देस बिराना / अध्याय 2 / भाग 2 / सूरज प्रकाश

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हालांकि उनके घर आते जाते मुझे एक डेढ़ महीना हो गया है और मैं अलका और देवेद्र भसीन के बहुत करीब आ गया हूं और उनसे मेरे बहुत ही सहज संबंध हो गये हैं लेकिन फिर भी उन्होंने मुझसे कोई व्यक्तिगत प्रश्न नहीं ही पूछे हैं।

आज इतवार है। दापहर की झपकी ले कर उठा ही हूं कि देवेद्र जी का बुलावा आया है। अलका मायके गयी हुई है। तय है, वे खाना या तो खुद बनाएंगे या होटल से मंगवायेंगे तो मैं ही प्रस्ताव रखता हूं - आज का डिनर मेरी तरफ से। शाम की चाय पी कर हम दोनों टहलते हुए लिंकिंग रोड की तरफ निकल गये हैं।

खाना खाने कि लिए हम मिर्च मसाला होटल में गये हैं। वेटर पहले ड्रिंक्स के मीनू रख गया है। मीनू देखते ही देवेद्र हॅंसे हैं - क्यों भई, पीते-वीते हो या सूफी सम्प्रदाय से ताल्लुक रखते हो। देखो अगर जो पीते हो तो हम इतनी बुरी कम्पनी नहीं हैं और अगर अभी तक पीनी शुरू नहीं की है तो उससे अच्छी कोई बात ही नहीं है।

- आपको क्या लगता है?

- कहना मुश्किल है। वैसे तो तुम तीन साल अमेरिका गुज़ार कर आये हो, और यहां भी अरसे से अकेले ही रह रहे हो, इसलिए कहना मुश्किल है कि तुम्हारे हाथों अब तक कितनी और कितनी तरह की बोतलों का सीलभंग हो चुका होगा। वे हँसे हैं।

- आपको जान कर हैरानी होगी कि मैंने अभी तक कभी बीयर भी नहीं पी है। कभी ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई। वहां अमेरिका के ठंडे मौसम में भी, जहां खाने का एक एक कौर नीचे उतारने के लिए लोग गिलास पर गिलास खाली करते हैं, मैं वहां भी इससे दूर ही रहा। वैसे न पीने के कई कारण रहे। आर्थिक भी रहे। फिर उस किस्म की कम्पनी भी नहीं रही। यह भी रहा कि कभी इन चीज़ों के लिए मुझे फुर्सत ही नहीं मिली। अब जब फ़ुर्सत है, पैसे भी हैं औरे अकेलापन भी है तो अब ज़रूरत ही नहीं महसूस होती। वैसे आप तो पीते ही होंगे, आप ज़रूर मंगायें। मैं तो आपसे बहुत छोटा हूं, पता नहीं मेरी कम्पनी में आपको पीना अच्छा लगे या नहीं.... वैसे मुझे अच्छा लगेगा। मैं कोल्ड ड्रिंक ले लूंगा।

वे मुझे आश्वस्त करते हैं - यह बहुत अच्छी बात है कि तुम अब तक इन खराबियों से बचे हुए हो। मैं भी कोई रेगुलर ड्रिंकर नहीं हूं। बस, कभी-कभार ही वाला मामला है,

- आप अगर मेरी सूफी कम्पनी का बुरा न मानें तो आपके लिए कुछ मंगवाया जाये। बेचारा वेटर कब से हमारे आर्डर का इंतज़ार कर रहा है। मैं कहता हूं।

- तुम्हारी कम्पनी का मान रखने के लिए मैं आज बीयर ही लूंगा।

मैंने उनके लिए बीयर का ही आर्डर दिया है।

हमने पूरी शाम कई घंटे एक साथ गुज़ारे हैं और ढेर सारी बातें की हैं। बातचीत के दौरान जब मैं उन्हें वीरजी कह कर बुला रहा हूं तो उन्होंने टोका है - तुम किस औपचारिकता में पड़े हो, चाहो तो मुझे नाम से भी बुला सकते हो।

- दरअसल मैं कभी परिवार में नहीं रहा हूं। रिश्ते-नाते कैसे निभाये जाते हैं, नहीं जानता। तेरह -चौदह साल की उम्र थी जब घर छूट गया। तब से एक शहर से दूसरे शहर भटक रहा हूं।

- क्या मतलब ? घर छूट गया था का मतलब? तो ये सब पढ़ाई और एमटैक और पीएचडी तक की डिग्री?

