देहाती समाज / अध्याय 2 / शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
सौ वर्ष पूर्व, बाबू बलराम मुखर्जी तथा बलराम घोषाल विक्रमपुर गाँव से साथ-साथ आ कर कुआँपुर में आ बसे थे। संयोग की बात थी दोनों अभिन्न मित्र भी थे और दोनों का नाम भी एक ही था। मुखर्जी बाबू बुद्धिमान और प्रतिष्ठित कुल के थे। उन्होंने अच्छे घर में शादी करके और सौभाग्य से अच्छी नौकरी भी पा कर यह संपत्ति बनाई थी। शादी-ब्याह व गृहस्थी का जीवन तो घोषाल बाबू का भी बीता था पर वे आगे ने बढ़ सके। कष्ट में ही उनका सारा जीवन बीत गया। उनके ब्याह के मसले पर ही दोनों में कुछ मनमुटाव हो गया था और उसने इतना भयंकर रूप धारण कर लिया कि उस दिन के बाद से पूरे बीस वर्ष तक वे जिंदा रहे, पर एक ने भी किसी का मुँह नहीं देखा। जिस दिन बलराम मुखर्जी का स्वर्गवास हुआ, उस दिन भी घोषाल बाबू उनके घर नहीं गए। पर उनकी मृत्यु के दूसरे दिन ही, एक अत्यंत विस्मयजनक समाचा सुन पड़ा कि वे मरते समय अपनी संपत्ति का आधा भाग अपने पुत्र को और आधा अपने मित्र के पुत्र को दे गए हैं। तभी से कुआँपुर की जायदाद पर दोनों परिवारों का अधिकार चला आ रहा है। इस बात पर उनको भी गर्व है और गाँववाले भी इसे मानते हैं। जिस समय की बात हम कह रहे हैं उस समय घोषाल परिवार भी दो भागों में बँट चुका था। अभी कई दिन हुए, तब उसी परिवार के तारिणी घोषाल मुकदमे के काम से शहर कचहरी गए थे, पर उनको तो बड़ी कचहरी का बुलावा आ गया था और वे वहाँ चले गए। उनके इस असमय स्वर्गवास हो जाने पर कुआँपुर में ही नहीं, आस-पास भी हलचल मच गई। तारिणी घोषाल परिवार बँटवारे की छोटी शाखा से थे; और बड़ी शाखा से वेणी घोषाल हैं, जिन्होंने उनकी मृत्यु पर संतोष की साँस ली। उन्होंने चुपके-चुपके ही जुगाड़ लगाया कि किसी तरह उनके श्राद्ध में गड़बड़ी मच जाए। तारिणी रिश्ते में वेणी के चाचा होते थे। पिछले दस वर्षों से चाचा-भतीजों में भी अनबन थी और महीनों तक किसी ने एक-दूसरे का मुँह भी न देखा था। तारिणी घोषाल की गृहिणी दस वर्ष पहले ही मर चुकी थी। तब उन्होंने अपने पुत्र को तो मामा के पास भेज दिया था और स्वयं अकेले ही, नौकर-चाकर और नौकरानियों के साथ सब काम सँभालते, मुकदमे वगैरह करते-कराते दिन काटते रहे। रमेश को जब उनकी मृत्यु का समाचार मिला उस समय वह रुड़की कॉलेज में थे। एक अरसे के बाद वह अपने गाँव - समाचार मिलते ही - चल पड़े और अंतिम संस्कार आदि करने को कल तीसरे पहर अपने घर आ पहुँचे।
अब दो दिन बाद ही, बृहस्पतिवार को श्राद्ध होने वाला है। धीरे-धीरे पास-पड़ोस से सारे बड़े-बूढ़े, सगे-संबंधी जमा हो रहे हैं। घर में काम की चहल-पहल मची हुई है। नहीं आ रहे हैं तो उसी गाँव के लोग सिर्फ भैरव आचार्य अपने घर वालों के साथ यहाँ काम में हाथ बँटा रहे हैं। उनके अलावा अन्य किसी के आने की आशा रमेश को न थी। यह आशा न होते हुए भी रमेश ने तैयारी पूरी की थी - बड़े जोर-शोर के साथ।
