देहाती समाज / अध्याय 15 / शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
वैसे तो रमेश को भी संदेह हो गया था कि भैरव ने उसके साथ धोखा किया है, और दूसरे दिन गोपाल सरकार ने शहर से लौट कर इस बात की पुष्टि भी कर दी कि भैरव ने अपने को अदालत में न हाजिर करके हमारे साथ दगा की है, और मुकदमा खारिज हो गया है। उसने जो कुछ रुपए जमा किए थे, वे सब वेणी के हाथ लगे। सुनते ही रमेश ऊपर से नीचे तक आग-बबूला हो उठा। रमेश ने भैरव को जाल से बचाने के लिए ही रुपए जमा किए थे, लेकिन उसने कृतघ्नता की हद कर दी! कल के अन्नप्राशन में निमंत्रित न किए जाने और आज की इस कृतघ्नता ने उनके समस्त तंतुओं को गुस्से से झनझना दिया। जिस अवस्था में वह बैठा था वैसे ही उठ कर बाहर जाने लगा। उसकी आँखों से रक्त बरस रहा था। गोपाल सरकार ने उनकी लाल आँखों को देख कर, डरते हुए धीरे से पूछा - 'कहीं जा रहे हैं क्या आप?'
'कहीं नहीं, अभी आया!' और जल्दी से वे भैरव के घर की ओर चले गए। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा - चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ है। वे घर में घुसे चले गए। उस समय भैरव की स्त्री तुलसी का दीपक जलाने के लिए खड़ी थी। रमेश को इस तरह अकस्मात आया देख कर, भैरव की स्त्री मारे डर के सिहर उठी। रमेश ने उससे पूछा - 'कहाँ हैं आचार्य जी?' रमेश के शरीर पर एक कुर्ता भी नहीं था और अँधेरे में केवल उनका चेहरा ही स्पष्ट दिखाई दे रहा था। रमेश के प्रश्न पर, भैरव की स्त्री ने अपने मुँह में ही बुदबुदा कर उत्तर दिया, जो स्पष्ट न होने के कारण रमेश को पूरा तो न सुन पड़ा, पर उसका निष्कर्ष उन्होंने यह निकाला कि भैरव घर पर नहीं है। तभी एक छोटे लड़के को गोद में लिए हुए भैरव की बड़ी लड़की लक्ष्मी बाहर निकली। अँधेरे में रमेश को न पहचान सकने के कारण उसने अपनी माँ से पूछा कि कौन हैं? माँ भी कुछ कह न सकी और रमेश भी मौन खड़ा रहा। लक्ष्मी दोनों में से किसी को बोलता न देख भयभीत हो चिल्ला पड़ी - 'बाबू! देखो, यह न जाने कौन आँगन में खड़ा है? कुछ बोलता भी नहीं!'
'कौन है। कहते हुए भैरव निकल आए। रमेश को इस अँधेरे में भी पहचानने में उन्हें देर न लगी। उनके हाथ-पैर सुन्न हो गए।
रमेश ने कर्कश स्वर में कहा - 'इधर तशरीफ लाइए!' और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए, आगे लपक कर अपनी मजबूत मुट्ठी से उसके हाथ पकड़ लिए और तीव्र स्वर में पूछा -'तुमने ऐसा क्यों किया?'
भैरव रोने लगा - 'बाप रे बाप! मार डाला! दौड़ो रे दौड़ो! अरे, लक्ष्मी, जल्दी जा, वेणी बाबू से कह दे!'
घर भर के सारे बच्चे रोने-चीखने लगे और सारा मुहल्ला उनके रोने-बिलखने से गूँज उठा। रमेश ने उसे जोर से झटका देते हुए चुप रहने को कहा और डाँट कर फिर पूछा - बोलो, तुमने ऐसा क्यों किया?'
