देहाती समाज / अध्याय 19 / शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
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देहाती समाज शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
अनुक्रम अध्याय 19 पीछे
कैलाश हज्जाम और मोतीलाल दोनों ही, अपने झगड़े का निबटारा करने के लिए रमेश के पास अपने सारे कागजात और अपने-अपने पक्ष के सबूत लेकर आए। वे अदालत न जा कर रमेश के पास आए थे, यह देख कर रमेश को अत्यंत विस्मय और नए जागरण का आह्लाद हुआ। रमेश ने उनसे पूछा - 'तुम लोग मानोगे भी मेरा फैसला?'
दोनों ने वायदा किया कि जरूर मानेंगे - 'भला आपमें और उस हाकिम में, जो अदालत में बैठ कर फैसला करता है, अंतर ही क्या है? जो इल्म आपने पाया है, वही तो उन्होंने भी पाया होगा! जैसे आप भले घर के हैं, वैसे ही वे भी होंगे - और फिर अगर आप ही हाकिम बन कर आ जाएँ, तो आपका फैसला उस हालत में मानना ही होगा हम लोगों को। तो फिर अभी क्यों न मानेंगे?'
रमेश तो मारे आनंद के विभोर हो उठा।
'हम दोनों ही आपको अपने-अपने पक्ष की बात साफ-साफ कह सकेंगे। अदालत में तो वैसे सच कह नहीं सकते। और फिर वहाँ जा कर तो वकीलों का मुँह रुपयों से भरना होता है। यहाँ तो वैसे ही न्याय होगा। कुछ तवालत भी न उठानी होगी। हम जरूर मानेंगे आपका फैसला, चाहे वह किसी के पक्ष में हो! भगवान की कृपा से हम सबकी समझ में सब बातें आ गई हैं! तभी अदालत को ठुकरा कर आपके पास आए हैं।'
अपने साथ लाए सारे कागजात उन्होंने रमेश के हाथ में रख दिए। एक नाले के संबंध में उन दोनों का झगड़ा था। सुबह न्याय सुनने आने को कह कर, दोनों ही चले गए। रमेश अभिभूत बैठा रहा। उसे आशा भी न थी कि इन अशिक्षितों में इतनी सुबुद्धि आ गई है। अब चाहे वे लोग उसका फैसला भले ही न मानें, लेकिन अदालत को ठुकरा कर उनके पास ये लोग आए हैं, यही क्या कम बात है? इसको सोच-सोच कर उसका हृदय प्रसन्नता से भर उठा। वैसे तो मामला बहुत मामूली-सा था, पर उनके इस बुद्धि परिवर्तन ने उसे बड़ा महत्व प्रदान कर दिया और रमेश उसके सहारे स्वदेश के भविष्य की सुहावनी तस्वीर की कल्पना कर, उसमें ही आत्मविभोर हो उठा। सहसा रमा उनके स्मृति पटल पर अनायास ही आ गई। अगर और किसी दिन इस प्रकार उसकी याद आई होती, तो उनका मन गुस्से से अभिभूत हो उठता, पर आज उनका मन अत्यंत शांत रहा। मन ही मन प्रफुल्लित हो बोला - 'काश, तुम यह जान पातीं रमा, कि तुम्हारा विरोध, द्वेष और विष ही आज मेरे लिए अमृत बन उठा है और वही मेरे जीवन की धारा को बदल कर, मेरे सारे स्वप्नों को सार्थक बना देगा तो विश्वास करता हूँ कि तुम कभी मुझे जेल न भेजना चाहतीं!'
'कौन है?' आहट पा कर उन्होंने पूछा।
'मैं हूँ राधा, छोटे बाबू, रमा बहन ने आपसे कहलाया है कि वे जाते वक्त आपसे मिल कर जाना चाहती हैं!'