वे सवेरे से ही घर के अंदर काम में व्यस्त थे। जब बाहर निकल कर आए, उस समय बाहर की बैठक में बुजुर्ग लोग हुक्का पी रहे थे। जैसे ही वे उनके पास जा कर नम्रतापूर्वक कुछ कहने को हुए, वैसे ही उनके पीछे से किसी के आने की आहट पा, उधर मुड़ कर देखा कि एक सज्जन - जो काफी बूढ़े हैं, जिनके कंधो पर एक मैला दुपट्टा पड़ा है, नाक पर एक बड़ा-सा चश्मा है जिसकी कमानी टूट गई है और जो डोरी से कान पर विशेष रूप से साधा गया है, बाल सफेद हैं, मूँछें भी - जो हुक्के के धुएँ से कुछ धुआँरी हो गई हैं, अपने साथ पाँच-छह लड़के-लड़कियों की पलटन लिए, खाँसते हुए अंदर घुस रहे हैं। अंदर आ कर, थोड़ी देर तक तो उसी मोटे-से चश्मे के अंदर से, आँखें फाड़-फाड़ कर वे रमेश को घूरते रहे और फिर एकबारगी फूट कर रो पड़े। रमेश पहचान न सका कि ये सज्जन हैं कौन! रमेश ने घबरा कर, बढ़ कर उनका हाथ पकड़ा तभी वह भरे गले से बोले - 'मुझे तो यह आशंका नहीं थी कि तारिणी मुझे इस तरह छोड़ कर चला जाएगा। मैं घोषाल की तरफ से ही होता हुआ आ रहा हूँ। लगी-चुपड़ी तो मुझे आती नहीं। मेरे चटर्जी वंश की परंपरा ही साफ बात करने की है, सो मैं उसके मुँह पर अब भी कहता आया हूँ कि हमारा रमेश श्राद्ध का जैसा इंतजाम कर रहा है - वैसा न हुआ है और न करना ही संभव है! इधर तो इतना बड़ा आयोजन देखा भी न होगा किसी ने!' थोड़ा रुक कर फिर बोले - 'न जाने मेरे बारे में तुमसे ये लोग क्या-क्या लगी-लिपटी कह रहे होंगे! पर यह तुम जान लो कि मेरा नाम धर्मदास है और सचमुच ही मैं धर्म का दास हूँ।' और बूढ़ा अपने भाषण के गर्व में गोविंद गांगुली के हाथ से हुक्का ले, खूब जोर से कश खींचने और फिर खाँसने लगा।
श्राद्ध के आयोजन की बड़ाई में धर्मदास ने झूठ नहीं कहा था। वैसा बड़ा आयोजन तो वास्तव में इधर किसी ने कभी नहीं देखा था। कलकत्ता के हलवाइयों ने आ कर मिठाइयाँ बनाना शुरू किया था, आगे की तरफ मिट्टी खोदकर। इसी से मुहल्ले-टोले के छोटे लड़के-लड़की, उसी की तरफ चक्कर काट रहे थे। उधर चंडी-मंडप के दूसरी तरफ भैरव आचार्य बाँटने के लिए थान से धोतियाँ फाड़-फाड़ कर, उनकी तह बनाने में व्यस्त थे। एक तरफ कुछ आदमी बैठे रमेश के इस आयोजन को मूर्खता और फिजूलखर्ची बता कर, उसे मुफ्त में ही कोस रहे थे। बेचारे दीन-दु:खी गरीब खबर पा-पा कर दूर-दूर से चले आ रहे थे। घर भर में कहीं शोर हो रहा था तो कहीं किसी बात पर आपस में कुछ तू-तू मैं-मैं हो रही थी। चारों तरफ चहल-पहल मची थी। धर्मदास ने खाँसते -खाँसते अपनी आँखें चारों तरफ घुमा कर इस अधिक व्यय का अंदाजा लगाया, तो उनकी खाँसी और तीव्र हो उठी।
रमेश ने उनकी संवेदना पर सकुचाते हुए कुछ कहना चाहा, पर बीच में ही धर्मदास ने उन्हें हाथ के संकेत से रोक कर, स्मृति के ही नाम पर ढेर-सी बातें कह दीं, जो कुछ समझी न जा सकी।