भैरव जोर-जोर से चीखते-चिल्लाते ही रहे। रमेश की बात का उत्तर न दिया और बराबर रमेश से अपने को छुड़ाने के लिए खींचातानी करते रहे। हल्ला-गुल्ला सुन कर अड़ोस-पड़ोस के औरत-मर्द आँगन में जमा हो गए और देखते-देखते वहाँ भीड़-सी लग गई। लेकिन आवेशोन्मत्त रमेश ने उस ओर कोई ध्यान नहीं दिया और बराबर भैरव को दबोचते ही रहे। भीड़ अवाक् हो, चुपचाप खड़ी देखती रही। रमेश की शक्ति के बारे में लोग वैसे ही भयभीत थे। अनेक कहानियाँ उनके दल के बारे में प्रचलित हो गई थीं। उनके इस समय के रुद्र रूप को देख कर, उनको रोकने का किसी में साहस न हुआ। गोविंद तो पहले ही भीड़ में छिप गए थे। वेणी भी यह तमाशा देख-छिपने के लिए इधर-उधर ताकने लगे। लेकिन भैरव की नजर उन पर पड़ गई और वह एकदम चिल्ला पड़े - 'बड़े बाबू!' लेकिन उन्होंने उनकी एक व्यग्र पुकार की ओर ध्यान न दे, भीड़ में अपने को झट से छिपा लिया। तभी भीड़ में एक तरफ से खलबती-सी मची और दूसरे क्षण ही रमा रास्ता करते हुए रमेश के पास आ, उसका हाथ पकड़ कर बोली -'छोड़ दो अब! बहुत हो लिया!'
रमेश ने क्रोधित आँखों से उसकी ओर देखते हुए कहा - क्यों?'
रमा ने दाँत भींच कर गुस्से से स्वर में कहा - 'तुम्हें शर्म नहीं आती जो इतने आदमियों के बीच ऐसा कर रहे हो! मैं तो मारे शर्म के गड़ी जा रही हूँ।'
अब रमेश ने आँगन की तरफ उठ कर देखा और तुरंत ही भैरव को छोड़ दिया।
रमा ने अत्यंत कोमल सानुरोध स्वर में कहा - 'तुम घर जाओ अब!'
रमेश बिना एक भी शब्द बोले वहाँ से चला गया, मानो एक जादू-सा हो गया। रमेश के जाने के पश्चात रमा के कहने पर इस तरह शांतिपूर्वक चले जाने के प्रति, भीड़ में एक-दूसरे की आँखें मूक आलोचना करने लगीं। मानो वे नहीं चाहते थे कि यह घटना इस तरह समाप्त होती!
धीरे-धीरे सभी लोग वहाँ से जाने लगे। गोविंद गांगुली ने खतरा टला देख निश्चिंतता की साँस ले, भीड़ से निकल, गंभीर मुद्रा में उँगली नचाते हुए कहा, 'यह जो घर में आ कर वह भैरव को मार-मार कर अधमरा कर गया, इसके लिए क्या उपाय किया जाए, अब जरा इसका उपाय सोच लो!'
भैरव मुँह नीचा किए सिसक रहे थे। उन्होंने वेणी की तरफ दीनभाव से मुँह उठा कर देखा। रमा भी वहाँ मौजूद थी। वेणी का मंतव्य समझ कर बोली - 'बड़े भैया! वैसी तो कोई विशेष बात हुई नहीं है, जिनके कारण मामले को तूल दिया जाए, और फिर इधर भी दोष तो कम नहीं है!'
वेणी ने आश्चर्यान्वित हो कर कहा - 'यह तुम क्या कहती हो?'
लक्ष्मी भी खंभे के सहारे खड़ी रो रही थी। वहीं से तड़प कर बोली - 'तुम तो उसका पक्ष लोगी ही, रमा बहन! अगर तुम्हारे बाप को, तुम्हारे घर में घुस कर कोई मार जाता इस तरह, तो तुम क्या करतीं, जरा यह बताओ?'
रमा चौंक पड़ी उसका स्वर सुन कर। उसने आ कर इसके पिता की जान बचा दी थी। इसका एहसान वह माने, न माने, इसकी रमा को परवाह न थी, लेकिन उसका यह व्यंग्य वाक्य रमा के दिल में तीर की तरह चुभ गया। फिर भी वह अपने को संयत कर बोली - 'लक्ष्मी, ऐसी बात मत कहो! मेरे और तुम्हारे बाप में कोई समानता नहीं, और फिर मैंने तो तुम्हारा भला ही किया है!'
लक्ष्मी भी जवाब देने में किसी से कम न थी। गाँव की औरत जो ठहरी, तीव्र स्वर में बोली - 'बड़े घर की हो न! डर के मारे इसलिए कोई कुछ कहता नहीं! नहीं तो जग जाहिर है कि तुम क्यों उसका पक्ष ले रही हो? तुम्हारी जगह और कोई होती तो इतने पर फाँसी लगा लेती।'
वेणी ने लक्ष्मी को डाँटते हुए कहा - 'अरे चुप भी रह न! क्यों व्यर्थ में उखाड़ती है इन बातों को?'
