देह और प्रेम के कुहासे के बीच / राकेश बिहारी

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हंस (दिसंबर 2011) के संपादकीय में समकालीन स्त्री कथाकारों की कहानियों पर बात करते हुए राजेंद्र जी ने कहा है कि 'ये कहानियाँ बेपर्द और बेशर्म भाषा में स्त्री की सेक्स दुस्साहसिकताओं का वर्णन नहीं - स्त्री होने के अपने भीतरी भय को निकाल पोंछने के प्रयास हैं - नैतिकता, मर्यादा, लज्जा के सैकड़ों सालों के साथ कुंठाओं और भयों को जीती स्त्री के कन्फेशन हैं' और 'स्त्री लेखन की इस नई प्रवृत्ति को पचा पाना 'संस्कारवान पाठकों' के लिए मुश्किल ही नहीं, जुगुप्साजनक है।' इक्कीसवीं सदी मे अपना अस्तित्व-निर्माण कर चुकी कथा लेखकों की पीढ़ी की आधी आबादी ने निःसंदेह वर्षों पुरानी वर्जनाओं से खुद को मुक्त करते हुए स्त्री कामेषनाओं पर खुल के कलम चलाई है। लेकिन प्रश्न यह है कि इन वर्जनाहीन कामेषणाओं को जस का तस स्वीकार कर राजेंद्र जी की तरह इसके उत्सव में शामिल हो लिया जाए या फिर उनका ही जुमला उधार ले कर कहूँ तो 'दयानंदी आदर्श पुरुष' कहलाने का खतरा उठाते हुए कुछ ठहर कर इन वर्जनाहीन स्त्री अभिव्यक्तियों, उनके उद्देश्यों तथा गंतव्यों पर भी बात की जाए। नए समय की दहलीज पर खड़ी इन लेखिकाओं की कुछेक कहानियों को पढ़ते हुए मेरे भीतर भी कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। क्या देह और प्रेम के बीच कोई अंतर्संबंध है? क्या देह और पेट की भूख अपनी आदिम प्रवृत्तियों में बिल्कुल एक सी होती हैं? यदि हाँ, तो पेट की भूख की तरह देह की जरूरतों को भी अपने या किसी इष्ट-मित्र के घर या किसी भी होटल, भोजनालय, ठेले, पटरी या कि रेहड़ी पर जब जैसा मिले और रुचे, पूरा किया जा सकता है? क्या पीढ़ियों से कफस में छटपटाती स्त्री-कामनाओं की अभिव्यक्ति और ग्लैमर की रोशनी में चुंधियाई स्त्री द्वारा सेक्सुएलिटी और सेंसुएलिटी का उद्दाम और विवेकहीन उत्सवीकरण दोनों एक ही बात हैं? समाज और व्यवस्था द्वारा लाद दी गई नैतिकता और वर्जना की गठरी को उतार फेंकने की संघर्ष यात्रा कहीं भटक तो नहीं रही? मेरा आग्रह है कि इन या इन जैसे कई और सवालों की फेहरिस्त को स्त्री अभिव्यक्ति के प्रतिरोध या शुचितावाद की वकालत के बजाय स्त्री कामनाओं की आधुनिक अभिव्यक्ति के 'ऑडिट' के रूप में देखा जाना चाहिए।

जयश्री राय अपनी कहानी 'एक रात' (हंस, दिसंबर-2010) में देह, सेक्स और प्रेम के अंतर्संबंधों पर गहराई से विचार करते हुए सेक्स को एक बेहद खूबसूरत अनुभव मानती हैं, जो देह से की गई प्रार्थना है। 'ऐसी प्रार्थना जो दो शरीर, दो हथेलियों की तरह एक साथ जुड़कर एक ही छंद, लय और ताल में एक ही उद्देश्य से करते हैं - उस बंधन में जो योग और अर्द्धनारीश्वर है और उस मुक्ति के लिए जो बुद्ध का निर्वाण या आशुतोष का मोक्ष है। प्रेम में घटित हुआ संभोग बंधन में अपनी मुक्ति तलाश लेता है और हर मुक्ति को अपना आलिंगन बना लेता है।' लेकिन यही संभोग जब आधिपत्य वृत्ति के साथ किसी अनिवार्य अत्याचार की तरह आए तो उसे बलात्कार के सिवा कुछ और नहीं कहा जा सकता, चाहे वह सुहागरात ही क्यों न हो। सुहाग शैय्या पर कौमार्य भंग का रिवाज पितृसत्ता की आधारभूत मान्यताओं का जरूरी हिस्सा रहा है। लेकिन विडंबना यह कि अगली सुबह इस कठिन परीक्षा के निर्णय के उत्सव का ऐलान करने के पहले सुहाग सेज का मुआयना करने वाली परिवार की वो 'बड़ी-बूढ़ियाँ' स्त्री ही होती हैं। 