दोस्ती / प्रेमचंद सहजवाला
ब्रिटिश काऊंसिल लायब्रेरी का फ्लोर बहुत खूबसूरत बना हुआ था। सब कुछ नया नया सा और हर तरफ चमक दमक सी। इधर कोई भी पुस्तक उठा कर पढ़ने के लिए छोटी छोटी गोल मेजें और इस तरफ इंटरनेट वगैरह। सामने ही आकर्षक सा काउंटर जहाँ कार्ड वगैरह बनवाए जाते हैं या किताबें इशू होती हैं। डिंपल इसी, काउंटर पर मेरे साथ खड़ी हुई थी कि मुझसे परिचय हुआ उसका। महिलाओं की ओर किसी भी बूढ़े से बूढ़े व्यक्ति का जो अदम्य आकर्षण ताउम्र बना रहता है, वह भला कहाँ जाएगा। रिटायर हुए दस साल हो गए, कुछ वर्ष से बाल भी डाय कराने बंद कर दिए। अपने कबके सफेद हो चुके बालों से ही पहचाना जाता हूँ। डिंपल तो एक बड़े से स्कर्ट में व सुंदर टॉप में काउंटर पर झुकी थी और उसकी कोहनियाँ काउंटर पर थी। वह इंतजार में थी कि उसने जो किताबें ली हैं वो जल्द से एंटर हों और उन पर कोई डेट लगे। मैं उसी समय उसकी ओर देख मुस्करा दिया था, यूँ पहली बार किसी से भी परिचय लेने को मैं मुस्करा देता हूँ। एक कमेंट भी मैंने कर दिया - 'बहुत पढ़ती हो आप?'
डिंपल मुस्करा दी। मुझसे कम से कम पैंतीस वर्ष छोटी होगी, यानी आधी उम्र की सो मेरी ओर देख बड़े अदब से मुस्करा दी, बोली - 'सर, रीडिंग हिस्ट्री इज माय पेशन...'
मेरी करामत कि कुछ ही देर बाद मैं ने भी कास्ट-सिस्टम पर एक किताब इशू करा दी फिर अगले क्षण हम साथ साथ नीचे उतर रहे थे। सीढ़ियाँ उतरते उतरते मेरा अनुभव काम आया। मैंने कहा - 'हिस्ट्री तो मेरा भी पेशन है। पर आपसे सिर्फ मजाक किया कि आप सी स्मार्ट महिला किताबों में इस कदर सर क्यों खपाए...'
डिंपल के चेहरे की वोल्टेज तत्क्षण बढ़ गई जब मैंने आप सी स्मार्ट महिला कहा और क्षण भर में ही उसकी दोस्ती मुझसे पक्की हो गई समझो और हम दोनों लायब्रेरी के पीछे की कैंटीन में साथ साथ बैठे थे... साथ साथ चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे...
डिंपल एक इंटेलेक्चुअल से अंदाज में सामने बैठी बातें कर रही थी - 'गांधी को मैंने भी खूब पढ़ा सर, पर न जाने क्यों...'
- 'हा हा... न जाने क्यों क्या...'
- 'मेरे विचार कुछ और ही थे उनसे...'
- 'और मैं हूँ गांधी भक्त...'
अगर वह भी गांधी भक्त होती तो क्या होता और अगर मैं भी गांधी से असहमत रहता तो भी क्या होता। गरज तो एक सुंदर सी महिला से दोस्ती की थी न, सो कुछ दिन मैं डिंपल को हांट सा करता रहा कि चलो, यहाँ की कैंटीन बहुत छोटी है और कि यहाँ तो चाय में इतनी गजब की चीनी होती है कि बस...
डिंपल बोली - 'सर आप को शुगर है?'
- 'ह्म्म्म।' इस उम्र में अपनी बीमारियों पर बताना भी गर्व सा लगता है, एक अजब सा मनिविज्ञान है यह भी। मैंने कहा - 'हाँ, डायबेटीज है पर कहीं मजबूरन बहुत कम चीनी वाली चाय पीनी पड़े तो पी लेता हूँ...' वैसे मैंने चाय के बहुत मीठा होने की शिकायत इसलिए की थी कि डिंपल को भी यही लगे और कहे कि सर, इस से बेहतर यह नहीं कि हम कहीं और चलें!
