेकिन केवल मराठी, संस्कृत और अंगरेजी ही से महाराष्ट्रों का काम नहीं चल सकता। देश में एकता का विचार फैल रहा है। परस्पर के आचार-विचार को समझने की आकांक्षा उत्पन्न हो रही है। इसके लिए एक देशी व्यापक भाषा की आवश्यकता होगी। यह भाषा कौन होगी इसमें विवाद है। सर गुरुदास बैनर्जी की राष्ट्रीय शिक्षण नामक पुस्तक के अनुसार प्रत्येक प्रान्त में दो-दो देशी भाषाएँ रहेंगी। बंगाल में बंगला और हिन्दुस्तानी, संयुक्त प्रान्त और पंजाब में हिन्दी और उर्दू, बम्बई में मराठी और गुजराती, मद्रास में तामिल और तैलंगी यही दो मुख्य भाषाएँ रहेंगी।
वर्तमान समय में हिन्दी का प्रचार सबसे अधिक है। पर उसमें वाङ्मय (साहित्य) की कमी है। बंगला के बोलने वाले केवल चार करोड़ हैं। परन्तु साहित्य की दृष्टि से यह अग्रस्थानीय है, मराठी पुस्तकों से बंगला में जितने भाषान्तर होते हैं उनकी अपेक्षा बंगला पुस्तकों के मराठी अनुवाद कहीं अधिक होते हैं। गुजराती भाषा व्यापार धान्धो के लिए अधिक उपयोगी है। इस प्रकार किसी में कुछ और किसी में कुछ गुण होने से देशी भाषाओं में एक प्रकार की बाज़ी सी लगी हुई है। इस बाज़ी को कौन ले जायगा यह प्रश्न मनोरंजक तो है पर हम लोगों के लिए गौण है। यह निश्चय है कि उपर्युक्त चार भाषाएँ प्रत्येक सुशिक्षित मनुष्य के सामने आवेगी। सारांश यह कि चाहे अंगरेजी को कितना ही राजकीय महत्तव प्राप्त हो पर वह राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, अप्रैल, 1911 ई.)