'एक रात' की मंदिरा स्त्री मानसिकता में अपनी जड़ जमा चुके पितृसत्ता की उस असलियत को भली भांति पहचानती है। और वह इसे पहचाने भी क्यों नहीं, उस सुबह बिस्तर पर पाए गए खून के धब्बे योनि से ज्यादा उसकी आँखों से जो निकले थे। जयश्री राय की यह कहानी बिना संकोच और भय के बलात्कार के उस यंत्रणादायक यथार्थ से पर्दे तो हटाती ही है स्त्री मन की सहज और मानवोचित ईच्छाओं-कामनाओं को भी अकुंठ अभिव्यक्ति देती है। पितृसत्तात्मक समाज में संभोग एक ऐसी जैविक क्रिया रही है जिसमें पुरुष और स्त्री की भूमिकाएँ और उद्देश्य अलग-अलग होते हैं। इस उपक्रम में पुरुष जहाँ कामेच्छा के चर्मोत्कर्ष पर जा कर वीर्य स्खलन में तृप्ति खोजता रहा है वहीं स्त्री इस पूरी प्रक्रिया में एक दोयम दर्जे का साझीदार रही है जिसे हर हाल में अपने पुरुष साथी को संतुष्ट करने के लिए एक सेविका या क्रीत दासी के रूप में प्रस्तुत रहना है। यह पुरुष पति, प्रेमी या ग्राहक कोई भी हो सकता है। जाहिर है कि इस व्यवस्था में दोयम दर्जे की इस साझीदार की इच्छा-अनिच्छा का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता, उसके आदर और अवमानना की बात तो बहुत दूर है। इस कहानी में संभोग को 'दो हथेलियों की तरह एक साथ जुड़कर एक ही छंद, लय और ताल में एक ही उद्देश्य से की गई प्रार्थना' कहते हुए, जयश्री राय सदियों से चली आ रही साहचर्य की उसी जड़ और पितृसत्तात्मक अवधारणा को चुनौती देती हैं। लेकिन प्रश्न यह भी है कि हर बंधन से मुक्त करनेवाली यह प्रार्थना क्या कोई स्त्री हर उस पुरुष के साथ कर सकती है जो उसकी जिंदगी में मित्रभाव से प्रवेश करता है। स्त्री एक मनुष्य है, लिहाजा उसके भीतर भी कामनाओं-इच्छाओं की लहरें सहज और स्वाभाविक गति से हिलोर लेती हैं। प्रणय जो मंदिरा की जिंदगी में अजनबी की तरह आता है, कुछ ही देर के बाद उसके लिए मित्रवत हो लेता है। प्रणय के भीतर मंदिरा के लिए मचलता दैहिक आकर्षण और सवालों की शक्ल में उसकी तरफ उछाला गया अमंत्रण पल भर को मंदिरा को बेहोश कर देते हैं, उसकी आदिम कामनाएँ खुद ब खुद जाग जाती हैं लेकिन एक सीमा के बाद मंदिरा का विवेक जागता है और उसे इस बात का अहसास होता है कि प्रणय के साथ समागम का घटित होना उसे कहीं अपनी ही नजर में न गिरा दे और वह उसे वहीं रोक देती है - 'जरूरी नहीं कि स्त्री पुरुष के जिस्म हमेशा एक प्रार्थना में दो हाथ की तरह जुड़ें, वे एक ही दुआ में दो हाथ की तरह अलग-अलग रहकर भी एक सनातन साथ में हो सकते हैं! आओ, हम हमेशा एक दुआ की तरह साथ रहें, प्रार्थना में जुड़कर अपना अस्तित्व समाप्त न कर लें...' प्रश्न यह भी है कि सब कुछ पा लेना प्रेम के आगे कहीं पूर्ण विराम तो नहीं लगा देता? सारी स्वाभाविक कामनाओं के बावजूद मनुष्य और पशु में एक अंतर है। मनुष्य और पशु के बीच का यही अंतर शायद मंदिरा को रोकता है कारण कि मिलन के बेहद खूबसूरत अनुभव को अपनी देह में जी कर खुद को मुक्ति के बाहुपाश में बांधना चाहती है वह, देह में लिथड़ कर उस खूबसूरत एहसास को हमेशा के लिए खोना नहीं चाहती। यद्यपि कहानी प्रकटतः ऐसा कोई इशारा नहीं करती, लेकिन ऐसा करते हुए यदि मंदिरा के अवचेतन में लंदन स्थित अपने उस चित्रकार प्रेमी, जिसके साथ वह विगत तीन वर्षों से रह रही है, का खयाल भी बसा हो तो आश्चर्य नहीं। इस तरह यह कहानी बिना नैतिकता का शोर-शराबा किए तमाम पाठकीय कयासों को झुठलाते हुए देह के पार जाते-जाते देह के परे चली जाती है।