कुछ दिन से उसके मेरे बीच दिलचस्प सी बातों का एक सेतु सा बन गया और मेरी बातों पर मुस्करा कर वह कहती - 'आप बहुत दिलचस्प बातें करते हो सर।' और मैं कह उठता - 'नजदीक ही स्टेट्स्मैन बिल्डिंग में ऊपर बहुत सुंदर कॉफी हाउस है, वहाँ चलो न...'
डिंपल के कटे बाल शरारत से झूल से उठते और वह अपनी मुस्कराहट को सायास बहुत लजीला बना कर कहती - 'मैं कहीं जाती नहीं सर, बहुत शाई (लजीली) सी हूँ...'
एक दिन वह मान गई। दफ्तर में तो मैं इस सफलता तक बहुत जल्द ही पहुँच जाता था पर वहाँ एक मजबूरी थी कि महिलाएँ बिल्डिंग के किसी ऊँचे फ्लोर से लिफ्ट द्वारा साथ उतर कर नीचे कैंटीन तक तो चल पड़तीं पर आधा घंटा या उतना ही लगभग साथ बैठे बैठे मैं उस महिला के थोबड़े की बस तारीफ भर कर पाता। किसी बहाने उसके शाने पर हाथ रखने का खयाल तो दूर, रात को ख्वाब तक देखना असंभव सा था। उसकी घटाओं सरीखी केशराशि पर हाथ फिसलाना तो किसी अगले जन्म की बात। बस आधा घंटा प्रोमोशन, लीव और डायरेक्टरों की अंट-शंट आदतों की बातें करते रहो और उठ खड़े हो जाओ... यहाँ एक मॉड सा वातावरण है। चूड़ीदार, खास कर ब्राउन और काले, उन पर कामोत्तेजक से रंगबिरंगे व फूलों आदि से लदे टॉप और चेहरों पर एक खुलापन सा, आँखें एक स्वतंत्र शख्सियत का सा तारुफ देती और चमक से सराबोर, कोई मुस्कराए तो रिस्पांस ऐसे देंगी जैसे बहुत कद्र करती हों मुस्कराहटों की! ...मुझे ऐसा ही तो माहौल चाहिए था न! डिंपल यहाँ बनी मेरी पहली दोस्त थी...
...यहाँ शायद कोई महिला किसी को नहीं कहती कि आइ ऐम जस्ट लाइक यूअर डॉटर सर! पौ बारह!
डिंपल ने दूसरी गोल मेज पर किताब में नजरें गड़ाए गड़ाए ही मुस्कराते हुए एस.एम.एस. किया था - 'यस सर। आज चलेंगे। स्टेट्समैन वाले कॉफी हाउस में।' अब कुछ दिन से तो किताब पढ़ने में मन नहीं लगता मेरा। डिंपल या उसकी खुशबू आसपास बनी रहती है। डिंपल कलाकृति सी है... मैंने एस.एम.एस. में थैंक्स कहा। डिंपल ने मुस्कराता हुआ एक गुड्डा एस.एम.एस. किया और संदेश भेजा - 'बस एक चैप्टर पढ़ लूँ...'
डिंपल कहाँ चली गई!
उसे उस मेज पर न देख मैं नर्वस।
एक एस.एम.एस. दौड़ा दिया - 'कहाँ हो?'
- 'वाशरूम। अभी आई सर।'
- 'चलोगी न!'
- 'कहा तो हाँ...'
पौं बारह!