गोविंद गांगुली आ तो सबसे पहले गए थे, परंतु अवसर होने पर भी और चाह कर भी, वे तमाम बातें कहने में चूक गए थे जो धर्मदास ने आते ही कह दीं। पहला अवसर चूका जान कर, वे अपने पर गुस्सा हो रहे थे। अनमना जान कर और तुरंत ही ऐसा मौका हाथ से न जाने देने के विचार से, तपाक से बोले - 'भैया धर्मदास, जब मैं कल सबेरे घर से निकल कर सीधा यहाँ को ही आ रहा था, तो रास्ते में ही वेणी ने मुझे पुकारा कि चाचा, हुक्का पीते जाओ! पहले सोचा कि जरूरत ही क्या है, उसके पास जाने की? पर तुरंत ही दिमाग ने दौड़ लगाई कि वहाँ चल कर, दिल की टटोल जरूर कर लेनी चाहिए। रमेश भैया, तुम क्या कभी सोच सकते हो कि वेणी ने क्या कहा होगा? बोला - 'रमेश की सहायता को तुम्हीं पहुँच गए चाचा, या और कोई भी जाएगा खाने-पीने को? बस तुम्हीं अकेले रहोगे?'
'भला मैं क्यों चूकता! अरे, वह बड़ा है तो अपने घर का होगा और फिर हमारा रमेश किसी से क्या कम है? उसके घर से भला एक मुट्ठी चिड़वा भी जो कभी मिल जाए किसी को!' मैंने तपाक से उत्तर दिया - 'घबराते क्यों हो? रमेश के घर से लौटने और जाने का रास्ता तो यहीं हो कर है। जब दीन-दु:ख भिक्षा लेकर लौटने लगे, तब दरवाजे पर खड़े हो कर जरा देखना। आँखें फटी-की-फटी रह जाएँगी! रमेश की उम्र कम है तो क्या, दिल पाया है उसने! इतनी उमर तक तो इन आँखों ने कभी इतनी जबरदस्त तैयारी देखी नहीं है। पर धर्मदास, सच पूछो तो तारिणी भैया का ही सारा प्रताप है! वे ही सब कुछ करा रहे हैं, ऊपर बैठे-बैठे।'
धर्मदास का दिल मसोस कर रह गया, जब उन्होंने देखा कि गोविंद गांगुली तो इतनी ढेर-सी चुपड़ी बातें कह गया, और वे खाँसते ही रह गए। वे जितना अधिक आवेश में आते, खाँसी उतनी ही और भी जोर मारती। वे आगे कुछ कहने को अत्यंत व्यग्र हो उठे, पर घंटों खाँसते ही रह गए। गांगुली महाशय ने बातों की दूसरी किश्त शुरू की। बोले - 'भैया, तुम्हारी माँ जो थीं न वे हमारी सगी फुफेरी बहन की ममेरी बहन थीं, राधानगर के बनर्जी के घर की! हमारा तुम्हारा तो अपना-सा मामला है! तारिणी भैया की तो पूछो मत! हर बात में बुलाओ गोविंद को, बुलाओ गोविंद को! चाहे मामला-मुकदमा हो, चाहे और कोई काम।'
धर्मदास अपनी बात कहने को छटपटाने लगे। उन्होंने पूरी कोशिश से खाँसी को रोका और बोले - 'क्यों बेकार की बातें मारते हो, गोविंद! मैंने भी यहाँ जिंदगी काटी है। सब जानता हूँ। जब उस साल गवाही में चलने की बात चली तो बोले कि पैर में जूता नहीं है! बिना जूता कैसा जाया जाएगा और जब तारिणी भैया ने जूता दिलवा दिए, तब शहर जा कर वेणी की तरफ से गवाही दे आए थे।' कह कर धर्मदास खाँसने लगे।
गोविंद ने पोल खुलती देख, लाल-पीली आँखें कर कहा - 'मैंने दी थी गवाही?'
'नहीं दी थी क्या?'
'झूठा दुनिया भर का!'