प्रसिद्ध नारीवादी विमर्शकार मेरी वोल्स्टनक्राफ्ट ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'विंडिकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ वूमैन' जिसे स्त्री अस्मिता विमर्श की पहली महत्वपूर्ण कृति की मान्यता प्राप्त है, में कहा है - 'मेरी बहनो! तुम्हे मन का वह संयम अर्जित करना होगा जिसे कर्तव्यों का निष्पादन और ज्ञान-प्राप्ति का लक्ष्य ही उत्प्रेरित कर सकता है, अन्यथा तुम अभी भी संदिग्ध परतंत्र स्थिति में बनी रहोगी और तभी तक प्रेम की पात्र होगी जब तक तुम्हारा रूप अक्षुण्ण बना रहेगा।' वोल्स्टनक्राफ्ट मन के जिस संयम की बात कह रही हैं, देह की कामना में उन्मत्त प्रणय को रोककर मंदिरा अंततः उसे अर्जित कर लेती है। लेकिन मनीषा कुलश्रेष्ठ अपनी कहानी 'एडोनिस का रक्त और लिली के फूल' (हंस, अगस्त-2010) में अंबिका के बहाने जैसे मंदिरा का प्रतिलोम रचती दिखाई देती हैं। हाँ, प्रतिलोम ही तो है यह। मंदिरा एक अजनबी मित्र के साथ अपनी कामनाओं में बहते हुए साहचार्य की दहलीज से लौट आती है लेकिन अंबिका अपनी इच्छा से बे हील-हुज्जत एक ही रात एक ही बिस्तर पर एक ही साथ दो पुरुषों के साथ साहचर्य करती है...' नैतिक या अनैतिक अपने पूरे अर्थ में यह जो भी था, तीनों की आत्मा का हिस्सा बन गया था। कुछ था जो बीत गया था, कुछ बीतने को था।' सवाल सिर्फ नैतिक-अनैतिक का नहीं है, पुरुष दृष्टि से संचालित होती उस स्त्री के गुम हो चुके उस आत्मबोध का भी है जो यौन जीवन में सुख, तृप्ति एवं आनंद का अधिकार प्राप्त करने की बजाय एक पुरुष की फैंटेसी को सच करन में लग जाती है... 'कल रात जो था, प्रेम नहीं था। सैकंड वर्ल्ड वार में फ्रांसिसी सैनिक इसे 'मैनेज ए त्रायोस' कहते थे। यह पुरुष-मनोलोक की अजीब सी फंतासी है। अपनी प्रेमिका को किसी और के साथ देखना। बट इट्स डिजायर्ड बाय एवरी मेन, लिव्ड बाय वेरी फ्यू। क्योंकि हर कोई इस फंतासी से निकलकर सच का सामना नहीं कर सकता न!' अपने प्रेमी के इस साहस(?) पर बलिहारी जाती इस अंबिका को तो इस बात का अहसास तक नहीं कि उसके प्रेमी मेजर सक्सेना और एक दिन पहले तक के अजनबी पेशेंट लेफ्टिनेंट अनुज के भीतर एक ही आदिम मर्द बैठा है जो हर हाल में स्त्री को भोगना जानता है कभी सच को फैंटेसी में बदल कर तो कभी फैंटेसी को सच में बदल कर। यही कारण है कि मेजर और लेफ्टिनेंट के बीच इस तरह बँटने का निर्णय जो ऊपर से अंबिका का दिखता है, दरअसल उसका है ही नहीं, पितृसत्ता ने उसका भीतर तक अनुकूलन कर दिया है। चाहे वह जिस सदी में चली जाए उसका काम तो बस अपने पुरुष साथी को खुश रखना है। उल्लेखनीय है कि यह सब जहाँ घटित होता है उससे महज चार घंटे की दूरी पर युद्ध चल रहा है और अगले ही दिन मेजर और लेफ्टिनेंट दोनों को युद्ध पर चले जाना है...' नैतिकता, संयम, अहिंसा ऐसे बर्बर माहौल में अपने मायने खो देते हैं। कलाएँ संगीत और साहित्य भी अमन के दिनों के शगल हैं। इन विध्वंसक पलों में बस