दोज़ख / भगीरथ
आँखों में शीशे की किरचें चुभ रही थीं। बीच बाज़ार में खून से लथपथ लाश पड़ी थी–बिल्कुल अकेली। जिस भीड़ में वह था,अब वह गलियों–गलियारों में भागती हुई चाय–घरों में घुस गई थी। सिर्फ़ वह एक साक्षी था, जिसने पूरी घटना को घटते देखा था। उसने आँखें वापस ले ली।
और उस दिन वह अंधा हो गया।
दृश्य बेमानी हो गए थे, लेकिन अब दूसरी इंद्रियाँ ज्यादा संवेदनशील हो गई थीं। जब वह लाठी के सहारे चलता तो आवाजों से ही सब–कुछ पता लगा लेता। अब उसे आवाजें परेशान करने लगीं–मारो, काटो, मादर...विधर्मी है!
इतने में ट्रक से कुचलता हुआ साइकिल–सवार कि...कि...च–च–च....बेचारा!
उसने फिर ईश्वर से दुआ माँगी और वह बहरा हो गया।
इस तरह वह अंधा, बहरा और गूँगा हो गया। यहाँ तक कि अंत में उसने ईश्वर से दुआ की कि उसके प्राण ही ले लो। ज्योंही वह यमराज के दरबार में उपस्थित हुआ, उसे दोज़ख़ की आग में झोंकने की आज्ञा दे दी गई। वह बौखलाया–यह कैसा न्याय है? न मैंने बुरा देखा, न बुरा सुना, न बुरा कहा, फिर यह सजा! प्रभु,तुम तो दयानिधान हो।
‘मैंने तुम्हें न केवल जीवन दिया, बल्कि उसकी सब उपलब्धियों से परिपूर्ण किया। इसके उपरांत भी तुम लगातार जीवन से भागते रहे–दब्बू और कायर की तरह। मेरी रचनात्मक शक्ति का उपहास किया तुमने, इसकी यही सज़ा है!’
और उसे पकड़कर दोज़ख़ की आग में झोंक दिया गया।