'तेरा बाप होगा झूठा!'
गोविंद ने अपना टूटा छाता ताना और फौरन खड़े हो कर गरज कर कहा - 'ठहर तो साले, अभी बताता हूँ।'
धर्मदास ने भी अपना बाँस का सोटा सीधा किया। पर दूसरे ही क्षण बुरी तरह खाँसने लगे।
रमेश दोनों की बातों से दंग रह गया और लपक कर उनके बीच में आ कर खड़े हो गए। धर्मदास खाँसते-खाँसते बैठ गए और बोले - 'साले की बुद्धि तो देखो! मैं साले के नाते बड़ा भाई लगता हूँ।'
गोविंद ने भी छाता नीचा कर लिया और बैठते हुए बोले - 'देखो तो भला, यह साला और मेरा बड़ा भाई!'
हलवाइयों ने भी काम बंद कर तमाशा देखना शुरू कर दिया था। दूसरे लोग भी काम छोड़-छोड़, शोर सुन कर जमा हो गए। लड़के भी उनकी लड़ाई मजे से देख रहे थे और उन सबके आगे रमेश आँखें नीची किए, लज्जित-सा, डर कर खड़ा था। ब्राह्मण हो कर, वे लोग इस तरह मामूली-सी बातों पर ओछे लोगों की तरह आपस ही में गाली-गलौज कर रहे थे। भैरव बरामदे में बैठ कपड़े सी रहे थे। और वहीं बैठे-बैठे तमाशा देख रहे थे। वे भी बाद में वहाँ आ कर बोले - 'रमेश, करीब चार सौ एक धोतियाँ तह हो चुकी हैं, और धोतियाँ जल्दी चाहिए क्या?'
रमेश से कोई उत्तर ही न देते बना। रमेश की चुप्पी देख भैरव से न रहा गया, वह हँस दिया और सुकोमल स्वर में कहा - 'वाह गांगुली जी, बाबूजी तो बिलकुल खो-से गए हैं! आप खयाल न करें बाबू, इन बातों का। ऐसी बातें यहाँ हुआ ही करती हैं और फिर बड़े काम-धंधों में इस तरह दो-चार बार तनातनी न हो, तो फिर वह बड़ा काम ही क्या? यहाँ तक होता है कि कभी-कभी तो मार-पीट, खून-खराबे तक की नौबत आ जाती है!' बाद में फिर उसने चटर्जी की तरफ उन्मुख हो कर कहा - 'चटर्जी महाशय, जरा अब चल कर देखिए तो, कि धोतियाँ काफी हैं या और फाड़ी जाएँ।'
तब तक धर्मदास इसका कुछ उत्तर दें, गोविंद महाशय झट से उठ कर खड़े हो गए और तपाक से बोले - 'ठीक तो है ही, यह सब तो चलता ही रहता है! तभी इसे बड़ा काम कहा जाता है। हमारे शास्त्रों तक में तो लिखा है कि बिना लाख बातों के ब्याह नहीं हुआ करते। भैरव, क्या उस साल की बात भूल गए, जब मुखर्जी महाशय की रमा के ब्याह में, राघव भट्टाचार्य और हारान में सर फुटव्वल तक की नौबत आ गई थी? पर भैया, मेरी बात पूछो तो यह काम भी ठीक नहीं। भला ओछे आदमी को, जिन्हें नीच कहते हैं, इस तरह धोती बाँटना कहाँ तक ठीक है? तब तुम्हीं कहो भैरव! यह रुपया पानी की तरह बहाना है या नहीं? नाम हो जाता - नाम! यदि कहीं ब्राह्मणों को एक-एक जोड़ा धोती और उनके बच्चों को भी एक-एक धोती दी जाती तो। मेरी राय में, यही करना चाहिए छोटे भैया को। धर्मदास भैया, तुम्हारी अपनी क्या राय है इसमें?'
धर्मदास ने भी पूरी गंभीरता के साथ, समर्थनसूचक सिर हिला कर कहा - 'बात तो ठीक ही कही गोविंद ने, रमेश भैया! नीच तो बस नीच ही होते हैं! लाख दो, पर सब पानी हो जाता है। कभी एहसान तक नहीं मानते!'