मूल प्रवृत्तियाँ काम करती हैं...' क्या सचमुच यह नैतिकता, संयम और मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों का मामला भर है? न्न! यह तो यौनिकता के प्रकरण में हमेशा से चले आ रहे स्त्री और पुरुष दृष्टिकोण के फर्क का मामला है जिसमें पुरुष संभोग से परमानंद की प्राप्ति करता है और स्त्री देह इसमें महज माध्यम बन कर रह जाती है। एक बात और, 'पुरुष-मनोलोक के इस अजीब सी फंतासी' के जिक्र के बाद भी कहानीकार का कोई भी जतन कहानी में घटित इस संभोग-त्रिकोण के औचित्य को उचित नहीं ठहरा पाता। सच तो यह है कि इस संदर्भ में लेखिका के आगे एक रुमानी कोहरा छाया है जो कार्य-कारण संबंध को भी ठीक से नहीं रेखांकित होने देता। तभी तो फैंटेसी को सच होते देखने के मेजर के जिस साहस को अंबिका रेखांकित करती है, उस पर भी एक प्रश्नचिह्न तब लग जाता है जब लेफ्टिनेंट अनुज की डेड बॉडी को देख कर मेजर कहता है-' वह अनूठा अफसर था। बहुत जोश था उसमें। प्रेमी जीव था। वह कहता था - सैनिक और प्रेमी में कोई फर्क नहीं होता। प्रेमी और सैनिक दोनों सोते हुए या नशे में डूबे दुश्मन का फायदा उठाते हैं' उल्लेखनीय है कि उस रात तीनों नशे में थे। अतः लेफ्टिनेंट के मरणोपरांत मेजर का उसकी बातों को इस तरह याद करना उसकी फैंटेसी वाली अवधारणा को खुद ही काटने जैसा है। इतना ही नहीं, कहानी के अंत में मेजर के नाम अंबिका के खत का मजमून कि 'उस रात तुमने कहा था, मैं एक रात तुम्हारी हर फंतासी को सच कर दूँगा। क्योंकि फिर तुम फैंस के पार अनजानी जमीनों की तरफ चले जाओगे। युद्ध में काम आए तो अनजाने क्षितिजों के पार...' यदि इस फंतासी को उसी रात से जोड़ कर देखें तो एक बार फिर घाल-मेल। आखिर यह फंतासी किसकी थी, अंबिका की? यदि हाँ, तो यह और वीभत्स है। राजेंद्र जी माफ करें, मेरे भीतर का 'आदर्श दयानंदी पुरुष' इसे 'स्त्री होने के अपने भीतरी भय को निकाल पोंछने का प्रयास' कतई नहीं मानता। यदि ऐसा होने लगा तो दुनिया के 'तमाम पोर्न लिटरेचर' को हजारों साल की वर्जनाओं से मुक्ति की छटपटाहट कहना पड़ेगा।

सीमोन ने कहा है कि 'औरत को केवल सेक्सुअल अवयव नहीं समझा जा सकता। जैविक विशेषताओं का भी वहीं तक महत्व है, जहाँ तक वे सक्रिय रूप से ठोस मूल्यों के निर्माण में सहायक होती हैं। औरत का आत्म-बोध केवल उसकी सेक्सुअलिटी से परिभाषित नहीं किया जा सकता।' सीमोन के इस कथन के आलोक में यदि हम समकालीन स्त्री कथाकारों की कुछ ऐसी कहानियों को देखें जो स्त्री यौनिकता को लेकर असमान्य मनोविज्ञान की कहानियाँ हैं तो यौनिकता और समाज के अंतर्संबंधों और उसके सामाजिक परिणामों को समझने में मदद मिलेगी। असमान्य इसलिए कि ये कहानियाँ स्त्री यौनिकता पर बात करते हुए परिवार, समाज आदि संस्थाओं के भविष्य और उसके विकल्पों पर बिना अपनी राय रखे स्त्री आत्मबोध को विशुद्ध रूप से देह के स्तर पर देखती-परखती हैं। इस क्रम में मैं यहाँ जिन दो कहानियों का जिक्र करना चाहता हूँ वे हैं प्रत्यक्षा की 'केंचुल' (हंस, मार्च - 2010) और नीलाक्षी सिंह की 'उस बरस के मौसम'। अतृप्त दैहिक लालसा कई बार मन के भीतर गाँठ को जन्म देती है। लेकिन किसी स्त्री मन में पड़े इस गाँठ की जड़ में यदि पिता के प्रति आसक्ति और माँ के लिए नफरत (केंचुल) हो तो? ताउम्र न खत्म