देस बिराना / अध्याय 1 / भाग 3 / सूरज प्रकाश

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं उसकी चुटिया पकड़ कर खींच देता हूं - पगलिये, मैंने तेरी सारी सहेलियों से क्या बियाह रचाना है जो अच्छी तरह से बात करूं। ले ये दो सौ रुपये। अपनी सारी सखियों को मेरी तरफ से आइसक्रीम खिला देना। वह खुशी-खुशी कॉलेज चली गयी है।

छत पर खड़े हो कर चारों तरफ देखता हूं। हमारे घर से सटे बछित्तर चाचे का घर। मेरे हर वक्त के जोड़दार जोगी, जोगिन्दर सिंह का घर। उनके के टूटे-फूटे मकान की जगह दुमंजिला आलीशान मकान खड़ा है। बाकी सारे मकान कमोबेश उन्हीं पुरानी दीवारों के कंधों पर खड़े हैं। कहीं-कहीं छत पर एकाध कमरा बना दिया गया है या टिन के शेड डाल दिये गये हैं।

नीचे उतर कर बेबे से कहता हूं - जरा बाजार का एक चक्कर लगा कर आ रहा हूं। वापसी पर नंदू की दूकान से होता हुआ आऊंगा।

मैं गलियां गलियों ही तिलक रोड की तरफ निकल जाता हूं और वहां से बिंदाल की तरफ से होता हुआ चकराता रोड मुड़ जाता हूं। कनाट प्लेस के बदले हुए रूप को देखता हुआ चकराता रोड और वहां से घूमता-घामता घंटाघर और फिर वहां से पलटन बाज़ार की तरफ निकल आया हूं। यूं ही दोनों तरफ़ की दुकानों के बोर्ड देखते हुए टहल रहा हूं।

मिशन स्कूल के ठीक आगे से गुज़रते हुए बचपन की एक घटना याद आ रही है। तब मैं एक पपीते वाले से यहीं पर पिटते-पिटते बचा था। हमारी कक्षा के प्रदीप अरोड़ा ने नई साइकिल खरीदी थी। मेरा अच्छा दोस्त था प्रदीप। राजपुर रोड पर रहता था वो। घर दूर होने के कारण वह खाने की आधी छुट्टी में खाना खाने घर नहीं जाता था बल्कि स्कूल के आस-पास ही दोस्तों के साथ चक्कर काटता रहता था। मैं खाना खाने घर आता था लेकिन आने-जाने के चक्कर में अकसर वापिस आने में देर हो ही जाती थी। इसलिए कई बार प्रदीप अपनी साइकिल मुझे दे देता। इस तरह मेरे दस- पद्रह मिनट बच जाते तो हम ये समय भी एक साथ गुज़ार पाते थे। साइकिल चलानी तब सीखी ही थी। एक दिन इसी तरह मैं खाना खा कर वापिस जा रहा था कि मिशन स्कूल के पास भीड़ के कारण बैलेंस बिगड़ गया। इससे पहले कि मैं साइकिल से नीचे उतर पाता, मेरा एक हाथ पपीतों से भरे एक हथठेले के हत्थे पर पड़ गया। मेरा पूरा वजन हत्थे पर पड़ा और मेरे गिरने के साथ ही ठेला खड़ा होता चला गया। सारे पपीते ठेले पर से सड़क पर लुढ़कते आ गिरे। पपीते वाला बूढ़ा मुसलमान वहीं किसी ग्राहक से बात कर रहा था। अपने पपीतों का ये हाल देखते ही वह गुस्से से कांपने लगा। मेरी तो जान ही निकल गयी। साइकिल के नीचे गिरे-गिरे ही मैं डर के मारे रोने लगा। पिटने का डर जो था सो था, उससे ज्यादा डर प्रदीप की साइकिल छिन जाने का था। वहां एक दम भीड़ जमा हो गयी थी। इससे पहले कि पपीते वाला मुसलमान मेरी साइकिल छीन कर मुझ पर हाथ उठा पाता, किसी को मेरी हालत पर तरस आ गया और उसने मुझे तेजी से खड़ा किया, साइकिल मुझे थमायी और तुरंत भाग जाने का इशारा किया। मैं साइकिल हाथ में लिये लिये ही भागा था।

