देशी भाषा की दशा / रामचन्द्र शुक्ल

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मैं उन लोगों में से हूँ जिन्हें देशी भाषाओं को शिक्षा का कार्य बनाने के दावे पर प्रश्न खड़ा करने का कोई कारण नहीं दिखाई देता। इसके विपरीत मैं तो उन भाषाओं को एकमात्र ऐसा भंडार मानता हूँ जिसमें भावी पीढ़ियों के उपयोग के लिए हम विश्वासपूर्वक अपनी अपेक्षाएँ संचित कर सकते हैं। इसके व्यावहारिक परिणाम के रूप में हिन्दी की स्थिति ने कुछ समय पूर्व से मेरा ध्याभन आकृष्ट किया है। लेकिन, जिस विश्वास ने अब तक मेरा धीरज बनाए रखा, वह अटूटने लगा है। आसपास की परिस्थितियाँ व्यापक रूप से इस निष्कर्ष का आधार प्रस्तुत करती हैं कि किसी भी वांछित परिणाम की प्राप्ति के लिए 'न के बराबर' प्रयास किया जा रहा है।

हो सकता है कि इस अन्तिम कथन को सीधे-सीधे निराशावादी दृष्टिकोण के रूप में अथवा हिन्दी के विकास से सम्बन्धित व्यक्तियों को अपमानित करने की चतुर युक्ति के रूप में लिया जाय। लेकिन सूक्ष्मतापूर्वक परखने पर यह धारणा समाप्त हो जाएगी और वास्तविक स्थिति सामने आ जाएगी। इस तथ्य से कुछ ही लोग असहमत होंगे कि भारत की सभी देशी भाषाओं में हिन्दी सर्वाधिक महत्तवपूर्ण है। यह भारतीय जनसंख्या के अत्यन्त सभ्य हिस्से की भाषा है। यदि ऐसा है तो फिर इसके साहित्य की दरिद्रता को कैसे स्पष्ट किया जाय? इस प्रश्न के सन्तोषजनक उत्तर का सूत्र पाने से पहले वर्तमान हिन्दी लेखकों की सामर्थ्य पर एक उड़ती नजर अवश्य डाल लेनी चाहिए।

जहाँ तक साप्ताहिक पत्रों के सम्पादकों की बात है तो सामान्यत: वे ऐसे लोग हैं जिन्होंने नाममात्र की शिक्षा प्राप्त की है या औपचारिक शिक्षा नहीं प्राप्त की है। यही कारण है कि कभी-कभी वे ऐसे विषयों पर पूरी तत्परता (?) और उत्साह से टिप्पणी करते पाए जाते हैं जो शायद ही किसी विवेकशील व्यक्ति के लिए ध्यानन देने योग्य हों या जनता की भलाई से उनका कोई अप्रत्यक्ष सम्बन्ध भी हो। उनके सारहीन कथन या टीका-टिप्पण्श्नियाँ सार्वजनिक भावों की अपेक्षा अधिकतर व्यक्तिगत विचारों से प्रभावित रहती हैं। जब वे किसी उपयोगी उद्यम के विषय में सुनते हैं तो जोर-शोर से उसकी प्रतिकूल आलोचना प्रारम्भ कर देते हैं और सफलता की सम्भावनाओं पर पानी फेर देते हैं। नागरीप्रचारिणी सभा, बनारस द्वारा श्रीदत्ता के इतिहास के अनुवाद के प्रस्तावित प्रकाशन के विरोध में इनके द्वारा मचाए गए हो-हल्ले को इसके अनोखे दृष्टान्त के रूप में लक्ष्य किया जा सकता है। एक बार तो किसी धर्मग्रन्थ की प्रति पुस्तकालय में रखने की अनुमति देने पर भी सभा को इनमें से एक पत्र की नाराजगी झेलनी पड़ी थी। इसके बाद भी सभा पर लगातार अपधर्म के आरोप लगाए गए। मैं समझता हूँ कि उपर्युक्त तथ्य इनके दृष्टिकोण और सही निर्णय करने की इनकी योग्यता का परिचय देने के लिए पर्याप्त हैं।

