दोनवार आदि शब्द मीमांसा / ब्रह्मर्षि वंश विस्तार / सहजानन्द सरस्वती

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यह तो हुई हमारे पंडितमानियों, बाबुओं और नेताओं की पोपलीला अब उनकी इन पूर्वोक्‍त कुकल्पनाओं के कल्पित आधारों का भी विचार यहीं कर लेना चाहिए। इन लोगों ने जो कुछ बक डाला, वैदेशिकों ने भी जो कुछ विपरीत स्वर आलापे और बहुतेरे अन्य लोगों को भी जो ऐसी शंकाएँ उठा कीं या करती है, जिनका सम्बन्ध केवल अयाचक ब्राह्मणों की सामाजिक स्थिति से ही हैं, उन सभी का कारण यह है कि ये सभी कूपमण्डूक-प्राय हो रहे हैं, इसलिए अदनी-अदनी बातों का भी तत्व न समझ मनमानी बात सुनाने लग जाते हैं। बात असल यह है कि इस ब्राह्मण समाज में कुछ अवांतर (छोटे-छोटे) दल (Sub-communities) ऐसे हैं जिन्हें देखते ही अपरिपक्व विचार वालों के दिल फड़क उठते हैं। अर्थात पश्‍चिम, भूमिहारादि ब्राह्मणों में बहुत से छोटे-छोटे दलों के ऐसे नाम है, जो क्षत्रियों या अन्य वर्णों में भी पाए जाते हैं। जैसे द्रोणवार या दोनवार, सकरवार, किनवार, बरुआर, बेमुआर, कुढ़नियाँ, गौतम, भृगुवंश, दीक्षित, कौशिक और सोनपोखरिया या सरफकरिया इत्यादि नाम दोनों (ब्राह्मण और क्षत्रिय) समाजों में पाए जाते हैं। बस अब क्या था, इतना देखते ही लोगों ने जो चाहा लिख मारा। परंतु इस विषय में हमारा निवेदन यह है कि जब 'आईन-ए-अकबरी' जैसे प्राचीन ग्रन्थों में जैसे अन्य ब्राह्मण जमींदारों को ब्राह्मण या जुन्नारदार लिखा, वैसे ही इन दोनवार और किनवार आदि अयाचक ब्राह्मण दलों को भी जुन्नारदार या ब्राह्मण ही लिखा है, जैसा कि प्रथम परिच्छेद में ही विस्तृत रूप से दिखला चुके हैं, तो क्षत्रियों में या अन्य जातियों में दोनवार आदि संज्ञाएँ देख कर संदेह करना या मिथ्या कल्पनाएँ करना अनभिज्ञता नहीं तो और क्या कहा जा सकता है?

एक बात और भी विचारणीय है कि यदि केवल नामों की एकता देख कर ही एकता का संशय कर लिया जावे, तो क्या दुनिया में एक नामवाले भिन्न-भिन्न जाति और समाज के लोग नहीं होते? तो फिर क्या उन्हें एक ही जाति के समझ लेना होगा? दूसरी बात यह है कि यदि मैथिल संज्ञा मिथिला के ब्राह्मण और करण कायस्थों की है और दोनों का वेष भी लगभग एक-सा ही हैं, तो क्या उन दोनों को एक जाति का ही समझ लेना चाहिए? अथवा उसे देख उनमें से किसी की भी असलियत में संदेह करना उचित है? क्या लोगों को यह नहीं विदित हैं कनौजिया (कान्यकुब्ज) ब्राह्मण, हलवाई, कहार और क्षत्रिय आदि भी कहे जाते हैं? क्योंकि 'कान्यकुब्ज हलवाई वैश्य' नामक मासिक पत्र काशी से ही प्रकाशित होता है। इसी तरह कायस्थ आदि भी गौड़ नहीं कहे जाते हैं क्या? तो क्या कान्यकुब्ज या गौड़ कहलाने के कारण सभी ब्राह्मण, क्षत्रिय, हलवाई, कहार और कायस्थ एक ही जाति के समझे जावेंगे? बहुत संभव हैं कि उन लोगों के गोत्र भी एक हो। क्योंकि जो ही गोत्र ब्राह्मणों के होते हैं, वे ही अन्य जातियों के भी, कारण कि गोत्र चलानेवाले ऋषि लोग तो प्राय: सभी के एक ही थे।

साथ ही, संभवत: इसी कारण से यह भी नियम रख दिया गया है कि पुरोहित का जो गोत्र हो वही क्षत्रियादि यजमान को भी अपना बताना और संकल्प आदि में उसी का व्यवहार करना चाहिए। इसीलिए यदि कोई यह कहने का भी उत्साह करता कि प्राय: दोनवार क्षत्रियों, निर्णय सिंधु, तृतीय परिच्छेद, गोत्रप्रवर के प्रकरण में लिखा है कि 'अज्ञात बंधो: पुरोहित प्रवरेणाचार्यप्रवरेण वेतिस्वगोत्राद्यज्ञाने'-यदि अपने गोत्रप्रवर का ज्ञान न हो तो पुरोहित वा आचार्य के गोत्रप्रवर से ही व्यवहार किया जाना चाहिए। मगर आश्‍वलायन, कात्यायन और लौगाक्षि का सिद्धांत है कि क्षत्रियों और वैश्यों का व्यवहार सर्वदा ही आचार्य या पुरोहित के ही गोत्रप्रवर से होना चाहिए, जैसा कि 'पुरोहित प्रवरो राज्ञामेतेन वैश्यप्रवरो व्याख्यात:' इत्यादि। और भूमिहार ब्राह्मणों के गोत्र एक ही होते हैं। इसी प्रकार किनवार वगैरह के भी। इसी से उनके विषय में विविध शंकाएँ हुआ करती है। परंतु कान्यकुब्ज, गौड़ और मैथिल आदि नाम यद्यपि बहुत सी जातियों के एक ही हैं, तथापि गोत्रों का भेद होने से उनके विषय में कोई भी शंका नहीं होती। तो उसकी यह उक्‍ति भी खंडित हो गई, क्योंकि कान्यकुब्ज कहलानेवालों के भी गोत्र एक ही हो सकते हैं। इस विषय में अभी आगे भी कहेंगे।

इसी तरह यह भी देखा जाता है कि कायस्थ जाति के जो अवांतर दल श्रीवास्तव और सक्सेना वगैरह कहलाते हैं और क्षत्रियों में राठौर आदि कहे जाते हैं वे ही नाम भड़भूजों में भी पाए जाते हैं। जैसा कि मिस्टर क्रुक ने अपनी उक्‍त जाति संबंधी पुस्तक के द्वितीय भाग के 13वें पृष्ठ में यों लिखा है :

BHARBHUJA-The last census classifies them under the main heads of Bhatnagar, Jagjadon, Kaithiya, Kandu, Rathaur, Seksena, Sribastab. Some illustrate soma real or supposed connetion with other castes and tribes; such as the Bhadauriya, Chanbe, Chauhan, Kanjar, Kayath, Khatri and Lodhi.

P. 13. Vol. 11

इसका अनुवाद यह है कि अंतिम मनुष्य गणना के अनुसार भड़भूजा लोग भटनागर, जगजादों, कैथिया, कांदू, राठौर, सक्सेना और श्रीवास्तव इन छोटे-छोटे दलों में विभक्‍त हैं। बहुतेरे अपने वास्तविक अथवा काल्पनिक सम्बन्ध भदौरिया, चौबे, चौहान, कंजर, कायथ, खत्री और लोधियों के साथ सिद्ध करते हैं।

इसी तरह गौड़ ब्राह्मणों में चमर गौड़ और गूजर गौड़ इत्यादि संज्ञाएँ हैं। क्या इन सब नामों को देख कर आस्तिक और विचार बुद्धि से यह संदेह करना उचित है कि भड़भूजा, कायस्थ, श्रीवास्तव, सक्सेना, चौबे, चौहान, खत्री और राठौर एवं गूजर, चमार और गौड़ ब्राह्मण इत्यादि एक ही हैं? इन सब बातों को ही देख कर यही मानना होगा कि नामों के एक हो जाने या गोत्रों के भी एक हो जाने से जाति एक नहीं समझी जा सकती। क्योंकि जो गाजीपुर, बनारस या मुजफ्फरपुर में उत्पन्न होने वा रहनेवाले हैं और उनकी जातियाँ भिन्न-भिन्न हैं और संभव हैं कि बहुतेरों के गोत्र भी एक ही हों। अब यदि वे लोग किसी कारण से अन्यत्र चले जावे तो गाजीपुरी, बनारसी या मुजफ्फरपुरी इस एक ही नाम से वे सभी बोले जावेंगे। जैसा कि लोग कहा करते हैं कि यह तो बनारसी माल, बनारसी साड़ी या बनारसी जवान हैं। इसी तरह भोजपुरी इत्यादि। ऐसा होने पर भी वे सभी कदाचित भी एक नहीं समझे जाते या जा सकते हैं। उसी तरह मिथिला, कान्यकुब्ज अथवा गौड़ वगैरह देशों में भी रहनेवाले सभी जातिवाले एक ही नाम से कहे जाने पर भी एक जाति या दल के समझे जाते या जा सकते हैं। ठीक वही दशा दोनवार और किनवार आदि नामों के भी विषय में समझना चाहिए, कि ब्राह्मण या क्षत्रिय अथवा अन्य जातीय भी एक स्थान में रहने से एक नाम से पुकारे जाने लगे, जैसा कि अभी दिखलाया जावेगा। और यद्यपि सभी एक नामवाले भूमिहार ब्राह्मण और क्षत्रियों के गोत्र एक नहीं हैं, जैसा कि इसी प्रकरण में विदित होगा, तथापि जिनके गोत्र एक से हैं उनके विषय में वही बात हो सकती है जैसी कि अन्य लोगों में कह चुके हैं, कि एक ही गोत्रवाले भी भिन्न-भिन्न जातिवाले एक स्थान में रह सकते हैं और उसी से उनका नाम भी एक ही पड़ सकता है।

यह भी बात हुई होगी कि जब वे लोग किसी स्थान से हट चले, तो क्षत्रियों ने देखा कि हमारे पूर्वस्थानवाले अयाचक ब्राह्मण कहाँ बसे हैं। और जहाँ उन्हें पाया, आप भी उन्हीं के पास ही बस गए। क्योंकि अन्य देश में जाने पर भी वहाँ पर लोग विशेष कर स्वदेश के ही लोगों का साथ ढूँढ़ा करते हैं। इसीलिए एक नामवाले अयाचक ब्राह्मण और क्षत्रिय एक ही जगह पाए जाते हैं। जैसा कि मैथिल और गौड़ एवं कान्यकुब्ज नाम वाली सभी जातियाँ प्राय: पास ही पास पाई जाती है। अयाचक ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बहुत से गोत्रों के एक ही होने का एक यह भी कारण हो सकता है, कि कोई ब्राह्मण प्रथम याचक (पुरोहित) रहा होगा और क्षत्रियों की पुरोहिती करता रहा होगा। परंतु समय पा कर वह अयाचक हो गया, जैसा कि सर्वदा से हुआ करता है, तो अपने सगोत्र अयाचक ब्राह्मणों से मिल गया, जैसा कि अभी तक बराबर हुआ करता है। परंतु प्रथम पुरोहित होने से उसी का गोत्र उन क्षत्रियों का भी कहलाता था, इसलिए उसके पश्‍चात आज तक एक ही गोत्र कहलाता ही रह गया।

सबसे विश्‍वसनीय और प्रामाणिक बात यह है कि दोनवार और किनवार इत्यादि नामवाले जो क्षत्रिय हैं, ये प्रथम अयाचक ब्राह्मण ही थे। परंतु किसी कारणवश इस ब्राह्मण समाज से अलग कर दिए गए वा हो गए। बनारस-रामेश्‍वर के पास गौतम क्षत्रिय अब तक अपने को कित्थू मिश्र या कृष्ण मिश्र के ही वंशज कहते हैं, जिन मिश्र जी के वंशज सभी गौतम भूमिहार ब्राह्मण हैं और भूमिहार ब्राह्मणों से पृथक होने का कारण वे लोग ऐसा बतलाते हैं कि कुछ दिन हुए हमारे पूर्वजों को गौतम ब्राह्मण हिस्सा (जमींदारी वगैरह का) न देते थे, इसलिए उन्होंने रंज हो कर किसी बलवान क्षत्रिय राजा की शरण ली। परंतु उसने कहा कि यदि हमारी कन्या से विवाह कर लो, तो हम तुम्हें लड़ कर हिस्सा दिलवा देंगे। इस पर उन्होंने ऐसा ही किया और तभी से भूमिहार ब्राह्मणों से अलग हो कर क्षत्रियों में मिल गए यह उचित भी है। क्योंकि जैसा कि प्रथम ही इसी प्रकरण में दिखला चुके हैं कि, मनु, याज्ञवल्क्यादि सभी महर्षियों का यही सिद्धांत है कि ब्राह्मण यदि क्षत्रिय की कन्या से विवाह कर ले, तो उसका लड़का शुद्ध क्षत्रिय ही होगा। क्योंकि उसका मूर्द्धाभिषिक्‍त नाम याज्ञवल्क्य ने कहा है और 'मूर्द्धाभिषिक्तो राजन्य' इत्यादि अमरकोश के प्रमाण से तथा महाभारत और वाल्मीकि रामायण आदि से मूर्द्धाभिषिक्‍त नाम क्षत्रिय का ही है। मनु भगवान ने तो :