घंटे भर बाद हम स्टेट्समैन की लिफ्ट में थे। ऊपर एक बिखरा बिखरा सा कॉफी हाउस है। कोई टेबल इधर कोई उधर। पर सब कुछ बड़े रईसों वाला लग रहा था। इधर एक किताबों का बड़ा मॉल सा और इस तरफ हाशिये मिला कर वो कॉफी हाउस।
मेनू आया तो एक रिटायर्ड सरकारी अफसर की हवाइयाँ उड़ने लगीं। सवा रुपये प्रति कप में ऑफिस की महिला मित्र के साथ स्पेशल चाय सुड़कने वाला बाबू इस समय जो मेनू देख रहा था उसमें कोई साधारण चाय के पचहतर पैसे कीमत नहीं लिखी थी वरन एस्प्रेसो कॉफी की कीमत पचहत्तर रुपये लिखी थी। दो कप मँगा कर पिए हम दोनों ने और डिंपल के चेहरे को लगातार देखता रहा मैं। डिंपल मुझे देख देख लगातार मुस्कराती और मैं उसके टॉप में उसकी छातियों को बाँटती, अंदर की तरफ जाती लकीर को देख उसके किसी न किसी अंग की प्रशंसा करता। डिंपल मुस्करा देती और बीच बीच में कह देती - 'थैंक यू सर...' पर बिल देख कर नानी याद आ गई। एक सौ पचास रुपये और ऊपर से दस रुपये टिप। घर में भी सोच रहा था कि क्यों ले गया डिंपल को इस कॉफी हाउस। उसने तो इसे देखा तक नहीं था पहले। मैंने ही कोई किताब खरीदने के बहाने ऊपर जा कर देखा था यह हाशियों वाला कॉफी हाउस।
डिंपल उसके बाद अगली बार जब तैयार हुई तो मैंने कहा - 'आज एक और कॉफी हाउस चलेंगे। रीगल के अगले ब्लॉक में है। बहुत अच्छी साऊथ इंडियन आइटम्स सर्व करता है पर आज आपका अधिक समय नहीं लूँगा। वहाँ बस एक एक कप कॉफी पिएँगे और फिर मेट्रो से वापस अपने अपने घर।'
डिंपल का घर नीचे विश्वविद्यालय वाली मेट्रो लाइन से जा कर ग्रीन पार्क में पड़ता था। मेरा ऊपर द्वारका जाने वाली मेट्रो लाइन पर।
डिंपल चली तो उसके साथ पैदल चलते चलते खयाल आया कि रीगल के पास ही मोहनसिंह प्लेस के दूसरे माले पर जो कॉफी हाउस है वो काफी सस्ता है। चलते हुए उसे क्यों न बता दूँ। पर डिंपल बोली - 'वहाँ रीगल तक अब पैदल चलें सर? मुझे तो न दरियागंज एक काम से जाना है। यहाँ से ऑटो ले कर चलते हैं वहाँ, जहाँ आप कह रहे हैं...' अब इस महारानी के लिए ऑटो भी करो...
ऑटो में बैठते ही मैंने क्या किया कि उसके नीचे को लटक रहे बालों पर हाथ फिरा दिया। बोला - 'बहुत सुंदर सुंदर केशराशि है आपकी...'
डिंपल हँस पड़ी। हाथ झटक कर बच्चों के से शरारती टोन में बोली - 'हमें अपनी परंपराओं का सम्मान करना चाहिए। चलते चलते किसी महिला की जुल्फों पर हाथ नहीं फिराना चाहिए...' फिर वह मेरी निराश हालत देख मुझ पर तरस खाती सी खिलखिला पडी। मैंने कहा - 'आजकल मित्रता में इतना तो चलता होगा...' और जब तक मैं दोबारा अपना हाथ उसकी गर्दन के पास से उसकी जुल्फों तक बढ़ाऊँ उसने हाथ पीछे कर के मेरा हाथ पकड़ लिया और वहाँ से बाहर पहुँचा दिया।
रीगल के बाहर ही ट्रैफिक में फँसा था ऑटो। सामने लाल बत्ती थी। डिंपल बोली - 'सर मुझे न, जैसा बताया इसके बाद दरियागंज एक डिस्कशन में जाना है, उसके बाद कुछ चीजें भी परचेज करनी हैं। जस्ट कल तक पाँच सौ रुपये... कल वापस कर दूँगी...'
मैंने कहा - 'ठीक। बस यह लाल बत्ती पार कर के अगले कॉरीडार में एक जगह ऑटो रोकना है। या ऐसा करें कि यहीं उतर जाते हैं और इधर रिवोली के साथ मोहनसिंह प्लेस इंडियन कॉफी हाउस...'
डिंपल बोली - 'नो सर सच बताऊँ, वहाँ न लिफ्ट तो खराब ही रहती है और मुझे पैर में कुछ दिन से दुख रहा है, सो नीचे वाले में ही चलते हैं...'
