दोय कवितावां / डॉ. आईदानसिंह भाटी / कथेसर

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मुखपृष्ठ  » पत्रिकाओं की सूची  » पत्रिका: कथेसर  » अंक: जनवरी-मार्च 2012  

कूंट

म्हारी कलम सोधै
बादळ, तितलियां, फूल।
पण उणनै नीं लाधै।

म्हारी आंख्यां जोवै
गार-गोबर रौ आंगणौ
केथ'ई नीं दीखै।

धरती रै अछोर-छोर तांई
सगळौ कांई तूटतौ सो।
आतमा जा'र डूबगी
समन्दर रै सातवैं तळ।

धांसती गळियां में
कींकर खिलैला
बादळ, तितलियां, फूल।

अमूर्तन रचणआळा तौ
रच देवै, अेकै साथै, सै कीं।
'गार-गोबर रा आंगणा
रंग'र खुशबू रै वायरियै तिरता
बादळ, फूल, तितलियां
रूपकां-प्रतीकां री अरथावती आडियां।

जेथ किसान करै आपघात
लागै जेथ परमाणु-प्लांट
ओथ कितरा दिन बचैला
गार-गोबर रा आंगणा।

बाजारू 'मॉलों' में
किण कूंट सूं उतरैला मधरा गरजता बादळ
कद तांई नाचती उडती फिरती रैवैला तितलियां
कींकर बचैला फूलां री काया रौ रंग
मुखड़ां री मुळकण।

अैड़ै बगत में म्हारी नजरां देखी अेक औरत
म्हारी कविता री आंख्यां पसरगी अेक पगडांडी।
अलोप व्हैग्यौ विकास रौ राजपथ
अमूर्तन अर वक्रोक्तियां।

म्हारी कविता में उतरण लागी
सिट्टा-चूंटती
बाजरियै खेत में
उणरी कामेतण-काया।

इचरज सूं चवड़ी व्हैती म्हारी आंख्यां में
उतरण लाग्या हा आपोआप
उण कामेतण रै असवाड़ै-पिछवाड़ै-
सुगन्ध सूं झरझरता बादळ
रंग सूं लबरेज, खिलखिलता मैकता फूल
तितलियां सूं ऊंफणण लागौ हौ सगळौ खेत।

सिंझ्या री सुरंगी कूंट
दो हाथ नीप रैया हा-
गार गोबर रौ आंगणौ।

अरदास

अकूंत पसरियोड़ै इण थार में
किण बिध रिझाऊं हूं थांनै?

रंगां सूं ?
इण धरती री पांती में आया हा जिका रंग
उणां नै'ई तौ नीं छोडिया थूं।

हमैं अै किणनै उठाय'र लाया हौ
म्हारा इण विरंगी-कांकड़ां?

लो फेरूं उठियौ वतूळियौ
फेरूं हिली आकड़ै री डाळियां
फेरूं खिलखिल हंसियौ है थोर
धोरै री ढाळ माथै
फेरूं रितुवां री गीता बांची है फोग।
सतरंगी रंग ऊतरिया है फेरूं
नाचतै मोर रै कळावै।

टाबर रचण लागा है मांडणां
चोळियां री चाळां माथै
रंगी फोगोलियां सूं।
पीलूवां सूं पीळी लद-फद जाळ
फेरूं करण लागी है मनवार।

रीझ भलांई मत रीझ थूं
म्हारै कन्नै तौ औ'ईज है पूजापौ
भावना ज्यूं ऊजळ
सपनां री सांसां ज्यूं सरस
कंवळ पांखड़्यां सो पवितर
म्हारै मन-हिय री अरदास।

थारै चरणां में अरपण है
अै म्हारा सगळा सपना
सदियां री गरबीली ऊजळ रेख।
संघर्षां रा सगळा तार।

इतरै सूं नीं रीझियौ थूं
नीं धीजियौ थूं
फूंफाड़तौ थूं पाछौ आ पसर्यो
म्हारी छाती-थार।
बण'र बाजारू-व्याळ।
कदै'इ तौ सपनां रौ'इ अरथ समझ
फैलावतां झींणा-मारक जाळ।
ओ म्हारा अपरबळी महाकाळ।