एक वर्ग धूर्तों का है। यह वर्ग अन्य देशी भाषाओं बंगला, उर्दू, मराठी आदि से पुस्तकों विशेषकर उपन्यासों क़ा अनुवाद करता है और उन्हें निर्लज्जतापूर्वक अपनी रचना घोषित करने की सीमा तक असाधारण छल करता है। ऐसे लोग मूल लेखकों के नामों को दबा देने के लिए लगातार उन उद्धारणों को लुप्त कर देते हैं जिनके अर्थ ग्रहण में वे असमर्थ रहते हैं। इस क्रम में वे दुर्बोधा शब्दों को दूसरे शब्दों से बदल भी देते हैं। इन्हीं पत्रिकाओं में से एक में लगभग साल भर पूर्व एक बंगाली महिला का इससे सम्बन्धित लेख छपा था। हालाँकि यह लेख उनकी नजरों में सही था, पर इसने चारों ओर से निन्दा और उपहास ही झेले। यह भी उल्लेखनीय है कि वस्तुत: यह लेख बंगला रचनाओं और उनसे मिलती-जुलती हिन्दी रचनाओं की सूची-मात्र था। उपर्युक्त लेख तो केवल बंगला की ही रचनाओं तक सीमित था। ऐसे लोगों के हाथों से उर्दू की रचनाएँ भी नहीं बच पाई हैं। इसे निम्नलिखित उर्दू पुस्तकों और (उनसे उड़ाई गई सामग्री से तैयार की गई) हिन्दी पुस्तकों द्वारा समझा जा सकता है। उर्दू रचनाएँ जिन शीर्षकों से हिन्दी में प्रस्तुत हुईं, वे इस प्रकार हैं

मेहरम वासी पूना में हलचल

मुज़ाहरा रमाबाई क़ुँवर सिंह सेनापति

शादी का गम वीर जयमल

उरोज वा जवाल वीर पत्नी

सलीम वा नूरजहाँ नूरजहाँ

बंगला से अनूदित दो अन्य पुस्तकों पर उपर्युक्त लेख में ध्यादन नहीं दिया गया है

बंगला हिन्दी

हम्मीर हम्मीर

चित्रांगदा चित्रांगदा

(रवीन्द्र नाथ टैगोर)

एक दूसरा वर्ग है जो अपने दिखावे में इससे भी दो कदम आगे है। इसमें ऐसे लोग हैं जिनकी शिक्षा असमय ही छूट गई और उसके व्यवस्थित विकास के लिए उन्होंने कभी कोई सच्चा प्रयत्न नहीं किया। उनके द्वारा इस शिक्षा का उपयोग अपने आस-पास के अल्पज्ञ पाठकों पर धाक जमाने के लिए और उन्हें भौंचक्का कर देने के उपकरण के रूप में किया जाता है। वे बड़े यत्न से वैज्ञानिक बहसों में भाग लेते हैं और इस तरह अपनी अयोग्यता ही प्रकट करते हैं। यदि ऐसे बहुमुखी ज्ञानदम्भी व्यक्ति स्वयं को श्रम और अध्य्यन में लगाएँ तो ये कुछ काम के हो भी सकते हैं। लेकिन उनके वर्तमान रवैये को देखकर ऐसी आशा शायद ही की जा सकती है। एक ही व्यक्ति कभी-कभी कवि या उपन्यासकार के रूप में दिखाई देता है और कुछ ही आगे चलकर वह पुरावेत्ता या भाषाशास्त्री के रूप में दिखाई पड़ने लगता है। पुरावेत्ता या भाषाशास्त्री की हैसियत से उसे अनुचित (रूप से) श्रेष्ठता अर्जित करने का और भी अच्छा अवसर मिलता है। परिश्रमी योरपीय प्राच्यविदों द्वारा संगृहीत सामग्रियों का ढेर पाकर वह समय-समय पर उनमें से किसी एकज़ानकारी का ऐसा भाग, जो उसकी तुच्छ बुद्धि में समा सकता है क़ो उड़ा लेने के लिए सदा तत्पर रहता है। शेष को वह अन्य अवसरों की सेंधमारी के लिए रख छोड़ता है।