लाल बत्ती पार हो गई।
यहाँ इस कॉरीडार में बहुत कुछ है, मैकडोनाल्ड है, अलका रेस्तरा~ण है, नल्ली साड़ी शॉप है, पर इन सबके बाद इधर एक पुराना सा कॉफी हाउस है जिसमें झांको तो अँधेरा सा रहता है और अक्सर बहुत कम लोग बैठे नजर आते हैं।
डिंपल से मैंने पूछा - 'यहाँ आई हो कभी?'
- 'आई हूँ। यहाँ खाना भी मिलता है।'
डिंपल ने खाना खाया और मैंने मात्र कोल्ड कॉफी पी। डिंपल की ओर देख मैं कहता रहा - 'आज यह टॉप तुम्हारा कमर से एकाध इंच बाहर ही घेरा बनाए है। सामने फ्रंट भी खूब सेक्सी सा लग रहा है। कल लायब्रेरी में मिली तो सब कवर्ड था, कोई अपील ही नहीं थी तुम में...'
डिंपल बोली - 'तो क्या आज कवर्ड नहीं है सर? यू मीन मैं बस यूँ ही खुले सीने...'
वाक्य पूरा करते करते नाराज सी नजर आई डिंपल। ब्यूटी।
मैंने कहा - 'ऐसा नहीं... मतलब कि इस में खूब अपील है।'
डिंपल पूरी एकाग्रता से खाना खाती रही। राइस एक स्टील की ट्रे में और इधर चपाती। बाहर कोरमा वोरमा जैसी स्वादिष्ट सब्जी के साथ एक कटोरी दाल। खाना वह ऐसे खा रही थी कि तबियत से खाने का लुत्फ ले कर जाए काम से। जब कॉफी हाउस से निकले तो उसने साधिकार एक ऑटो रोका और मैंने कर्तव्यपरायण सा एक पाँच सौ का नोट निकाला और उसे देते हुए बोला - 'अगर और चाहियेतो मैं यहाँ ए.टी.एम. से और निकलवा दूँ।' डिंपल बोली - 'नो सर आप पहले ही इतना कर रहे हैं। ये भी मैं कल ही लौटा दूँगी...'
फिर बोली - 'आप भी चलो न कंपनी हो जाएगी। दरियागंज मैं उतर जाऊँगी आप इसी ऑटो में चाँदनी चौक मेट्रो स्टेशन चले जाना। वहाँ से...'
तथास्तु...और मैं भी ऑटो में बैठ गया...
ऑटो स्टेट्समैन बिल्डिंग के बाहर से इधर बाराखंबा रोड मेट्रो स्टेशन मुड़ा तो मैंने पुनः डिंपल की जुल्फों पर अँगुलियाँ फिरानी शुरू कर दी। डिंपल कुछ देर सहन करती रही पर फिर मेरा हाथ पीछे से अपने हाथ की मदद से अलग कर के कुछ और बातें करने लगी।
चाँदनी चौक मेट्रो से अकेले ही मेट्रो पकड़ने के बाद मैं बहुत उदास सा हो गया, बल्कि डिप्रेस सा। सी.पी. ... जहाँ असंख्य रोमांटिक जोड़े घूमते हैं। किसी को किसी चीज की रुकावट नहीं। कामोत्तेजक देहराशियाँ मुस्कराती इतराती अपने मित्रों के साथ कदम कदम घूम रही हैं। कोई कोई सिगरेट पीती है तो कोई कोई यहीं कहीं अलका या मरीना वगैरह में ड्रिंक का भी एकाध पेग चढ़ा लेती होगी, कोई आश्चर्य नही। एक बार यहीं रीगल के बाहर खड़े खड़े एक दोस्त ने हँसी मजाक में कहा था - 'यहाँ बहती मादा जिस्म की यह नदी कैसी लगती है...'
मैं बहुत हसरत से इस आधुनिक से माहौल को देखने लगा। जहाँ लड़कियाँ बहुत मुश्किल से रास्ते में किसी से बात करती थी, उस देश की आधी दुनिया ने किस कदर तो तरक्की कर ली है। सब तरफ रंगों और खुशबुओं का एक सैलाब सा। अच्छा है, मुझे लगा कि आधी दुनिया की यह तरक्की भी अच्छी है जिसमें नैसर्गिकता को भी एक समुचित स्पेस मिल रहा है। बस मैं ही प्यासा हूँ लगता है...
