देश की धरती में पुरस्कार भी उगते हैं / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :07 मार्च 2016
मनोज कुमार को दादा फालके पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हो चुकी है। मनोज कुमार और धर्मेंद्र ने अपनी यात्रा एक ही समय प्रारंभ की थी। मनोज कुमार के फिल्म कॅरिअर में स्कूल शिक्षक रहे सीताराम शर्मा के आने से बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ। सीताराम शर्मा ने शहीद भगतसिंह के जीवन पर शोध करके पटकथा लिखी थी और मनोज कुमार ने इस फिल्म के निर्माण में उनकी मदद भी की। 'शहीद' नामक इसी फिल्म से मनोज कुमार ने यह जान लिया कि देशभक्ति की उत्तुंग लहर पर सवार होकर ही वे फिल्म की वैतरणी पार कर पाएंगे। उन्हें एक दिशा मिल गई।
'शहीद' को बॉक्स ऑफिस पर सफलता के साथ बहुत प्रशंसा भी प्राप्त हुई। इसी की प्रेरणा से मनोज कुमार ने 'उपकार' का निर्माण व निर्देशन किया। फिल्म गीतकार गुलशन बॉवरा उनके गहरे मित्र हो गए और उनका लिखा गीत 'मेरे देश की धरती सोना उगले' ने मनोज कुमार का पथ प्रशस्त किया परंतु अपनी यात्रा के अगले पड़ाव में उन्होंने गुलशन बावरा का साथ छोड़ दिया और सीताराम शर्मा के लिए बतौर शुकरना ' यादगार' नामक फिल्म में अभिनय किया परंतु तब तक मनोज कुमार को फिल्म निर्माण के हर पक्ष में दखलंदाजी की आदत पड़ गई थी। यह कितनी अजीब बात है कि मनोज कुमार अभिनेता दिलीप कुमार को अपना आदर्श मानते थे और दिलीप कुमार की तरह उन्हें अपनी फिल्म के लेखन से संपादन तक हर क्षेत्र में भरपूर नियंत्रण रखने का शौक हो गया। 'यादगार' के बनने में बहुत विलंब हुआ।
मनोज कुमार से सोहनलाल कंवर मिलने गए और उनकी 'संन्यासी' आदि फिल्मों पर मनोज कुमार का संपूर्ण नियंत्रण रहा। इस तरह की कार्यशैली का यह लाभ है कि आप सफलता का सेहरा अपने सिर पर बांध सकते हैं और फिल्म की असफलता के जनाजे में आप शिरकत भी नहीं करते। बहरहाल, मनोज कुमार की 'पूरब-पश्चिम' का कैनवास बहुत बड़ा था और उसकी शूटिंग के लिए लंदन की यात्रा की गई। इस फिल्म में मनोज कुमार ने फिल्मों में देशभक्ति का दायरा बढ़ाकर उसमें पूरब की संस्कृति का महिमा गान भी शामिल कर लिया। बॉक्स ऑफिस पर इस फॉर्मूले ने खूब धन बरसाया और यह सदाबहार फॉर्मूला है।
इसी फॉर्मूले से नारेबाजी को हटाकर इसके स्वरूप में परिवर्तन किया आमिर खान ने और उन्हें भी सफलता मिली। 'लगान' के पहले और 'लगान' के बाद के आमिर खान में आप अंतर देख सकते हैं। इसी परिवर्तन का सुखद परिणाम हम छोटे परदे पर 'सत्यमेव जयते' में देख चुके हैं। इस अभिनव कार्यक्रम में अनेक सामाजिक मुद्दे उठाए गए।
खेतों में कीटाणु मारने के नाम पर, जो रासायनिक खाद डाली जा रही है, उसके भयावह परिणाम आने शुरू हो चुके हैं। आज समझदार और साधन-संपन्न व्यक्ति जानता है कि उसे अपना अनाज और फल-सब्जी इत्यादि चीजें खुद ही उगाने चाहिए, क्योंकि बाजार से खरीदे माल में कितनी मिलावट है, इसका अनुमान लगाना कठिन है। हमारी सरकारें अनाज इत्यादि खाने-पीने की चीजों में मिलावट रोकने के प्रयास कर रही हैं परंतु वे पर्याप्त नहीं हैं। हमारे भोजन में जहर की मात्रा कितनी है, इसका हम अनुमान नहीं लगा सकते। कमाल यह है कि इस जहर को खरीदने के सिवाय आम आदमी के पास कोई विकल्प भी नहीं है। हमारे विकास का यह हाल है कि हम हर आदमी को एक द्वीप में बदल रहे हैं कि अगर शुद्ध माल चाहिए तो स्वयं उसे उगाएं। अब हम यह भी भूल रहे हैं कि कोई भी द्वीप लहरों से मुक्त नहीं होता। लहर-लहर में जहर होना भयावह बात है।
अब शक्ति अर्जित करने की राह में कुछ लोग हैं, जो लहर को लहर के खिलाफ खड़ा करने के खेल में माहिर हैं। बंदरबांट की नीति आज भी जारी है। यह अजीब बात है कि नकारात्मक शक्तियां आसानी से एकजुट हो जाती हैं और सकारात्मक शक्तियां कभी समाज मंच पर एकसाथ प्रस्तुत ही नहीं होतीं। आज प्रचार के माध्यम इतने प्रभावी हो चुके हैं कि निष्पक्ष वैज्ञानिक सोच को हाशिये में फेंक दिया गया है।
जहाज में रेत की बोरियां होती हैं और तूफान के आने के पहले उन्हें जहाज से फेंक दिया जाता है, जिसे जेटसैम कहते हैं। हमारे समाज के जहाज में जेटसैम के नाम पर रेत के बदले मुसाफिरों को ही बाहर फेंका जा रहा है। अब जहाज का कप्तान ही अपनी पसंद और नापसंद के आधा पर रेत की बोरियों के बदले मुसाफिरों को बाहर फेंके तो समझ लीजिए कि नाव में ही तूफान है।