- दरअसल एक लम्बी कहानी है। मैंने आज तक कभी भी किसी के भी सामने अपने बारे में बातें नहीं की हैं। आपको मैं एक रहस्य की बात यह बताऊं कि दुनिया में मेरे परिचितों में कोई भी मेरे बारे में पूरे सच नहीं जानता। यहां तक कि, मेरे मां-बाप भी मेरे बारे में कुछ खास नहीं जानते। मैंने कभी किसी को राज़दार बनाया ही नहीं है। यहां तक कि मैं अभी चौदह साल के बाद घर गया था तो वहां भी किसी को अपने सच का एक टुकड़ा दिखाया तो किसी को दूसरा। अपनी छोटी बहन जिसे मिल कर मैं बेहद खुश हुआ हूं, उसे भी मैंने अपनी सारी तकलीफों का राज़दार नहीं बनाया है। उसे भी मैंने सारे सच नहीं बताये क्योंकि मैंने कभी नहीं चाहा कि कोई मुझ पर तरस खाये। मेरे लिए अफ़सोस करे। मुझे अगर किसी शब्द से चिढ़ है तो वह शब्द है - बेचारा।

- यह तो बहुत ही अच्छी बात है कि हम क्यों किसी के सामने अपने जख्म दिखाते फिरें। मैं तुम्हें बिलकुल भी मजबूर नहीं करूंगा कि अपने मन पर बोझ डालते हुए कोई भी काम करो। मैं तुम्हारी भावनाएं समझ सकता हूं। सैल्फ मेड आदमी की यही खासियत होती है कि वह अपने ही बारे में बात करने से बचना चाहता है।

- नहीं, वह बात नहीं है। दरअसल मेरे पास बताने के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे शेयर करने में मैं गर्व का अनुभव करूं। अपनी तकलीफ़ों की बात करके मैं आपकी शाम खराब नहीं करना चाहता।

- जैसी तुम्हारी मर्जी। विश्वास रखो, मैं तुमसे कभी भी कोई भी पर्सनल सवाल नहीं पूछूंगा। इसके लिए तुम्हें कभी विवश नहीं करूंगा।

पहले घर छोड़ने से लेकर दोबारा घर छोड़ने तक के अपने थोड़े-बहुत सच बयान कर दिये हैं उनकी मोटी-मोटी जानकारी के लिए।

बताता हूं उन्हें - अब पिछले तीन-चार साल से यहां जॉब कर रहा हूं तो आस-पास दुनिया को देखने की कोशिश कर रहा हूं। मैं कई बार ये देख कर हैरान हो जाता हूं कि मैं कितने बरसों से बिना खिड़कियों वाले किसी कमरे में बंद था और दुनिया कहां की कहां पहुंच गयी है। जैसे मै कहीं ठहरा हुआ था या किसी और ही रफ्तार से चल रहा था। खैर, पता नहीं आज अचानक आपके सामने मैं इतनी सारी बातें कैसे कर गया हूं।

- सच मानो, मैं सोच भी नहीं सकता था कि तुम, जो हमेशा इतने सहज और चुप्पे बने रहते हो, कभी बात करते हो और कभी बंद किताब की तरह हो जाते हो, अपनी इस छोटी-सी ज़िंदगी में कितने कितने तूफान झेल चुके हो।

खाना खा कर लौटते हुए बारह बज गये हैं। मुझे लग रहा है कि मैं एक परिचित के साथ खाना खाने गया था और बड़े भाई के साथ वापिस लौट रहा हूं।

देवेद्र जी के साथ दस दिन की बातचीत के कुछ दिन बाद ही अलका दीदी ने घेर लिया है। उनके साथ बैठा चाय पी रहा हूं तो पूछा है उन्होंने - ऑफिस से आते ही अपने कमरे में बंद हो जाते हो। खराब नहीं लगता?