उस दिन के बाद कई दिन तक मैं मिशन स्कूल वाली सड़क से ही नहीं गुजरा था। मुझे पता है, पपीते के ठेले वाला वह बूढ़ा मुसलमान इतने बरस बाद इस समय यहां नहीं होगा लेकिन फिर भी फलों के सभी ठेले वालों की तरफ एक बार देख लेता हूं।

आगे कोतवाली के पास ही नंदू का होटल है।

चलो, एक शरारत ही सही। अच्छी चाय की तलब भी लगी हुई है। नंदू के हेटल में ही चाय पी जाये। एक ग्राहक के रूप में। परिचय उसे बाद में दूंगा। वैसे भी वह मुझे इस तरह से पहचानने से रहा।

नंदू काउंटर पर ही बैठा है। चेहरे पर रौनक है और संतुष्ट जीवन का भाव भी। मेरी ही उम्र का है लेकिन जैसे बरसों से इसी तरह धंधे करने वाले लोगों के चेहरे पर एक तरह का घिसी हुई रकम वाला भाव आ जाता है, उसके चेहरे पर भी वही भाव है। बहुत ही अच्छा बनाया है होटल नंदू ने। बेशक छोटा-सा है लेकिन उसमें पूरी मेहनत और कलात्मक अभिरुचि का पता चल रहा है। दुकान के बाहर ही बोर्ड लगा हुआ है - आउटडोर कैटेरिडग अंडर टेकन।

वेटर पानी रख गया है। मैं चाय का आर्डर देता हूं। चाय का पेमेंट करने के बाद मैं वेटर से कहता हूं कि ज़रा अपने साहब को बुला लाये। एक आउटडोर कैटरिडग का आर्डर देना है।

नंदू भीतर आया है। हाथ में मीनू कार्ड और आर्डर बुक है - कहिये साहब, कैसी पार्टी देनी है आपको? उसने बहुत ही आदर से पूछा है।

- बैठो। मैंने उसे आदेश दिया है।

उसके चेहरे का रंग बदला है और वह संकोच करते हुए बैठ गया है।

मैं अपने को भरसक नार्मल बनाये रखते हुए उससे पूछता हूं

- आपके यहां किस किस्म की पार्टी का इंतजाम हो सकता है?

वह आराम से बैठ गया है - देखिये साहब, हम हर तरह की आउटडोर कैटेरिंग के आर्डर लेते हैं। आप सिर्फ हमें ये बता दीजिये कि पार्टी कब, कहां और कितने लोगों के लिए होनी है। बाकी आप हम पर छोड़ दीजिये। मीनू आप तय करेंगे या..

वह अब पूरी तरह दुकानदार हो गया है - आप को बिलकुल भी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा। वेज, नॉन-वेज और आप जैसे खास लोगों के लिए हम ड्रिंक्स पार्टी का भी इंतजाम करते हैं।

तभी उसे ख्याल आता है - आप कॉफी लेंगे या ठंडा?

- थैंक्स। मैंने अभी ही चाय पी है।

- तो क्या हुआ? एक कॉफी हमारे साथ भी लीजिये। वह वेटर को दो कॉफी लाने के लिए कहता है और फिर मुझसे पूछता है

- बस, आप हमें अपनी ज़रूरत बता दीजिये। कब है पार्टी ?

- ऐसा है खुराना जी कि पार्टी तो मैं दे रहा हूं लेकिन सारी चीजें, मीनू, जगह, तारीख मेहमान आप पर छोड़ता हूं। सब कुछ आप ही तय करेंगे। मैं आपको मेहमानों की लिस्ट दे दूंगा। उनमें से कितने लोग शहर में हैं, ये भी आप ही देखेंगे और उन्हें आप ही बुलायेंगे और ....।

- बड़ी अजीब पार्टी है, खैर, आप फिक्र न करें। आप शायद बाहर से आये हैं। हम आपको निराश नहीं करेंगे। तो हम मीनू तय कर लें ..?