इन ब्राह्मणों की इतनी ओछी मनोवृत्ति देख, रमेश का उदार हृदय चोट खा कर क्षुब्ध हो उठा। वह अब भी नि:शब्द ही खड़ा था। पर जिनके मुख से ये बातें निकली थीं - वे तो अपनी बातों की उच्चता पर विशेष गर्व का अनुभव कर रहे थे। रमेश को सबसे अधिक ग्लानि उनके उस आचरण पर ही हो रही थी कि जिन्हें वे नीच कह रहे हैं, उन्हीं के समान स्वयं आपस में लड़ बैठे। पर वे तो उस पर तनिक भी सोच नहीं रहे थे। चिकने घड़े पर पानी की तरह उनके लिए बात आई-गई-सी हो गई थी। भैरव की प्रश्नसूचक दृष्टि अपनी ओर लगी देख रमेश ने कहा - 'दो सौ धोतियाँ और ठीक कर लीजिए।'
बात को दोहराते हुए गोविंद ने कहा - 'बिना इतनों के काम नहीं चलेगा! चलो, मैं भी चल कर हाथ बटाऊँ। तुम अकेले कब तक करोगे?' और बिना राय की प्रतीक्षा किए, कपड़े की ढेरी के पास जा बैठा।
रमेश अंदर जाने को हुए, पर धर्मदास उन्हें एक तरफ बुला कर ले गए और चुपके से उनके कान में कुछ बोले, जिसके उत्तर में रमेश ने भी स्वीकृतिसूचक सिर हिला दिया और अंदर चला गया। गोविंद गांगुली की तेज कनखियों ने कपड़े ठीक करते हुए भी यह देख लिया।
तभी एक और वृद्ध, जो ब्राह्मण ही थे और जिनकी मूँछें ऊपर को ऐंठी हुई थीं 'रमेश भैया, रमेश भैया' कहते हुए वहाँ आ पहुँचे। उनके दो-तीन लड़के-लड़कियाँ भी थीं, जिनमें सबसे बड़ी लड़की के शरीर पर फटी-पुरानी डोरिया की एक लाल धोती थी और लड़कों के बदन पर सिर्फ एक लँगोटी। सबकी आँखें उनकी तरफ उठ गई। गोविंद ने उनका स्वागत करते हुए कहा -'दीनू भैया! आओ बैठो! हमारा परम सौभाग्य है कि आपकी चरण-रज यहाँ पड़ी। बेचारा लड़का अकेला है। मारे काम के मरा जा रहा है, तभी आप लोगों की...।'
तभी धर्मदास ने तिरछी-तीखी नजर से गोविंद की तरफ देखा, जिसका अर्थ समझ, गोविंद ने बात का पहलू बदल कर कहा - 'आप लोग भैया इधर आने ही क्यों लगे!'
यह कह उनके हाथ में हुक्का थमा दिया। दीनू भट्टाचार्य जी बैठ गए और हुक्के से दो-तीन सूखे कश खींचे, पर वह तो पहले ही जल चुका था। बोले - 'भाई मैं तो गया बाहर, तुम्हारे ससुर के घर - तुम्हारी बहू को लेने। कहाँ हैं, रमेश भैया? रास्ते भर सुनता आया हूँ बड़ाई। खाने -पीने के बाद, जाते समय सबको सोलह-सोलह पूड़ियाँ चार-चार संदेश ऊपर से दिए जाएँगे।'
धीरे से गोविंद ने बात पूरी की - 'इसके अलावा एक-एक धोती भी मिलने की आशा है! मैंने तो कहा था न तुमसे कि वैसे तुम बुजर्गों के आशीर्वाद से, काम तो सब चौकस किया जा रहा है, पर वेणी भी अपनी कसर नहीं उठा रख रहा है। हाथ धो कर पीछे पड़ा है! मेरा-रमेश का खून एक है, नहीं तो वेणी ने मुझ पर भी डोरे खूब डाले। दो-दो बार आदमी भेज कर बुलवा चुका है और तुम हुए, धर्मदास भैया हुए, सो भी पराए थोड़े ही हो, अपने ही हो। अबे षष्टीचरण! जा, चिलम तो भर ला। भैया रमेश! जरा सुनना तो, एक बात कहनी है तुमसे।'
और रमेश को एक तरफ ले जा कर गोविंद गुपचुप बोले - 'धर्मदास की औरत अंदर आ गई है क्या? होशियार रहना भैया। उसके हाथ कुछ सौंप न देना! वहाँ का सारा घी, आटा, तेल, नमक आधा-आधा साफ गायब कर देगी। मैं अभी जा कर तुम्हारी मामी को ले आता हूँ। चिंता मत करो किसी बात की! सारा प्रबंध आ कर सम्हाल लेगी। जरा-सा तिनका भी कहीं इधर का उधर जो हो जाए, मजाल है!'
