देश प्रेम की फिल्मों की तीन क्ष्रेणियां / जयप्रकाश चौकसे
भारतीय कथा फिल्मों को 101 वर्षों के इतिहास में देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत फिल्मों को हम मोटे तौर पर तीन र्शेणियों में रख सकते हैं, जबकि बायोपिक्स अपने आप में एक र्शेणी है और इसमें सर रिचर्ड एटनबरो की गांधी कालजयी फिल्म है और श्याम बेनेगल की ‘सुभाष चंद्र बोस’ तथा केतन मेहता की ‘सरदार पटेल’ भी महान फिल्में हैं। इनके काल खंड से भी जाना जा सकता है। पहली र्शेणी में 1913 से 1947 तक बनीं फिल्में हैं और गुलामी के उन वर्षों में फिल्मकारों ने ब्रिटिश सेंसर से बचने के लिए धार्मिक कथाओं और इतिहास आधारित काल्पनिक कथाओं को फिल्माया गया। प्रारंभिक काल में संपतलाल शाह की 1918 में बनी फिल्म ‘महात्मा विदुर’ में महाभारत के एक पात्र की कथा थी, परंतु विदुर की भूमिका करने वाले कलाकार को गांधीजी समान पोशाक दी गई। जिस कारण दर्शक समझ गए कि पौरोणिक कथा के बहाने महात्मा गांधी के संदेश की फिल्म है। इसी तरह महाभारत प्रेरित एक फिल्म में कीचक की भूमिका एक अंग्रेज को देकर उसे भी देशभक्ति का रंग दिया गया। भालेराव पेढ़ारकर की ‘वंदेमातरम आर्शम’ भी शिक्षा नीति पर प्रकाश डालते हुए देशभक्ति की भावना की फिल्म थी, जो संभवत: 1922 में बनी थी। ज्ञातव्य है कि भालेराव पहले तिलक की पत्रिका ‘केसरी’ के सहायक संपादक रहे थे। इस श्रृंखला में शांताराम की ‘उदयकाल’ र्शेष्ठ फिल्म रही। गुलामी के दौर में संत कवियों के जीवन चरित्र से प्रेरित फिल्में भी देशप्रेम की फिल्में थी। इस र्शेणी में ‘संत तुकाराम’ महान रही और इसे कई बार बनाया गया। सोहराब मोदी ने इतिहास प्रेरित काल्पनिक कथाओं के माध्यम से देशप्रेम का अलख जगाया। उनकी पृथ्वीराज कपूर अभिनीत ‘सिकंदर’ में पोरस के संवाद राष्ट्रप्रेज जगाते थे। उनकी अदले जहांगरी भी राष्ट्रप्रेम की फिल्म थी। परंतु आजादी के बाद उनकी झांसी की रानी की असफलता ने उन्हें हताश कर दिया। गुलामी के जाते समय रमेश सहगल की दिलीप कुमार अभिनीत ‘शहीद’ एक भव्य सफल फिल्म थी। जिसमें बरतानिया हुकूमत के आला अफसर का बेटा भारत की आजादी की जंग में शहीद हो जाता है और इसी फिल्म में मोहम्मद रफी के गीत ‘वतन की राह में वतन के नौजंवा शहीद हो’ पूरे देश के शहरों, गांवों और गलियां में गूंजता रहा। आजादी के वर्षों में ‘जागृति’ इतनी सफल रही कि इसका रूप बदलकर इसे पाकिस्तान में वहां की देशभक्ति की फिल्म के रूप में बनाया गया। ‘शहीद’ वाले रमेश सहगल की ‘26 जनवरी’ असफल रही।
पंजाब के स्कूल टीचर सीताराम शर्मा ने भगतसिंह पर शोध करके एक पटकथा लिखी, जिसे मनोज कुमार ने ‘शहीद’ के नाम से 1966 में बनाया। यह फिल्म सीताराम शर्मा की शोध जरूर थी, परंतु फिल्म की केंद्रित सृजन शक्ति मनोज कुमार की थी और इसकी सफलता ने मनोजकुमार को राह दिखाई..
चेतन आनंद की हकीकत युद्ध फिल्म नहीं वरन रीट्रीट फिल्म मानी जाना चाहिए। परंतु देशभक्ति की र्शेणी में यह अत्यंत महान फिल्म रही। पंजाब के स्कूल टीचर सीताराम शर्मा ने भगतसिंह पर शोध करके एक पटकथा लिखी, जिसे मनोजकुमार ने ‘शहीद’ के नाम से 1966 में बनाया। सीताराम शर्मा की शोध जरूर थी। परंतु फिल्म की केंद्रित सृजन शक्ति मनोज कुमार की थी और इस महान फिल्म की सफलता ने मनोजकुमार को राह दिखाई और उन्होंने ‘उपकार’ तथा ‘पूरब-पश्चिम’ बनाई। ये दोनों अत्यंत सफल फिल्में हैं, परंतु इनके बाद मनोजकुमार की देशभक्ति की फिल्में महज नारेबाजी, कोरी भावुकता से भी छद्म देशप्रेम की फिल्में रह गई। जिनमें नेताओं की दीवार पर मढ़ी फिल्मों के शाट्स होते थे। यह कितनी अजीब बात है कि गुलामी के दौरे में कठोर सेंसर से बचकर फिल्मकारों ने देशभक्ति की फिल्में बनाई, परंतु आजादी के बाद नारेबाजी और द्यद्म राष्ट्रप्रेम ने फिल्मों को प्रचार माध्यम बना दिया। क्या इसका कारण यह था कि आजादी ने हमें न्याय नहीं दिया या हमारी आजादी का लाभ एक वर्ग तक सीमित रहा। सदी के आखिरी दशक में जे.पी.दत्ता की ‘बार्डर’ युद्ध फिल्म है और देशभक्ति जगाती है, परंतु तीस सितारों से सजी उनकी ‘एलओसी’ असफल रही।
दरअसल, नई सदी के पहले दशक में देशप्रेम की फिल्में नए तेवर में सामने आईं और इन फिल्मों ने हमें देशप्रेम की लिजलिजी चीजों से मुक्त किया। आमिर खान की ‘लगान’ मेहरा की ‘रंग दे बसंती’ तथा ‘वेडनेसडे’ इस र्शेणी की महान फिल्मे हैं। आशुतोष ग्वारीकर की ‘स्वदेश’ भी अच्छी फिल्म थी। खिलाड़ियों के जीवन चरित्र से प्रेरित ‘पानसिंह तोमर’ और ‘भाग मिल्खा भाग’ भी देशभक्ति की प्रभावोत्पादक फिल्में मानी जाती हैं। इस तरह गुलामी के दौर में बनी फिल्में। आजादी के बाद बनीं फिल्में और इस सदी के पहले दशक में बनी फिल्में राष्ट्रप्रेम फिल्मों की तीन र्शेणियां है।