देह / पद्मजा शर्मा
'दीदी, दिन भर खटो। गोबर लाओ. लीपो। थापो। घोचे लाओ. जलाओ. पकाओ. पानी लाओ. कपड़े, झाड़ू, बुहारी, परिवार, मेहमान, रिश्तेदारी सब निभाओ. दिन भर लगी रहती हूँ। मशीन की तरह। मशीन फिर भी रुक जाती है मगर औरत को विश्राम कहाँ? इतना सब करके भी मरद का सुख न मिले तो उसके साथ रहने का क्या फायदा। मैं तो फिर भी चुप रह जाऊँ। पर मुई यह मेरी देह बहुत बोलती है। थकान में, नींद में, सपने में, काम में, हर पल बोलती है। जितना चुप कराओ, रोको उतना ही निकल-निकल पड़ती है और मेरा मरद है कि मेरे पास आता ही नहीं। कहो तो कहेगा' थका हूँ। कहो डागदर को दिखाते हैं तो रीस कूटते हुए कहेगा मैं तो ठीक हूँ। ठीक है तो फिर मेरी देह की सुनता क्यों नहीं? अपनी देह की कहता क्यों नहीं? बाहर भागता है। मैं औरत हूँ। वही रहना चाहती हूँ और औरत को मरद चाहिए. इसलिए वह नहीं तो हड़माना ही सही। '
'अरे, तेरा पति कितना कमाता है। तू ऐश कर रही है। हड़माना को रोज पानी पीने के लिए रोज कुआं खोदना पड़ता है। उसके साथ भूखों मर जाएगी।'
'दीदी, औरत को पैसा ही नहीं मरद भी चाहिए. हड़माना मरद है। मैंने ठोक-बजाकर देख लिया। दोनों मिलकर कमाएंगे-खाएंगे तो हर भूख भाग जाएगी और चैन की नींद आएगी।'
'कल की सोच मणी। तेरे बच्चे होंगे। पग-पग पर पैसे की ज़रूरत पड़ती है।'
'दीदी, आप बड़े लोगों की तरह हम' कल'के पीछे' आज'को बरबाद नहीं करते। यह जीवन हंसने के लिए है। रोने के लिए नहीं और मैं हंसना चाहती हूँ। रोना नहीं।'