रमेश सिर हिला कर चुप हो गया, किंतु उसे विस्मय यह सोच कर हुआ कि धर्मदास की बहुत धीरे-से कही हुई, अपनी स्त्री को भेज देने की बात गोविंद ने कैसे भाँप ली।
जब ये बातें चल रही थीं, तभी दो नंगे-धड़ंगे लड़के आ कर दीनू के कंधों से लिपट कर कहने लगे - 'हम संदेश खाएँगे, बाबा!'
दीनू ने एक बार लड़कों की तरफ देखा, फिर रमेश और लड़कों की तरफ देख कर बोले - 'मेरे पास धरे हैं संदेश जो तुम्हें दे दूँ?'
लड़कों ने हलवाइयों की तरफ संकेत कर फिर वही बात कही।
फिर और भी लड़के -लड़कियाँ जमा हो गए, संदेश माँगते हुए।
रमेश व्यग्र हो बोला - 'बच्चे अपने-अपने घरों से तीसरे पहर के निकले हैं, भूखे होंगे! अरे, थाल इधर ले आना जी! क्या नाम तुम्हारा?'
हलवाई के संदेश का थाल लाते ही लड़के बंदरों की तरह से उस पर टूट पड़े और लूट मचा दी। उन्हें खाते देख, दीनू की जुबान पर भी लुआब आ गया और आँखें गीली और तीखी हो गईं। बोले - 'मुनिया! अरी बता तो बने कैसे हैं संदेश, या बस खा रही है!'
मुनिया ने खाते-खाते ही संदेश के बढ़िया होने की तारीफ की। पर इससे तो दीनू की लालसा मिटी नहीं। फिर बोले - 'बस, तुमको तो मीठा ही चाहिए। अच्छे-बुरे की तुम्हें क्या तमीज? अरे, भाई हलवाई! अभी से कड़ाही उतार दी? गोविंद भैया, अभी तो दिन है न?'
हलवाई ने लापरवाही से उत्तर दिया - 'हाँ, हाँ! अभी तो दोपहर है! यह समय तो हो गया, अब भी संध्या-पूजा नहीं कर सकेंगे, तब फिर कब करेंगे?'
हिम्मत करके दीनू बोल ही पड़े - 'एक गोविंद भैया को भी दो न, जरा चख कर परख करें तो तुम्हारे कलकतिया हाथ की! नहीं, नहीं! मुझे मत दो, मुझे नहीं चाहिए। नहीं मानते - तो फिर दे दो। आधा ही, आधा काफी है। ओ षष्ठीचरण! पानी ला तो जरा, हाथ तो धो लूँ।'
तभी रमेश ने षष्ठी को पुकार कर, अंदर से तीन-चार तश्तरियाँ लाने को भी कह दिया।
अंदर से पानी के गिलास और तश्तरियाँ आ गईं और पलक झपते ही आधा थाल चट कर दिया। दीनानाथ महाशय मुँह का माल अंदर निगलते हुए, कारीगरों की तारीफ में बोले - 'भइए, है कलकत्ते का ही हाथ! मानते हैं भाई धर्मदास!'