पुत्रा येऽनंतरस्त्रीजा: क्रमेणोक्‍ता द्विजन्मनाम्।

ताननंतरनाम्नस्तु मातृदोषात्प्रचक्षते॥अ.10॥

इत्यादि श्‍लोकों में उसे स्पष्ट ही क्षत्रिय बतलाया है। ये गौतम क्षत्रिय केवल काशी-रामेश्‍वर के पास दो-चार ग्रामों में रहते हैं।

इसी तरह किनवार क्षत्रियों की भी बात है। वे केवल बलिया जिले के छत्ता और सहतवार आदि दो ही चार गाँवों में प्राय: पाए जाते हैं। जिनके विषय में विलियम इरविन साहब (William Iruine Esqr.) कलक्टर 1780-85 ई. ने बंदोबस्त की रिपोर्ट (Reports on the Settlement) में लिखा है कि किनवार ब्राह्मणों के एक पुरुष कलकल राय ने किसी क्षत्रिय जाति की कन्या से ब्याह कर लिया। जिससे उनके वंशज भूमिहार ब्राह्मणों से अलग हो गए और उन्हीं पूर्वोक्‍त दो-चार ग्रामों में पाए जाते हैं। इसी तरह दोनवार क्षत्रिय भी किसी कारणवश दोनवार ब्राह्मणों से अलग कर दिए गए। जो मऊ (आजमगढ़) के पास कुछ ही ग्रामों में पाए जाते हैं, परंतु वहाँ दोनवार ब्राह्मण लोग 12 कोस में विस्तृत है। इसी तरह बरुवार क्षत्रियों को भी जानना चाहिए। वे भी केवल आजमगढ़ जिले के थोड़े से ग्रामों में है। परंतु बरुवार नाम के ब्राह्मण तो उसी जिले के सगरी परगने के 14 कोस में भरे पड़े हुए हैं। सकरवार क्षत्रिय भी उसी तरह किसी कारण विशेष ये सकरवार ब्राह्मणों से विलग हो गए, जो गहमर वगैरह दो-एक ही स्थानों में पाए जाते हैं। जबकि सकरवार नाम के ब्राह्मण गाजीपुर के जमानियाँ परगने और आरा के सरगहाँ परगने के प्राय: 125 गाँवों में भरे पड़े हुए हैं। जो दोनवार अयाचक ब्राह्मण जमानियाँ परगने के ताजपुर और देवरिया प्रभृति बीसों ग्रामों में पाए जाते हैं, उन्हीं में से कुछ लोग किसी वजह से निकल कर क्षत्रियों में मिल गए और गाजीपुर शहर से पश्‍चिम फतुल्लहपुर के पास दो-चार ग्रामों में अब भी पाए जाते हैं। इसी प्रकार अन्य भी भूमिहार ब्राह्मणों के से नामवाले क्षत्रियों को जानना चाहिए।

सारांश यह है कि सभी दोनवार आदि नामवाले क्षत्रियों की संख्या बहुत ही थोड़ी हैं, परंतु इन नामोंवाले भूमिहार ब्राह्मणों की संख्या ज्यादा हैं। इससे स्पष्ट है कि इन्हीं अयाचक ब्राह्मणों में से वे लोग किसी कारण से विलग हो गए हैं। इसीलिए उनकी दोनवार आदि संज्ञाएँ और गोत्र वे ही हैं जो दोनवार आदि नामवाले ब्राह्मणों के हैं। इस संख्या वगैरह का पता हमने स्वयं उन-उन स्थानों में भ्रमण कर और जानकार लोगों से मिल कर लगाया है। जिसे इच्छा हो वह प्रथम जाँच कर ले, पीछे कुछ कहे या लिखे। यद्यपि सकरवार क्षत्रिय आगरे के आस-पास तथा अन्य प्रांतों में बहुत पाए जाते हैं, तथापि उन लोगों का गहमर आदि ग्रामोंवाले सकरवार क्षत्रियों से कुछ सम्बन्ध नहीं हैं। क्योंकि ये सब सकरवार कहे जाते हैं और आगरेवाले सिकरीवार; कारण कि उनका आदिम स्थान फतहपुर सिकरी या सीकरी हैं और इनका स्थान सकराडीह है। साथ ही, आगरे वालों का गोत्र शांडिल्य हैं और गहमरवालों का सांकृत, जैसा कि सकरवारों के निरूपण में आगे दिखलावेंगे। अत: सकरवारों को सिकरीवारों से पृथक ही मानना होगा।

बहुत जगह अनेक अंग्रेजों ने यह लिखा है कि जब बहुत से भूमिहार (ब्राह्मणों) और राजपूतों के गोत्र एक ही हैं, जैसे किनवार या दोनवार, तो फिर वे एक ही क्यों न समझे जावें? पर उनकी यह भूल है। क्योंकि एक तो सामान्यत: वैदेशिकों को यही पता नहीं चलता कि गोत्र या मूल किसे कहते हैं। दूसरे वे लोग यह भी देखते हैं कि बहुत से लोग गोत्रों से ही पुकारे जाते हैं, जैसे भारद्वाज, गौतम और कौशिक इत्यादि। इससे उन्हें यह भ्रम हो गया कि दोनवार और किनवार भी गोत्रों के ही नाम है। इसी से उन्होंने ऐसा बक डाला, जिसे देख कर आजकल के अर्द्धदग्ध लकीर के फकीर भी वही स्वर आलापने लग जाते हैं। परंतु वास्तव में किनवार और दोनवार आदि संज्ञाएँ प्रथम निवास के स्थानों या डीहों से पड़ी है, जिन्हें मिथिला में मूल कहते हैं,

और मेरठ वगैरह में निकास, न कि ये गोत्रों के नाम है। जैसे अन्य मैथिलादि ब्राह्मणों तथा अन्य निकास, न कि गोत्रों के नाम है। जैसे अन्य मैथिलादि ब्राह्मणों तथा अन्य लोगों की गौड़, कान्यकुब्ज, मैथिल, चकवार और सनैवार आदि संज्ञाएँ भी स्थानों के नाम से ही पड़ी है, न कि ये सब गोत्रों के नाम है।

अब हम पाठकों को इन दोनवार आदि नामों का कुछ संक्षिप्त विवरण सुना देना चाहते हैं, जिससे सब शंकाएँ आप ही आप निर्मूल हो जाएँगी। इस जगह इस बात को पुन: स्मरण कर लेना चाहिए, कि यवन राज्य काल में जब अनेक कारणों से इतस्तत: भगेड़ मच रही थी, तो उन दिनों विशेष धर्मभीरु होने के कारण ब्राह्मणों ने अपनी धर्म रक्षा के लिए छोटे-छोटे दल बनाए, जिनमें एक प्रकार के समीपवर्ती ब्राह्मण सम्मिलित हुए। यह बात प्रथम परिच्छेद में ही सविस्तार दिखलाई जा चुकी है। उसी समय में प्रत्येक ब्राह्मण दल के साथ डीह (पूर्वजों के निवास स्थान) के कहने का भी प्रचार चला। जैसे पिंडी के तिवारी या खैरी के ओझा आदि। क्योंकि इससे ठीक-ठीक पता लग जाता था कि ये ब्राह्मण वास्तव में कान्यकुब्ज या सर्यूपारी है, क्योंकि इनके पूर्वजों के स्थान पिंडी और खैरी आदि सर्यूपार और कान्यकुब्ज आदि देशों में ही है। इसी 'डीह' को मिथिला में मूल और पच्छिम में निकास कहते हैं, जिसका अर्थ 'आदिम निवास स्थान' है, जैसा कि 'डीह' का अर्थ है। परंतु यह 'डीह' या 'मूल' का व्यवहार प्राय: केवल ब्राह्मणों में ही प्रचलित था। इसीलिए अब तक भी सिवाय ब्राह्मण के अन्य जातियों में उसका व्यवहार प्राय: कहीं भी नहीं पाया जाता है। इससे भी स्पष्ट है कि जो क्षत्रियों में किनवार वगैरह नाम है, उनके पड़ने का वही कारण है जैसा कि अभी दिखला चुके हैं। क्षत्रिय लोगों के वंशों के नाम प्राय: उनके प्रधान पुरुषों के नाम से ही होते हैं, न कि किसी डीह। जैसे कि रघुवंशी, यदुवंशी इत्यादि।

अस्तु, जिस तरह कान्यकुब्ज लोग डीह का व्यवहार इस प्रकार करते हैं कि क्यूना के दीक्षित, सीरू के अवस्थी और देवकुली के पांडे। इसी तरह सर्यूपारी भी। मैथिल लोग वैसा न कह कर मूल पूछने पर या तो उस स्थान का नाम-भर बतला देते है, जैसे दिघवे, जाले इत्यादि। अथवा जालेवार, दिघवैत, सनैवार, चकवार इत्यादि कहते हैं कि जिसका अर्थ यह है कि दिघवा, जाले या चाक आदि स्थानों में रहनेवाले। और कहीं-कहीं पर अनरिया, कोदरिया और ब्रह्मपुरिया आदि भी कहते हैं। जिनके अर्थ है कि अनारी, कोदरा और ब्रह्मपुर के रहनेवाले। इसी तरह करमहे और दघिअरे इत्यादि भी समझे जाने चाहिए। तात्पर्य यह है कि वे लोग 'डीह' या 'मूल' को बहुत तरह से कहा करते हैं। और प्रथम यह बात दिखला चुके हैं कि अयाचक दलवाले ब्राह्मणों ने भी 'डीह', 'मूल' के कहने की रीति प्राय: वही स्वीकार की जो मैथिलों में थी और तदनुसार ही दोनवार, किनवार, कुढ़नियाँ, कोलहा, तटिहा, एकसरिया, जैथरिया, ननहुलिया और जिझौतिया आदि कहने लगे। कान्यकुब्जों आदि से भी इनका व्यवहार मिलता है। अत: उनकी तरह भी ये लोग कहीं-कहीं बोले जाते हैं। जैसे भारद्वाज गोत्री कान्यकुब्ज या सर्यूपारी बाँदा के आसपास और जौनपुर जिले में दो-एक जगह रबेली पंचपटिया वगैरह में दुमटेकार के तिवारी ही कह जाते हैं और बहुत से भारद्वाज गोत्री भूमिहार ब्राह्मण भी पांडे या तिवारी ही कह जाते हैं और अपने को दुमटेकार कहते हैं जो कहीं-कहीं बिगड़ कर 'दुमकटार' या 'डोमकटार' हो गया है, एवं बहुत से सर्यूपारी, गौड़ और कान्यकुब्ज वगैरह डीह का नाम न ले कर केवल गोत्रों से ही अपने को पुकारते हैं, जैसा कि भारद्वाज, कौशिक इत्यादि। इस बात को पं. छोटेलाल श्रोत्रिय ने अपनी 'जात्यन्वेषण' नामक पुस्तक में स्पष्ट ही लिखा है। आजमगढ़ के जिले में भी बभनपुरा आदि दो-चार ग्रामों में कुछ सर्यूपारी ब्राह्मण दूबे कहलाते हैं और अपने को 'मौनस' गोत्र से व्यवहार करते हुए, 'मौनस' कहा करते हैं। इसी प्रकार भूमिहार ब्राह्मणों में भी बहुत से ऐसे दल है, जो कहीं-कहीं गोत्रों से ही अपने को पुकारते हैं, जैसे खजुरा-धुवार्जुन आदि ग्रामोंवाले भारद्वाज और सुर्वत-पाली वगैरह ग्रामवाले कौशिक कहलाते हैं। ये सब स्थान गाजीपुर जिले में हैं, इसी प्रकार बनारस में गौतम और आजमगढ़ के टीकापुर-बीबीपुर आदि ग्रामों में दोनों दलवाले भृगुवंश वा भार्गव कहे जाते हैं।