- उसकी कोई ज़रूरत नहीं है, आप बाद में अपने आप देख लेना।

मैं बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोक पा रहा हूं। नंदू को बेवकूफ बनाने में मुझे बहुत मज़ा आ रहा है। उसे समझ में नही आ रहा है कि ये पार्टी करेगा कैसे...।

कॉफी आ गयी है।

आखिर वह कहता है - आप कॉफी लीजिये और मेहमानों के नाम पते तो बताइये ताकि मैं उन्हें आपकी तरफ से इन्वाइट कर सकूं,.. या आप खुद इन्वाइट करेंगे? वह साफ-साफ परेशान नज़र आ रहा है।

- ऐसा है कि फिलहाल तो मैं अपने एक खास मेहमान का ही नाम बता सकता हूं। आप उससे मिल लीजिये, वही आपको सबके नाम और पते बता देगा। मैं उसकी परेशानी बढ़ाते हुए कहता हूं।

- ठीक है वही दे दीजिये। उसने सरंडर कर दिया है।

- उसका नाम है नंद लाल खुराना, कक्षा 7 डी, रोल नम्बर 27, गांधी स्कूल।

यह सुनते ही वह कागज पैन छोड़ कर उठ खड़ा हुआ है और हैरानी से मेरे दोनों कंधे पकड़ कर पूछ रहा है - आप .. आप कौन हैं ? मैं इतनी देर से लगातार कोशिश कर रहा हूं कि इस तरह की निराली पार्टी के नाम पर आप ज़रूर मुझसे शरारत कर रहे हैं। कौन हैं आप, ज़रूर मेरे बचपन के और सातवीं क्लास के ही दोस्त रहे होंगे..!

मैं मुस्कुरा रहा हूं - पहचानो खुद !

वह मेरे चेहरे-मोहरे को अच्छी तरह देख रहा है। अपने सिर पर हाथ मार रहा है लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा, मैं कौन हो सकता हूं।

वह याद करते हुए दो-तीन नाम लेता है उस वक्त की हमारी क्लास के बच्चों के। मैं इनकार में सिर हिलाता रहता हूं। उसकी परेशानी बढ़ती जा रही है।

अचानक उसके गले से चीख निकली है - आप .. आप गगनदीप, दीप.. दीपू..!

वह लपक कर सामने की कुर्सी से उठ कर मेरी तरफ आ गया है और ज़ोर-ज़ोर से रोते हुए तपाक से मेरे गले से लग गया है। वह रोये जा रहा है। बोले जा रहा है - आप कहां चले गये थे। हमें छोड़ कर गये और एक बार भी मुड़ कर नहीं देखा आपने। सच मानिये, आपके आने से मेरे मन पर रखा कितना बड़ा बोझ उतर गया है। हम तो मान बैठे थे कि इस जनम में तो आपसे मिलना हो भी पायेगा या नहीं।

मैं भी उसके साथ सुबक रहा हूं। रो रहा हूं। अपने मन का बोझ हलका कर रहा हूं।

रोते रोते पूछता हूं - क्यों बे क्या बोझ था तेरे मन पर। और ये क्या दीप जी दीप जी लगा रखा है ?

- सच कह रहा हूं जब आप गये थे, तुम .. ..तू गया था तो हम सब के सब तेरे चारों तरफ भीड़ लगा कर खड़े थे। तुझे रोते-रोते सुबह से दोपहर हो गयी थी। हम सब बीच-बीच में घर जा कर खाना भी खा आये थे लेकिन तुझे खाने को किसी ने भी नहीं पूछा था। तेरे घर से तो खाना क्या ही आता। तेरे भाई भी तो वहीं खड़े थे। सिर्फ मैं ही था जो बिना किसी को बताये तेरे लिए खाने का इंतज़ाम कर सकता था। तेरे लिए अपने बाऊ की हट्टी से एक प्लेट छोले भटूरे ही ला देता। लेकिन हम सब बच्चों को जैसे लकवा मार गया था। हम बच्चे तेरे जाने के बाद बहुत रोये थे। तुझे बहुत दिनों तक ढूंढते रहे थे। बहुत दिनों तक तो हम खेलने के लिए बाहर ही नहीं निकले थे। एक अजीब सा डर हमारे दिलों में बैठ गया था।

