देश नामक फिल्म की नामावली / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :23 मई 2016
फिल्म की नामावली में शामिल रहता है जूनियर कलाकार उपलब्ध कराने वाली कम्पनी का नाम परन्तु कभी जूनियर कलाकार के नाम नहीं दिये जाते, क्योंकि फिल्म यूनिट में सौ से अधिक लोग शामिल रहते हैं। इसी तरह गायक या गायिका का नाम रहता है, परन्तु सहगान में भाग लेने वालों के नाम नहीं होते। केवल राजकपूर अपनी फिल्मों में कोरस गाने वालों के नाम शामिल करते थे। कोरस गायन भी वेस्टर्न और भारतीय दो शाखाओं में विभक्त है परन्तु कमाल की बात यह है कि वादकों के नाम केवल ए.आर. रहमान शामिल करते हैं। उनके पिता कभी वादक रहे थे और पिता की हत्या के बाद उन्होंने अपना नाम बदला और अन्य धर्म भी ग्रहण किया। रहमान साहब और उनके पिता का जन्म हिन्दू परिवार में हुआ था। उनके पिता की हत्या संभवत: व्यक्तिगत प्रतिद्वन्दता के कारण हुई थी। ज्ञातव्य है कि दक्षिण भारत में पेरियार ने हिन्दू धर्म का विरोध किया था और द्रविड़ संस्कृति की गरिमा का गान किया था। गौरतलब यह है कि द्रविड़ संस्कृति का जन्म और विकास भारत में हुआ है और आर्य बाहर से आक्रामक स्वरूप में आकर इस भू-भाग पर जम गए, इसी के हो गए। इसी तरह मुगल भी बाहर से आए और बाबर ने अपनी सेना को आदेश दिया कि वे विजेता की तरह लूटपाट नहीं करें, क्योंकि वे इस भू-भाग में बसना चाहते हैं और इसके मूल निवासियों के साथ भाईचारा स्थापित करना चाहते हैं। बाबर पहला विजेता है, जिसके इस असाधारण निर्णय ने भारत में मुगल साम्राज्य की नींव ही नहीं रखी, वरन इस विलक्षण भू-भाग के मूल निवासियों से भाईचारा स्थापित करने का मानवीय निर्णय भी लिया। यही अंतर है सैमूरलंग और बाबर में तथा यही निर्णायक सिद्ध हुआ गंगा-जमुनी संस्कृति के निर्माण में, जिसने अपनी भवन निर्माण शैली के साथ पेन्टिंग, साहित्य व कला में नए अध्याय जोड़े। उस काल खंड में निरंतर आक्रमणों से भारत शिथिल हो रहा था तथा ईरान भी नैराश्य के दौर से गुजर रहा था। परिणाम स्वरूप गंगा-जमुनी संस्कृति का उदय हुआ। आज भारत के विभिन्न धर्मों को मानने वाले और विविध भाषाएं बोलने वाले तमाम लोग इसी गंगा-जमुनी संस्कृति के वारिस हैं। हमारी रोजमर्रा के जीवन में बोली जाने वाली भाषा में अनेक शब्द फारसी भाषा के हैं। जितने लोग 'पवन' बोलते हैं, उससे कहीं अधिक लोग 'हवा' बोलते हैं और 'जल' से अधिक लोग 'पानी' शब्द का प्रयोग करते हैं।
मनुष्य स्वभाव से पर्यटन पसंद करता रहा है और तमाम सभ्यताओं का विकास मनुष्य की यायावरी प्रवृति के कारण ही हुआ है। मूल निवासी तो जनजातियों के लोग हैं। अमेरिका के मूल निवासी रेड इंडियन्स हुए हैं और मार्लन ब्रेन्डो ने ऑस्कर अस्वीकार किया, केवल रेड इंडियन्स के प्रति ध्यान आकर्षण के लिए। हर देश की तरह भारत की मूल निवासी भी जनजातियां ही हैं तथा हम सब दरअसल आक्रामक लोग हैं, जो सुविधाओं के कारण इस भू-भाग में बस गए हैं। हमारी सरकारों ने जनजातियों की उपेक्षा की है। उनकी संस्कृति की रक्षा महज नारेबाजी है।
देश नामक फिल्म की नामावली में किसका नाम है और किसका छूट गया है, इस पर खूब विवाद हो रहा है। देश की मूल समस्याओं से ध्यान हटाने की कला में हम प्रवीण हैं। सड़कों और भवनों के नामकरण या दोबारा नामकरण में ऊर्जा के अपव्यय से बेहतर है कि हम समस्याओं को उनके सींग से पकड़ें। यह हमेशा व्यवस्थाओं के हित में रहता है कि अनावश्यक विवाद में आम आदमी को उलझा दें ताकि वह अपनी रोटी, कपड़ा और मकान की आधारभूत मांग को विस्मृत कर दे। मौजूदा व्यवस्था तो इतनी प्रवीण है कि वह भूखे को यकीन दिला सकती है कि उसे अधिक खाने से अपच हो गया है। वे उसकी हताशा की उसांस को डकार कह सकते हैं।
हमारा टेलीविजन और अन्य माध्यम प्रयास कर रहे हैं कि सारे भूखे लोग इसबगोल का सेवन करें, जबकि हमें भूख लगी है। पुराने वायदे पूरे नहीं किए गए और उन्हें भुलाने के लिए नए वायदे किए जा रहे हैं। अवाम की भी बरगलाए जाने की क्षमता असीम है। आज भीषण गर्मी और पानी के अभाव के कारण पूरा देश ही एक गर्म तवे की तरह है, जिस पर हम रोटी नहीं सेंक करके अनावश्यक विवादों को तल रहे हैं। कुछ लोगों को इस गरम तवे पर बैठ जाने का भी शौक है।
नेहरू विरोध सुनियोजित है, परन्तु ये विरोध करने वाले नेहरू जैकेट अवश् पहनते हैं और नेहरू टोपी भी लोकप्रिय रही है। आप सभी संस्थाओं से नेहरू का नाम हटा दें, परन्तु 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' नामक महान किताब का लेखक होने का श्रेय नहीं छीन सकते। नेहरू सा इतिहासबोध और सृजन ऊर्जा का अभाव संभवत: नेहरू विरोध का कारण है। नेहरू विरोध का एक और कारण उनका वामपंथी रुझान भी है और इस समय वामपंथ नामक विचार से भयभीत होने के कारण हर क्षेत्र में उस पर या उससे जुड़े लोगों पर आक्रमण हो रहा है। भाखड़ा नंगल, एटॉमिक एनर्जी संस्थान, साहित्य व कला अकादमी की तरह संस्थाओं की संख्या उनसे अधिक है, जिनका नाम जाहिर तौर पर नेहरू है।
बहरहाल ये तमाम विवाद सतही हैं। असल बात यह है कि पूंजीवादी व्यवस्था अपने अमानवीय पैर जमाने के लिए तमाम समाजवादी रुझान या उनके प्रतीक पर आक्रमण कर रही है। श्री ऋषि कपूर को कदाचित स्मरण नहीं कि उनके पिता श्री भी समाजवादी रुझान रखते थे और वे नेहरू युग के प्रतिनिधि फिल्मकार रहे हैं। इस पूरे प्रकरण में ऋषि कपूर की भूमिका महज इत्तफाक है परन्तु इस भूमिका के निर्वाह के कारण उन्हें दादा फाल्के पुरस्कार मिलना ही चाहिए। इस तरह कपूर परिवार में एक और दादा फाल्के पुरस्कार विजेता होगा।