रमेश सुन कर विस्मय में पड़ गया। रमेश को मिलने के लिए बुलाने को रमा ने दासी भेजी है? आज यह कैसी-कैसी अप्रत्याशित घटनाएँ घटित हो रही हैं?
'अगर एक बार आप दया करें, छोटे बाबू!'
'है कहाँ, वह?'
'घर ही में पड़ी हैं।' - थोड़ी देर रुक कर उसने कहा - 'फिर कल शायद समय न मिल सके, इसलिए इसी समय हो सके, तो बहुत अच्छा हो!'
रमेश उठ कर खड़े होते हुए बोला - 'चलो, चलता हूँ।'
रमा भी रमेश को बुला कर, उनके आने की आशा व प्रतीक्षा में तैयार थी। दासी ने रमेश को कमरे में चले जाने को कह दिया। वह कमरे में घुस कर एक कुर्सी पर बैठा ही था कि रमा आ कर उसके पैरों पर झुक गई। एक ओर कोने में दीए की क्षीण लौ टिमटिमा रही थी। रमेश उसकी मंद रोशनी में रमा के क्षीण शरीर को अच्छी तरह न देख सका। उससे कहने की बातें, जो उसने रास्ते में आते समय सोची थीं, सब क्षण भर में हवा हो गईं और अत्यंत स्नेहसिक्त कोमल स्वर में वे बोले - 'कैसी तबियत है, रानी?'
रमा उठ कर पैरों के पास ही सीधी हो कर बैठ गई, बोली -'मुझे आप रमा ही पुकारा करें!'
रमेश को जैसे किसी ने ठोकर मार दी हो, थोड़ा सूखे स्वर में कहा उन्होंने - 'जैसी तुम्हारी मर्जी! तुम्हारी बीमारी की बात सुनी थी मैंने, तभी पूछा था कि अब कैसी है तबीयत! नहीं तो, न मैं चाहता ही हूँ और न मेरी इच्छा ही होती है तुम्हें तुम्हारे नाम से पुकारने की, फिर चाहे वह रमा हो या रानी!'
रमा थोड़ी देर तक मौन बैठी रही, फिर बोली - 'ठीक ही हूँ। मेरे बुलाने पर आपको विस्मय तो जरूर ही हुआ होगा!'
बीच ही में रमेश ने तीव्र स्वर में कहा - 'विस्मय तो बिलकुल नहीं हुआ -क्योंकि अब मुझे तुम्हारे किसी काम से ताज्जुब नहीं होता! बोलो, किसलिए बुलवाया है?'
रमेश अनभिज्ञ रहे कि उनके इस वाक्य ने रमा के अंतर को विदीर्ण कर दिया। थोड़ी देर तक वह सिर झुका कर शांत बैठी रही। फिर बोली - 'मैंने आपको बहुत कष्ट दिया है! आपके सामने मैं कितनी बड़ी अपराधिनी हूँ - यह तो मैं खूब जानती हूँ। पर मुझे यह विश्वास था कि आप आएँगे अवश्य, और मेरे दो अंतिम अनुरोधों को भी अवश्य मानेंगे, रमेश भैया! मेरे दो अनुरोध हैं आपसे - उन्हीं के लिए मैंने आपको कष्ट दिया है।'
कहते-कहते आँसुओं से उसका गला भर उठा, और बातचीत वहीं रुक गई। रमेश का दबा प्रेम भी उमड़ पड़ा। उसे यह देख कर कि इतने थपेड़े खा कर भी वह प्रेम अक्षुण्ण रहा है, बड़ा आश्चर्यानंद हुआ। थोड़ी देर तक शांत बैठे रहने के बाद उसने पूछा - 'बोलो! सुनूँ तो, क्या हैं तुम्हारे अनुरोध!'