(उनके लेखन में) कभी आप स्वतन्त्र प्रत्यय पर टिप्पणी पाएँगे, तो कभी तुलनात्मक व्याकरण पर; ये सभी उसी समृद्ध स्रोत से उड़ाए गए हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्हें इसमें बड़ी सुविधा रहती है। ऐसी पुस्तकों को समझने के लिए अधिक विद्वता की आवश्यकता नहीं होती जो यह बताती है कि वहाँ पड़ा स्तम्भ या अभिलेख फलाँ-फलाँ तथ्यों का साक्ष्य देता है। जरा देखिए कि किस मामूली कीमत पर ये विद्वानों की-सी ख्याति मोल ले लेते हैं! परिणाम यह है कि अध्य यन की उच्चतर शाखाओं मानसिक और नैतिक दर्शनशास्त्र, राजनीतिक अर्थशास्त्र, भौतिकी आदि की उन्नति बाधित होती है; क्योंकि यह बिलकुल स्वाभाविक है कि ऐसी योग्यता वाले व्यक्ति प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिए आसान और सुरक्षित रास्ता अपनाएँगे।

विद्वानों के निश्चयात्मक कथनों के भाव या अभिप्राय, निगमनों की सूक्ष्मता और उनके निरूपण की प्रक्रिया को समझने में असमर्थ होते हुए भी वे उनके शोध के परिणामों को आभार व्यक्त किए बिना ही उड़ा ले जाते हैं। एक-दूसरा भारी दोष यह है कि प्राचीन महत्तव के विषय के साथ वे लापरवाही से पेश आते हैं अपनी पहुँच और समझ के भीतर का एक पत्र जुटाकर वे उतावले ढंग से उसका अनुवाद करने लगते हैं। ध्वं स की उत्कण्ठा में वे यह भूल जाते हैं कि उसकी विषयवस्तु को समझने के लिए गहन अध्य यन की आवश्यकता होती है। प्राचीन महत्तव के विषयों पर समय-समय पर प्रकाशित कई तरह की पुस्तिकाएँ इस बात की उदाहरण हैं। इतिहास के देशी या विदेशी प्राचीन भंडार ने विद्वानों की एक पूरी पीढ़ी को उनके काम की सामग्री उपलब्ध कराई है। अत: बुद्धिसम्मत पद्धाति यह होगी कि पहले इस भंडार को सुलभ किया जाए, ताकि अवसर आने पर दूसरों द्वारा अनुमान प्रस्तुत करने से पूर्व ही उस दिशा में बढ़त बनाई जा सके। इस रीति के अनुसार किए गए सर्वाधिक प्रशंसनीय प्रयासों में से नागरीप्रचारिणी सभा के योग्य एवं विद्वान सचिव बाबू श्यामसुन्दर दास के प्रयास सर्वश्रेष्ठ हैं।