- लगता तो है, लेकिन आदत पड़ गयी है।

- कोई दोस्त नहीं है क्या?

- नहीं। कभी मेरे दोस्त रहे ही नहीं। आप लोग अगर मुझसे बात करने की शुरूआत न करते तो मैं अपनी तरफ से कभी बात ही न कर पाता।

- कोई गर्ल फ्रैंड भी नहीं है क्या? अलका ने छेड़ा है - तेरे जैसे स्मार्ट लड़के को लड़कियों की क्या कमी!

क्या जवाब दूं। मैं चुप ही रह गया हूं लेकिन अलका ने मेरी उदासी ताड़ ली है। मेरे कंधे पर हाथ रख कर पूछती है - ऐसी भी क्या बेरूखी ज़िंदगी से कि न कोई पुरुष दोस्त हो और न ही कोई लड़की मित्र ही। सच बताओ क्या बात है। वह मेरी अंाखों में आंखें डाल कर पूछती है।

- सच मानो दीदी, कोई ख़ास बात नहीं है। कभी दोस्ती हुई ही नहीं किसी से, वैसे भी मुझे लड़कियों से बात नहीं करनी ही नहीं आती।

- क्यों, क्या वहां आइआइटी में या अमेरिका में लड़कियां नहीं थीं ?

- होंगी, उनके बारे में मुझे ज्यादा नहीं पता, क्योंकि तब मैं उनकी तरफ़ देखता ही नहीं था कि कहीं मेरी तपस्या न भंग हो जाये। जिस वक्त सारे लड़के हॉस्टल के आसपास देर रात तक हा हा हू हू करते रहते, मैं किताबों मे सिर खपाता रहता। आप ही बताओ दीदी, प्यार-व्यार के लिए वक्त ही कहां था मेरे पास?

- तो अब तो है वक्त और जॉब भी है और पैसे भी हैं। वैसे तो उस वक्त भी एक-आध लड़की तो तुम्हारी निगाह में रही ही होगी।

- वैसे तो थी एक।

- लड़की का नाम क्या था?

- लड़की जितनी सुंदर थी, उसका नाम भी उतना ही सुंदर था - ऋतुपर्णा। घर का उसका नाम निक्की था।

- उस तक अपनी बात नहीं पहुंचायी थी? उसके नाम की ही तारीफ कर देते, बात बन जाती।

- कहने की हिम्मत ही कहां थी। आज भी नहीं है।

- किसी और से कहलवा दिया होता।

- कहलवाया था।

- तो क्या जवाब मिला था?

- लेकिन ज़िंदगी के इसी इम्तिहान में मैं फेल हो गया था।

- क्या बात हो गयी थी ?

- वह उस समय एमबीबीएस कर रही थी। हमारे ही एक प्रोफेसर की छोटी बहन थी। कैम्पस में ही रहते थे वे लोग। कभी उनके घर जाता तो थ़ेड़ी बहुत बात हो पाती थी। एकाध बार लाइब्रेरी वगैरह में भी बात हुई थी। वैसे वह बहुत कम बातें करती थी लेकिन अपने प्रति उसकी भावनाओं को मैं उसके बिना बोले भी समझ सकता था। मैं तो खैर, अपनी बात कहने की हिम्मत ही नहीं जुटा सकता था। मेरा फाइनल ईयर था। जो कुछ कहना करना था, उसका आखिरी मौका था। मैं न लड़की से कह पा रहा था और उसके भाई के पास जाने की हिम्मत ही थी। उन्हीं दिनों हमारे सीनियर बैच की एक लड़की हमारे डिपार्टमेंट में लेक्चरर बन कर आयी थी। उसी को विश्वास में लिया था और उसके ज़रिये लड़की के भाई से कहलवाया था।

- क्या जवाब मिला था?