रमा का सिर एक बार ऊपर उठ कर फिर नीचा हो गया। बोली - 'आपकी सहायता से बड़े भैया जिस जायदाद को हथियाना चाहते थे, उसमें पंद्रह आना हिस्सा मेरा है और एक आने में आप लोग! मैं उसे आपको सौंप जाना चाहती हूँ।'
रमेश ने कड़े स्वर में कहा - 'न मैंने पहले ही कभी, चोरी में किसी की सहायता की है और न अब ही करने का इरादा है! तुम निश्चिंत रहो! तुम्हारा इरादा अगर उसे दान करने का ही है, तो मैं तो तुम जानती हो कि दान लेता नहीं! और भी तो बहुत-से लोग हैं, जिन्हें दान कर सकती हो!'
और कोई समय होता, तो रमा यह कहने में न चूकती कि घोषाल परिवार को शर्म किस बात की है, मुकर्जी परिवार का दान लेने में? लेकिन आज इतनी कटु बात कहने को उसका मुँह नहीं खुला। उसने अत्यंत विनम्र स्वर में कहा - 'मैं खूब जानती हूँ कि आप अपने लिए दान नहीं लेंगे और लेंगे तो औरों की भलाई के लिए ही! चोरी में सहायता भी आप न देंगे। लेकिन मेरे अपराधों के दण्डस्वरूप जुर्माने के रूप में ही स्वीकार कर लीजिए उसे!'
थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद रमेश ने पूछा कि उसका दूसरा अनुरोध क्या है?
रमा बोली - 'मेरा दूसरा अनुरोध है कि आप यतींद्र को अपने साथ रखें! मैं उसे आपको सौंप जाना चाहती हूँ - जैसे आप हैं, उसे भी वैसा ही बनाइएगा, ताकि बड़ा होने पर वह भी आपकी ही तरह त्यागी बन सके!'
रमेश का दिल पिघल गया। अपने आँसू पोंछते हुए रमा आगे बोली - 'भले ही मुझे वह दिन देखने को मिले, लेकिन मैं यह विश्वास के साथ जानती हूँ कि उसकी धमनियों में उसके पूर्व पुरुषों का जो रक्त है - उससे वह शिक्षा और आपका साथ पा कर, निश्चय ही आपके समान विशाल हृदय का मनुष्य बन सकेगा!'
रमेश निरुत्तर रहा। बाहर आसमान पर स्वच्छ चाँदनी बिखरी थी, वह उसी तरफ खिड़की से देखता रहा। उसका मन प्रेम-व्यथा से भर उठा था। ऐसा तो पहले कभी उसने अनुभव न किया था! काफी देर तक चुप बैठे रहने के बाद वह बोले - 'क्यों घसीटती हो मुझे इन सबमें? बड़ी मुश्किल के बाद तो एक सफलता प्राप्त कर सका हूँ। मुझे डर है कि इससे कहीं वह फिर नष्ट न हो जाए!'
'डर की अब गुंजाइश नहीं, रमेश भैया! आपके परिश्रम से जो सफलता आज मिली है, वह कभी नष्ट न होगी! एक दिन कहा था ताई जी ने आपसे कि ऊँचाई से आ कर, ऊँचे आसमान पर बैठ कर, देहाती समाज में घुलने-मिलने के बजाय उससे अपना अस्तित्व पृथक रख कर आपने काम शुरू किया था, उसी कारण इतनी बाधाएँ और विघ्न आपको उठाने पड़े! हम लोगों ने अपने बुरे कामों से आपको नीचे गिरा कर, उचित स्थान पर ला कर खड़ा कर दिया, जहाँ से आपके द्वारा जलाई गई लौ निरंतर प्रकाशवान ही होती जाएगी!'
ताई जी का नाम सुन कर रमेश की आँखें चमक उठीं, बोले - 'रमा! क्या तुम्हारा कहना ठीक होगा? क्या मेरी जलाई लौ कभी न बुझेगी?'