कहने का आशय यह नहीं है कि विषय (पुरा विषय) को पूरी तरह से बचाकर अलग रखा जाए, बल्कि समर्थ व्यक्तियों द्वारा ही इसमें हाथ लगाया जाना चाहिए। ऐसे व्यक्ति, जिन्होंने इसे अपनी दृष्टि का विशेष लक्ष्य बनाने के लिए समय तथा श्रम लगाया हो; जो यूनान, रोम, फारस, मिश्र और प्राचीन महत्तव के अन्य देशों के इतिहास पर समान रूप से अधिकार रखते हों; जिनके द्वारा अपने पूर्ववत्तियों की उपलब्धियों को आगे बढ़ाने की आशा की जा सकती हो और जो अपने व्यक्तिगत उद्योगों द्वारा अपने देश के इतिहास के चन्द धाुँधाले पन्नों पर रोशनी डाल सकते होंवे ही इसमें हाथ लगाएँ। वे छात्रा जो अपने एम. ए. के पाठयक्रम में इतिहास विषय लेते हैं, यदि उस भाषा में प्रवीणता अर्जित कर लेते हैं जो निश्चय ही उनकी अपनी भाषा है तथा छात्रा जीवन के समाप्त होने पर अपने अध्य यन को तिलांजलि नहीं दे देते तो वे उपयुक्त लेखक सिद्ध हो सकते हैं। सच तो यह है कि जिन्हें नियमित शिक्षा की बहुत हद तक सुविधा मिली है उन्हें स्वयं द्वारा अर्जित उस वृहदांश का अपना ही शिक्षक भी बनना चाहिए। तभी वे शिक्षा के प्राथमिक तत्तवों से आगे बढ़ पाएँगे। स्कूल या कालेज में वे जो कुछ सीखते हैं उसका महत्तव तब तक नगण्य रहता है जब तक वे आगे के स्वाध्याय से उन्हें विकसित नहीं कर लेते।

अब मैं लेखकों के एक और समूह पर आता हूँ। इसमें कविता, कहानी और निबन्धों के लेखकों के साथ-साथ साहित्य से जुड़े व्यक्त् िभी हैं। मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि उनके विरुद्ध कहने के लिए मेरे पास ज्यादा कुछ नहीं है। इस वर्ग के सदस्य अपने क्षेत्र मंर अधिक निपुण हैं और इसलिए उनके कार्यों की पहचान सिद्धन्तों की दृढ़ता तथा व्यवस्थित पद्धाति के कारण है। इसके उपरान्त भी मुझे कुछ टिप्पणी करनी है जो उन्हें अधिक खुश करने वाली नहीं हो सकती है। उनकी रचनाओं में जो एक बड़ा दोष पाया जाता है वह यह है कि उनमें शैलियों की विविधता होती है। शैलियों की अत्यधिक भिन्नता से यह सन्देह उत्पन्न हो सकता है कि क्या वे सम्मिलित रूप से एक ही और समरूप भाषा निर्मित करती हैं? लेखकों द्वारा प्रयुक्त बहुत से संस्कृत या फारसी शब्दों के कारण ये भिन्नताएँ उत्पन्न होती हैं। कुछ ऐसे (लेखक) मिल सकते हैं जो संस्कृत की सम्पूर्ण शब्दावली को अपने लिए सुलभ मानते हैं और संस्कृत के सर्वनामों तक के निर्बाध प्रयोग से नहीं हिचकते। अपने पांडित्य-प्रदर्शन के प्रयास में कभी-कभी वे इतना आगे बढ़ जाते हैं कि प्रचलित संस्कृत शब्दों का प्रयोग न करके, उनके कम प्रचलित पर्यायों का सहारा लेने लगते हैं। संस्कृत के लम्बे सामासिक पदों और अपरिचित फारसी शब्दोंज़ो प्रभाव की सृष्टि करने के लिए कभी कभार साथ-साथ सजा दिए जाते हैंक़ा प्रयोग इसी प्रवृत्ति का दूसरा चरण है। हाल ही में प्रकाशित 'अधाखिला फूल' नामक एक ही पुस्तक में आप व्यापक रूप से भिन्न तीन शैलियाँ पाकर अचम्भे में पड़ जाएँगेसमर्पण में प्रयुक्त पहली शैली अत्यन्त असभ्य किस्म की है, भूमिका में प्रयुक्त दूसरी शैली व्यवहार में स्थापित शैली है और तीसरी पुस्तक की खुद अपनी शैली है जो किसी जटिल विचार के वहन में शायद ही सक्षम हो। दूसरी ओर बनारस के पेशेवर कहानी-लेखक हैं। इनमें से अधिकांश निर्लज्ज अनुवादकों से सम्बन्धित पूर्वप्रचलित टिप्पणियाँ लागू होती हैं। जनता की रुचि भ्रष्ट करने के साथ-साथ ये आर्थिक लाभ के लिए अपनी भाषा की शुद्धता की बलि चढ़ाने के लिए भी सदैव तत्पर रहते हैं। मुझे आशा है कि ये लोग लम्बे समय तक बाधाक तत्तव बने नहीं रह पाएँगे।