'उखाड़ूँ क्यों नहीं? यह उसी का पक्ष लेकर बात जो कह रही है, जिसने बाबू को अधमरा कर दिया! कहीं कुछ हो जाता तो?'
रमा स्तब्ध हो गई। लेकिन लक्ष्मी को वेणी की इस डाँट ने उसके क्रोध को फिर सजग कर दिया। लक्ष्मी की तरफ देखते हुए उसने कहा -'ऐसे मनुष्य के हाथ से मौत पाना भी बड़े सौभाग्य की बात है, लक्ष्मी! अगर वे इनके हाथ से मर गए होते, तो निश्चय ही उनको स्वर्ग मिलता।'
लक्ष्मी के जले पर नमक लग गया। तिलमिला कर बोली - 'तभी तो तुम फिदा हुई हो उस पर!'
रमा ने इस बात का लक्ष्मी को तो कोई उत्तर दिया नहीं, वेणी की ओर उन्मुख हो बोली - 'यह क्या बात है, बड़े भैया? जरा साफ-साफ बताओ न!' वह एकटक प्रश्नात्मक नेत्रों से उनकी ओर देखती रही। मानो उसके नेत्र, वेणी के अंतर में भीतर तक आर-पार हो कर उसके दिल को टटोलना चाहते हों।
वेणी ने व्यग्र हो कर कहा - 'मैं तो कुछ जानता नहीं बहन! ये लोग ही ऐसी न जाने क्या-क्या लगाते फिरते हैं। उन पर ध्यान मत दो।'
'पर कहते क्या हैं ये लोग?'
वेणी ने अन्यमनस्क हो कर कहा - 'कहते फिरें, उनके कहने भर से ही तो किसी की दोष लग नहीं जाएगा!'
रमा ने यह अनुभव किया कि वेणी की वह बातें कोरी बनावटी सहानुभूति मात्र हैं। थोड़ी देर चुप रह कर उसने कहा - 'तुम्हें तो किसी बात के कहने से दोष नहीं लगता, लेकिन सब तो तुम्हारी तरह से हैं नहीं! लेकिन कहता कौन है, लोगों से यह सब बातें तुम?'
'मैं?'
रमा भीतर-ही-भीतर मारे गुस्से के सुलग रही थी। लेकिन ऊपर से बड़ी कोशिशों से अपने को संयत बनाए रही। आवेश में वह अब भी न आई, बोली - 'हाँ, तुम्हीं कहते हो! तुम्हारे अलावा और कोई नहीं कह सकता! भला दुनिया में ऐसा कोई काम है, जिसे तुम न कर सकते हो? चोरी, जालसाजी, आग, फौजदारी आदि सभी तो हो चुके हैं, अब इसी की कसर क्यों रह जाए?'
वेणी सकते में रह गए। उनके मुँह से एक शब्द भी न निकल सका।
'तुम नहीं समझ सकते कि एक स्त्री के लिए उसके चरित्र पर दोष ही उसका सर्वनाश है! पर जानना तो मैं भी यही चाहती हूँ कि भला इसमें तुम्हारा क्या लाभ है मेरी बदनामी करने में?'
वेणी ने सहम कर काँपते स्वर में कहा - 'मैं क्या लाभ प्राप्त करूँगा?' लोगों ने स्वयं अपनी आँखों से, तुम्हें सवेरे के समय रमेश के घर में से निकलते देखा है!'
रमा ने उसकी इस बात को अनसुनी कर कहा - 'यहाँ इतनी भीड़ में और कुछ मैं कहना नहीं चाहती, पर इतना तो अवश्य ही कहे देती हूँ बड़े भैया कि तुम्हारे मन में क्या है सो मैं सब जानती हूँ। और यह भी तुम्हें चेताए देती हूँ कि तुम्हें मार कर ही मरूँगी!'