होने वाली एक बेनाम तकलीफ, जो आसक्ति और अतृप्त लालसा के साथ बार-बार पिता की स्मृतियों में जाती है। पिता के जितने पास, माँ से उतनी ही दूर। यह किसी बुजुर्गवार के प्रति ममता नहीं पिता के प्रति अस्वाभाविक यौन आसक्ति का प्रसंग है जो समय की शिला पर घिस-घिस कर एक कुंठाजनित मनोरोग का रूप ले चुका है। केंचुल के 'मैं' की यह गाँठ तब खुलती है जब उसे यह अहसास हो जाता है कि उसके जीवन में आया एक पुरुष (साइकेट्रिस्ट) उसके पिता जैसा है। पिता, जिसकी परछाईं के पीछे अपनी अतृप्त देह लिए वह ताउम्र भागती रही, उन्हीं की एक आभासी अनुकृति किसी तीखे उन्माद और हवस के क्षण में सारी वर्जना और नैतिकता को परे धकेलते हुए उसके तमाम अवगुंठनों को खोल कर रख देती है। यह कहानी सेक्स को एक थेरैपी की तरह रेखांकित करती है। लेकिन एक स्त्री के लिए सेक्स का यूँ थेरैपी हो जाना सचमुच इतना आसान है क्या? और वह भी तब जब उस स्त्री के भीतर एक दूसरी स्त्री के लिए, जो उसकी माँ है, बेहिसाब नफरत भरी हो...' माँ सिर्फ आधे दिन के लिए आई थी। लौटने के पहले वो पापा के कमरे में एक घंटे के लिए बंद थीं। मैं बाहर बिफरे शेर की तरह टहल रही थी।' 'एडोनिस... की अंबिका' की तरह ही यह स्त्री भी पूरी तरह पुरुष मानसिकता से संचालित है। तभी तो वह न सिर्फ हर कोण से खुद को एक भरी पूरी औरत यानी देह के रूप में देखना-परखना चाहती है बल्कि यह भी चाहती है कि दूसरे पुरुष भी उसे उसी नजर से देखें। खुद को वस्तु या जिंस की तरह देखने-दिखाने की यह कामना समकालीन स्त्री कथाकारों की यौनिकता संबंधी लगभग हर दूसरी-तीसरी कहानी में देखने को मिलती है। आईने के सामने विवस्त्र खड़ी खुद को निहारती, खुद की सुंदरता पर रीझती आत्ममानिनि स्त्री; आत्म आसक्ति से आत्मरति तक को जीती हुई।

'उस बरस के मौसम' की डाक्टर अंतरा मलिक भी देह की कामना में लिथड़ी एक ऐसी स्त्री है जो देह में प्रेम की अनिवार्यता को बार-बार परखना चाहती है, तब भी जब वह साहचर्य के बगैर वैकल्पिक क्रियाओं से अपनी कामेच्छा शांत करती है और तब भी जब वह समागम का सुख पोर-पोर में जीती होती है... 'अगर देह माध्यम न बने तो क्या प्रेम की मंजिल तक कोई पहुँच नहीं सकता! जब उसकी देह प्रेम में सराबोर थी, तभी उसने सोचा कि शरीर प्रेम को व्यक्त करने का एक माध्यम है जरूर, पर अनिवार्य माध्यम कतई नहीं। ठीक उसी समय उसके कंठ से एक आदिम चीख निकली। हर तरह से चीख ही थी वह। बस एक आवाज भर की कमी थी। कुछ रिस रहा था, उसके भीतर से। उसी अनुपात में आँसू भी बहते थे। वह पूर्ण हो चुकी थी...' स्पष्ट है कि लेखिका प्रेम में देह की अनिवार्यता को लेकर कुहासे से भरी दुविधा में है। देह को प्रेम की अभिव्यक्ति का एक अनिवार्य माध्यम नहीं मानते हुए भी देह की प्राप्ति के बाद खुद को पूर्ण मान लेने का भाव लेखिका के इसी द्वंद्व को दर्शाता है। उल्लेखनीय है कि अंतरा मलिक जिस डाक्टर अक्षत कुलकर्णी से प्रेम कर रही है वह पहले से शादीशुदा है। जाहिर है, पहली औरत बनाम दूसरी औरत का एक द्वंद्व भी कहानी में लगातार चलता रहता है। लेकिन इन तमाम द्वंद्व और दुविधाओं के बीच अंतरा मलिक आकर्षण से बहुत आगे इस तरह देह की कामना में आकंठ डूबी है कि देह से दूर रहने के अपने आरंभिक वायदे का अतिक्रमण करते हुए अंततः देह का सफर भी तय कर लेती है।