विचित्र तो यह है कि कविता भाषा के दो भिन्न रूपोंख़ड़ी बोली और ब्रजभाषा में दिखाई देती है। नागरीप्रचारिणी सभा की एक बैठक में यह प्रश्न उठाया गया कि प्रौढ़ रचनाओं के लिए इन दोनों रूपों में से किसे ग्रहण किया जाए। थोड़े विचार-विमर्श के उपरान्त अनिच्छापूर्वक यह निर्णय लिया गया कि कविता इन दोनों रूपों में लिखी जा सकती है। इन परिस्थितियों में अपनाए जाने योग्य यह सबसे कम निराशाजनक योजना थी। साहित्य की इस विधा के कुंठित विकास का कारण बहुत हद तक इस कार्य के प्रति रुचि का अभाव होना भी है। यह दुखद सत्य है कि इस पर ध्या न रखने वाले ढेर सारे विद्वानों और कुशल व्यक्तियों के रहने के बाद भी उनके द्वारा अब तक कोई ठोस रचना प्रस्तुत नहीं की गई है। साहित्यिक, राजनीतिक, सामाजिक और दार्शनिक निबन्धों के समर्थ लेखकों की आवश्यकता भी बनी हुई है।

अन्तत:, मैं अपने शिक्षित भाइयों का ध्या न उनकी भाषा की शोचनीय दशा की ओर आकर्षित करता हूँ। मुझे उस समय की व्याकुलता से प्रतीक्षा है जब वे मंच पर उपस्थित होंगे और दुनिया को यह दिखा देंगे कि उनके पास भी, उनकी अपनी, एक ऐसी भाषा है जो विचारों की हर प्रणाली के सम्प्रेक्षण के लिए पूर्णत: उपयुक्त है। प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिए अपनी देशी भाषा के साहित्य को समृद्ध करने से अधिक विश्वसनीय कोई अन्य साधान नहीं है। श्री रमेशचन्द्र दत्ता जैसे श्रेष्ठ व्यक्ति ने अपनी देशी भाषा के साहित्यिक कार्य में ढेर सारा मूल्यवान समय लगाया है। हमें मिल्टन की इस उक्ति के मर्म पहुँचने की जरूरत हैएथेंस, रोम या आधुनिक इटली तथा प्राचीन यहूदियों की महानतम और श्रेष्ठतम प्रतिभाओं ने अपने देश के लिए जो किया उसे अपनी शक्ति-भर मैं भी, एक ईसाई होने के अलावा, अपने देश के लिए कर सकता हूँ। कभी विदेशों में ख्याति अर्जित करने की परवाह किए बिना, हालाँकि शायद मैं ऐसा कर सकता हूँ, मैं अपने संसार के रूप में इन ब्रिटिश द्वीपों के साथ सन्तुष्ट हूँ।

क्या हमें अपने पाठकों को यह स्मरण कराने की आवश्यकता है कि आगे चलकर उसका संसार आबाद भूमंडल के चौथाई भाग पर विस्तृत हो गया और उसकी ख्याति भारत तथा बर्मा जैसे दूरस्थ देशों तक पहुँची? यदि मिल्टन अपने 'ब्रिटिश द्वीप' से सन्तुष्ट था तो मुझे कोई कारण नहीं दिखता कि फिलहाल हमें संयुक्त प्रान्त, पंजाब, मध्यद प्रान्त, बिहार और राजपूताना जैसे कहीं अधिक विस्तृत क्षेत्र से सन्तुष्ट क्यों नहीं होना चाहिए।