भैरव की पत्नी स्तब्ध खड़ी सब तमाशा देख रही थी। उसने रमा का हाथ पकड़ कर अत्यंत कोमल स्वर में कहा - 'पागल न बनो बेटी! सब जानते हैं कि तुम क्या हो? लक्ष्मी औरत हो कर भी, तू एक औरत की बदनामी क्यों करती है? मेरे ऊपर दया कर। इन्होंने जो तेरे बाप की जान बचाई है, उसे अगर सचमुच तेरे अंदर जरा भी अक्ल होती तो समझती!' और रमा को वह अपनी कोठरी में लिवा ले गई। उपस्थित लोग उसकी यह व्यंग्य भरी बात सुन, धीरे -धीरे वहाँ से चले गए।
रमेश इस घटना के बाद अपने आवेश पर स्वयं ही इतने खीझा कि उनसे उसके बाद, दो दिन घर से बाहर न निकला गया। रह-रह कर उनके मानस पटल पर, रमा ने स्वयं आ कर भीड़ के सामने उनके इस अवांछनीय आवेशपूर्ण कार्य की लज्जा को जो बताया, उसका विचार बार-बार अपनी झलक दिखाता रहा, और अपने कृत्य की लज्जा से मस्तक पर एक ओजस्वी आभा अंकित करता रहा। अत: उनके अंतर में जहाँ एक ग्लानि की भीषण जलन थी, वहीं पर रमा के इस प्रकार के आचरण का शीतल मलहम उन्हें शांति भी प्रदान कर रहा था। उन्हें यह भी ज्ञात न था कि जिस समय वे यह विचार कर रहे थे कि अभी और कुछ दिनों तक बाहर नहीं निकलना चाहिए, उसी समय विश्व प्रांगण में एक अन्य प्राणी भी इसी प्रकार की जलन से पीड़ित हो रहा था।
पर वे और अधिक अज्ञातवास न कर सके। पीरपुर गाँव की आज शाम की पंचायत में शरीक होने के लिए कई आदमी उन्हें बुलाने आए थे। रमेश ने ही स्वयं इस पंचायत की योजना बनाई थी। यह सुन कर कि आज उसकी बैठक हो रही है, उसमें जाने से वे किसी प्रकार न रुक सके और तैयार हो गए।
आस-पास के सभी गाँवों में गरीबों की संख्या बेशुमार है। अनेक तो उसमें से ऐसे हैं, जो खेतहीन मजदूर हैं, जिसके पास अपने जोतने-बोने के लिए एक बीघा भी जमीन नहीं है। दूसरों के खेतों पर मेहनत-मजदूरी कर पेट पालना ही उनकी जीविका का एकमात्र साधन है। यह नहीं कि वे हमेशा से गरीब ही रहे हों, पर समाज के आर्थिक ढाँचे ने उन्हें इस दशा में पहुँचा दिया है। महाजनों के कर्ज में दब कर, उनके सूद की चक्की में पिस कर इन्होंने अपनी सारी संपत्ति गँवा दी और वे महाजन इनकी बेबसी पर ही धनी बन बैठे। महाजन रुपए के सूद में, नकद न लेकर फसल के रूप में सूद लेते, जिससे कभी-कभी तो उन्हें मूल धन के बराबर फायदा हो जाता। जीवन में एक बार भी अगर कोई किसान - चाहे वर्षा की कमी के कारण अथवा किसी सामाजिक कार्य के लिए - कर्ज लेने पर विवश हो जाता तो फिर जीवन भर ही क्यों पुश्त-दर-पुश्त तक वह उसके जाल से छुटकारा न पाता। इस जाल में हिंदू-मुसलमान दोनों ही किसानों के जीवन छटपटा रहे हैं।
किताबों में रमेश ने थोड़ी-बहुत जानकारी प्राप्त की थी इस विषय की। पर उसका वीभत्स रूप उसने गाँव में ही आ कर, स्वयं अपनी आँखों से देखा, तो मारे विस्मय और क्षोभ के उसकी आँखें फटी-की-फटी रह गईं। उसने सोचा कि जो रुपए बैंकों में पड़े हैं, उनसे ही इन महाजनी जोंकों से उद्धार किया जाए। पर इस मार्ग में उन्हें ठोकर खानी पड़ी थी, जिसके अनुभव के कारण उन्होंने अपना इरादा बदल दिया और उनकी कुछ-कुछ धारणा ऐसी हो चली कि ये लोग जितने निर्धन और लाचार हैं, उतनी ही उनमें बुराइयाँ भी कूट-कूट कर भरी हैं। कर्ज लेकर न चुकाना तो उनके लिए साधारण-सी बात है! यही नहीं कि सभी ऐसे हैं! कुछ अच्छे लोग भली प्रकृति के भी हैं। पास-पड़ोस की सुंदर स्त्रियों और कुमारियों के बारे में बातें करना भी इनकी दिनचर्या में शामिल है। विधवा तो सभी घरों में प्राय: किसी-न-किसी अवस्था की है ही। पुरुषों के विवाह में दिक्कत पेश आने लगी है, तभी इनके समाज का नियमन काफी बड़ा है। कुछ भी हो, पर इनकी दुर्दशा देख कर किसी भी दिलवाले के लिए उधर से आँख फेरना मुश्किल है, जैसे बुराई में फँसे पुत्र की तरफ पिता की भावना होती है, वैसा ही रमेश की भावना भी इन लोगों के प्रति हो रही थी। पीरपुर की आज की पंचायत का उद्देश्य भी यही था।
शाम हो चली थी। चाँदनी बाहर के मैदानों पर अपनी शीतल चादर बिछा रही थी। रमेश तैयार हो कर खड़ा था वहीं जाने को, पर पैर नहीं बढ़े थे उधर अभी। कुछ सोच के वहीं खड़ा था कि रमा आ गई। उजाला न होने के कारण रमेश पहचान न सका, घर की नौकरानी समझ कर बोला - 'क्या चाहिए?'