यौन व्यवहार में स्त्री और पुरुष दोनों के लिए सुख के अलग-अलग मायने होते हैं। पुरुष जहाँ यौन संबंधों को समान्यतया शरीर के स्तर पर जीता और आनंद प्राप्त करता है वहीं स्त्री के लिए रति-सुख का मतलब शरीर से आत्मा तक की यात्रा होती है। यदि स्त्रियों मे चरम सुख की स्थिति सामान्यतया नहीं आती या देर से आती है तो इसके कारण सिर्फ जैविक ही नहीं मानसिक भी हैं। उनके लिए शरीर का मिलना सिर्फ दैहिक नहीं होता तभी तो एक बार का समागम भी उसे ताउम्र याद रहता है उससे जुड़ी हजार पीड़ाओं के बावजूद जबकि पुरुष बड़ी आसानी से यह भर कह कर मुक्त हो जाता है कि 'इट वाज प्योरली फिजीकल'... 'क्या मेरे इस अजनबी प्रेमी का यह खूबसूरत चेहरा कभी मेरी आँखों के सामने से ओझल हो पाएगा? मुझ पर झुकी हुई वे नीली आँखें क्या कभी धूमिल हो जाएँगी? उसकी वह अपार अपरिचित खूबसूरती क्या मैं एक दिन भूल जाऊँगी/' (समानांतर रेखाओं का आकर्षण, हंस) हालाँकि इस कहानी में अभिव्यक्त स्त्री-पुरुष के यौनिक संवेदनशीलता के अंतर को पंखुरी सिन्हा पूरब और पश्चिम के जीवन शैली से जोड़ कर देखती हैं लेकिन मेरी राय में यह पूरब पश्चिम से ज्यादा स्त्री-पुरुष के अलग-अलग यौन आचार-व्यवहारों से जुड़ा मामला है। यह कहानी जिस सहजता से एक स्त्री की कामनाओं को शब्द देती है वह निश्चित तौर पर पहले संभव नहीं था।

पितृसत्ता ने जमाने से स्त्री तन-मन पर इतनी वर्जनाएँ थोप रखी हैं कि वह अपनी कामनाओं को आसानी से आवाज भी नहीं दे सकती। उसकी तो हर साँस और आवाज पर किसी ने पहरे बिठा रखे हैं। 'अगर इस जरूरत को झपट लेने की बलवती आकांक्षा पैर फैलाने लगे तो सबसे पहले उसी की नजर में गिर जाएँगी जिसके प्रति देह का आकर्षण और प्यार की हिलोरें उठ रही हैं। सारी शिक्षा-दीक्षा, संस्कार सब व्यर्थ चले जाएँगे। मिलेगा दुत्कार और जगत बिना सोचे-समझे काट कर गाड़ देंगे।' (कथा के गैर जरूरी प्रदेश में, अल्पना मिश्र - पहल) देह-सुख की प्राकृतिक कामना और उसके प्रति क्रूर पुरुष-व्यवहार के बीच कामेक्षाओं को न व्यक्त कर पाने की विकलता के समानांतर अल्पना मिश्र इस कहानी में मनोनुकूल साथी के अभाव में सोलो सेक्स की मजबूरियों को भी रेखांकित करती है, जो विकृति नहीं प्राकृतिक जरूरतों की शक्ल में सामने आता है। पुरुषवादी समाज ने हमेशा से स्त्री के मन और शरीर दोनों पर पहरे बिठाए हैं। न तो स्त्री का मन अपना है और न उसकी देह। स्त्री मन - और तन पर लाद दिए गए इस बोझ को हटा फेंकने की एक अद्भुत हिम्मत और बेचैनी इस कहानी में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। लेकिन विडंबना यह है कि इस नैसर्गिक इच्छा को व्यक्त करने का हक स्त्रियों को नहीं रहा है। यह विडंबना तब और त्रासद हो जाती है जब अपनी हवस मिटाने को बेताब पति (मर्द) के स्पर्श या कि बचपन के किसी यौन कुंठित मास्टर साहब की स्मृति भर से ही स्त्री मन के किसी कोने में दबी इस रेशमी इच्छा की डोर टूट सी जाती है। और यहीं आ कर यह कहानी किसी ऐसे साथी या मित्र की अदृश्य जरूरत को रेखांकित कर जाती है जो देवता नहीं साझीदर हो, मालिक नहीं हमसफर हो। यह कहानी व्यक्तित्व की पहचान और व्यक्ति की स्वतंत्रता को जिस धरातल पर उठाती है वहाँ मन और देह दोनों की बराबर की भूमिका है।