(द इंडियन पीपुल, 6 जुलाई, 1905)

अनुवादकअलोक कुमार सिंह

('द इंडियन पीपुल' नामक पत्र में प्रकाशित आचार्य शुक्ल के इस लेख पर व्यापक प्रतिक्रिया हुई थी। इसके पक्ष-विपक्ष में अनेक लोगों ने लिखा था। ऐसे ही लोगों में एक थेबी. डी. मलावी। इन्होंने 'द इंडियन पीपुल' में ही 'हिन्दी साहित्य' नामक पत्र लिखकर अपना विरोध दर्ज कराया था। बी. डी. मलावी का पत्र आगे अविकल दिया जा रहा है। पुन: आचार्य शुक्ल ने मलावी के पत्र का प्रत्युत्तार 'हिन्दी साहित्य' पर टिप्पणी शीर्षक लेख से दिया था। यह लेख भी आगे अविकल दिया गया हैसम्पादक)


हिन्दी साहित्य

महाशय,

आपके समाचार-पत्र में पिछली 6 जुलाई को तथा 'एडवोकेट' में 30 जुलाई को प्रकाशित देशीभाषा हिन्दी की दशा का मिथ्यानिरूपण करने वाले पत्र ने हिन्दी भाषा के बहुत-से लेखकों और प्रेमियों को पीड़ा पहुँचाई है। ऐसा अशोभनीय और विवेकहीन पत्र श्री शुक्ल जैसे शालीन सज्जन की कलम से आएगा, यह मेरे लिए महान आश्चर्य और दु:ख का विषय है। वह भी विशेषकर तब, जब मुझे बताया गया कि ये सज्जन स्वयं को हिन्दी का हितैषी मानते हैं।

किसी को भी इस सच्चाई से इनकार नहीं है कि स्वर्गीय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के काल से ही हिन्दी साहित्य निरन्तर उन्नति करता रहा है और वर्तमान परिस्थितियाँ इसके उज्ज्वल भविष्य की पुष्टि करती हैं। पर मुझे यह कहते हुए काफी दु:ख है कि 'कारण धीरे होत है......' वाली कहावत को भूलकर श्री शुक्ल ने अपना धैर्य खो दिया। तर्क की विचित्र पद्धाति से वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हिन्दी शोचनीय अवस्था में पहुँचा दी गई है और इसके कारण हैं हिन्दी साप्ताहिकों के सम्पादक स्नातक नहीं हैं; बंगला एवं उर्दू उपन्यासों के कुछ अनुवादकों ने उनके मूल लेखकों का नामोल्लेख जान-बूझकर नहीं किया; हिन्दी के कुछ सर्वमान्य श्रेष्ठ विद्वानों ने भाषाशास्त्र, तुलनात्मक व्याकरण और पुरातत्व पर ऐसी पुस्तिकाएँ प्रकाशित करवाईं जो शिक्षित वर्ग के लिए तो बोधगम्य थीं किन्तु जनता के एक बड़े समूह के लिए अबोधगम्य थीं; पत्रिकाओं के कुछ सम्पादकों को फारसी शब्दों के आगे-पीछे संस्कृत शब्द सजाने की आदत पड़ी है और अन्तत:; 'अधखिला फूल' के प्रसिद्ध लेखक ने भूमिका में कठिन हिन्दी और पुस्तक के मुख्य भाग में सरल हिन्दी लिखने की धृष्ट ता की।

