देश-विदेश से नए किस्म के आक्रमण / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :13 जून 2016
कुछ वर्ष पूर्व सुभाष घई और करण जौहर जैसे फिल्मकारों की सोच थी कि केवल भारत के महानगर और स्वयं को महानगर कहने की शीघ्रता में लिप्त कुछ शहरों के दर्शकों के लिए तथा विदेश क्षेत्र की रुचियों की ही फिल्में बनानी चाहिए गोयाकि बिहार, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के दर्शक फिल्में नहीं भी देखें तो व्यवसाय पर कोई फर्क नहीं पड़ता। इस तरह के विचार से फिल्म उद्योग को बहुत हानि हुई। भारत का फिल्म प्रदर्शन व्यवसाय पांच क्षेत्रों में बंटा रहा है। मसलन, मध्यप्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों को मिलाकर बनी इकाई को सेंट्रल इंडिया कहते हैं। दिल्ली और पूरे उत्तरप्रदेश को उत्तर क्षेत्र कहा जाता है।
गुजरात, सौराष्ट्र और कर्नाटक के कुछ हिस्से और मंुबई को पश्चिम क्षेत्र कहते हैं। एक दौर में विदेश क्षेत्र का व्यवसाय बढ़ने लगा, क्योंकि भारत के बहुत से लोग विदेशों में बस गए थे और उनके लिए भारतीय फिल्में देखना वतन को याद करने की तरह था। कुछ वर्ष पूर्व तक मोटा अनुमान यह था कि भारत के 1.40 करोड़ लोग विदेशों में बसे हैं। अब इनकी संख्या बढ़ चुकी होगी। इन अप्रवासी भारतीयों के साथ ही पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका के विदेश में बसे लोग भी हिंदुस्तानी फिल्में देखते हैं। अत: इस समूह की संख्या लगभग दो करोड़ तक जा पहुंचती है। इन दो करोड़ दर्शकों की खातिर हिंदुस्तान में रहने वाले लगभग सवा सौ करोड़ लोगों की रुचियों को जान-बूझकर हाशिये में डाल दिया गया। इस दर्शक वर्ग की रुचियों के अनुमान के आधार पर फिल्में गढ़ी गईं और आज भी कुछ फिल्मकार इन दो करोड़ लोगों को बहुत महत्वूपूर्ण मानते हैं। इसी कारण फिल्मी मसाले में उन तत्वों का समावेश किया गया, जिन्हें ये दो करोड़ लोग पसंद करते हैं। उस दौर में 'डॉलर सिनेमा' का उदय हुआ।
विदेश में बसे भारत के लोगों की रुचियों को हम भारत के नवधनाढ्य वर्ग की रुचियों की तरह मान सकते हैं। इस तरह के लोग अपनी जड़ों से दूर चले जाते हैं और पाश्चात्य समाज की आधुनिकता के सैटेलाइट को पकड़ना चाहते हैं। कमजोर पंखों के कारण यह संभव नहीं हो पाता और यह वर्ग अपने जन्म स्थान के जीवन मूल्यों को ग्रहण करने में हिचकिचाता है। इस दुविधाग्रस्त वर्ग की रुचियों के आकलन और फिल्मों मंें समावेश के कारण ही कुछ फिल्मकार अजीबोगरीब फिल्में बनाने में लगे। आज भी इस तरह की सोच कुछ फिल्मकारों की है। विदेश क्षेत्र में फिल्म प्रदर्शन से आय बढ़ती रही है।
कुछ समय पूर्व ही इन अप्रवासी भारतीय लोगों ने भारत के चुनाव परिणाम को भी प्रभावित करना प्रारंभ किया। उन्होंने चुनाव में चंदा दिया। वर्तमान सरकार के चुने जाने और नीतियों पर भी अप्रवासी भारतीय वर्ग का असर देखा जा सकता है। इस वर्ग की महत्वाकांक्षाएं खूब बढ़ चुकी हैं और वे भारत में जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित करना चाहते हैं। इसके साथ ही भारत में उन वधुओं को भी तैयार किया गया, जो अप्रवासी भारतीय लोगों से विवाह कर सकें। यह एक अलग किस्म का आतंकवाद है और इसके आक्रमण फिल्म, फैशन इत्यादि क्षेत्रों में होते रहे हैं। इसके परिणाम स्वरूप ही शिक्षा संस्थाओं ने भी कुछ विशेष किस्म के पाठ्यक्रम गढ़े हैं। भारत पर अनेक किस्म के विदेशी आक्रमण हुए हैं परंतु भारत की आंतरिक बुनावट पर इनका कोई विशेष असर कभी नहीं पड़ा, लेकिन इस बार हमारे अपने लोग विदेशों में बसकर नए किस्म का सांस्कृतिक आक्रमण भारत पर कर रहे हैं और इन्हें आप आतंकवादी भी नहीं कह सकते ये तो हमारे अपने लोग हैं, जो बेहतर अवसर की तलाश में विदेश जा बसे हैं। इन लोगों के भारत प्रेम पर भी कोई संदेह नहीं है।
इसका एक पक्ष यह भी है कि अमेरिका की सीनेट में भारतीय मूल के लोग पहुंच चुके हैं। इंग्लैंड की संसद में भी अप्रवासी भारतीय लोग चुने जा चुके हैं और आने वाले समय में किसी इसी तरह के व्यक्ति का विदेश के महत्वपूर्ण या शिखर पद पर भी पहुंचना संभव है गोयाकि सदियों तक आक्रमण झेलने वाला देश अब अलग किस्म का आक्रमण विदेशों पर कर रहा है। अाप इसे गांधीजी का अहिंसावादी तरीका भी कह सकते हैं। एक तरफ हमारी भीतरी सांस्कृतिक बुनावट में चिंतनीय परिवर्तन ये लोग ला रहे हैं, तो साथ में उन देशों की राजनीति का भी भारतीयकरण संभव हो सकता है।
इस पूरे खेल में छिपे खतरे आज साफ नहीं दिखाई दे रहे हैं। अभी तो सर्वत्र तालियां ही गूँज रही हैं और अब तो एक घंटे में कितनी बार तालियां पड़ी इसका विशद वर्णन भी उपलब्ध है परंतु तालियों की चादर के नीचे छिपी अाहें अभी हम सुन नहीं पा रहे हैं। विश्व अब अलग किस्म का कुटुंब बन सकता है।