'बाहर जा रहे हैं क्या आप?'
रमेश चौंक कर बोला - 'कौन, रमा? कैसे आईं इस समय?'
वह इस समय क्यों आई थी, यह बताना तो बेकार था, पर जिस काम से आई, उसके बारे में बहुत-सी बातें कहने को थीं। वह समझ नहीं पा रही थी कि बात कैसे शुरू हो। वह चुपचाप खड़ी रही, रमेश भी चुप रहा। थोड़ी देर बाद रमा बोली - 'कैसी है अब आपकी तबीयत?'
'ठीक नहीं है! रात को रोज ही बुखार आता है।'
'तो फिर आपके लिए तो यही अच्छा है कि कहीं बाहर घूम आइए जा कर!'
'होगा तो अच्छा! लेकिन कैसे जाऊँ?' कह कर थोड़ी व्यंग्य भरी मुस्कान खिल उठी उनके होंठों पर।
रमा उनकी हँसी से क्रोधित हो कर बोली - 'मैं जानती हूँ कि आप बहाना करेंगे कि यहाँ काम बहुत जरूरी है। पर मैं पूछती हूँ कि ऐसा कौन-सा जरूरी काम है, जो स्वास्थ्य से भी बहुत अधिक जरूरी है!'
रमेश ने उसी तरह मुस्कराते हुए कहा - 'स्वास्थ्य को गैरजरूरी तो मैं भी नहीं कहता, पर दुनिया में मनुष्य के सामने कभी-कभी ऐसे भी अवसर आते हैं, जब उनके सामने के काम का मूल्य जीवन से भी अधिक होता है! पर वह तो सब कुछ तुम्हारी समझ से परे है, रमा!'
'वह कुछ भी समझना-सुनना मैं नहीं चाहती! बस, इतना जानती हूँ कि आपको कहीं बाहर जाना ही होगा! आप सरकार बाबू को सहेज जाइएगा, मैं देखभाल करती रहूँगी सब काम-धंधो की।'
रमेश ने आश्चर्यान्वित हो कहा - 'तुम करोगी देखभाल? और मेरे काम की? पर...!'
'पर-वर क्या?'
'मैं क्या विश्वास कर सकूँगा तुम पर?'
रमा ने सरल भाव से कहा - 'चाहे कोई और न भी कर सके, पर आप तो कर ही सकते हैं!'
रमा के इस नि:संकोच दृढ़ उत्तर से रमेश विस्मय में पड़ गया। थोड़ी देर मौन रह कर बोले - 'देखो, सोचूँगा!'
रमा ने उसी दृढ़ता से कहा - 'सोचने का समय अब नहीं है! आपको तो आज ही कहीं बाहर जाना होगा, और यदि नहीं गए तो...।'
रमा का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ कि रमेश के चेहरे पर लगी उसकी दृष्टि ने उसे व्यग्र होते अनुभव किया, क्योंकि रमा का यह अधूरा वाक्य ही भावी आशंका की सूचना के लिए काफी था। रमेश ने कहा - 'समझ लो, मैं चला गया! पर तुम्हें क्या लाभ होगा मेरे जाने से? तुमने स्वयं भी तो मुझे संकट में फँसाने में कोई कसर उठा नहीं रखी! तो फिर आज ही ऐसी क्या बात है, जो आगाह करने चली आईं? अभी सब घाव ताजा ही हैं! तुम स्पष्ट कहो कि अगर मैं चला जाऊँ तो तुम्हें क्या लाभ होगा? हो सकता है, तुम्हारा लाभ जान कर मैं जाने को तैयार हो भी जाऊँ!'