हम दोनों बैठ गये हैं। नंदू अभी भी बोले जा रहा है - मुझे बाद में लगता रहा कि मार खाना तेरे लिए कोई नई बात नहीं थी। तेरे केस कटाने की वज़ह भी मैं समझ सकता था लेकिन मुझे लगता रहा कि सारा दिन भूखे रहने और घर वालों के साथ-साथ सारे दोस्तों की तरफ से भी परवाह न किये जाने के कारण ही तू घर छोड़ कर गया था। अगर हमने तेरे खाने का इंतज़ाम कर दिया होता और किसी तरह रात हो जाती तो तू ज़रूर रुक जाता। हो सकता है हमारी देखा-देखी कोई बड़ा आदमी ही बीच बचाव करके तुझे घर ले जाता। लेकिन आज तुझे इस तरह देख कर मैं बता नहीं सकता, मैं कितना खुश हूं। वैसे लगता तो नहीं, तूने कोई तकलीफ भोगी होगी। जिस तरह की तेरी पर्सनैलिटी निकल आयी है, माशा अल्लाह, तेरे आगे जितेन्दर-पितेन्दर पानी भरें।

उसने फिर से मेरे दोनों हाथ पकड़ लिये हैं - मैं आपको बता नहीं सकता, आपको फिर से देख कर मैं कितना खुश हूं। वैसे कहां रहे इतने साल और हम गरीबों की याद इतने बरसों बाद कैसे आ गयी?

- क्या बताऊं। बहुत लम्बी और बोर कहानी है। न सुनने लायक, न सुनाने लायक। फिलहाल इतना ही कि अभी तो बंबई से आया हूं। दो दिन पहले ही आया हूं। कल और परसों के पूरे दिन तो घर वालों के साथ रोने-धोने में निकल गये। दारजी तेरे बारे में बता रहे थे कि तू यहीं है। सबसे पहले तेरे ही पास आया हूं कि तेरे ज़रिये सबसे मुलाकात हो जायेगी। बता कौन-कौन है यहां ?

- अब तो उस्ताद जी, सबसे आपकी मुलाकात ये नंद लाल खुराना, कक्षा 7 डी, रोल नम्बर 27, गांधी स्कूल ही कराएगा और एक बढ़िया पार्टी में ही करायेगा।

वह ज़ोर से हँसा है - अब आप देखिये, नंद लाल खुराना की कैटरिडग का कमाल। चल, बीयर पीते हैं और तेरे आने की सेलिब्रेशन की शुरूआत करते हैं।

- मैं बीयर वगैरह नहीं पीता।

- कमाल है। हमारा यार बीयर नहीं पीता। तो क्या पीता है भाई?

- अभी अभी तो चाय और कॉफी पी हैं।

- साले, शर्म तो आयी नहीं कि चाय का बिल पहले चुकाया और मुझे बाद में बुलवाया।

- मैं देखना चाहता था कि तू मुझे पहचान पाता है या नहीं। वैसे बता तो सही, यहां कौन-कौन हैं। यहां किस-किस से मुलाकात हो सकती है?

- मुलाकात तो बॉस, पार्टी में ही होगी। बोल कब रखनी है?

- जब मर्जी हो रख ले, लेकिन मेरी दो शर्तें हैं।

- तू बोल तो सही।

- पहली बात ये कि पार्टी मेरी तरफ से होगी और दूसरी बात यह कि सबको पहले से बता देना कि मेरे इन चौदह बरसों के बारे में मुझसे कोई भी किसी भी किस्म का सवाल नहीं पूछेगा। सबके लिए इतना ही काफी है कि मैं वापिस आ गया हूं, ठीक-ठाक हूं और फिलहाल किसी भी तरह की तकलीफ़ में नहीं हूं।

- दूसरी शर्त तेरी मंज़ूर लेकिन पार्टी तो मेरी ही तरफ से और मेरे ही घर पर होगी। परसों ठीक रहेगी?