'मैं निश्चयपूर्वक कह सकती हूँ, रमेश भैया! ताई जी भविष्य-ज्ञाता हैं। उन्हीं की भविष्यवाणी है। मेरी अंतिम अभिलाषा है, रमेश भैया, कि आप अपने यतींद्र का हाथ पकड़ कर, अपनी रमा को क्षमा कर, चलते समय आशीर्वाद दे कर विदा कर दें, ताकि अपनी सारी व्यथा से मुक्ति पा और निश्चिंत हो कर, इस संसार से अपना जीवन पूरा कर सकूँ!'
रमेश के अंतर में प्रकाश की एक किरण-सी फूट पड़ी। सिर नीचा किए चुपचाप बैठे रमा की बातों को हृदयंगम करता रहा।
'एक बात और भी माननी होगी आपको मेरी! वचन दीजिए कि मानेंगे!' -रमा ने कहा।
रमेश ने नम्र स्वर में कहा - 'कौन-सी बात है वह?'
'बड़े भैया से आप मेरी कोई बात लेकर कभी झगड़ा न करना!'
रमेश रमा का मंतव्य न समझ सके, पूछा - 'तुम्हारा मतलब?'
'जब कभी समझ सको, इसका मतलब तब यह याद कर लेना कि मैं अपनी व्यथा में जलती हुई, मूक रह कर सब कुछ सहती चली गई। एक दिन जब यह सब कुछ मेरी सहन शक्ति से बाहर हो रहा था, तब ताई जी ने मुझसे कहा कि बेटी, झूठ को जितना कुरेदा जाता है, वह उतना ही भयंकर रूप धारण करता है; और स्वयं एक बहुत बड़ा पाप है, अपने लिए। उनके इसी उपेदश को शिरोधार्य कर, अपनी सारी व्यथा को कलेजे में दबाए, उससे स्वयं ही जलती हुई अब तक दिन काटती आई हूँ। तुम भी याद रखना रमेश भैया, इस बात को!'
रमेश शांत भाव से रमा की तरफ देखता रहा।
थोड़ी देर बाद वह फिर बोली - 'हो सकता है कि आज तुम मुझे क्षमा न कर सको! रमेश भैया, इस बात का खयाल कर अपने दिल में दुखी भी मत होना; क्योंकि मुझे पूरा विश्वास है कि एक न एक दिन तुम्हारे अंत:करण का आशीर्वाद मुझे प्राप्त होगा ही! तभी मेरा मन आज पूर्ण रूप से शांत है। तुम निश्चय ही मेरे सारे अपराधों को क्षमा करोगे! मैं कल जा रही हूँ, रमेश भैया?'
रमेश ने चौंक कर पूछा - 'कहाँ?'
'वहीं, जहाँ ताई जी ले जाएँगी।'
'पर वे तो लौट कर नहीं आएँगी शायद!'
'तो मैं भी नहीं आऊँगी! मैं तुम्हारे चरणों की धूलि अब अंतिम बार लेती हूँ।'
कह कर रमा ने रमेश के पैरों पर अपना सिर टेक दिया। रमेश ने एक दीर्घ निःश्वास छोड़ा और उठ कर खड़े होते हुए कहा - 'जाओ! पर क्या मुझे इतना भी न बताओगी कि मुझे छोड़ कर इस तरह क्यों चली जा रही हो?'
रमा ने कोई उत्तर न दिया।
'तुम अपनी सारी बातें मुझसे गोपनीय रख कर क्यों जा रही हो, रमा? मैं नहीं जानता - क्या है इसका कारण? मेरी भगवान से यही प्रार्थना है कि मुझे वह दिन दिखा दे जल्दी से कि जब मैं तुम्हें अपने सारे अंत:करण से क्षमा कर सकूँ। कितना कष्ट हो रहा है, तुम्हें क्षमा न कर सकने के कारण, यह मैं ही जानता हूँ।'
रमा की आँखों से अविरल अश्रुधारा बह चली, मंद प्रकाश होने के कारण उस पर रमेश की निगाह न पड़ सकी।
रमा ने फिर एक बार रमेश को प्रणाम किया और रमेश वहाँ से चला गया। रास्ते में उसे अपना सारा उत्साह तिरोहित-सा होता प्रतीत हुआ।
दूसरे दिन सबेरे रमेश जब विश्वेश्वरी के घर, उनके अंतिम दर्शन करने को गया, तो वे उस समय जाने को पालकी में बैठ रही थीं। रमेश ने आँखों में आँसू भर कर पास आ कर कहा - 'हमारे किस अपराध के दण्ड में, हम सबको इतनी जल्दी छोड़ कर जा रही हो, ताई जी?'