मनोनुकूल साथी का अभाव जहाँ स्त्री तन-मन में पीड़ा और कुंठा की गाँठें बांध देता है वहीं किसी मनोनुकूल साथी का साथ उन तमाम गिरहों को झटके में खोल देता है जिस पर कुंठाओं-वर्जनाओं की न जाने कितनी परतदार धूल कितने वर्षों से पड़ी होती है। आधुनिक स्त्री अस्मिता विमर्श का उद्देश्य न तो स्त्रियों का पुरुषीकरण है और न ही पुरुषों के प्रति कभी न खत्म होनेवाले घृणा-भाव की स्थापना। वह तो ऐसे मनोनुकूल साथी की खोज यात्रा है जो न सिर्फ उसे परंपरा से फल-फूल रहे बंधनों से मुक्त करे बल्कि उसकी इस मुक्ति यात्रा का हमसफर भी हो। 'कथा के गैर जरूरी प्रदेश में' में दिखने वाले ऐसे ही पुरुष साथी के अभाव को पूरा करती है कविता की कहानी 'देहदंश' (हंस,) किशोरवय में अपने सगे पिता के भीतर निहित पशु का शिकार बन चुकी एक स्त्री की जिंदगी में सब कुछ जानते-बूझते सुशांत का आना दरअसल ऐसे ही पुरुष साथी की तलाश का पूरा होना है जिसके साथ होने से न सिर्फ उस स्त्री के भीतर की ग्रंथियाँ टूटती हैं, बल्कि उसके आगे देह के नए-नए अर्थ भी खुलते हैं। 'देह अजगर होती है... देह व्यसन होती है... देह दुर्गंध होती है... देह कमजोरी होती है... मैंने अब तक के अनुभव से यही जाना था। देह स्नेह होती है... देह सुगंध होती है... देह संबंध होती है, जिसे खोलकर सुखों के असीम सागर में डूबा-तिरा जा सकता है, तुमने बताया।' देह के एक अर्थ से दूसरे अर्थ तक की यात्रा करती यह स्त्री अपने पूरे अस्तित्व के साथ अपनी इच्छा और अपनी शर्तों पर जिंदगी जीना चाहती है। एक आधुनिक स्त्री के जीवन में बलात्कार एक दुःस्वप्न या दुर्घटना से ज्यादा की अहमियत नहीं रखता। वह ऐसी किसी भी दुर्घटना के बाद जिंदगी को उसकी संपूर्णता में जीना चाहती है और जीती भी है। लेकिन जिंदगी को उसकी संपूर्णता में जीने की यह चाह किसी स्त्री के भीतर इतनी आसानी से नहीं पैदा होती, वह भी तब जब अपने ही पिता की पाशविकता ने उसकी दैहिक कामनाओं को किशोरपन में ही नारकीय यंत्रणा में तब्दील कर दिया हो। 'देहदंश' की नायिका के मन में बैठी यह गाँठ उसे पुरुषविरोधी भी बना सकती थी लेकिन उसकी जिंदगी में एक ऐसे पुरुष का आना जो उसे सिर्फ देह नहीं समझता, उसके मनप्राण पर पड़ी बर्फ को धीमे-धीमे पिघला जाता है। 'केंचुल' और 'देहदंश' दोनों कहानियों की स्त्रियों की मनोग्रंथियाँ दो तरह की है। 'केंचुल' की स्त्री जहाँ पिता पर आसक्त है वहीं 'देहदंश' की नायिका तूफान की तरह आ कर लौट जाने वाले पिता के जंगलीपन से आक्रांत है। उल्लेखनीय है कि इन दोनों स्त्रियों को उनकी इन मनोग्रंथियों से मुक्त होने का रास्ता देह-सुख से गुजर कर ही मिलता है। इस क्रम में एक स्त्री जैसे अपने पिता को ही प्राप्त कर लेती है तो दूसरी पिता की पाशविक स्मृतियों से मुक्त हो जाती है। देह का सफर एक खूबसूरत एहसास में बदल कर स्त्री को अपनी मुक्ति की अंतर्यात्रा पर ले जाता है तो उसकी कामुक लालसाओं को परितृप्त कर उसे भोग के साधन में भी बदल डालता है। समकालीन स्त्री कहानी में व्यक्त इन दोनों स्थितियों के बीच के बारीक अंतर को समझना बहुत जरूरी है।

