देसी 'बर्फी' और विदेशी पुरस्कार / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 04 अक्तूबर 2012
कुछ समय पूर्व ही 'द आर्टिस्ट' नामक फिल्म को ऑस्कर से नवाजा गया है। कथा मूक युग के सुपर सितारे के सिनेमा में ध्वनि के आने के बाद असफलता की है और इत्तफाक यह है कि भारत में मूक युग के सितारा मास्टर विट्ठल को पहली सवाक फिल्म 'आलम आरा' में नायक लिया गया, परंतु सवाक फिल्मों में वे असफल रहे। दादासाहब फाल्के और चार्ली चैपलिन ने सवाक फिल्मों के दौर में मूक फिल्में बनाईं। बहरहाल 'द आर्टिस्ट' में अनेक दृश्य मूक फिल्मों के प्रसिद्ध दृश्यों की आदरांजलि के रूप में फिल्माए गए थे, परंतु उस पर नकल का आरोप नहीं लगा।
भारत में कुछ लोग जरा-सी सतही जानकारी के आधार पर फैसले सुनाते हैं और फतवे भी जारी किए जाते हैं। किसी तथाकथित विशेषज्ञ ने चार्ली चैपलिन की अमरकृति 'द किड' के एक दृश्य में चैपलिन और बच्चे के फुटपाथ पर हताश बैठे होने की स्थिति के चित्र तथा रणबीर कपूर और प्रियंका के उसी अंदाज में बैठने के चित्र साथ-साथ प्रकाशित किए और हुल्लड़बाजों ने फतवा जारी किया कि 'बर्फी' नकल है। 'द किड' की कथा में कड़की के दिनों में पैसा कमाने के लिए बच्चा शीशे तोड़ता है और चार्ली उन्हें बदलकर पैसा कमाते हैं तथा इस कथा का 'बर्फी' से कोई लेना-देना नहीं है। बर्फी तो एक गूंगे-बहरे तथा अद्र्ध विकसित कन्या की अद्भुत प्रेम कहानी है।
इसी तरह मूक फिल्मों के अधिकांश नायक एक पुलिसवाले को तंग करते हैं, परंतु 'बर्फी' का पुलिसवाला इतना सहृदय है कि वह भोले नायक को भागने का अवसर देता है और उसकी मृत्यु के दृश्य में भी संवेदना सहित मौजूद है। सौरभ शुक्ला ने इस पात्र का अभिनय पूरी ईमानदारी से किया है और यह उनके जीवन का श्रेष्ठ अभिनय है। ज्ञातव्य है कि मूक फिल्मों में भागमभाग और लुका-छिपी के अनेक दृश्य होते थे, क्योंकि फिल्मकार को कलाकार की शरीर की भाषा के माध्यम से कथा प्रस्तुत करनी होती थी। मूक सिनेमा के अपने सशक्त पक्ष थे और सवाक फिल्मों के सद्गुण अलग हैं।
अनुराग बसु ने अपनी फिल्म चार्ली चैपलिन और बस्टर कीटन को आदरांजलि की तरह रची है। अत: नकल का विवाद अनावश्यक है। यह कथा मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति की कथा है और दर्शक के दिल तक अपनी बात पहुंचाने में सफल है। आज टेक्नोलॉजी द्वारा रचे गए हजारों उपकरणों के बावजूद बातें अनकही रह जाती हैं और ऐसे वाचाल कालखंड में 'बर्फी' के पात्र स्वाभाविक साधनों से भी महरूम होने के बावजूद अपनी बात कह देते हैं। गोयाकि संवेदनशील हृदय खामोश रहकर भी बहुत कुछ कहता है तथा टेक्नोलॉजी का मोहताज नहीं है। अत: 'बर्फी' जैसी फिल्म के ऑस्कर के लिए भारत की प्रतिनिधि रचना की तरह भेजे जाने का विवाद अनावश्यक है। यह सच है कि 'विकी डोनर' भी महान तथा मौलिक फिल्म है, परंतु अगर उसके निर्माता ही उदासीन रहे तो अनुराग बसु की सक्रियता को आलोचना का शिकार बनाने का कोई अर्थ ही नहीं है।
आज के युग में अनेक नेता हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स के मानस पुत्र हैं और झूठ को बार-बार बोलकर सत्य में बदलने का दावा करते हैं। उधर अरविंद केजरीवाल दिल्ली की मुख्यमंत्री के घर की बिजली का कनेक्शन स्वयं काटने की धमकी दे रहे हैं और परोक्ष रूप से बिजली चोरी को जायज करार देना चाहते हैं। उन्हें जेल जाने का भय नहीं है, वरन वे जेल जाने के लिए बेकरार हैं, क्योंकि भारत महान में जेल से लौटे व्यक्ति को नायक मान लिया जाता है।
इस तरह के वाचाल युग में 'बर्फी' गूंगे-बहरे और विकलांग लोगों की प्रेम-कथा है, अत: यह गैर-भारतीय लगती है, क्योंकि भारत महान में विकलांग होने को पूर्वजन्म के पाप का परिणाम माना जाता है। सचमुच इस कालखंड की विसंगतियों और विरोधाभास को समझने और समझाने के लिए कबीर को लौटना होगा और अगर वे लौटे तो उन पर भी किसी जुलाहे की नकल का आरोप ठोक दिया जाएगा।