दोपहर विहीन दिन की संध्या / जयप्रकाश चौकसे

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दोपहर विहीन दिन की संध्या
प्रकाशन तिथि :04 अप्रैल 2016


छोटे परदे की 'बालिका वधू' के लिए प्रसिद्ध प्रत्यूषा बनर्जी की आत्महत्या से न केवल टेलीविज़न क्षेत्र में सन्नाटा है वरन् आम आदमियों के बीच भी इस त्रासदी का गहरा प्रभाव पड़ा है। उनके मित्र राहुल अस्पताल पहुंचाकर जाने कहां चले गए? जरूरी नहीं है कि आत्महत्या के लिए वे उत्तरदायी हैं परंतु उनका यूं गायब हो जाना, उनके लिए कष्टप्रद हो सकता है। टेलीविजन संसार में इस तरह का हादसा पहले भी हुआ है और भविष्य में नहीं होगा, यह कहना कठिन है। इस सीरियल संसार में रात-दिन काम करते हुए अनेक तनावों से गुजरना पड़ता है। बाहरी दुनिया से इनका संपर्क टूट जाता है और सीरियल संसार की कृत्रिमता चमड़ी के भीतर प्रवेश करके आत्मा तक पहुंच जाती है। यह मेक-अप का सामान त्वचा के पार चला जाता है और सोच विचार भी घूंघट के भीतर छुप जाता है। प्राय: इस बात की ओर ध्यान नहीं जाता कि सीरियल संसार के सितारे सारा समय जंक फूड खाते हैं। ये बर्गर, पिज्ज़ा, पेट के जरिए सोच-विचार में समा जाता है। वे सैंडविच खाते-खाते स्वयं भी सैंडविच की तरह हो जाते हैं। चटनी सैंडविच हो या चिकन सैंडविच, वे सब गेहूं के आटे से नहीं, वरन मैदा से बनते हैं। भूमध्य रेखा के आस पास बसे भूभाग के लोग मैदा पचाने में कष्ट पाते हैं और पाश्चात्य जीवन शैली उन्हें गेहूं, ज्वार, बाजरे से दूर मैदे की गोद में बैठा देती है। जंक फूड के प्रभाव सोच-विचार पर कितना प्रभाव डालते हैं, यह गहन शोध का विषय है।

इस सीरियल संसार के लोगों पर उस नकली भावना का भी प्रभाव पड़ता है, जिसे वे अभिनीत करते हैं। इस सतही भावनाओं का संसार उन्हें अलसभोर का प्राणी बना देता है। अलसभोर में चंपई अंधेरा और सुरमयी उजाले का मिला-जुला धुंधलका छाया रहता है। इस समय का सटीक वर्णन राजकपूर की जोकर में हुआ है कि कमसिन उमर अलसभोर की तरह होती है, जहां थोड़ा-थोड़ा दिन और थोड़ी-थोड़ी रात होती है तथा इस कोहरे के पार देखना कठिन हो जाता है। यह बात भी गौरतलब है कि प्रत्यूषा का अर्थ भी अलसभोर ही है। ये सारे निरीह व नीरव प्राणी इसी सैटेलाइट संसार के प्राणी हैं। किसी अन्य संदर्भ में पीड़ित नेहरू ने इनका सटीक वर्णन किया है। वह वर्णन उन रईसों का था, जिन्हें दूसरे विश्वयुद्ध में अनायास बहुत धन कमाने का अवसर दिया और ये पंखविहीन प्राणी उड़ नहीं पाते थे, परंतु आधुनिकता के सैटेलाइट को पकड़ने की चाह में ये सांस्कृतिक शून्य में विचरण करते हैं। इनके पैरों के नीचे की जमीन छीन ली गई है और ये उड़ने में भी असमर्थ हैं।

किसी अन्य संदर्भ में शैलेंद्र ने इनका वर्णन यूं किया है, 'घायल मन का पागल पंछी उड़ने को बेकरार, पंख हैं कोमल, आंख है धुंधली, जाना है सागर पार, अब तू ही हमें बतला कि जाएं कौन दिशा को हम'। यह गीत नूतन और बलराज साहनी अभिनीत 'सीमा' के लिए लिखा गया था। ये सीरियल संसार के लोग एक सीमित दायरे में काम करते हैं और इनके भीतर द्वंद्व इत्यादि उसी दायरे के लोगों के बीच होते हैं। इनके बीच के प्रेम-प्रसंग खो खो जैसे खेल 'घोड़ा बादामशाही' की तरह होते हैं, जिसमें बैठे हुए खिलाड़ी की पीठ की ओर रुमाल रखा जाता है और वह नहीं जान पाता तो उसी से उसकी पिटाई प्रारंभ होती है। ये बिचारे रुमालों से पिटकर घायल हो जाते हैं और रुमाल कोई लाठी नहीं होती, परंतु जाने कैसे चोट असली ही लगती है। ये इसी तरह की काल्पनिक चोटों से घायल प्राणी हैं। इनके दुख-सुख कागज के फूल की तरह हैं। कागज के फूल सूंघकर ये स्वयं को भौंरा समझने लगते हैं। ये कच्ची कलियों के पनपने और रौंदे जाने का जीवन है।

इन लोगों की आय पर आधारित परिवारों की दिक्कत यह है कि ये उनके पैसों से तो प्यार करते हैं, परंतु उनकी गैर पारंपरिक जीवन शैली पर अपने दकियानूसी मूल्य आरोपित करना चाहते हैं। यह भी सुना है कि प्रत्यूषा ने‌ कुछ समय पूर्व बैंक से ऋण लिया था और वसूली करने वाले भेंट करने भी आए थे। इनकी जीवन शैली में बचत का खाता ही नहीं होता और ये कर्ज की माहवारी किस्त नहीं चुका पाते। यह आर्थिक दबाव भी कहर ढाता है। यह हम किस अजीबोगरीब काल खंड में जी रहे हैं कि किसान, छात्र और कलाकार आत्महत्या कर रहे हैं। याद आता है बादल सरकार का नाटक 'बाकी इतिहास।' इसका पत्रकार पति पड़ोस में हुई आत्महत्या के संभावित कारणों पर लेख लिखना चाहता है और उससे अलग दृष्टिकोण उसकी पत्नी का ह। नाटक का पहला और दूसरा अंक इनके दृष्टिकोण का वर्णन है, परंतु तीसरे अंक में आत्महत्या कर लेने वाला व्यक्ति स्वयं आकर इनसे कहता है कि उसकी आत्महत्या का कारण खोजने वाले लोग स्वयं भी खोखला जीवन जी रहे हैं और उन्हें स्वयं से पूछना चाहिए कि वे आत्महत्या क्यों नहीं कर रहे हैं, क्यों निरर्थक जीवन जी रहे हैं। प्रत्यूषा की आत्महत्या भी अनुत्तरित सवालों से घिरी है।