स्त्री को हमेशा से 'वस्तु' या 'चीज' मानने वाली पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने कभी यह सोचने की जरूरत ही नहीं समझी की स्त्री-देह में भी इच्छा और कामना की रेशमी शिराएँ होती हैं जो किसी के प्रेम में तनना-सिकुड़ना चाहती हैं। स्त्री तन-मन को धर्म और नैतिकता की कमरपेटियों में बांध कर रखने वाला पुरुष समाज उसे आनंद और भोग के साधन से ज्यादा कुछ और नहीं मानता और विडंबना यह कि सदियों से अपने पति की सेज सजाते रहने वाली स्त्री खुद को भी उसी दृष्टि से देखने लगती है। वह सोचती है उसका शरीर ही उसके पति को उससे बांधे रखेगा, लेकिन पुरुष तो जैसे एक जगह ठहर कर रहना ही नहीं जानता। समर्पण और निष्ठा के तमाम वायदे जैसे अपने घर की चहारदीवारी से बाहर निकलते ही दम तोड़ देते हैं। स्त्री अपने पति को पुनः अपने तक खींच लाने के लिए अपने शरीर को फिर-फिर तैयार करती है और बिस्तर पर अपनी पत्नी को नए आवेग से भोगता पति फिर-फिर नए वायदे करता है। वायदे करने और तोड़ने के इस अनवरत खेल में हमेशा से पिसती आ रही स्त्री अब इससे मुक्ति चाहती है। नया ज्ञानोदय में प्रकाशित महुआ माजी की कहानी 'चंद्रबिंदु' एक ऐसी ही स्त्री की कहानी है, जो अपने पति की बेवफाई और उपेक्षा से त्रस्त हो कर अपने तथाकथित सब्र संस्कार और शर्मो-हया के आवरण को फेंक एक आर्ट कॉलेज में न्यूड मॉडल बन जाती है। ऐसा करते हुए उसके भीतर कामनाओं का एक अदृश्य संसार भी है और अपने पति की उपेक्षा का दंश भी... 'कई-कई युवा नजरें... ऐसी-वैसी नजरें नहीं कलाकारों की संवेदनशील पारखी नजरें मुग्धता से देखेंगी उसे... उसकी देह को... उसकी सुंदरता को... फिर पिकासो के ब्लू पीरियड की किसी पेंटिंग की तरह या मोनालिसा की तरह कैद हो जाएगी वह, उसकी भेद भरी मुस्कान और उसकी सुंदर देह वक्त के कैनवास में... सदियों तक सैकड़ों मुग्धता भरी आँखें निहारेंगी उसे... एक उसका पति न निहारे तो क्या हुआ।' अपने पति की उपेक्षा से बाहर निकलने का रास्ता खोजती कृति किसी दिन एक काले होठ वाले कलाकार के लिए कामनाओं से भर जाती है। उसे लगता है उसकी देह और सुंदरता का वह पारखी आखिर उसे मिल ही गया है जो उसकी कामनाओं को तृप्त कर देगा। लेकिन एक बार फिर वह खुद को यहाँ छला हुआ महसूस करती है कारण कि वह व्यक्ति जिसे वह अपने आकर्षण की जद में समझ रही थी एक प्रोफेशनल कलाकार निकलता है, जो उसके अतृप्त सौंदर्य को अपनी कलाकृति में पकड़ने की कोशिश भर कर रहा था, उससे ज्यादा कुछ नहीं। अतृप्ति के सौंदर्य को कैद करने चला कलाकार अपनी प्रेरणा को भला तृप्त कैसे कर सकता है। पति द्वारा बार-बार छली गई कृति इस अप्रत्याशित के घटने पर जैसे एक हीनता भरी बेचैनी से भर उठती है। ऑब्जेक्ट बनने की कीमत पर उसे अमर नहीं होना। हमेशा से 'सेक्स आब्जेक्ट' की तरह इस्तेमाल होती एक स्त्री का 'आर्ट आब्जेक्ट' बनने से इनकार दरअसल मुक्ति और आत्मबोध की तरफ उठा हुआ पहला कदम है।

सच है कि इधर की लेखिकाओं की कहानियाँ यौन-व्यवहारों में पुरुषों के आधिपत्य को तोड़ती हैं। लेकिन इन्हें इस बात का भी हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि देह की मुक्ति का मतलब पुरुषों की तरह यौन व्यवहार करना नहीं बल्कि अपनी इच्छा से संचालित होते हुए यौन जीवन में सुख एवं आनंद के अधिकार को प्राप्त करना है, और इसके लिए बहुत जरूरी है कि स्त्रियाँ अपने भीतर कहीं गहरे पैठी पुरुष-दृष्टि को धो-पोंछ कर साफ कर दें। यही स्त्री यौनिकता का नया प्रस्थान बिंदु होगा।