और रमा के उद्विग्न चेहरे की तरफ रमेश उत्तर की प्रतीक्षा में टकटकी लगा कर देखने लगे। पर रमा ने कोई उत्तर न दिया। रमेश अँधेरा होने के कारण न देख सका कि उनके व्यंग्यात्मक वाक्यों से रमा का स्वाभिमान कितना आहत हो उठा है! जितनी वेदना से उसका चेहरा विकृत हो उठा है। थोड़ी देर तक मौन रह कर अपने को सचेत कर रमा ने कहा - 'स्पष्ट ही कहती हूँ कि तुम्हारे जाने से लाभ तो मेरा कुछ भी न होगा, पर नुकसान अवश्य ही बड़ा होगा, गवाही देनी पड़ेगी मुझे!'
रमेश के स्वर में नीरसता थी, बोला - 'तो यह मामला है? लेकिन गवाही न दो तो क्या होगा?'
थोड़ी देर रुक कर रमा ने कहा - 'दो दिन बाद हमारे यहाँ पूजन है -महामाया का। गवाही न देने से कोई भी हमारे उस पूजन में शरीक न होगा और न फिर कोई यतींद्र के यज्ञोपवीत संस्कार के समय हमारे यहाँ भोजन ही करेगा!' कहती हुई रमा सिहर उठी।
इतना ही काफी था सारी परिस्थिति समझने के लिए पर रमेश से न रहा गया; पूछा - 'फिर क्या होगा?'
रमा ने तिलमिलाते हुए कहा - 'फिर...? नहीं-नहीं! जाना ही होगा तुम्हें! तुम चले जाओ! मैं विनती करती हूँ तुम्हारी, रमेश भैया! मैं बरबाद हो जाऊँगी, अगर तुम न गए तो!'
थोड़ी देर बाद तक दोनों में से कोई भी न बोल सका! अब से पहले रमा के मिलते ही रमेश आवेश से भर उठता था और लाख कोशिशें करने पर भी उसका मन शांत न हो पाता था। अपने इस आवेश और उन्मत्तता पर तब वह स्वयं ही खीज उठता, हृदय शांत न हो पाता था। इस समय भी, रमा को अपने घर के एकांत में पा कर, और पिछले दिन की घटना याद करके वह फिर आवेशोन्मत्त हो उठा। लेकिन रमा के अंतिम वाक्य ने उसके उन्मत्त ज्वार को वहीं शांत कर दिया। रमा के इस आग्रह में रमेश की स्वास्थ्य-चिंता के बहाने में अपना कितना जबरदस्त स्वार्थ छिपा था - इसे सुनते ही रमेश पर कटे पक्षी की तरह अपने भीतर-ही-भीतर तिलमिला उठा और एक दीर्घ नि:श्वास छोड़ कर बोला -'चला जाऊँगा! पर आज तो हो नहीं सकता! समय नहीं रहा अब और फिर मेरे यहाँ से चले जाने पर तुमको जितना बड़ा लाभ होगा - उससे कहीं जरूरी है मेरा आज रात को यहीं करना! तुम अपनी दासी को बुला कर जाओ। मैं अभी बाहर जा रहा हूँ।'
'आज नहीं जा सकते क्या, किसी भी तरह?'
'नहीं!...दासी कहाँ गई तुम्हारी?'
'मैं अकेली ही आई हूँ।'
रमेश चकित रह गया, बोले - 'क्यों? साहस कैसे किया तुमने, यहाँ अकेले आने का?'
रमा ने सुकोमल स्वर में कहा - 'क्या फायदा होता - उसे ला कर भी? वह होती भी तो तुम्हारे हाथ से मेरी रक्षा नहीं हो सकती थी। मैं आ सकी इसलिए, क्योंकि तुम पर मेरा विश्वास था!'
'वह ठीक है, लेकिन इस तरह जो झूठी बदनामी उड़ सकती है, उसकी ढाल तो वह बन सकती थी, रानी! रात भी काफी हो गई!'
रमेश बचपन में रमा को इसी नाम से पुकारता था। अपने उसी पुराने संबोधन को सुन कर रमा आत्मविभोर हो उठी, पर संयत हो कर बोली - 'वह भी बेकार ही होता, रमेश भैया! उजली रात है, अकेली ही जा सकती हूँ।'
और बिना किसी बात की प्रतीक्षा किए, रमा वहाँ से चली गई।