गोत्र से पुकारे जाने में यही कारण हैं कि यवन काल से प्रथम तो लोग स्थायी रूप से जहाँ-तहाँ पड़े रहते थे। इसलिए 'डीहों' या 'मूलों' के कहने की कोई आवश्यकता न होने से केवल गोत्रों से आपस के व्यवहार करते थे, जो विवाह वगैरह में आवश्यक भी था। जब यवन काल में इधर-उधर भगेड़ मची तो हुलिया (पहचान) के लिए 'डीह' वा 'मूल' का व्यवहार थोड़े दिनों तक चलता रहा। परंतु उस समय भी जो लोग किसी प्रथम के निश्‍चित एक ही स्थान में जमे रह गए, उन्हें डीहों की आवश्यकता ही न हुई। इसलिए उनका व्यवहार पूर्ववत गोत्रों से ही होता रहा। जैसे गौतम लोग प्रथम से ही बनारस में टिके थे और वहीं रह गए इसलिए वे लोग गौतम ही कहलाते रह गए। परंतु जो लोग उनमें से ही छपरा के किसी बड़रमी या बड़रम स्थान से भाग गए वे बड़रमियाँ कहलाए और कहलाते हैं और उन्हीं गौतमों में से जो प्रथम आजमगढ़ के करमा स्थान में रहते थे, जहाँ अब उनके स्थान में बरुवार ब्राह्मण किसी कारण से रहते हैं और वे लोग वहाँ से चले आ कर देवगाँव के पास 10 या 12 गाँवों में बस गए वे करमाडीह के कारण करमाई कहलाए। परंतु वे लोग सर्यूपारी ब्राह्मण गौतम गोत्री पिपरा के मिश्र ही है, जैसा कि प्रथम ही कह चुके हैं। इसी प्रकार भृगुवंश भी आजमगढ़ के प्रथम से ही थे और वहीं रह गए। इससे उनका वही नाम रहा। परंतु जो उनके रहने के तप्पे (परगने या इलाके) कोठा से भाग कर बस्ती के कोठिया आदि स्थानों में चले गए, वे उसी तप्पे के नाम से 'कोठहा' पुकारे जाते हैं। इसी तरह गाजीपुर के जहूराबाद परगने में पुराने समय से ही रह जाने के कारण वे लोग कौशिक ही कहलाते रह गए। परंतु छपरा के नेकती नामक स्थान से भाग कर मुजफ्फरपुर और दरभंगा में जानेवाले कौशिक नेकतीवार कहलाते हैं। इसी तरह के भारद्वाजों और आजमगढ़ आदि के गर्गों को भी समझना चाहिए।

अब दोनवार आदि शब्दों के अर्थ सुनिए। वास्तव में दोनवार ब्राह्मण कान्यकुब्ज ब्राह्मण, वत्स गोत्रवाले देकुली या देवकली के पांडे है। यह बात दोनवारों के मुख्य स्थान नरहन, नामगढ़, विभूतपुर और गंगापुर आदि दरभंगा जिले के निवासी दोनवार ब्राह्मणों के पास अब तक विद्यमान बृहत वंशावली में स्पष्ट लिखी हुई हैं। वहाँ यह लिखा हुआ है कि देवकली के पांडे वत्सगोत्री दो ब्राह्मण, जिनमें से एक का नाम इस समय याद नहीं, मुगल बादशाहों के समय में किसी फौजी अधिकार पर नियुक्‍त हो कर दिल्ली से मगध और तिरहुत की रक्षा के लिए आए और पटना-दानापुर के किले में रहे। इसी जगह वे लोग रह गए और उन्हें बादशाही प्रतिष्ठा और पेंशन वगैरह भी मिली। उनमें एक के कोई संतान न थी। परंतु दूसरे भाई समुद्र पांडे के दो पुत्र थे। एक का नाम साधोराम पांडे और दूसरे का माधोराम पांडे था। जिनमें साधोराम पांडे के वंशज दरभंगा प्रांत के सरैसा परगने में विशेष रूप से पाए जाते हैं, यों तो इधर-उधर भी किसी कारणवश दरभंगा जिले-भर और बाहर भी फैले हुए हैं। बल्कि दरभंगा के हिसार ग्राम में (जनकपुर के पास) अब तक दोनवार ब्राह्मण पांडे ही कहलाते हैं। माधावराम पांडे के वंशज मगध के इकिल परगने में भरे हुए पाए जाते हैं। साधोराम पांडे के पुत्र राजा अभिराम और उनके राय गंगाराम हुए; जिन्होंने अपने नाम से गंगापुर बसाया। वे बड़े ही वीर थे। उनके दो विवाह हुए थे, और दोनों मैथिल कन्याओं से ही हुए थे। एक स्त्री श्रीमती भागरानी चाक स्थान के राजासिंह मैथिल की और दूसरी मुक्‍तारानी तिसखोरा स्थान के पं. गोपीठाकुर मैथिल की पुत्री थी। एक से तीन और दूसरी से छह, इस प्रकार राय गंगाराम के नौ पुत्र हुए। जिन्होंने नरहन, रामगढ़, विभूतपुर और गंगापुर आदि नौ स्थानों में अपने-अपने राज्य उसी प्रांत में जमाए। उन्हीं में से पीछे कोई पुरुष, जिनका नाम विदित नहीं है, आजमगढ़ जिले के रैनी स्थान में मऊ से पश्‍चिम टोंस नदी के पास आ बसे, जिनके वंशज वहाँ 12 कोस में विस्तृत हैं। फिर वहाँ से दो आदमी आ कर जमानियाँ परगना, जिला गाजीपुर में बसे और पीछे से बहुत गाँवों में फैल गए। इनमें से ही कुछ बनारस प्रांत से मध्दूपुर आदि स्थानों में भी आ बसे और इसी तरह दो-दो एक-एक ग्राम या घर बहुत जगह फैल गए। रैनी स्थान से ही जो लोग बलिया के पास जीराबस्ती आदि तीन या चार ग्रामों में बसे हुए हैं, वे किसी कारणवश पांडे न कहे जा कर तिवारी कहलाने लगे, जो अब तक तिवारी ही कहे जाते हैं। जैसे पं. नगीना तिवारी इत्यादि। इस प्रकार साधोराम पांडे के वंशजों की वृद्धि बहुत हुई। परंतु माधावराव पांडे के वंशज केवल मगध में ही पाए जाते हैं। तथापि उनकी संख्या वहाँ कम नहीं हैं। दिघवारा (छपरा) के पास बभनगाँव तथा ऐसे ही दो-एक और स्थानों के भी दोनवार लोग अब तक पांडे ही कहलाते हैं। जबकि दोनवार नाम के ब्राह्मण बिहार और संयुक्‍त प्रांत में भरे हुए हैं और क्षत्रिय दोनवार केवल कुछ ही ग्रामों में पाए जाते हैं। तो इससे निस्संशय यही बात सिद्ध है कि उन क्षत्रियों के विषय में वही बात हो सकती है जो अभी कही जा चुकी है।

अयाचक ब्राह्मणों के दोनवार नाम पड़ने में तीन बातें हो सकती है। पहली बात तो यह है कि इनके मूल पुरुष दिल्ली से आए और वह गुरु द्रोणाचार्य का निवास स्थान था, बल्कि उत्तर पांचाल के राजा भी वहीं थे। इसीलिए वहाँ दिल्ली प्रांत के समीप ही गुरुगाँव जिला भी है, जिसका भाव यह है कि द्रोणाचार्य गुरुउस स्थानीय गाँव में रहते थे, जिससे वह गुरुगाँव कहलाता है। परंतु संभव हैं कि वही या वहाँ कोई स्थान द्रोणाचार्य के भी नाम से प्रथम पुकारा जाता रहा हो और वहीं से आने से ये ब्राह्मण लोग उसी डीह से कहे जाने लगे। जिससे इनका नाम द्रोणवार हो गया। जिसका अर्थ यह है कि द्रोण (द्रोणाचार्य) के स्थान में प्रथम के रहनेवाले।

दूसरा अनुमान इस विषय में इससे अच्छा और विश्‍वसनीय यह है कि 'द्रोण' शब्द संस्कृत में देशांतर (अन्यदेश या विदेश) का वाचक है। जैसा कि मेदिनी कोश में लिखा है कि 'द्रोण:स्यान्नीवृदंतरे' अर्थात 'द्रोण शब्द देशांतर का भी वाचक है।' और जब मिथिला देश में काशी देशवाले और पश्‍चिम के रहनेवाले ब्राह्मण यवन समय में गए तो उन्होंने (मिथिलावासियों ने) अपने और अन्य देशीय ब्राह्मणों को अलग-अलग रखने अथवा पहचान के लिए अपने को तिरहुतिया या मैथिल कहना प्रारंभ किया और नए आए हुओं को पश्‍चिम। जिनमें से तिरहुतिया का अर्थ 'तिरहुत देश में रहनेवाला' और पश्‍चिम का अर्थ पश्‍चिम देश में रहनेवाला' है, परंतु जब तक विशेष रूप से अन्य देशीय ब्राह्मण वहाँ न गए थे। किंतु साधोराम पांडे या उनके वंशज ही उन देशों में आए, तो उन मिथिलावासियों ने उन्हें द्रोणवार कहना प्रारंभ किया, जिसका अर्थ यह है कि ये लोग इस देश (मिथिला) के प्राचीन निवासी नहीं है, किंतु अन्य देश के। वही व्यवहार मगध में भी चल पड़ा। क्योंकि यह बात प्रथम ही सिद्ध कर चुके हैं कि मगध और मिथिला के व्यवहार वगैरह प्राय: एक से ही हैं। परंतु जब और भी ब्राह्मण मिथिला देश में पश्‍चिम से आए और द्रोणवार कहने से यह संदेह भी होने लगा कि ये लोग पश्‍चिम से आए हैं या पूर्व देश से, क्योंकि देशांतर तो दोनों ही हैं, और इस संदेह से विवाह सम्बन्ध आदि करने में गड़बड़ होने की संभावना हुई। क्योंकि धर्मशास्त्रनुसार बंग आदि पूर्व देशों को निषिद्ध समझ लोग उनसे व्यवहार करना घृणित समझते थे। तो प्रथम जिन्हें द्रोणवार कहते थे, उन्हें तथा अन्य नए आए हुए पश्‍चिम देश के ब्राह्मणों को भी 'पश्‍चिम' कहने लगे। परंतु प्रथम से प्रचलित द्रोणवार शब्द भी रह गया और मिथिला वगैरह देशों में आजकल पश्‍चिम और द्रोणवार इन दोनों शब्दों का प्रयोग होता है। पश्‍चिम शब्द पश्‍चिमीय का अपभ्रंश है।

सबसे विश्‍वसनीय और तीसरा अनुमान इस विषय में यह है कि मगध और मिथिला इन दोनों स्थानों के दोनवारों के मूल पुरुष सबसे प्रथम आ कर पटना-दानापुर के बादशाही किले में ठहरे और वहीं से दोनों प्रदेशों में फैले और वह दीना या दानापुर स्थान अति प्रसिद्ध भी था। और साथ ही यह दिखला चुके हैं कि ब्राह्मणों में अपने डीहों के कहने की रीति थी और विशेष रूप से यह भी देखा जाता है कि अधिकतर अपने पुराने डीह से बहुत दूर वे लोग नहीं पाए जाते हैं, जैसा कि किनवार, सकरवार, बेमुआर, तटिह आदि के विषय में दिखलावेंगे। इसलिए साधोराम पांडे और माधावराम पांडे के वंशजों ने भी उसी दीना या दानापुर डीह के नाम से अपने को दीनावार वा दानावार प्रकाशित किया जो समय पा कर बिगड़ते-बिगड़ते दनवार हो कर आजकल दोनवार हो रहा है, जिसका अर्थ यह है कि पहले दानापुर के रहनेवाले ब्राह्मण। यही दोनवार शब्द का संक्षिप्त विवरण हैं जो डीह को बतलाता है।

अब 'किनवार' शब्द का विवरण सुनिए। किनवार ब्राह्मण भी कान्यकुब्ज काश्यप गोत्री, क्यूना के दीक्षित हैं। इसीलिए इनके विषय में किसी का मत है कि ये लोग काशी के पास विशेष कर गाजीपुर में क्यूना से आए, इसीलिए उसी डीह के नाम से क्यूनवार कहलाने लगे और वही शब्द बिगड़ कर किनवार हो गया। परंतु गाजीपुर जिले में ही इन लोगों के निवास स्थान के पास ही कुंडेसर ग्राम के पूर्व और वीरपुर, नारायणपुर से पश्‍चिम-उत्तर प्रथम ओकिनी नाम की नदी बहती थी, जो अब एकबारगी मिट्टी से पट गई है, केवल उसका थोड़ा सा चिह्न रह गया है और कुंडेसर से नारायणपुर को जाने वाली पक्की सड़क के पश्‍चिम ही उसी ओकिनी के तट पर अब तक किनवार लोगों का पुराना डीह ऊँचा-सा पड़ा है। इसलिए उसी ओकिनी के डीह पर रहने से ये लोग ओकिनीवार कहलाते-कहलाते अब 'ओ' शब्द के काल पा कर छूट जाने से किनवार कहलाने लगे।