अपना दाहिना हाथ रमेश के सिर पर रखते हुए उन्होंने कहा - 'अपराध की बात मत पूछ, बेटा! उसे कहने लगूँगी, तो वह खतम न होगी। यहाँ मरने पर, वेणी के हाथ से अपना अंतिम संस्कार मैं नहीं कराना चाहती। उसके हाथ से मेरी मुक्ति कभी नहीं हो सकती। इस लोक का जीवन तो व्यथा में मन जलते -जलते बीता ही है बेटा! परलोक में शांति से जीवन बिताने की साध में यहाँ से भाग कर जा रही हूँ मैं!'
रमेश स्वब्ध खड़ा रहा। विश्वेश्वरी के हृदय की व्यथा को रमेश ने आज से पहले कभी इतना स्पष्ट रूप से न जाना था और न समझा ही था। थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद पूछा - 'क्या रमा भी जा रही है, ताई जी?'
एक दीर्घ नि:श्वास छोड़ कर विश्वेश्वरी ने उत्तर दिया - 'अब उसके लिए संसार में भगवान के चरणों के सिवा कोई स्थान नहीं रहा है, तभी भगवान के चरणों में इसे ले जा रही हूँ। कहा नहीं जा सकता कि वहाँ पहुँचने पर वह जीवित भी रहेगी या नहीं! यदि जीवित रह सकी, तो उससे मैं यही अनुरोध करूँगी कि वह शेष जीवन यही जानने का प्रयास करे कि भगवान ने क्यों तो उसे इतना रूपवान और गुणवान बना कर संसार में भेजा और फिर क्यों उसे संसार से अपने हृदय पर व्यथा का भार लेकर, उसमें जलने को दूर फेंक दिया? इसमें भगवान का कोई अदृश्य अभिप्राय है या फिर हमारे समाज की ही विडंबना इसका कारण है? बेटा रमेश, वह तो संसार में सबसे बड़ी दुखिया है!'
कहते-कहते विश्वेश्वरी का गला भर आया। इतना व्यग्र और विकल आज तक कभी किसी ने उन्हें नहीं देखा था। रमेश स्तम्भित खड़ा रहा।
थोड़ी देर बाद विश्वेश्वरी फिर बोलीं - 'रमेश बेटा, मेरी एक बात मानना कि कभी उसे गलत मत समझना! मैं नहीं चाहती कि चलते-चलते किसी को दोषी कहूँ, पर इतना तुमसे जरूर कहती हूँ - मेरा विश्वास करो कि संसार में उससे बढ़ कर तुम्हारा हित चिंतक और कोई नहीं!'
'पर ताई जी...'
बीच में ही रमेश की बात काटते हुए विश्वेश्वरी ने कहा - 'पर-वर कुछ नहीं, रमेश! तुमने जो कुछ जाना, सुना या समझा है सब एकदम झूठ है! लेकिन अब इसका वितंडा खड़ा करने की जरूरत नहीं। उसकी भी यही अंतिम अभिलाषा है कि तुम जीवन भर इसी तरह पूरे उत्साह के साथ, द्वेष, मिथ्याभिमान और हिंसादि से परे रह कर अपने सुकार्य में रत रहो! इसलिए उसने अपने को अंदर
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