श्री शुक्ल के कथनानुसार, मैं उनके निश्चयात्मक कथनों के अभिप्राय, निगमनों की सूक्ष्मता और उनके निरूपण की प्रक्रिया को समझने में असमर्थ हूँ। लेकिन उनके तर्कों की धार को न समझ पाते हुए भी मैं उन दोषों पर संक्षिप्त चर्चा करने का प्रयास करूँगा, जिन्होंने मेरे विद्वान मित्र की दृष्टि में हिन्दी की दशा को शोचनीय और शायद हेय भी बना दिया है।

अपने पत्र के तीसरे अनुच्छेद में श्री शुक्ल ने हिन्दी साप्ताहिकों के सम्पादकों को अपनेर् कर्तव्यन के निर्वाह में अक्षम घोषित किया है, क्योंकि वे अल्पशिक्षित हैं और उनमें से कइयों के पास श्री दत्ता की 'हिस्ट्री ऑफ इंडिया' के हिन्दी अनुवाद को समझ पाने की बुद्धि नहीं थी। यदि शिक्षा शब्द अंग्रेजी की शिक्षा तक ही सीमित नहीं है तो मेरी समझ से श्री शुक्ल ने सभी सम्पादकों के चरित्र और उपलब्धियों पर लांछन लगाकर सही नहीं किया है। मेरे मित्र यह याद रखें कि ये सम्पादक हिन्दू समुदाय के रूढ़िवादी हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं और इस रूप में उन्होंने अवश्य यह सोचा होगा कि ऐसी क्रान्तिकारी पुस्तक के प्रकाशन का विरोध करना उनका कर्तव्ये है। इसके अतिरिक्त, इस प्रकार की बहसें साहित्य के उद्देश्य के लिए क्षतिकारक होने की बजाय अन्तत: प्राय: लाभप्रद सिद्ध होती हैं। इसलिए सदा इनका विरोध ही नहीं किया जाना चाहिए।

अपने पत्र के चौथे, पाँचवें और छठे अनुच्छेद में पंडित ने एक बंगाली महिला का हवाला दिया है जिन्होंने किसी उपन्यासकार के भ्रष्ट आचरण को उद्धाटित करने का वीरांगना-सम स्तुत्य साहस दिखाया था और पंडित के ही शब्दों में चारों ओर से निन्दा और उपहास झेला' था। मुझे ज्ञात हुआ है कि उनका लेख उतना आकर्षक सिद्ध नहीं हुआ और उसने मात्र एक हिन्दी साप्ताहिक का ध्या न आकृष्ट किया था। इसके उपरान्त भी महिला के साथ मेरी पूरी सहानुभूति है और उनके प्रति अनुदार आचरण के जिम्मेदार सम्पादकों की मैं घोर निन्दा करता हूँ। यद्यपि मैं उन पथभ्रष्ट सम्पादकों के साथ नहीं हूँ, फिर भी मैं यह समझने में असमर्थ हूँ कि बंगला और उर्दू उपन्यासों के बिना ये आभार व्यक्त किए गए हिन्दी अनुवाद हिन्दी साहित्य के हितों को कैसे पहुँचाएँगे। क्या इन्होंने पठनीय हिन्दी पुस्तकों के भंडार में योग नहीं किया है और चारों ओर का उपहास झेलने की बजाय उपन्यास के पाठकों द्वारा क्या ये सराहे नहीं गए हैं? इस परिस्थिति में मेरा तो यह मानना है कि इन अनुवादों ने हिन्दी की गति को बाधित करने की जगह इसे एक सराहनीय सीमा तक आगे बढ़ाया है।