यद्यपि किनवार ब्राह्मणों की वंशावली में यह लिखा हुआ है कि ये लोग कर्नाटक-पदुमपुर से आए और उस पदुमपुर के विषय में बहुत लोगों ने अंदाज से बहुत कुछ बक डाला है। फिर भी ठीक पता वे न लगा सके और यद्यपि वह पदुमपुर कर्नाटक देश और केरल देश की सरहद पर केरल देश का एक खण्ड है, इस बात को अभी प्रमाणित करेंगे, तथापि किनवार ब्राह्मण प्रथम के कान्यकुब्ज ब्राह्मण ही हैं, न कि केरल देशीय ब्राह्मण। यह बात इनकी प्राचीन वीरता और व्यवहार-आचारों से सिद्ध है। यद्यपि कर्नाटक-पदुमपुर से ये लोग आए, इस विषय में कुछ विशेष प्रमाण या कारण नहीं मिलता। क्योंकि दक्षिण में ऐसी भगेड़ न थी जैसी कन्नौज वगैरह देशों में थी। इसीलिए इन देशों में दक्षिण देश के ब्राह्मण प्राय: नहीं पाए जाते। तथापि यदि वहाँ से ही किनवार ब्राह्मणों का आना मान भी ले तो भी ये लोग वहाँ भी कान्यकुब्ज देश से ही गए थे और फिर किसी कारणवंश हट कर इसी देश में चले आए। कान्यकुब्ज देश से केरल देश या उसके पदुमपुर स्थान में ब्राह्मणों के जाने और वहाँ से आने की बात 'केरल उत्पत्ति' नामक ग्रन्थ में लिखी हुई हैं। यह ग्रन्थ मालाबारी भाषा में लिखा गया था और पीछे से उसका अनुवाद फारसी में हुआ था, जिसे मिस्टर जोनाथन डुनकन' (Jonathan Duncn) ने 1793 ई. में अंग्रेजी में अनुवादित किया। यह सब पूर्वोक्‍त बातें एशियाटिक रिसर्चेज (Asiatic Researches) नामक अंग्रेजी पुस्तक में लिखी गई है, जो सन 1801 ई. में छपी थी। उस ग्रन्थ के 56वें पृष्ठ में मालाबार देश के प्राचीन विवरण को लिखते हुए उसी सम्बन्ध में ये बातें लिखी गई है। उस ग्रन्थ का कुछ अंश नीचे उद्धृत किया जाता है, जिससे पूर्वोक्‍त बातों का थोड़ा-सा पता लग जावेगा :

In the book called Kerul-oodputteeor the emerging of the country of Kerul (of which during my stay at Calicut in the year 1793, I made the best translation into English in my power, through the medium of a version first rendered into Persian, under my own inspection from the Malabarie copy procured from one of the Rajahs of Zamorin’s family), the origin of that coast is ascribed to the piety or penitence of Puresuram or Pruseram (one of the incarntions of Vishnu), who stung with remorse for the blood he had so profusely shed in overcoming the Rajahs of the Kshatery tribe, applied to Varuna, the God of the ocean, to supply him with a tract of ground to bestow on the Brahmans; and Varuna accordingly having withdrawn his waters from the Gowkern (a hill in the vicinity of Mangalore) to Cape Comorin, this trip of territory has, from its situation, as lying along the foot of the Sukhien (by the Europeans called the Ghaut) range of mountains, acquired the name of Mulyalum (i.e, skirting at the bottom of the hills), a term that may have been shortened into Maliyam or Maleam, whence are also probably its common names of Mulievar and Malabar; all of whcih Purseram is firmly believed, by its native Hindus inhabitants, to have parcelled out among different tribes of Brahmans, and to have directed that the entire produce of the soil should be appropricated to their maintenance and towards the edifications of temples, and for the supports of divine worship; whence it still continues to be distinguished in their writing by term of Kerm-bhoomy or ‘the Land of good works for the expiation of sin. The country thus obtained from the ocean, is represented to have remained long in a marshy and scarcely habitable state; in so much, that the first occupants, whom Purseram is said to have brought into it from the eastern and even the northern part of India, again abandoned and it, being more especially scared by the multitude of serpents with which the mud has then abounded, and to which numerous accidents are ascribed. Until Purseram taught the inhabitants to propitate these animal, by introducing the worship of them, and of their images, which became from that period objects of adoration.

In manuscript account of Malabar that I have seen and which is ascribed to a Bishop of Virpoli, (the seat of a famous Roman Catholic seminary near Coachin), he observes, that by the accounts of the learned natives of the Coast, it is little more than 2300 years since the sca came up to the foot of the Sukhien or Ghaut mountains; and that once did so he thinks extremely probable from the nature of and the quantity of land, oyster-shells and other fragments, met with in making deep excavations.

The country of Malyalum was according to the Kerul-oodputtee, afterwards divided into the following Tookrees or divisions.

1st. from Gowkern, already mentioned, to the Perumbura river, was Called the Tooroo or Tnuru Rauje.

2nd. from the Perumbura to Poodumputtum, was called the Moshak Rauje.

3rd. from Poodum or Poodumputtum, to the limits of Kunety was catled the Kerul or Keril Rauje and as the principal seat of the ancient government was fixed in this middle division of Malabar. Its name prevailed over and was in course of time under stood in a general sense to comprehend the three others.

4th. from Kunety to Kunea Loomary or Cape Comorin was called the Koop Rajue.

However this may he, according to the book above quoted, the Brahmans appear to have first set up and for some time maintained, a fort of republican or aristocratical government, under two or three principal chiefs, elected to administer the government, which was thus carried on, till, on jealousies arising among themselves, the great body of the Brahman landholders had recourse to foreign assisstance, which terminated either by conquest or coverntion in their receing to rule over them a Permal, or Chei Governor from the Prince of the neighbouring country of Choldesh (a part of the Southern Cornatic), this succession of viceroys was changed and relived every twelve years till at length one of those officers named Sheoram or Shermanoo Permaloo, and by others called Cheruma Perumal appears to have rendered himself so popular during his government, that at expiration of its term he was enabled, by the encouragement of those over whom his delegated sway had extended to confirm his own authority, and to set at defience that of his late soverign, the Prince of the Choldesh, who is known in their book by the name of Rajah Kishan Rao, and who having sent an army to Malabar with a view to recover his authority, is statated to havebeen successfully withstood by Shermanoo and the Malabarians; an event which is supposed to have happened about 1000 years anterior to the present period, and is otherwise worthy of notice.

इसका भावार्थ यह है कि 'केरल-उत्पत्ति नामक पुस्तक में (जिसका 1793 ई. में कालीकट में अपने रहने के समय मैंने यथाशक्‍ति अंग्रेजी में उत्तम अनुवाद उसके फारसी में अनुवादित उस ग्रन्थ से किया जो प्रथम मालाबारी भाषा की पुस्तक से मेरे सामने लिखा गया था, और जो मालाबारी भाषा की पुस्तक जमोरिन वंशज एक राजा के यहाँ मिली थी) मालाबार किनारे की उत्पत्ति परशुराम (जो कि विष्णु के अवतारों में से थे) के उस प्रायश्‍चित के कारण बताई गई है, जो उन्होंने क्षत्रिय राजाओं के नाश के लिए खून बहाने के शोक से किया था और जिसके लिए समुद्रपति (देवता) वरुण से यह प्रार्थना की कि उन्हें वे थोड़ी सी भूमि ब्राह्मणों को दान करने के लिए दे। तदनुसार वरुणदेव ने मंगलोर के समीपवर्ती गोकर्ण पर्वत से कुमारी अन्तरीप तक का जल हटा लिया और इस प्रकार वह भूखण्ड सुखेन (घाट) पर्वत के मूल में रहने से मूल्यलम कहलाया, जिसका अर्थ यह होता है कि 'पर्वत की जड़ में निकला हुआ' और संभव हैं कि यही शब्द संक्षिप्त हो कर 'मलियम' हो गया हो और इसी से संभवत: इसके साधारण नाम मालेबार और मालाबार पड़े हों। इसके निवासी हिंदुओं का यह दृढ़ विश्‍वास हैं कि इस संपूर्ण भू-भाग को परशुराम जी ने वहाँ की भिन्न-भिन्न ब्राह्मण जातियों में विभक्‍त कर दिया था और उनको यह शिक्षा दी थी कि इस भूमि की संपूर्ण पैदावार को वे लोग अपने पालन, मंदिरों की मरम्मत और देवपूजाओं में खर्च किया करें। इसलिए उसी समय से इस भूमि को वे लोग अपने कागजों में 'कर्मभूमि' (अर्थात पाप के प्रायश्‍चित के लिए सत्कार्य करने की भूमि) लिखने लगे और अब तक वैसा ही करते हैं। इस प्रकार जो देश समुद्र से मिला वह बहुत दिनों तक दलदल से पूर्ण था, जिसमें लोग कठिनता से निवास कर सकते थे। उसकी ऐसी दशा थी कि जिन प्रथम के ब्राह्मणों को परशुराम जी ने वहाँ भारतवर्ष के उत्तर और पूर्व भाग से ला कर बसाया था, उन लोगों ने फिर उसे छोड़ दिया। क्योंकि उस समय उसकी कीचड़ में रहनेवाले बहुत से सर्पों से उन्हें बहुत भय हुआ और बहुत से ब्राह्मण उनसे मर भी गए। जब तक कि ये फिर परशुराम ने वहाँ के निवासियों को उन सर्पों और उनकी मूर्तियों की पूजा द्वारा उन्हें प्रसन्न करने की शिक्षा न दी तब तक यह बात रही और वह पूजा उस समय से होने लगी। मालाबार के एक प्राचीन लेख में, जिसे मैंने देखा हैं और जो विरापोली (कोचीन के निकट रोमन कैथोलिक पाठशाले की जगह) क़े एक बिशप (पादरी) के पास था, यह लिखा हुआ बतलाया जाता है कि पढ़े-लिखे मालाबारियों के कथन से कुछ अधिक 2300 वर्षों से समुद्र घाट के पहाड़ों की जड़ में नहीं आया है और यह बात वहाँ की भूमि के विस्तार और उन सीप या घोंघे वगैरह के देखने से बिलकुल ही सत्य प्रतीत होती है, जो खोदने से भूगर्भ में पाए जाते हैं। 'केरल उत्पत्ति' पुस्तक के अनुसार मलयालम (मालाबार) देश पीछे से चार भागों या टुकड़ों में विभक्‍त किया गया। जिनमें से प्रथम भाग, जो गोकर्ण से परंबरा नदी तक था, 'तूरू' राज्य कहलाया। दूसरा, जो परंबरा नदी से पदमपुत्ताम (पदमपुर) तक था, 'मशक' राज्य कहलाया। तीसरा, जो पदम या पदमपुत्ताम से कुनटी की सीमा तक था 'केरल' राज्य कहलाया और चूँकि पुरानी राजधनी मालाबार के इसी मध्य भाग में थी इसलिए इसी का नाम चारों ओर फैल गया और कुछ दिन बाद लोग शेष तीन खंडों के सहित सबको सामान्यत: 'केरल' ही समझने लगे। और चौथा भाग, जो कुनटी से कुमारी अन्तरीप तक था 'कूप' राज्य कहलाता था।

अस्तु जो कुछ भी हो। पूर्वोक्‍त पुस्तक (केरल-उत्पत्ति) के अनुसार पहले पहल ब्राह्मणों ने राज्य-प्रबंध के लिए चुने गए दो या तीन सरदारों के अधीन प्रजा-सत्ताक राज्य प्रबंध चलाया और उस दिन तक उसे कायम रखा जब कि परस्पर द्वेष के कारण अधिकांश जमींदार ब्राह्मण अन्य देशीयों से सहायता की बातचीत करने लगे और उनकी समाप्ति विजय या परस्पर सुलह से हो गई। जिसमें उन लोगों के ऊपर शासन करने के लिए एक चीफ गवर्नर पड़ोस के चोल देश (कर्नाटक के दक्षिण भाग) के शहजादे की तरफ से नियत किया गया। इन वाइसरायों (चीफ गवर्नरों) की तबदीली हर बारहवें बरस होती हुई उस समय तक चली गई जब कि उन्हीं अफसरों में एक ने, जिसका नाम शिवराम या शरमनू परमलू था, अपने को उन ब्राह्मणों की दृष्टि में अपने प्रबंध काल में ही ऐसा प्रेमपत्र बनाया कि जब उसके शासन काल का अन्त आया तो जिनके ऊपर वह राज्य करता था उनकी सहायता से अधिकार को दृढ़ बनाने में समर्थ हुआ और चोल देश के राजा के अधिकार को हटा दिया। उस राजा का नाम किशनराव था। उस राजा ने अपने अधिकार को फिर से प्राप्त करने के लिए फौज भेजी। परंतु कहा जाता है कि शरमनू और मालाबारियों ने उसे हरा दिया। बात आज (1793) से लगभग 1000 वर्ष हुई और ध्यान देने योग्य है।’