- लड़की तक तो बात ही नहीं पहुंची थी लेकिन उसके भाई ने ही टका-सा जवाब दे दिया था कि हम खानदानी लोग हैं। किसी खानदान में ही रिश्ता करेंगे। मैं ठहरा मेहनत-मज़दूरी करके पढ़ने वाला। उनकी निगाह में कैसे टिकता।

- बहुत बदतमीज था वो प्रोफेसर, सैल्फ - मेड आदमी का भी भला कोई विकल्प होता है। हम तुम्हारी तकलीफ़ समझ सकते हैं। अकेलापन आदमी को कितना तोड़ देता है। देवेद्र बता रहे थे कि तुमने तो अपनी तरफ से घर वालों से पैच-अप करने की भी कोशिश की लेकिन इतना पैसा खर्च करने के बाद भी तुम्हें खाली हाथ लौटना पड़ा है।

- छोड़ो दीदी, मेरे हाथ में घर की लकीरें ही नहीं हैं। मुझे भी अच्छा लगता अगर मेरा घर होता, आप दोनों के घर की तरह।

- क्यों, क्या ख़ास बात है हमारे घर में? देवेद्र जी ने आते-आते आधी बात सुनी है।

- जब भी आप दोनों को इतने प्यार से रहते देखता हूं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। काश, मैं भी ऐसा ही घर बसा पाता।

- अच्छा एक बात बताओ, अलका दीदी ने छेड़ा है - घर कैसा होना चाहिये?

- क्यों, साफ सुथरे, करीने से लगे घर ही तो सबको अच्छे लगते हैं । वैसे मैं कहीं आता-जाता नहीं लेकिन इस तरह के घरों में जाना मुझे बहुत अच्छा लगता है।

- लेकिन अपने घर को लेकर तुम्हारे मन में क्या इमेज है?

मैं सकपका गया हूं। सूझा ही नहीं कि क्या जवाब दूं। बहुत उधेड़बुन के बाद कहा है - मेरे मन में बचपन के अपने घर और बाद में बाबा जी के घर को लेकर जो आतंक बैठा हुआ है, उससे मैं आज तक मुक्त नहीं हो पाया हूं। मैं अपने बचपन में या तो पिटते हुए बड़ा हुआ या फिर लगातार सिरदर्द की वजह से छटपटाता रहा। घर से भाग कर जो घर मिला, वहां बाबाजी ने घर की मेरी इमेज को और दूषित किया। बाद में बेशक अलग-अलग घरों में रहा लेकिन वहां मैं न कभी खुल कर हँस ही पाता था और न कभी पैर फैला कर बैठ ही सकता था। कारण मैं नहीं जानता। फिर ज्यादातर वक्त हॉस्टलों में कटा, जहां घर के प्रति मेरा मोह तो हमेशा बना रहा लेकिन कोई मुकम्मल तस्वीर नहीं बनती थी कि घर कैसा होना चाहिये, बस, जहां भी बच्चों की किलकारियां सुनता या हसबैंड वाइफ को प्यार से बात करते देखता, एक दूसरे की केयर करते देखता, लगता शायद घर यही होता है।