- चलेगी। अब चलता हूं। सुबह से निकला हूं। बेबे राह देखती होगी।

- खाना खा कर जाना।

- फिर आऊंगा। अभी नहीं।

बेबे के पास बैठा हूं। मेरे लिए खास तौर पर बेबे ने तंदूर तपाया है और मेरी पसंद की प्याज वाली तंदूरी परौंठिया सेंक रही है। मैं वहीं बैठा परौंठियों के लिए आटे के पेड़े बनाने के चक्कर में अपने हाथ खराब कर रहा हूं।

तभी बेबे ने कहना शुरू किया है - वेख पुत्तरा, हुण तूं पुराणियां गल्ला भुला के ते इक कम कर। बेबे रुकी है और मेरी तरफ देखने लगी है। तंदूर की आग की लौ से उसका चेहरा एकदम लाल हो गया है।

मैं गरमागरम परौंठे का टुकड़ा मुंह में डालते हुए पूछता हूं - मैंनु दस ते सई बेबे, की करना है। हलका सा डर भी है मन में, पता नहीं बेबे क्या कह दे।

- तेरे दारजी कै रये सी कि हुण तां तैनूं कोई तकलीफ नईं होवेगी अगर तूं गुरूद्वारे विच जा के ते अमरित चख लै। रब्ब मेर करे, साडी वी तसल्ली हो जावेगी अते बिरादरी वी तैंनू फिर तों ...। बेबे ने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया है।

मैं हंसता हूं - वेख बेबे, तेरी गल्ल ठीक है कि मैं अमरित चख के ते इक वार फिर सिखी धरम विच वापस आ जावां। त्वाडी वी तसल्ली हो जावेगी ते बिरादरी वी खुश हो जायेगी। अच्छा मैंनु इक गल्ल दस बेबे, इस अमरित चक्खण दे बाद मैंनू की करना होवेगा।

बेबे की आंखों में चमक आ गयी है। उसे विश्वास नहीं हो रहा कि मैं इतनी आसानी से अमरित चखने के लिए मान जाऊंगा - अमरित चखन दे बाद बंदा इक वारी फिर सुच्चा सिख बण जांदा ए। इस वास्ते केस, किरपाण, कछेहरा, कंघा अते किरपाण धारण करने पैंदे ने ते इसदे बाद कोई वी बंदा केसां दा अपमान नीं कर सकता, मुसलमानां ते हत्थ का कटेया मांस नीं खा सकता , दूजे दी वोटी दे नाल..

- रैण दे बेबे। मैं तैंनू दस देवां कि अमरित चक्खण दे बाद कीं होंदा है। मैं तैंनू पैली वारी दस रेंया हां कि मैं इन्ना सारियां चीजां नूं जितना मनदां हां ते जाणदा हां, उतना ते इत्थे दे गुरुद्वारे दे भाईजी वी नीं जाणदे होणगे।

- मैं समझी नीं पुत्त। बेबे हैरानी से मेरी तरफ देख रही है।

- हुण गल्ल निकली ई है तां सुण लै। मैं ए सारे साल मणिकर्ण ते अमरितसर दे गुरूद्वारेयां विच रै के कटे हन। तूं कैंवे ते मैं तैनूं पूरा दा पूरा गुरु ग्रंथ साहिब जबानी सुणा देवां। मैं नामकरण, आनंद कारज, अमरित चक्खण दियां सारियां विधियां करदा रेया हां। बेशक मैं कदी वी पूरे केस नीं रखे पर हमेशा फटका बन्न के रेया हां। गुरूग्रंथ साहिब दा पाठ करदा रेया हां। जित्थे तक अमरित चख के ते बिरादरी नूं खुश करण दी गल्ल है, मैं इसदी जरूरत नीं समझदा। बाकी मैं तैंनू विश्वास दिला दवां कि मैं केसां वगैरा दा वादा ते नीं कर सकता पर ऐ मेरे तों लिख के लै लै कि मैं कदी वी मीट नीं खावांगा, कदी खा के वी नीं वेखया, दूजे दी वोटी नूं अपणी भैण मन्नांगा, सिगरेट, शराब नूं कदी हत्थ नीं लावांगा। होर कुज..?