इस पूर्वोक्‍त कथन से स्पष्ट है कि कर्नाटक से मिला हुआ और उसकी सीमा पर ही पदमपुर स्थित हैं। इसी से किनवार ब्राह्मणों की वंशावली ने उसे पदमपुर कर्नाटक लिखा है। यह भी स्पष्ट है कि वहाँ जो ब्राह्मण लाए जा कर उस देश के राजा या जमींदार बनाए गए वे उत्तर-पूर्व भारत अर्थात कान्यकुब्ज देश से ही लाए गए। यह बात सत्य भी है, क्योंकि कान्यकुब्ज देश में बहुत प्राचीन काल से ही ब्राह्मणों का निवास चला आता है। इसलिए इन किनवार ब्राह्मणों का वहाँ से आना मान भी लिया जावे तो भी ये लोग वास्तव में कान्यकुब्ज ही है। और यदि पदमपुर से आए भी होंगे तो, या तो जैसा कि ऊपर लिखा है कि सर्पों के भय से बहुत से ब्राह्मण लोग भाग गए, उसके अनुसार लगभग 2300 वर्षों से ही वहाँ से आए अथवा जो युद्ध आज से 1100 वर्ष पूर्व कर्नाटक देश के राजा और मालाबारियों एवं शिवराम के बीच हुआ था उसमें ही हट कर चले आए। क्योंकि शिवराम या उन लोगों की विजय हुई सही, तथापि एक राजा के विरुद्ध लड़ने से उनको बहुत कष्ट भोगना पड़ा और बहुत ह्रास हो गया। जिससे शिवराम (जिसके लिए युद्ध ठाना गया था) भी दु:खी हो कर युद्ध के बाद कहीं अन्यत्र चला गया। यह बात आगे चल कर उसी 'केरल उत्पत्ति' में लिखी गई है और चूँकि वे लोग इसी देश से गए थे, अत: फिर यहीं चले आए। युद्ध के समय का आना ही विशेष विश्‍वसनीय हो सकता है, क्योंकि उन दिनों सभी देशों में गड़बड़ मच रही थी और लोग इधर-उधर भाग रहे थे। जो कुछ भी हो, चाहे किनवार ब्राह्मण पदुमपुर से आए अथवा कन्नौज से ही, परंतु ये लोग कान्यकुब्ज ब्राह्मण, दीक्षित और काश्यप गोत्री हैं और इस समय भूमिहार ब्राह्मण कहे जाते हैं।

किनवार क्षत्रियों का जो केवल बलिया के छत्ता और सहतवार आदि गाँवों में पाए जाते हैं, विवरण प्रथम ही सुना चुके हैं और जहाँ पर किनवार ब्राह्मण गाजीपुर के मुहम्मदाबाद परगने में भरे पड़े हुए हैं और वीरपुर, नारायणपुर, कुंडेसर, भरौली, विश्‍वंभरपुर, परसा, लट्ठूडीह गोढ़उर और करीमुद्दीनपुर आदि उनके बड़े-बड़े ग्राम है। वहाँ उनसे पृथक दो या चार गाँवों में रहनेवाले क्षत्रियों की बात वही हो सकती है जैसी कि कही जा चुकी है, और वही बात सन 1880-85 ई. के गाजीपुर की सेट्लमेंट रिपोर्ट में उस समय के कलेक्टर विलियम इरविन (William Irvine) ने यों लिखी है :

Amog Dichhit had three sons, kulkal Rai, Baijal Rai and Mahipal Rai. As they thought that they could not perform all the religious ceremonies required, they began to call themselves Rai, Kulkal Rai, without the consent of his brothers, married the daughter of a chhatri in Pargana Panchotor, and therefore he was excluded from his caste of Brahman; but the two brothers, having taken pity on him, gave him some property and the village Chhata in the Ballia district; as is recorded in the following verse:

Bijal o mahipal bhum adha kar lin;

Jeth putra Kulkal tahiko chhata din.—Page 33.

इसका मर्मानुवाद यह है कि 'किनवारों के पूर्वज अमोघ दीक्षित के कलकल राय, बैजल राय और महीपाल राय तीन पुत्र थे। उन्होंने समझा था कि हम लोग पुरोहिती आदि नहीं करवा सकते हैं, इसलिए अपने को दीक्षित की जगह राय कहने लगे। कलकल राय ने बिना अपने भाइयों की सम्मति के ही पचोतर परगने के किसी क्षत्रिय की पुत्री से ब्याह कर लिया, इसलिए वे अपनी ब्राह्मण जाति से च्युत कर दिए गए। परंतु दोनों छोटे भाइयों ने उनके ऊपर दया कर के कुछ धन और बलिया जिले का छाता गाँव उन्हें दे दिया। जैसी कि कहावत हैं कि ‘बैजल और महिपाल भुइं आधा करि लीन। जेठ पुत्र कलकल, ताहि को छाता दीन’। किनवारों के पुरोहित जो नगवाँ पांडे कहलाते हैं, काश्यप गोत्री ही हैं और उन लोगों में यह प्रसिद्ध हैं एवं उनकी वंशावलियों में भी लिखा है कि वे और किनवार दोनों भाई हैं। एक भाई का वंश यजमान हुआ और दूसरे का पुरोहित।

अब सकरवार नामवाले अयाचक दलीय ब्राह्मणों का विवरण सुनिए। ये ब्राह्मण भी कान्यकुब्ज ब्राह्मण सांकृत गोत्रवाले फतुहाबाद के मिश्र है। जो अन्य ब्राह्मणों की तरह यवन राज्यकाल में वहाँ से इस देश में चले आए जैसा कि प्रथम दिखलाया जा चुका है। फतुहाबाद फतहपुर जिले में एक स्थान है। वहाँ से आ कर इनके पूर्वज प्रथम रेवतीपुर, गहमर और करहिया ग्रामों (जो गाजीपुर के जमानियाँ परगने में हैं) के बीच में रहनेवाले सकरा नामक स्थान में बसे। जो अब भी नाम के लिए डीह के रूप में ऊँचा स्थान पड़ा हुआ है और वहाँ मकान वगैरह कुछ भी नहीं रह गए हैं। परंतु लोग उसे 'सकराडीह' अब तक पुकारते ही हैं। फिर वहाँ से बहुत विस्तार होने या और अनुकूलताओं एवं प्रतिकूलताओं के कारण वे लोग हट कर रेवतीपुर, शेरपुर, सुहवल तथा आरा जिले के सैकड़ों गाँवों मे जा बसे और उस जिले का सरगहा परगना और जमानियाँ परगने का बहुत सा भाग अब छेंके हुए हैं, बल्कि मुहम्मदाबाद परगने (गाजीपुर) में भी शेरपुर, रामपुर, हरिहरपुर आदि गाँवों में रहते थे। अन्त में सकराडीह से हट कर चारों ओर बसे। इसीलिए सकरा में रहने के समय अपना पूर्व स्थान फतहपुर ही बतलाते थे। परंतु जब वहाँ से भी हटे तो सकरा ही पूर्व स्थान बतलाने लगे। लेकिन पूर्व का फतूहाबाद या फतहपुर नहीं छूटा, इसलिए सकरवार कहलाने पर भी पूछने पर यही कहते थे कि फतहपुर सकरा से आए हैं, क्योंकि फतहपुर के साथ सकरा भी जुड़ गया। काल पा कर सकरा की जगह सकरी और सिकरी भी कहलाने लगा और फतहपुर प्रथम का था ही। बस लोग भूल से समझने लगे कि हम लोग फतेहपुर सीकरी से आए हैं, जो आगरे के पास हैं। इस भ्रम या भूल में विशेष सहायता सिकरीवार राजपूतों के (जो आगरे के पास और अन्य जिलों में तथा ग्वालियर में विशेष रूप से पाए जाते हैं) वंचक भाटों ने की। क्योंकि उन्होंने सिकरीवार और सकरवार को एक ही समझ लिया और रुपया ठगने के लालच से सकरवार ब्राह्मणों का फतेहपुर सीकरी से ही आना बतलाया। परंतु असल बात तो यही हैं कि फतहपुर जिले से आ कर सकरा में रहे, इसलिए फतहपुर सकरा ही उनके डीह कहे जा सकते हैं। इसमें प्रबल प्रमाण यह है कि सकरवार और सिकरीवार इन नामों के भेद के साथ-साथ गोत्रों में भी भेद है। अर्थात सिकरीवार राजपूतों का जो आगरे की तरफ पाए जाते हैं, शांडिल्य गोत्र है, ऐसा अंवेषण करने से पता लगा है। और इस बात को स्वीकार करते हुए मिस्टर शेरिंग ने भी अपनी जाति विषयक अंग्रेजी पुस्तक (जिसका हाल प्रथम कह चुके हैं) के प्रथम खण्ड के 189 पृष्ठ में सकरवारों के वर्णन प्रसंग में सिकरीवार क्षत्रियों का शांडिल्य गोत्र ही लिखा है। जैसा कि 'They are Sandel gotra or order. परंतु सकरवार ब्राह्मणों का तो सांकृत गोत्र प्रसिद्ध ही है। इससे नि:संशय ही सकरवार ब्राह्मणों को फतहपुर सकरा से आने के बदले फतेहपुर सीकरी से आना बतलानेवाले सभी ठग है।

इन सकरवार नामधारी ब्राह्मणों का प्रसिद्ध सांकृत गोत्र ही उस किंवदंती को मिथ्या सिद्ध कर रहा है, जो मूर्खतावश जोड़ी गई है और जिसको बहुत से अंग्रेजों ने भी लिख दिया है कि ‘गाजीपुर के प्राचीन राजा गाधि के चार पुत्र अचल, विचल, सारंग और रोहित थे, जिनके ही वंशज रेवतीपुर, सुहवल और सरंगहा परगना आदि स्थानों के सकरवार है’ इत्यादि। क्योंकि यदि ये लोग गाधि के वंशज होते, तो इनका गोत्र कौशिक होता, जैसा कि गाधि और उनके पुत्र विश्‍वामित्र आदि का माना जाता है। इससे ये सब कल्पनाएँ निर्मूल और अश्रद्धेय है। इससे इन्हीं के आधार पर करहिया और गहमर के सकरवार क्षत्रियों और सकरवार ब्राह्मणों को एक सिद्ध करने का साहस करना नितान्त भूल है। जबकि वे लोग दो-एक गाँवों में ही रहते हैं, परंतु सकरवार ब्राह्मण तो सुहवल, रेवतीपुर, रामपुर और शेरपुर एवं सरंगहा आदि में भरे पड़े हैं। अत: इन सकरवार राजपूतों के विषय में वही बात विश्‍वसनीय है, जिसका कथन प्रथम ही कर चुके हैं और जो दोनवार और किनवार क्षत्रियों के विषय में भी कही जा चुकी है।

यद्यपि कोई-कोई ऐसा सिद्ध करने का साहस कर सकते हैं कि जो सिकरीवार राजपूत पश्‍चिम में पाए जाते हैं, उन्हीं की एक शाखा ये सकरवार राजपूत भी है और सिकरीवार शब्द ही बिगड़ते-बिगड़ते सकरवार हो गया है। तथापि यह उनका प्रयत्‍न व्यर्थ ही है, क्योंकि यदि ऐसी बात होती तो सिकरीवार और सकरवार इन दोनों राजपूतों के गोत्र एक ही होते। परंतु वे लोग (सिकरीवार) शांडिल्य गोत्रवाले और ये गहमर, करहियावाले सकरवार राजपूत सांकृत गोत्रवाले ही हैं। ये लोग गाधि राजा के भी वंशज नहीं हैं, क्योंकि ऐसी दशा में इनका गोत्र कौशिक होना चाहिए। इसलिए इन राजपूतों की व्यवस्था वही हैं जो कही जा चुकी है। यदि इन सकरवार क्षत्रियों को गाधिवंशजों या सिकरीवार क्षत्रियों से ही मिलाने का कोई यत्‍न करे तो अच्छा है, वे लोग उधर ही जा मिलें। इससे भी सकरवार ब्राह्मणों का कोई हर्ज नहीं है। ये लोग तो कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं ही। जैसे अयाचक ब्राह्मणों और राजपूतों में सकरवार नामवाले पाए जाते हैं, वैसे ही मैथिल ब्राह्मणों में भी सकरीवार या सकरवार नामवाले ब्राह्मण पाए जाते हैं। यह नाम उन लोगों के प्रथम सकरी स्थान में रहने से हैं, जो दरभंगा शहर से उत्तर-पूर्व में स्थित है और बंगाल नार्थ-वेस्टर्न रेलवे की मधुबनी और झंझारपुर वाली लाइनों का जंक्शन है। इस कथन का यहाँ तात्पर्य यह है कि एक ही नामवाले एक या भिन्न-भिन्न स्थानों में रहने से अनेक जातियों के लोग एक ही नामवाले हो सकते हैं। परंतु इससे उनके एक जाति संबंधी होने का संशय नहीं किया जा सकता। अत: निर्विवाद सिद्ध है कि ब्राह्मणों का सकरवार भी नाम प्रथम सकराडीह के निवास से ही पड़ा है।