धर्मदास की तश्तरी अभी खाली न हो पाई थी। मुँह भी ठसाठस भरा था, तभी दीनानाथ के समर्थन में कुछ बोल तो न सके, पर उनकी मुख-मुद्रा साफ बता रही थी कि उनका भी रोम -रोम तारीफ कर रहा है।
गोविंद ने सबके अंत में हाथ धोने के लिए बढ़ते हुए कहा - 'हाँ भाई, मानते हैं, कलकत्ते का नाम निभा चले भाई!'
हलवाई भी अपनी बड़ाई सुन गदगद हो गया और अनुरोध के स्वर में बोला - 'जरा नुक्ती का लड्डू भी खा कर देखिए, कैसा बना है?'
गोविंद गांगुली की जुबान को एक पल की भी देर न लगी, जैसे कि पहले से ही तैयार थे उत्तर के लिए। मिठाई के लुआब से लिपिड़-सिपिड़ करते बोले - 'हाँ हाँ, क्यों नहीं! जरूर चखेंगे - लाओ न!'
और लड्डू भी आए। रमेश दंग हो रहा था, उन सबके व्यवहार देख-देख। संदेश की तादाद से अधिक खाए जा चुके थे, फिर भी लड्डू पर उन लोगों का हाथ साफ करना वे चकित दृष्टि से देख रहे थे।
दीनानाथ तो खा ही रहे थे। अपनी लड़की की ओर भी उन्होंने नुक्ती के दो लड्डू बढ़ाए। मुनिया ने कहा - 'पेट में जगह नहीं रही।' दीनानाथ महाशय बोले - 'अरे पगली, नहीं खाया जाएगा? जरा जा कर पानी से गला तर कर ले, सूख गया होगा! और तब भी न खाया जाए, तो धोती की खूँट में बाँध ले। सबेरे खा लेना! भाई खूब, क्या कहने! बड़े ही अच्छे बने हैं! खूब खिलाया। लेकिन रमेश, क्या दो ही मिठाई बनवाई है?'
हलवाई ने भी अपनी बड़ाई होती देख खुश हो कर कहा - 'अभी क्या है? अभी तो रसगुल्ला, खीरमोहन...।'
दीनानाथ ने रमेश की तरफ देख कर कहा - 'वाह! भाई वाह! खीरमोहन भी बना है? पर दिखाया तो नहीं। खीरमोहन तो राधानगर के बोस बाबू के घर में खाया था। क्या कहने थे उस खीरमोहन के! स्वाद आज तक भी बना हुआ है जुबान पर! क्या कहूँ भैया, खीरमोहन मुझे इतना अच्छा लगता है, इतना इच्छा लगता है कि...।'
तभी रमेश ने राखाल से, जो किसी काम से बाहर जा रहा था, भैरव आचार्य को खीरमोहन भिजवाने के लिए कहला भेजा।
शाम हो गई है, पर यह ब्राह्मण मंडली खीरमोहन की आशा में पलक-पाँवड़े बिछाए, जीभ से बार-बार होंठ साफ करके बैठी है। राखाल ने लौट कर उत्तर दिया - 'आज भण्डार का ताला बंद हो गया है, सो अब नहीं खुलेगा किसी भी चीज के लिए!'
रमेश को कुछ बुरा मालूम हुआ। वह बोला - ' कह दो जा कर कि मैं मंगवा रहा हूँ।
रमेश के तेवर में बल देख कर सहसा गोविंद गांगुली ने कहा - 'इस भैरव की बुद्धि देखी, तुमने भैया? जैसे सबसे ज्यादा उन्हीं को कलख हो, तभी तो कहता हूँ।'
तभी राखाल ने बीच में ही बात काट कर कहा - 'उस घर से आ कर, मालकिन ने भण्डार पर ताला लगा दिया है। उसमें आचार्य जी भला क्या कर सकते हैं?'
गोविंद और धर्मदास दोनों ही विस्मय से दंग रह गए, बोले - 'मालकिन कौन?'
रमेश ने भी विस्मयान्वित हो पूछा - 'ताई जी आई हैं क्या?'
'जी, आते ही उन्होंने छोटे और बड़े भण्डार की ताली अपने कब्जे में कर, उनमें ताला डाल दिया है।'
रमेश सुन कर विस्मयानंद के मारे अभिभूत हो गया और बिना कुछ कहे अंदर चला गया।