- घर को लेकर तुम्हारी जो इमेज है, दरअसल तुम्हारे अनुभवों की विविधता की वजह से और घर को दूर से देखने के कारण बनी है, देवेद्र जी बता रहे हैं - तुम हमेशा या तो ऐसे घरों में रहे जहां माहौल सही नहीं था या ऐसे घरों में रहे जो तुम्हारे अपने घर नहीं थे। वैसे देखा जाये तो हर आदमी के लिए घर के मायने अलग होते हैं। माना जाये तो किसी के लिए फुटपाथ या उस पर बना टीन टप्पर का मामूली सा झोपड़ा भी घर की महक से भरा हुआ हो सकता है और ऐसा भी हो सकता है कि किसी के लिए महल भी घर की परिभाषा में न आता हो और वहां रहने वाला घर की चाहत में इधर-उधर भटक रहा हो। बेशक तुम्हें अपने पिता का घर छोड़ कर भागना पड़ा था क्योंकि वह घर अब तुम्हारे लिए घर ही नहीं रहा था लेकिन तुम्हारी मां या भाइयों के लिए तब भी वह घर बना ही रहा था क्योंकि उनके लिए न तो वहां से मुक्ति थी और न मुक्ति की चाह ही। हो सकता है तुम्हारे सामने घर छोड़ने का सवाल न आता तो अब भी वह घर तुम्हारा बना ही रहता। उस पिटाई के बावजूद उस घर में भी कुछ तो ऐसा रहा ही होगा जो तुम्हें आज तक हाँट करता है। पिता की पिटाई के पीछे भी तुम्हारी बेहतरी की नीयत छुपी रही होगी जिसे बेशक तुम्हारे पिता अपने गुस्से की वजह से कभी व्यक्त नहीं कर पाये होंगे। इसमें कोई शक नहीं कि आपसी प्रेम और सेंस ऑफ केयर से घर की नींवें मज़बूत होती हैं, लेकिन हम दोनों भी आपस में छोटी-छोटी चीज़ों को ले कर लड़ते-झगड़ते हैं। एक दूसरे से रूठते हैं और एक-दूसरे को कोसते भी हैं। इसके बावज़ूद हम दोनों एक ही बने रहते हैं क्योंकि हमें एक दूसरे पर विश्वास है और हम एक दूसरे की भावना की कद्र भी करते हैं। हम आपस में कितना भी लड़ लें, कभी बाहर वालों को हवा भी नहीं लगने देते और न एक दूसरे की बुराई ही करते हैं। शायद इसी भावना से घर बनता है। हां, जहां तक साफ-सुथरे घर को लेकर तुम्हारी जो इमेज है, अगर तुम बच्चों की किलकारियां भी चाहो और होटल के कमरे की तरह सफाई भी, तो शायइ यह विरोधाभास होगा। घर घर जैसा ही होना और लगना चाहिये। घर वो होता है जहां शाम को लौटना अच्छा लगे न कि मजबूरी। जहां आपसी रिश्तों की महक हमेशा माहौल को जीवंत बनाये रखे, वही घर होता है। तुम्हें शायद देखने का मौका न मिला हो, यहां बंबई में जितने भी बीयर बार हैं या शराब के अड्डे हैं वहां तुम्हें हज़ारों आदमी ऐसे मिल जायेंगे जिन्हें घर काटने को दौड़ता है। वज़ह कोई भी हो सकती है लेकिन ऐसे लोग होशो-हवास में घर जाने से बचना चाहते हैं। वे चाहें तो अपने घर को बेहतर भी बना सकते हैं जहां लौटने का उनका दिल करे लेकिन हो नहीं पाता। आदमी जब घर से दूर होता है तभी उसे घर की महत्ता पता चलती है। वह किसी भी तरीके से घर नाम की जगह से जुड़ना चाहता है। घर चाहे अपना हो या किसी और का, घर का ही अहसास देता है। तो बंधुवर, हम तो यही दुआ करते हैं कि तुम्हें मनचाहा घर जल्दी मिले।

- बिलीव मी, वीर जी, आपने तो घर की इतनी बारीक व्याख्या कर दी।

- चिंता मत करो, तुम्हें भी अपना घर जरूर मिलेगा और तुम्हारी ही शर्तों पर मिलेगा।

- मैं घर को लेकर बहुत सेंसिटिव रहा हूं लेकिन अब घर से लौटने के बाद से तो मैं बुरी तरह डर गया हूं कि क्या कोई ऐसी जगह कभी होगी भी जिसे मैं घर कह सकूं। मैं अपनी तरह के घर को पाने के लिए कुछ भी कर सकता था लेकिन.. अब तो....।