देहरी भई बिदेस / जगदीश कश्यप
चाँदनी रात में ठंडी रेत पर देशी खेलों में भाग ले रहे विदेशी कितने भले लग रहे थे । जैसलमेर के विशाल रेगिस्तान में स्वर्गिक आनंद वह क्यों नहीं लूट सकता । हज़ारों-हज़ारों किलोमीटर दूर से आए विदेशी लोग रस्सा खेंच, पगड़ी बाँध प्रतियोगिता व ऊँट-दौड़ में सहभागीदार बन रहे थे ।
उसने एक ठंडी साँस ली और टी०वी० पर आ रहे जैसलमेर के इस प्रोग्राम को छोड़कर छत पर चला गया । चारों तरफ चाँदनी बिखरी पड़ी थी । उसे लगा कि ओस-भरी ठंड के कारण फुरफुरी-सी उठने लगी थी उसमें । क्यों ख़ामख़्वाह छत पर आ गया। छत पर आना ही था, वरना वह बच्चे फिर ज़िद करेंगे.... पापा इस बार हमें जैसलमेर ज़रूर ले जाना.... किराए में गजब की वृद्धि हुई है—इस बीच । अब वह बच्चों को कैसे समझाए कि राजस्थान में रहते हुए भी जैसलमेर पहुँचने में दस-बारह घंटे लगेंगे ।
'अठै ठंड मैं के कर रया है?' रिटायर पिता ने खाँसते हुए पूछा तो वह बोला—
'बस बाऊजी, ज़रा जी मितला रहा था ।'
उसने अंदाज़ा लगाया कि पिता ज़रूर अपनी दवाई के बारे में पूछेंगे । अतः वह स्वतः ही बोल पड़ा— 'वो आपकी दवाई मैं आफ़िस में ही भूल आया था....' उसे लगा कि वह सरासर झूठ बोल रहा है ।
'दवाई आ जावैगी, म्हारे देस रा घणा नीक परोगराम आ रया है....चल देख... !'
उसने एक क्षण को देखा, पिता के मुरझाए चेहरे पर एक अपूर्व शांति-सी झलक रही थी । अपनी धरती के दृश्य आदमी को कितनी ख़ुशी दे जाते हैं, उसने सोचा । वह पिता को इस बार ज़रूर जैसलमेर ले जाएगा । चाहे जी०पी० फ़ंड से पैसा क्यों न निकालना पड़े । नहीं-नहीं, ऐसा कैसे हो सकता... जी०पी० फ़ंड का पैसा अंट-शंट कामों के लिए निकालेगा तो लड़की की शादी के वक़्त क्या करेगा !