अपने पत्र के सातवें, आठवें और नौवें अनुच्छेद में पंडित ने भाषाशास्त्र, पुरातत्व आदि पर पुस्तिकाएँ प्रकाशित करने का साहस करने वाले व्यक्तियों पर अनुचित प्रहार किया है। मेरे विद्वान मित्र बाबू श्यामसुन्दरदास जैसे लब्धाप्रतिष्ठ स्नातकों को ही इन पवित्र विषयों पर विचार करने में समर्थ मानते हैं। यदि कोई अन्य स्नातक, भले ही वह कितना ही अध्य यनशील और विद्वान क्यों न हो, इन विषयों में हाथ डालने को होगा तो उसे एक अपात्र अछूत की तरह झिड़क दिया जाएगा। उसका कार्य भले ही प्रशंसनीय हो, परन्तु अपवित्र घोषित कर दिया जाएगा। लेकिन श्री शुक्ल एकमात्र इस आधार पर ही 'ऐसी वैज्ञानिक बहसों' से घृणा नहीं करते। पहले तो वे उनके प्रकाशन की निन्दा करते हैं क्योंकि वे अल्पज्ञ पाठकों को भौचक्क कर देने के लिए थे; दूसरे, वे योरपीय प्राच्यविदों की पुस्तकों के अनुवाद-मात्र थे; तीसरे, उनका लेखन प्रतिष्ठा अर्जित करने का आसान तरीका होने के कारण् सामान्य बुद्धि के लोगों को उच्चतर अध्य यन जारी न रखने का परामर्श देता है और चौथे कि इन पुस्तिकाओं की विषयवस्तु को समझने के लिए इसके पाठकों को व्यापक अध्यरयन की आवश्यकता होती है।

मैं इन आपत्तियों का यह जवाब देना चाहता हूँ कि इनमें से किसी भी पुस्तिका को पढ़कर यदि स्वयं पंडित कभी भौचक्क रह गए हों तो इन सबका तुरन्त बहिष्कार कर दिया जाए। लेकिन यदि वे प्रारम्भिक ग्रन्थों का अध्यायन करने के कष्ट से गुजरे बिना ही इन पुस्तिकाओं की विषयवस्तु और लाभ को समझने में सक्षम रहे हों तो भले ही ये अनुवाद-मात्र हों, परन्तु मैं आशा करता हूँ कि वे (शुक्ल) हिन्दी की प्रगति में पूरक होने के इनके महत्तव को स्वीकार करेंगे और इनकी प्रतिकूल आलोचना से बाज आएँगे। तीसरी आपत्ति ऐसी बेतुकी है कि अपना खंडन आप ही कर देती है। इस परिस्थिति में कोई भी सन्तुलित व्यक्ति क्या यह कह सकता है कि ऐसी पुस्तिकाओं का प्रकाशन हिन्दी की उन्नति के लिए किसी भी प्रकार से हानिकारक है?

दसवें अनुच्छेद में पंडित कविता, कहानी, निबन्ध तथा उपन्यास लिखने वाले पंडितों को प्रवचन देते हैं। वैसे उनकी कटु निन्दा मुख्यत: शैली की विविधता पर केन्द्रित थी। चूँकि शैली की समस्या अभी तक वर्तमान है, इसलिए श्री शुक्ल का आक्षेप अप्रौढ़ है। 'अधाखिला फूल' एक उत्कृष्ट उपदेशात्मक उपन्यास है और यह ऐसी शैली का नमूना प्रस्तुत करता है जो भारत के एक बड़े जनसमूह के लिए उपयुक्त है। लेकिन श्री शुक्ल के विचार से इस तरह की शैली जटिल विचारों के वहन में असमर्थ है। मैं उन्हें चुनौती देता हूँ कि वे अपनी टिप्पणी की सत्यता को उदाहरणों द्वारा सिद्ध करें। पंडित ने समर्पण की शैली को असभ्य कहना पसन्द किया है क्योंकि वह अत्यधिक संस्कृतिनिष्ठ थी। यदि संस्कृतभाषी व्यक्ति असभ्य थे तब तो इस शैली को उचित ही असभ्य कहा जाना चाहिए, लेकिन यदि वे एक सभ्य जाति के सदस्य थे तो श्री शुक्ल की भ्रामक और वितंडावादी आलोचना की निन्दा होनी चाहिए।

मलावी

(द इंडियन पीपुल, 10 सितम्बर, 1905)

अनुवादकअलोक कुमार सिंह