मैंने मेट्रो में बैठे बैठे सोचा उम्र कोई भी हो, बस एक मादा जिस्म ही दरकार है। डिंपल मुझसे दूर दूर खिंची खिंची सी रहती है, सो किसी दिन उससे कह दूँगा - 'मुझे बुड्ढा समझती हो? किसी जवान से कम नहीं मेरी यह बॉडी...'
डिंपल बहुत इंटेलीजेंट महिला है। महत्वाकांक्षी भी। मास मीडिया में क्वालीफाइड है। एक पार्ट-टाइम जॉब भी है। पर मेरे कंधे उसे इस कदर बलिष्ठ नहीं लगते शायद जिन पर सवार हो कर वह कुछ आगे बढ़ सके। सो मैं तो...
डिंपल वो रही। आज मैं लायब्रेरी नहीं गया। उसने कहा था कि इंडिया इंटरनेशल लायब्रेरी से मेरे लिए न एक टेंपरेरी मेंबरशिप का फॉर्म ला देना सर। मैं लोदी रोड चला गया था, एस.एम.एस. पर संपर्क बना रहा। यहाँ डिंपल कहीं मिस न कर जाए मुझे, मैंने फौरन मोबाइल से उसका नंबर मिलाया। उसने हेलो कह कर कहा - 'मैंने आपको देख लिया है सर। आप वहीं रहो। मैं अभी आती हूँ।' उस तरफ नजर दौड़ाई तो डिंपल ने हाथ ऊँचा कर के वेव किया। कभी ऐसा भी हुआ कि मैं लायब्रेरी आ गया और उसे फोन किया और उसने हेलो किया। तब मुझे यह देख एक अवर्णनीय खुशी होती कि एक मॉडर्न लड़की मेरे लिए भी कहीं मोबाइल उठा कर हेलो कर रही है...
डिंपल को ले कर तो मेरे मन में कई दिन से छुपा हुआ एक चोर है कि किसी प्रकार कहीं मौका पा कर उसके जिस्म के किसी एक इंच का तो स्पर्श मिले। इस उम्र में भी वह भूख गई नहीं। नजरें कामोत्तेजक सी बन जहाँ तहाँ भटकना छोड़ती नहीं... एक शिकार की दरकार बस... कुछ धूर्त सी...
एक दिन तो डिंपल मेरी खूब खिल्ली उड़ाने पर उतारू हो गई। मैंने ही वह टॉपिक निकाला और वह बोली - 'यदि मुझे ले कर आपके यही इंटेंशन हैं न तो मैं आपको पता है क्या समझूँगी...' फिर उसका हँसना बंद ही न हो। अपनी खिलखिलाहट में ही जानबूझ कर अपनी बात को छुपाती बोली - 'बापू... ह ह ह...'
मैं जैसे इस उम्र में भी उसे मारने दौड़ रहा था... और वह जैसे जान बचाती खरगोश सी लपकती हुई आगे निकल गई...
आज इधर, सेंट्रल पार्क के किसी किनारे आखिर डिंपल और मैं मिले। सर्दी थोड़ी थोड़ी शुरू हो गई थी। मैं इंप्रेशन मारने के लिए एक मैरून रंग का सबसे आकर्षक कोट पहन कर आया था। पर डिंपल को देखो तो अभी ठंड जैसे शुरू ही नहीं हुई। सेंट्रल पार्क में घुस कर इधर इस तरफ किसी कॉफी हाउस जाने का इरादा था दोनों का। पर सेंट्रल पार्क से उसके साथ गुजरने का मजा अपना था। मेरी हवस डिंपल के साथ होते दस गुना बढ़ जाती है। यहाँ इधर उधर छुपे छुपाए कई जोड़े बैठे थे और जाने क्या का क्या कर रहे थे। कहीं कहीं थोड़ा अँधेरा भी मिल जाता और मैंने एक जगह मौका पा कर डिंपल को घेर ही लिया। खूब कस कर पकड़ा कि डिंपल चिल्लाने लगी - 'सर व्हाट इज दिस। लीव मी मैं कहती हूँ...' उसे दो तीन झटके मैंने दिए तो मेरे तन बदन में आपादमस्तक एक हवस सी दौड़ गई। यहाँ लोगों की बल्कि खास कर जोड़ों की इस कदर भीड़ रहती है कि किसी का ध्यान हम पर था भी कि नहीं यह जानने की मुझे जरूरत नहीं पड़ी थी। सोचा यह भी एक शान है कि मैं एक रईस बुजुर्ग की तरह इस उम्र में भी एक जवान कुँवारी हसीना के साथ घूम रहा हूँ। रोमांस कर रहा हूँ, जैसे मैं उसे ट्रेन कर रहा हूँ कि फॉरवर्ड बनो। इस नए जमाने में ऐसे छुई मुई बन कर कैसे रहोगी! 'कैसे रहोगी' शब्द मेरे जहन में ऐसे आते जैसे मैं उसे चेतावनी सी देना चाहता हूँ...