अब आजमगढ़ के यगरी परगने के 14 कोस में विस्तृत बरुवार नामक ब्राह्मणों का विवरण संक्षेपत: लिखा जाता है। बरुवार ब्राह्मण भी कान्यकुब्ज ब्राह्मण बरुवा के तिवारी काश्यप गोत्री है। यह बरुवा स्थान कान्यकुब्ज देश में है। और प्राय: इसी स्थान से आने से ये लोग बरुवा कहलाते-कहलाते अब बरुवार कहलाते हैं। यद्यपि ये लोग पूछने से केवल इतना ही बतलाते हैं कि हमारे पूर्वज पश्‍चिम कन्नौज की ओर से आए और हम लोगों का गोत्र काश्यप है। परंतु वही बरुवार नाम और काश्यप गोत्र ही इस बात का पता दे देता हैं कि ये लोग कन्नौज देश के बरुवा स्थान के रहनेवाले थे और यवनों के समय में वहाँ से आ कर देवगाँव तहसील के वेला तप्पे के जिहुली स्थान में प्रथम बसे। जिहुली के पास ही बेला नाम का गाँव भी है। फिर वहाँ से सगरी परगने में पीछे आ कर बसे। बहुत संभव और विश्‍वसनीय है कि जैसे भृगुवंश लोग कोठा तप्पे से कोठहा कहलाते हैं, वैसे ही इनका नाम भी बेला तप्पे से बेलवार हो कर अब बेरुवार या बरुवार हो गया। क्योंकि र और ल अक्षरों का उलट-फेर विलार और विडाल शब्दों में देखा जाता है। भूमिहार ब्राह्मणों के डीह प्राय: निकट के ही है, यह बात भी इस अनुमान में अनुकूल है। अस्तु। अभी कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में बहुत से काश्यप गोत्रवाले बरुवा के तिवारी पाए जाते हैं। यद्यपि बरुवार नामवाले क्षत्रिय भी आजमगढ़ में बरुवार ब्राह्मणों से हट कर पाए जाते हैं। परंतु इनकी संख्या थोड़ी सी ही है, जैसी कि दोनवार, किनवार क्षत्रियों की। इसलिए इन बरुवार क्षत्रियों की भी व्यवस्था वैसी ही है, जैसी कि दोनवार, किनवार या सकरवार क्षत्रियों की बतलाई जा चुकी है। अथवा सामान्यत: इनके विषय में भी वैसी ही है जैसा प्रथम ही कह चुके हैं। कुछ बरुवार ब्राह्मण आजमगढ़ के मुहम्मदाबाद परगने के केरमा, भुजही और छठियाँव नामक ग्रामों में भी पाए जाते हैं।

बेमुवार नामवाले ब्राह्मणों का संक्षिप्त विवरण जानने के लिए प्रथम यह जानना आवश्यक है कि इनका गोत्र सावर्ण्य हैं और इन सावर्ण्य गोत्रवाले ब्राह्मणों के तीन छोटे-छोटे दल अब प्रसिद्ध हैं। एक पनचोभै, दूसरे अरापै, तीसरे केवल सावर्ण्य या सावर्णियाँ कहलाते हैं, अर्थात केवल गोत्र से ही बोले जाते हैं। और सावर्णियाँ या सावर्ण्य गोत्रवाले ब्राह्मण प्राय: कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों में नहीं ही है और मैथिलों में भरे पड़े हुए हैं। बल्कि जो इनका एक दल पनचोभै कहलाता है वह मिथिला ही में पाया जाता है और ये लोग बिहार में ही विशेष रूप से पाए भी जाते हैं। और पटना तथा आरा जिले में इनकी संख्या बहुत है। जहाँ मिथिला से आए हुए दिधावैत वगैरह भी पाए जाते हैं। इसलिए ये लोग पूर्व के मैथिल ब्राह्मण ही है ऐसा ही हमारा अनुमान है। इनके पनचोभै और अरापै आदि संज्ञाओं के विषय में बहुत सी गढ़ंत किंवदंतियाँ हैं, परंतु सब निर्मूल हैं, ये लोग बनारस के नरवन परगने के कुछ गाँवों में भी पाए जाते हैं। वास्तव में पटना जिले में जहाँ ये लोग विशेष रूप से हैं, उसके पास ही बिहटा स्टेशन से उत्तर कुछ दूर गंगा के पास इनका पुराना गढ़ अरापा नाम का था, जो अब भग्नावस्था में नाममात्र के लिए कहने को रह गया है और इनके पूर्वज वहाँ प्रथम रहते थे इसीलिए ये लोग अरापै कहलाए। इसी तरह मिथिला, दरभंगा से पश्‍चिम से पनचोभ गाँव में रहने से ये लोग पनचौभे कहलाए, जो वहाँ ही विशेष रूप से इधर-उधर पाए जाते हैं। तीसरा दल जो केवल गोत्र के नाम से ही पुकारा जाता है वह भी मिथिला में बहुत हैं। इससे भी स्पष्ट है कि ये लोग मिथिला से ही इन पटना आदि के प्रांतों में आए। परंतु जो लोग प्रथम से अरापा गढ़ या पनचोभ गाँव में न रह कर अन्य स्थानों में ही पटना प्रांत में या अन्यत्र प्रथम से ही रहते हुए पीछे तक रह गए वे केवल सावर्णियाँ या सावर्ण्य ही कहलाते रह गए। उन्हीं पटना जिले में रहनेवाले सावर्ण्य गोत्री ब्राह्मणों में से कुछ लोग इधर-उधर बढ़े। जिनमें से कुछ बनारस की ओर भी चले गए और जैसा कि बेमुवारों कहना हैं कि आँव नामक स्थान में बसे। परंतु जो पटना के समीप बेमूपुर नामक परगने में बसे हुए थे, वे लोग जब वहाँ से हट कर बक्सर के आस-पास आरा जिले में ठहरे, तो उसी बेमूपुर से आने के कारण बेमुवार नामवाले कहलाए।

यह बेमूपुर परगना अकबर के समय में था। क्योंकि आईन-ए-अकबरी में जहाँ पर अकबर के राज्य-भर के जिलों और परगनों का वर्णन हैं, वहाँ पटना के आसपास में ही बेमूपुर नामक महाल या परगना भी लिखा गया है। संभव है कि अब वह नाम न हो। परंतु बक्सर के पास आरा जिले से भी, डुमराँव के राजाओं से बराबर लड़ाई होती रहने के कारण वे लोग हट कर गंगा के उत्तर तट में नहरी इत्यादि गाँवों में बलिया जिले के गुड़हा परगने में अकबर बादशाह के पीछे आ बसे और वहाँ के प्रथम निवासी क्षत्रिय तथा अन्य जातियों को निकाल दिया। अभी नरही, सुहाँव, टुटुआरी, भरौलीं तथा उजियार आदि गाँवों में आए हुए उन्हें थोड़े ही दिन हुए। जिसे वे लोग स्वयं कहाँ करते हैं। और इसी कारण से बलिया के गड़हा परगने में अकबर के समय में राजपूतों की ही जमींदारी लिखी हुई है। यह बात कि ये लोग पटना के पास बेमूपुर से आए, यों भी पुष्ट होती है कि ये लोग भी इतना कहते हैं कि हम लोगों के पूर्वज लोग बेमूपुर-पाटन से आए जो आगरा या इटावे के पास है। परंतु वहाँ तो इस नाम के किसी भी स्थान का पता नहीं चलता। इसलिए पटना को ही भूल से पाटन कहने लग गए और जैसा सब लोग पश्‍चिम से ही आना बतलाते हैं, वैसा ही इन लोगों ने भी कहना प्रारंभ किया, यही अनुमान है। ऐसी भूलें हुआ भी करती है, जैसा कि पदमपुर, कर्नाटक और फतेहपुर सीकरी आदि के विषय में दिखला चुके हैं।

इससे सिद्ध होता है कि बेमूपुर डीह से, जो पटना जिले में हैं और जहाँ अब तक सावर्ण्य ब्राह्मणों की बहुत बड़ी संख्या है, आने से ही नरही आदि के अयाचक दलीय ब्राह्मण बेमुवार कहलाएँ। यदि इन्हें सर्यूपारी और इटार के पांडे मानें तो भी हमें विवाद नहीं है।

इसी जगह प्रसंगवश हम यह भी शंका हटा देना चाहते हैं, जो लोगों की अनभिज्ञता के कारण हुआ करती है। अर्थात लोग कभी-कभी यह बकने का साहस किया करते हैं, कि यदि पश्‍चिम, त्यागी, अयाचक, भूमिहारादि ब्राह्मणों को आप वास्तव में कान्यकुब्ज, सर्यूपारी, गौड़ और मैथिलादि बतलाते हैं, अर्थात जिन दिनों मैथिल, गौड़, सर्यूपारी और कान्यकुब्ज आदि छोटे-छोटे दल ब्राह्मणों में बनने लगे, उसी समय मिथिला, गौड़, कन्नौज और सर्यूपार आदि सभी देशों के अयाचक ब्राह्मणों का भी एक दल संगठित होने लगा। क्योंकि स्वगुणे परमाप्रीति: ‘अर्थात जो जिस प्रकार का होता है वह वैसों से ही मिलता है।’ तो फिर इन लोगों के सभी डीह कन्नौज, सर्यूपार या मिथिला में न बता कर कुछ तो उन देशों में और कुछ अन्यत्र क्यों बतलाते हैं? क्योंकि दोनवार आदि शब्दों को आप डीह या मूल का वाचक बतलाते हैं, परंतु उनसे जो डीह सिद्ध होते हैं ये तो कन्नौज या सर्यूपार आदि देशों में नहीं हैं। यद्यपि एकसरिया वगैरह नामवाले एकसार आदि डीह सर्यूपार के हैं, तथापि सब तो नहीं ही हैं इत्यादि। इसका समुचित उत्तर यह है कि सभी ब्राह्मणों में बहुत से डीह ऐसे मिलते हैं। जैसे सर्यूपारियों में मचैयाँ पांडे या निमेज के ओझा तथा बटवा उपाध्याय या बड़हरिया पांडे इत्यादि कहलाते हैं। और यद्यपि वे लोग अपने को कभी-कभी कान्यकुब्ज भी कहा करते हैं, तथापि सर्यूपारी कहलानेवाले से विवाह करते हैं। परंतु उनके निमेज, मचियाँव, बड़हर और बटवा आदि डीह न तो कन्नौज देश में ही मिलते हैं और न सर्यूपार ही में। किंतु आरा जिला, पटना या मिर्जापुर आदि में पाए जाते हैं। तो क्या इससे सर्यूपारी होने का अभिमानवाले या सर्यूपारी बननेवाले उनको अपने समाज से पृथक कर देने का साहस भी कर सकते हैं?

साथ ही, जो लोग अन्य देशों में भी रह कर अपना डीह मिथ्या या सत्य ही सर्यूपार में बतलाते हैं, क्या उनके साथ सर्यूपार में रहनेवाले सर्यूपारी खानपान या विवाह सम्बन्ध भी करते व करवा सकते हैं? तो क्या ऐसा न होने से वे लोग अपने को सर्यूपारी न मानें? मैथिलों में भी यही दशा है। उनमें जो कोदरिया या दिघवै इत्यादि नामवाले मैथिल हैं, उनके डीह या मूल कोदरा और दिघवा आदि छपरा प्रांत में हैं, न कि मिथिला में। परंतु इससे क्या वे लोग मैथिल समाज से अलग समझे जा सकते हैं? अत: यह शंका निर्मूल ही है।

बेमुवार नामवाले क्षत्रिय यदि बलिया में या अन्यत्र थोड़े-बहुत पाए जाते हों, तो या तो उन्हें किसी प्रकार से बेमूपुर से आना सिद्ध करने का यत्‍न करना होगा, या दूसरे प्रकार से बेमुवार शब्द की व्याख्या उन्हें करनी होगी। परंतु यदि उनका भी गोत्र सावर्ण्य ही हो, तो सावर्ण्य गोत्रवाले क्षत्रिय पटना-बेमूपुर में इस समय पाए नहीं जाते, परंतु सावर्ण्य ब्राह्मण तो गड़हा, पटना, काशी और दरभंगा में भरे पड़े हैं। अत: ऐसी दशा में इने-गिने बेमुवार क्षत्रियों की वही दशा हो सकती हैं जो सामान्यत: प्रथम कही जा चुकी है।

कुढ़नियाँ नामवाले ब्राह्मणों का निवास आजमगढ़ के सर्यूपुर आदि बहुत से ग्रामों में हैं और इन्हीं में से कुछ दरभंगा जिले के सरायरंजन आदि गाँवों में तथा अन्यत्र भी कहीं-कहीं पाए जाते हैं। ये लोग कान्यकुब्ज ब्राह्मण अंटेर के दीक्षित काश्यप गोत्री हैं। इसीलिए इन्हीं की एक शाखा मिर्जापुर के सुधावल आदि 10 या 12 ग्रामों में पाई जाती है। जिनमें से 3 ग्रामवाले याचक दलवाले ब्राह्मणों में मिले हुए हैं, परंतु 9 गाँववाले अयाचक दलवाले ब्राह्मण ही हैं। परंतु सबके-सब अपने को एक ही बतलाते और काश्यप गोत्री अंटेर के दीक्षित ही कहते हैं और अब तक उनकी पदवी दीक्षित ही है। वे अपने को कुढ़नियाँ नहीं कहते। क्योंकि यहाँ से जाने के बाद ही आजमगढ़वाले कुढ़नियाँ कहलाए। परंतु अंटेर से आ कर प्रथम यहीं रहे थे। यह बात कुढ़नियाँ ब्राह्मणों की बृहत् वंशावली में लिखी हर्इु हैं और अण्टेर स्थान को ग्वालियर के पास बताया है। सो भी ठीक ही है। सुधावल के पूर्वोक्‍त दीक्षित ब्राह्मणों के विषय में सन 1865 ई. की मनुष्य गणना की रिपोर्ट में इस प्रकार लिखा है :

There is a Sect of Dikshit Bhoimhars inhabiting Mouzah Soodhawal & c. Most of them still retain their primary character, and make intermarriages among their own class; and some of them following the manners and customs of Surwaria Brahmans have mixed with them.—Vol-I, P.120.

