दोस्ती की दास्तान / जयप्रकाश चौकसे

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दोस्ती की दास्तान

प्रकाशन तिथि : 07 अगस्त 2012

फिल्मकारों और सितारों का प्रिय विषय रहे हैं दोस्ती, दुश्मनी और प्यार; परंतु अपने असल जीवन में वे कभी-कभी दोस्ती निभा पाते हैं और प्यार उन्हें अपनी सफलता के अतिरिक्त किसी से नहीं होता। दुश्मनी निबाहने का सलीका सबसे कठिन काम है। एक अच्छा दोस्त मिलना कठिन होता है, परंतु अच्छा दुश्मन तो बहुत नसीबवालों को मिलता है। अच्छा दुश्मन पीठ पर वार नहीं करता, पीठ पीछे षड्यंत्र नहीं रचता और दुश्मन के दुश्मनों से कभी मित्रता नहीं करता। अच्छा दुश्मन हमेशा कड़वी बात करता है। उसे यह पसंद नहीं कि उसके ‘शिकार’ को कोई और ‘शिकार’ बनाए, इसलिए ऐसा विरल दुश्मन आपकी हिफाजत करता है और आपको आस्तीन के सांप से बचाता है।


दोस्त-दुश्मन थीम पर अनेक फिल्में बनी हैं। इनमें विश्व की सबसे अच्छी फिल्म ‘बैकेट’ है, जिसमें पीटर ओ टूल और रिचर्ड बर्टन ने अभिनय किया था। इस इतिहास आधारित फिल्म में इंग्लैंड के राजा और उनके दोस्त की कथा है। इस सत्य घटना से प्रेरित होकर टीएस इलियट ने ‘मर्डर इन कैथ्रेडल’ लिखी है, जिस पर बनी फिल्म सफल नहीं रही, परंतु ‘बैकेट’ अत्यंत सफल थी। इसी से प्रेरित होकर ऋषिकेश मुखर्जी ने राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘नमक हराम’ बनाई थी। ‘आनंद’ और ‘नमक हराम’ में इन दोनों कलाकारों ने मित्रों की भूमिका निभाई थी, परंतु जीवन में वैसी मित्रता संभव नहीं हो पाती।

बहरहाल टीएस इलियट की ‘मर्डर इन कैथ्रेडल’ में टेंपटर्स वाला दृश्य महान दार्शनिक अर्थ लिए हुए है। दो दोस्त आज दुश्मन हो गए हैं। राजा ने अपने अन्यतम मित्र बैकेट को चर्च का मुखिया यह सोचकर बनाया था कि राजनीतिक सत्ता का वह स्वयं स्वामी है और धर्म की सत्ता का प्रमुख अपने दोस्त को बनाकर उसके पास सर्वोच्च सत्ता होगी, परंतु ‘ईश्वर की दासता’ स्वीकार करने के बाद वह राजसत्ता से भिड़ जाता है। इस द्वंद्व से बचने के लिए राजा उसका लुभाने के लिए टेंपटर्स भेजता है।

सारे धन, वैभव और ऐश्वर्य के प्रतीक टेंपटर्स के सामने बैकेट नहीं झुकता, परंतु चौथा टेंपटर कहता है कि शहादत के मोह पर विजय नहीं पा सकते। तुम राजा का विरोध करते हुए मर जाना चाहते हो, ताकि तुम्हें शहीद की तरह समय के आखिरी छोर तक याद रखा जा सके। लोग शक्तिशाली राजा को भूल जाते हैं, परंतु शहीद को नहीं भूलते। यह शहादत का मोह कई लोगों को आज भी लुभाता है। यह एक अलग किस्म की कायरता और पलायन है कि सरेआम मरने की धमकी दी जाती है, जबकि जीकर ही संघर्ष किया जा सकता है।

शत्रुघ्न सिन्हा और अमिताभ बच्चन भी अपने संघर्ष के दिनों में अच्छे मित्र रहे हैं और सलीम-जावेद की लिखी यश जौहर की फिल्म ‘दोस्ताना’ में पुलिस वाले और वकील की भूमिकाएं करते हुए टकराए थे। उन्होंने मनमोहन देसाई की ‘नसीब’, यश चोपड़ा की ‘काला पत्थर’ और रमेश सिप्पी की ‘शान’ भी की है, परंतु यथार्थ में मात्र प्रतिद्वंद्वी ही रहे हैं। अच्छे कलाकार हैं, इसलिए सारी रस्में निभाई हैं।

दिलीप कुमार और राज कपूर जबरदस्त प्रतिद्वंद्वी होते हुए भी दोस्ताना निभाते थे और सच तो यह है कि प्राय: एक-दूसरे से पश्तो में बात करते थे। धन्य है पेशावर की वह गली, जहां दोनों पैदा हुए और उनके पिता भी गहरे मित्र रहे। इनके रिश्तों में गहराई थी, परंतु मजहब अलग होने के कारण दोनों धर्मो के कट्टरपंथियों ने इनकी ‘दुश्मनी’ की काल्पनिक कथाओं को इस कदर फैलाया कि एक बार दोनों साथ खाना खा रहे थे कि पाकिस्तान से फोन आया कि वहां अफवाह है कि राज कपूर ने दिलीप को गोली मार दी। दिलीप साहब ने कहा कि हां सच है, लो राज से बात करो।

राज कपूर ने फोन पर कहा ‘जनाब क्या करूं, कम्बख्त इतना अच्छा एक्टर है कि कई बार कत्ल करना चाहा, पर ऐसे दुश्मन के मरने के बाद जीने का क्या मजा?’ नरगिस और वैजयंतीमाला को लेकर कुछ रंजिश तो थी, परंतु सारी दोस्ती-दुश्मनी शायराना और इश्किया थी। यह नेहरू युग के दोस्त थे, जैसे राजेश खन्ना व अमिताभ या अमिताभ तथा शत्रुघ्न सिन्हा इंदिरा गांधी के युग के दोस्त रहे। आज सलमान खान और शाहरुख खान के रिश्ते मिली-जुली सिद्धांतहीन सरकारों के दौर के रिश्ते हैं। राजनीति हमेशा समाज और रिश्तों को प्रभावित करती है। इसलिए यह मुमकिन है कि दोस्ती, दुश्मनी पर भी परोक्ष प्रभाव पड़ते हों।

इसी लय में महात्मा गांधी के दौर के अभिनेता मोतीलाल और चंद्रमोहन की दोस्ती की बात करें। दोनों ही कमाल के कलाकार थे और गहरे दोस्त भी रहे। एक दौर में चंद्रमोहन की फिल्में असफल रहीं और उन्हें काम मिलना बंद हो गया। मोतीलाल ने अपने मित्र निर्माता को भेजा, परंतु चंद्रमोहन के आत्मसम्मान को गवारा न हुआ। उन्होंने कहा कि कहानी पसंद नहीं। कुछ दिन बाद हालात बदतर हो गए। मोतीलाल मिलने गए तो चंद्रमोहन अकेले शराब पीते रहे, परंतु उन्होंने मोतीलाल को शरीक नहीं किया। मोतीलाल को बहुत बुरा लगा, क्योंकि दोनों दोस्तों ने बरसों साथ पी थी। वे हमप्याला थे। कुछ दिन बाद मोतीलाल को मालूम पड़ा कि पैसे के अभाव में चंद्रमोहन देसी ठर्रा स्कॉच की बोतल में रखकर पी रहे थे और देसी र्ठे से दोस्त की सेहत खराब न हो, इसलिए उस दिन न्यौता नहीं दिया।