मैंने एक दिन उस से पूछा था - 'क्या तुम्हारा अकेला मैं ही एक दोस्त हूँ?'
सोचा यह कह दे कि आपके अलावा मैं जानती ही किसे हूँ सर, तो जिंदगी बन जाए। पर वह बोली - 'सर मेरे तो बहु...त दोस्त हैं। पर सब उधर सिरीफोर्ड एरिया या साकेत वाकेत में हैं...' निराश हो कर भी मैंने पूछा - 'कोई खास भी है?' यह जैसे मेरे लिए डूबते को एक तिनके के सहारे जैसा था...
पर डिंपल इतरा कर बड़ी लय में बोली - 'खास भी है... स...र ... पर आपको थोड़ेई बताऊँगी।'
मैंने आगे कुछ नहीं पूछा और एक आत्मवंचना भरे कुछ क्षण मेरे चौतरफ ठंडी हवा के कण बन मँडराने लगे...
सेंट्रल पार्क की उस छीनाझपटी के बाद खूब बिगड़ी डिंपल। चुपचाप एक कदम मुझसे फासला बना कर चलती रही। फिर बाहर निकल कर हम इधर मेट्रो से दूर ले जाने वाले एक कॉरीडार में आ गए। वहाँ कॉरीडार के फ्लोर पर ही किताबों का एक स्टाल देखा। उस से आगे बढ़ कर डिंपल फ्लोर पर ही अगले वाले बुकस्टाल पर रुक गई। अब तक जैसे उसका मूड बन गया था, बोली - 'सर वो जो किताब है न, 'दी डेथ ऑफ विष्णू' मुझ बुद्धू ने अब तक नहीं पढ़ी।'
मैंने तुरंत कहा - 'ले लो। किसी ने मना तो नहीं किया था न...'
मुस्करा दी डिंपल - '...मना भला कौन करेगा...'
सेल्समैन उसे पहचानता होगा। फौरन उकड़ू बैठ अपना हाथ वहाँ तक पहुँचाया और किताब निकाल ली। डिंपल के हाथ में आ गई तो बड़ी हसरत से उसने उसे ऐसे पकड़ा कि मैं अपनी आँखें उस पर फोकस कर लूँ। पर मेरा ध्यान तो अपने बटुए की तरफ था। मैंने बटुआ निकाल लिया था। सौ सौ के केवल चार ही नोट थे। तीन सौ देने थे सो सहर्ष दे दिए। डिंपल अब चुपचाप मेरे साथ चल रही थी। बोली - 'आज मैं खूब थकी हूँ, सो कॉफी वॉफी पीने नहीं रुकूँगी। बस थोड़ी देर बाद चलते हैं...'