अर्थात ‘भूमिहारों का एक दल दीक्षित कहलाता है और सुधावल आदि गाँवों में पाया जाता है। उनमें से अधिकांश प्रथम की तरह अयाचक ही बने हुए हैं और अपने ही दल में विवाह आदि करते हैं। परंतु थोड़े से सरवरिया ब्राह्मणों की चाल-ढाल और रस्म-रिवाजों (याचकता, पुरोहिती आदि) का अनुसरण कर उनमें ही मिल गए हैं। भाग-1, पृ. 120।’ इन्हीं दीक्षितों में से कुछ गाजीपुर जिले के शादियाबाद परगने में भी पारा और छपरी आदि गाँवों में पाए जाते हैं। जो अब तक काश्यप गोत्री और दीक्षित पदवीवाले ही हैं। ब्राह्मणों के दीक्षित नाम पड़ने का कारण प्रथम ही बतला चुके हैं कि इनके पूर्वजों ने बड़े-बड़े यज्ञ किए थे, जिनमें उन्हें दीक्षा दी गई थी, इसलिए वे दीक्षित कहलाए। यद्यपि गाजीपुर के पचोतर परगने के क्षत्रिय भी दीक्षित कहलाते हैं, तथापि उनका गोत्र काश्यप नहीं हैं। परंतु दीक्षित नाम तो उनका भी वैसे ही पड़ा जैसे कि ब्राह्मणों का। क्योंकि यज्ञ में जिसकी ही विधिवत दीक्षा हो वही दीक्षित कहला सकता है, न कि ब्राह्मण मात्र ही। क्योंकि यज्ञ करने का अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों को है।

अस्तु, कुढ़नियाँ ब्राह्मणों की वंशावली में, जो सूर्यपुर, आजमगढ़ में पाई जाती है, यह लिखा हुआ है कि अंतेर से पंडित प्रवर गोल्हन भट्ट नामक इनके पूर्वज काशी आए और वे बड़े यज्ञ करनेवाले थे, इसीलिए उनको दीक्षित पदवी मिली और काशिराज की ओर से सूर्यपुर के पास पाँच गाँव मिले। इसलिए वे अथवा उनके वंशज वहाँ जा बसे और कुछ लोग सुधावल आदि गाँवों में ही रह गए। जो लोग आजमगढ़ में बसे, उनके उस प्रथम निवास का स्थान कुढ़नी नामवाला तप्पा (परगने का एक भाग) था, इसलिए पीछे वहाँ से इधर-उधर हटने से वे लोग उसी तप्पे के नाम से कुढ़नियाँ कहलाए। कुढ़नी नामवाला तप्पा सगरी परगने में था और शायद अब धोसी में है और सगरी में ही ये लोग पाए भी जाते हैं। उस तप्पे का नाम आजमगढ़ के गजेटियर (Gazetteer) में भी लिखा हुआ है। जो लोग कुढ़नियाँ नाम को बिगाड़ कर कुंडहवनियाँ इत्यादि कहा करते हैं और उसके स्वकपोलकल्पित अर्थ भी किया करते हैं, वह उनकी भूल है। क्योंकि ब्राह्मणों के ये सब नाम डीह या मूल स्थान से ही पड़े हैं। जैसे एकसार में रहने से एकसरिया, जैथर से जैथरिया और नोनहुल से नोनहुलिया आदि। नोनहुल ब्राह्मण और नोनहुल डीह बलिया जिले में सर्यू के तट पर है। इसी तरह एकसार और जैंथर छपरा जिले में हैं और एकसरिया तथा जैंथरिया ब्राह्मण छपरा और मुजफ्फरपुर जिले में पाए जाते हैं। एकसार वगैरह में उनके पूर्व पुरुषों के आने का विवरण उन लोगों की वंशावलियों में पाया जाता है और थोड़ा-बहुत प्रथम भी लिख चुके हैं। अस्तु, इससे सिद्ध है कि कुढ़नियाँ नाम कुढ़नी स्थान में रहने से ही पड़ा। यदि कुढ़नियाँ नामवाले राजपूत थोड़े-बहुत कहीं मिलते हों, तो या तो कुढ़नी तप्पे में रहने से वे भी कुढ़नियाँ कहलाए, अथवा अन्य कारणों से, जैसा कि साधारणत: कह चुके हैं।

गौतम ब्राह्मणों का तो सविस्तार वर्णन प्रथम ही परिच्छेद में तथा इसमें भी बहुत जगह किया जा चुका हैं और काशी के गौतम क्षत्रियों का भी हाल कह ही चुके हैं। गौतम ब्राह्मणों के विषय में 1865 ई. की मनुष्य गणना की बनारस की रिपोर्ट के 118वें पृष्ठ, प्रथम भाग में भी वही बात लिखी गई है, जिसका प्रदर्शन आगे करेंगे।

तटिहा नामवाले ब्राह्मण छपरा जिले में और कुछ बलिया में भी सर्यू के दोनों तटों पर पाए जाते हैं। ये लोग सर्यूपारी ब्राह्मण सीसोटाँड़ के मिश्र, काश्यप गोत्री है और अब तक सीसोटाँड़ में भी पाए जाते हैं। छपरा जिला तो सर्यूपार में गिना जाता है और है ही। ये लोग सर्यू नदी के दोनों तटों पर फैले हुए हैं। इसीलिए इनका नाम तटहा, टटहा, या तटिहा इत्यादि पड़ा। जिसका अर्थ यह है कि 'नदी के तट के रहनेवाले'। यदि क्षत्रिय भी इस नामवाले अधिक पाए जाते हों, तो उनका नाम भी तट पर रहने से तटिहा वा टटिहा पड़ा होगा, अथवा उनके विषय में कोई अन्य ही बात होगी। जो लोग तटिहा को बिगाड़ कर टेंटिहा बना देते और उस पर मनगढ़ंत कल्पनाएँ करते हैं वह उनकी भूल है।

कौशिक नामवाले ब्राह्मण विशेष कर गाजीपुर जिले के जहूराबाद परगने में पाए जाते हैं और छपरा, मुजफ्फरपुर और दरभंगा जिलों में भी उनकी कमी नहीं है। परंतु वहाँ नेकतीवार और कुसौंजिया इत्यादि नामों से कहे जाते हैं। जिसका तात्पर्य यह है कि वे लोग प्रथम नेकती या कुसौंजी स्थानों में थे। अत: वहाँ से हटने पर नेकतीवार और कुसौंजिया कहलाए। वे सब लोग अभी तक पांडे ही बोले जाते हैं। इससे स्पष्ट ही है कि जहूराबादवाले कौशिक ब्राह्मण भी प्रथम पांडे ही कहलाते थे, परंतु पीछे से उन्होंने 'राय' की पदवी धारण कर ली। मुर्शिदाबाद-लालगोला के वर्तमान राजा साहब इसी जहूराबाद के सुर्वंत पाली ग्राम के रहनेवाले कौशिक ब्राह्मण के पुत्र हैं। बहुत दिनों से ये लोग सर्यूपार या कन्नौज से आ कर यहीं रहते थे और पीछे भी यहाँ से न हटे, इसलिए ये लोग पूर्ववत गोत्र के नाम से ही पुकारे जाते रह गए। आईन-ए-अकबरी में भी इनको जहूराबाद का जमींदार लिखा है। यदि क्षत्रिय भी कौशिक नामवाले हों, तो हो सकते हैं। क्योंकि जैसा कि दिखला चुके हैं, कि गोत्र तो सभी जातियों के एक ही हो सकते हैं।

भृगुवंश नामवाले ब्राह्मण निजामाबाद परगने में आजमगढ़ के जिले में पाए जाते हैं। ये लोग टीकापुर, बीबीपुर आदि गाँवों में पाए जाते हैं। इनका गोत्र भार्गव है, और प्रवर भार्गव, च्यवन, आवप्नवान, और्व और यमदग्नि है। इनके पुरोहित भी भार्गव गोत्री ही हैं। इसी से इन लोगों का कथन है कि हम लोग वास्तव में एक ही है। परंतु जो लोग हमीं में ही गरीब थे, वे हमारी ही पुरोहिती करने लगे और याचक कहलाए, और धनी लोग अयाचक या भूमिहार ब्राह्मण कहलाए। अस्तु, जो कुछ हो ये लोग कान्यकुब्ज ब्राह्मण है और इनकी प्राचीन पदवी पांडे है। इसी से इन्हीं लोगों में से जो बस्ती के कोटिया आदि गाँवों और फैजाबाद में हैं, वे अब तक पांडे ही कहलाते हैं। इन्हीं लोगों में से कुछ लोग गाजीपुर जिले के असावर आदि गाँवों में चले गए हैं, जो अपने को प्रथम असावर में रहने से असवरिया कहते हैं और यहीं से जाना बतलाते हैं। इन लोगों के 50 वर्ष के पूर्व के दस्तावेज आदि कागजों में ब्राह्मण कौम ही इनकी लिखी गई है। यहाँ तक कि भूमिहार शब्द भी नहीं लिखा गया है¹। ये लोग निजामाबाद परगने के बहुत प्राचीन रहनेवाले हैं और वहीं रह गए, क्योंकि इनका पुराना डीह भी उसी जगह है। इसलिए ये लोग पूर्ववत अपने गोत्रों से ही पुकारे जाते रह गए, क्योंकि भृगुवंश का अर्थ हैं भृगु या भार्गव गोत्रवाला।

यद्यपि बनारस के जिले में काशी से दक्षिण बहुत से गाँवों में भृगुवंश क्षत्रिय भी पाए जाते हैं, तथापि उनका इन भृगुवंश ब्राह्मणों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं। क्योंकि एक भृगुवंश क्षत्रिय से, जो बहुत होशियार था, हमने उसका गोत्र पूछा तो उसने उत्तर दिया कि हम लोगों का गोत्र सावर्ण्य हैं। परंतु जब उससे पुन: प्रश्‍न किया गया कि भृगुवंश कहला कर सावर्ण्य गोत्र आप लोगों का कैसे हो गया? तो इस विषय में उसने समाधान (उत्तर) करने के लिए बहुत यत्‍न किया, परंतु उचित उत्तर न दे सका और अन्त में उसने यही कहा कि हमारा गोत्र किसी तरह से भी हो सावर्ण्य ही हैं, इसमें तो संदेह नहीं, परंतु हम लोग भृगुवंश क्यों कहलाए यह बात हम नहीं जानते। साथ ही, भृगुवंश क्षत्रिय और ब्राह्मण ये दोनों एक-दूसरे से बहुत दूर हैं। यदि गोत्र एक भी होता तो भी कोई बात नहीं क्योंकि गोत्र एक भी हो सकते हैं, यह दिखलाया जा चुका है।

सोनपकरिया, सोनपखरिया या सरपखरिया इत्यादि अनेक प्रकार से कहे जानेवाले ब्राह्मण आजमगढ़ जिले के इंदोरा स्टेशन के आसपास 12 या 14 ग्रामें में फैले हुए हैं। यद्यपि इनको लोग अनेक नामों से पुकारते हैं, तथापि एक उसी दल के चतुर ब्राह्मण से हमने उसका हाल पूछा, तो उसने अपना गोत्र भारद्वाज और सोनपकरिया नाम बतलाया और यह भी कहा कि हमारे पूर्वज खजुरा, धुवार्जुन या सोनबरसा की तरफ से आए। ये सब धुवार्जुन आदि ग्राम गाजीपुर के सैदपुर परगने में है और वहाँ पर भारद्वाज गोत्रवाले ब्राह्मण 24 गाँवों में पाए जाते हैं। संभव है कि वहीं के सोनबरसा गाँव से आने के कारण ये लोग सोनबरसिया कहलाते-कहलाते इन पूर्वोक्‍त नामों से कहलाने लग गए हों, क्योंकि काल पा कर शब्दों के रूप बिगड़ जाया करते हैं, यह बात सभी को मालूम है। नहीं तो कहाँ वाराणसी और कहाँ बनारस?

अथवा यह संभव है जैसा कि आगे लिखा है। वह यह है कि भारद्वाज या भरद्वाज कहलानेवाले ब्राह्मणों के पूर्वज पं. गजाधर पांडे सर्यूपार से आ कर आरा जिले के मचियाँव गाँव में प्रथम आ बसे और वहाँ से उनके वंशजों में से एक पुरुष, जो आजमगढ़ में देवगाँव की तरफ सिकरौरा, बहादुरपुर आदि गाँवों के भारद्वाज गोत्री चौधरी कहलानेवाले ब्राह्मणों के पूर्वज थे, उसी तरफ आ कर बसे, जिनके वंशज उन 10 या 12 ग्रामों में फैले हुए हैं। और दूसरे पुरुष, जो धुवार्जुन आदि पूर्वोक्‍त 24 गाँववालों के पूर्वज थे, धुवार्जुन आदि की तरफ गाजीपुर जिले में आए और उन्हीं के वंशज उन 24 गाँवों इस समय पाए जाते हैं। उन लोगों का यह भी कहना है कि हमारे पूर्वजों ने प्रथम मसोन की कोट को, जो खण्डहर स्वरूप में औरिहार या सैदपुर के पास है, अन्य लोगों से जीत लिया था और वहाँ पर ही अधिकार जमाए बहुत दिन तक रहे। परंतु जब अन्त में किसी साधु के कोप से वह कोट उजड़ने या उलटनेवाली हुई तो वहाँ से हट कर वे लोग इन 24 गाँवों में फैल गए। वह कोट खण्डहर कर दी गई या उलट दी गई। इसी से उसका नाम मसोन हुआ। क्योंकि जितने स्थानों के नाम मसोन या मसौनी आदि हमें मिले हैं, उनका ऐसा ही इतिहास मिलता है कि वे किसी कारण से खण्डहर कर दिए गए। और साधु या फकीर ने उसे मसोन बनाया था, इसलिए उसका नाम मसोनफकीर भी हुआ और वहीं से दूर चले आने के कारण आजमगढ़ के भारद्वाज गोत्रवाले ये ब्राह्मण मसोन फकीरिया कहलाते-कहलाते काल पा कर सोनफकीरिया या सोनपकरिया इत्यादि कहलाए।

तीसरी बात यह भी हो सकती है कि जब भारद्वाज लोग मसोन कोट से भाग गए, तो उस समय सोनपकरिया लोगों के पूर्वज मसोन से भाग कर इन्दोरा के पास पकरी नामक स्थान में बसे। परंतु वहाँ से भी किसी कारण से हट कर इधर-उधर पास में ही फैल जाने से पूर्व के मसोन और हाल के पकरीडीह को मिला कर अपने को मसोन पकरिया कहने लगे, और कुछ दिन बाद वही नाम सोनपकरिया या सोनपोखरिया इत्यादि हो गया। परंतु धुवार्जुन आदि गाँवोंवाले भारद्वाज गोत्री लोग बहुत प्रथम काल से ही वहीं थे और रह गए, कहीं दूर न गए। इसलिए उनका नाम पूर्व की तरह गोत्र से ही कहलाता रहा और अब तक वे 'भारद्वाज' कहलाते हैं। आईन-ए-अकबरी में इन्हीं भारद्वाज ब्राह्मणों की जमींदारी सैदपुर के परगने में लिखी हुई हैं, जैसा कि प्रथम ही कहा गया है। किंतु वास्तव में सोनपकरिया धुवार्जुन आदिवाले और सिकरौरा बहादुरपुरवाले चौधरी लोग एक ही वंश के भारद्वाज गोत्री सर्यूपारी मचैयाँ पांडे हैं। इसलिए इन लोगों में से जा कर बलिया जिले के बैरिया ग्राम में रहनेवाले पं. प्रमोद नारायण पांडे वगैरह अभी तक पांडे ही कहलाते हैं। और वे लोग 'बैरिया के पांडे' प्रसिद्ध हैं। जिनका वंश ही बड़ा कर्मठ, अग्निहोत्र परायण और आदर्श चरित्र हैं। क्योंकि अब तक बराबर अग्निहोत्र का अनुष्ठान उनके घर होता है। उनके इस व्यवहार का अनुकरण सभी ब्राह्मणों को करना चाहिए। यदि क्षत्रिय भी सोनपोखरिया कहलाते हों, तो उनका हाल पूर्ववत जान लेना चाहिए। यदि वे लोग होंगे भी तो नाममात्र को।

इसी गाजीपुर के ही शादियाबाद परगने के देवा नामक ग्राम में रहनेवाले और जुझौतिया कहलानेवाले ब्राह्मणों के जुझौतिया नाम पड़ने का कारण प्रथम परिच्छेद में ही दिखलाया जा चुका है कि बुंदेलखण्ड का कुछ भाग का नाम प्रथम जुझौती था, इसलिए वहाँ के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण जुझौतिया वा जिझौतिया कहलाए और इन्हीं में से कुछ लोग देवा में भी जा कर बसे और अयाचक होने और अपने प्रथम के देश से दूर होने के कारण अयाचक ब्राह्मणों के साथ ही इसी देश में विवाह सम्बन्ध आदि करने लग गए।

इसी तरह एकसरिया और जैंथरिया आदि का भी संक्षिप्त विवरण लिख चुके हैं। छपरा-चैनपुर के प्राचीन दंसी परगने से भाग कर मुजफ्फरपुर के मिहिला परगने में जा बसनेवाले काश्यप गोत्री अचानक ब्राह्मणों का नाम दंसवार पड़ा और एकसार के पास ही सहदौली ग्राम में रहनेवाले अयाचक ब्राह्मणों के वहाँ से दरभंगा से पतोर आदि ग्रामों में चले जाने से वे लोग सहदौलिया कहलाए और अब तक वे लोग मिश्र कहलाते हैं, जैसा कि पं. श्रीराजेंद्र प्रसाद मिश्र इत्यादि। इन लोगों का स्वाभिमान तथा इनके आदर्श व्यवहार सभी ब्राह्मणों के अनुकरणीय है। सहदौलिया और एकसरिया लोग एक ही वंश के पराशर गोत्री है।

प्रथम आरा अथवा दरभंगा के सहस्राम में रहने के कारण आजकल दरभंगा के रपुरा आदि गाँवों में रहनेवाले काश्यप गोत्री ब्राह्मण सहस्रा में कहलाते हैं। सहस्राम गाँव दोनों जिलों में है। छपरा के दिघवा स्थान में रहने के कारण छपरा या मुजफ्फरपुर और दरभंगा आदि में रहनेवाले ब्राह्मण दिघवे अथवा दिघवैत कहलाए। इनका गोत्र शांडिल्य हैं। जैसे अरापा डीह में प्रथम निवास के कारण सावर्णियाँ लोग अरापै कहलाते हैं और वह डीह भी उनके पास ही पटना जिले में है। इसी तरह चौधरी टोला-पटना के रहनेवाले श्री रामगोपाल सिंह चौधरी और श्रीकृष्ण प्रसाद सिंह चोधुरी आदि भी प्रथम शाहाबाद जिले के ही परहाप स्थान में, जहाँ से वे लोग अपना आना चौधरी टोले में बतलाते हैं, रहने के पश्‍चात् परहापै कहलाए। उनका गोत्र काश्यप हैं और वे लोग कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं और पांडे उनका आस्पद है। जैसा कि उनके भाई चौधरी सोना पांडे अन्त तक पांडे ही कहलाते रहे और इनके पिता को तो लोग पांडे जी कहते ही थे। जो काश्यप गोत्रवाले और मिश्र पदवीवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण भूपोल (मालवा) से आ कर हाजीपुर के बैकुंठपुर (बकठपुर) आदि गाँवों में अब तक रहते हैं वे भूपाली कहलाते हैं। कोई-कोई नाम को बिगाड़ कर भूमपाली या भूमापाली कहते हैं। ये लोग अब तक बहुत से गाँवों में मिश्र ही बोले जाते हैं, जैसे श्री मूर्तिनारायण मिश्र, मुखतार, मुजफ्फरपुर। परंतु कहीं-कहीं सिंह या अन्य पदवियों से भी बोले जाते हैं, जैसे पं. संत प्रसाद सिंह शर्मा, बकठपुर इत्यादि। ऐसे ही और भी अथर्व आदि नामों के अर्थ और विवरण अथर्व वेद के ज्ञाता आदि समझना चाहिए।

गाजीपुर जिले के मुहम्मदाबाद परगने में ही कुछ ब्राह्मण रहते हैं, जिनको कस्तुवार कहते हैं और जिसका वसिष्ठ गोत्र हैं। इन लोगों का विवरण, जैसा कि वहाँ के सभी लोग जानते हैं, ऐसा ही हैं कि राजा जयचंद का चचेरा भाई मान्धाता कुष्ठ रोग से पीड़ित हो कर तीर्थयात्रा के लिए जगन्नाथ जी जाता था। परंतु जब ऊसी मुहम्मदाबाद में वर्तमान कठौत (गौसपुर) नामक स्थान के पास आया, तो उस स्थान पर स्थित एक तालाब में हाथ धोने के समय तुरंत उतने का कुष्ठ रोग हटा हुआ देख उस तालाब में स्नान किया, जिससे उसका संपूर्ण शरीर कुष्ठ से रहित और दिव्य हो गया। इससे अत्यन्त प्रसन्न हो कर पाँच ब्राह्मणों को, जिनकी मिश्र उपाधि (पदवी) थी और जो एक या दो गोत्रों के थे, वहाँ बुला कर पाँच गाँव दान दिए और उसी जगह उनके रहने का स्थान बनवा दिया और अपने आप भी बहुत दिनों तक वहाँ रहा। वहाँ ही उसका कुष्ठ रोग अच्छा हुआ था, अर्थात वह कुष्ठ रोग से पूत (रहित) हुआ था। इसीलिए उस स्थान का नाम कुष्टपूत हुआ। परंतु कालार में संस्कृत शब्द 'पूत' का अपभ्रंश 'उत' हो गया जैसा कि प्राकृत भाषा में 'पुत्र' शब्द को 'उत्ता' कहते हैं, अर्थात जैसे आर्य पुत्र को 'अज्ज उत्त' कहते हैं, उसी तरह 'कुष्ट पूत' शब्द का 'कुष्ठ उत' हो कर कुछ दिन और पीछे 'कु (क) ष्टौत' और 'कठौत' हो गया। जो आज तक कठौत ही कहा जाता है और वहाँ पर मांधाता की बनवाई हुई कोट भी अब तक भग्नावस्था में हैं। और ये ब्राह्मण प्रथम उसी स्थान पर गए थे और रहते भी थे, इसलिए कुष्टौतवार कहलाने लगे, जो पीछे बिगड़ते-बिगड़ते कष्टरार, कुष्टवार और कस्तुवार हो गया। इन सबों की पदवी मिश्र है और वसिष्ठ गोत्र है। संभवत: कुछ लोगों का गोत्र दूसरा भी हो।

उन्हीं में से जिनको राजा मांधाता या उनके वंशजों ने योग्यता देख कर अपना प्रधान या मन्त्री बनाया था, अथवा अन्य ब्राह्मणों के प्रधान बना कर रखा था, वे अब तक प्रधान पदवीवाले ही कहलाते हैं। उन सबों ने भूमि लेने के बाद धनी होने के काण अपनी याचकता वृत्ति छोड़ दी और भूमिहार ब्राह्मणों में मिल गए। अथवा जिन ब्राह्मणों ने दान में भूमि ली थी वे दूसरे ही होंगे। ये लोग तो राजा के प्रधान थे, इसलिए जागीर की तरह इन लोगों को भूमि मिली होगी और उसी से आज तक प्रधान ही कहलाते हैं। अथवा ऐसा भी हुआ होगा कि दान न दे कर जागीर के तौर पर ही इनको भूमि दी गई होगी और उसी को भूल कर दान की तरह मिलना कहते हैं। चाहे जो कुछ भी हो, इसमें किसी प्रकार का हर्ज नहीं हैं। क्योंकि यह सिद्ध कर चुके हैं कि ब्राह्मण लोग सर्वदा ही याचक से अयाचक और अयाचक से याचक, धनी और गरीब होने के कारण हुआ करते हैं, न कि अयाचक सदा अयाचक ही और याचक सदा याचक ही बने रहते हैं। क्योंकि याचकता और अयाचकता ये दोनों ब्राह्मणों के व्यक्‍तिगत धर्म है। हाँ याचकता आपत्तिकाल धर्म है और विवेकी एवं धनी लोग उसका अनादर कर अयाचकता को ही स्वीकार करते हैं, यह अन्य बात है। परंतु यह बात केवल अपने-अपने विचार और इच्छा पर निर्भर है, न कि कोई शास्त्रीय आज्ञा है कि अयाचक पुरोहिती न करे और याचक पुरोहिती को न त्यागे।

बस, पाठक लोग इतने ही से समझ गए होंगे कि अयाचक ब्राह्मणों के छोटे-छोटे दलों के नामों को अन्य समाज के नामों की तरह देख कर लोगों ने जो-जो मिथ्या कल्पनाएँ की हैं, वे कहाँ तक सत्य है। सारांश यह है कि ऐसी कल्पनाओं के करने से भारत वर्ष का ब्राह्मण से ले कर शूद्र पर्यन्त सभी समाज एक ही सिद्ध किया जा सकता है, क्योंकि सभी समाजों अथवा उनके छोटे-छोटे दलों के बहुत से नाम एक ही है, जैसा कि अच्छी तरह सिद्ध कर चुके हैं। अत: आशा हैं कि पाठक उस भूल को सुधार लेंगे। नहीं तो कहीं ऐसा न हो जावे कि उसी कल्पित तंत्री (वीणा) पर विपरीत स्वर आलापनेवाले पंडितमानी लोगों को विचारकों के सन्मुख मुँह की खानी पड़े।