जनपथ मार्केट। जल्दी ही वहाँ से लौटने को कह रही थी डिंपल पर तीन दुकानों पर अपने लिए एक एक टॉप और मैक्सी वगैरह देख उन्हें रिजेक्ट कर इधर जनपथ मार्किट के सी.पी. वाले छोर तक लौट आई डिंपल। चलते चलते एक एक दुकान के अंदर झाँक कर ही मानो कुछ खास खोज रही थी। उसकी एक बात का तो मैं कायल था कि जब वह एकाग्र हो जाती तब एकाग्र ही हो जाती और कुछ न रहती। मेरे साथ कदम कदम आगे बढ़ाने में भी उसकी एकाग्रता अभूतपूर्व सी थी। अचानक एक ही शॉप से उसने साढ़े पंद्रह सौ की कुछ चीजें खरीद लीं। टॉप, पटियाली सलवार, ब्रा, न जाने क्या क्या। अपना बटुआ खोल उसने फिर उसे ऐसे कोण पर टिकाया कि मेरी आँखें उसमें अंदर तक फोकस हो जाएँ। मुझे तो उस पर पहले ही बेसाख्ता गुस्सा चढ़ रहा था। साली को जरा सा सेंट्रल मार्केट में जकड़ लिया कि बस...
डिंपल कह रही थी और मेरा ध्यान जब उसने तीसरी बार कहा तब गया कि - 'सर आपका बिल बड़ा होता जा रहा है। अभी तक आपका लोन आठ सौ है, बस यह साढ़े पंद्रह सौ दे दीजिए...'
मैं एक बात से संतुष्ट था कि इस खर्चीली दोस्त के साथ खड़े खड़े अब मेरे बटुए में सिर्फ और सिर्फ सौ रुपये बचे हैं। मैंने सायास बहुत अच्छी मुस्कराहट बनाई और बोला - 'अजी जान माँगो जान हाजिर है। वहाँ डेथ ऑफ विष्णू के बाद न मेरे पर्स में सिर्फ सौ का एक नोट बचा है...'
डिंपल के मुँह से सिर्फ कुछ अस्फुट से शब्द निकले - 'ए.टी.एम. ... ए.टी.एम. कार्ड... रखते हो न आप...'
- 'वो सामने ही वाले कॉरीडार में है...' मेरे मुँह से बेसाख्ता निकला।
और अगले क्षण उस साली को वहीं खड़ा कर के मैं तेज तेज हाँफते हुए सड़क पार कर के सामने वाले कॉरीडार में चढ़ गया। जब से सत्तरवें में प्रविष्ट हुआ हूँ तब से हाँफने का भी खूब मजा ले लेता हूँ, आज भी ले रहा था। हाँफते हाँफते यह भी होता है कि छाती के अंदर कहीं ब्लड ब्लॉकेज सा आ जाता है। बारह साल पहले बायपास सर्जरी भी हुई थी। पिछले वर्ष ई.सी.जी. में कुछ गड़बड़ थी। तब से और ई.सी.जी. नहीं कराया जी। जब मरना होगा मर लेंगे। ब्लड ब्लॉक होते ही एक दर्द बाजू के डोलों तक पहुँच जाता है। बहरहाल, पीछे मैकडोनाल्ड वाली कॉरीडार में ही एक ए.टी.एम. में कार्ड ठूँसा और दो हजार निकलवा लाया। लौट कर होश भी न रहा कि दुकानदार को जा कर नकद साढ़े पंद्रह सौ पकड़ा दूँ लेकिन अपनी उस महत्वाकांक्षी गर्लफ्रेंड की हथेली पर ही पाँच पाँच सौ के चार नोट रख दिए। एक पर्स भी मेरी महबूबा को पसंद आ गया था इस बीच। सो मेरा उन्नीस सौ प्लस आठ सौ का कर्जा अपने जवान कंधों पर लादे हुए बोली - 'चलिए, अब आपकी फेवरेट कोल्ड कॉफी मैं पिलाती हूँ। मैकडोनाल्ड में...' पर मेरा चेहरा देख समझ गई थी डिंपल मास मीडिया ग्रैजुएट कि अब हमें मेट्रो पकड़नी है। सो राजीव चौक के मेट्रो स्टेशन की सर चकराऊ भीड़ की तरफ जाने का इरादा कर लिया दोनों ने...
उस से पहले मूड ऑफ के बावजूद मैंने एक जगह हँसना शुरू कर दिया। डिंपल से बोला था कि यहाँ रोड पार करने में तो जानलेवा ट्रैफिक है। सो वह खुद ही बोली - 'चलिए सर, वहाँ अंडरग्राऊंड क्रॉसिंग से पार करवाती हूँ...' नीचे को जाने वाली सीढ़ियों पर मैंने उसकी पीठ पर हाथ रख दिया जो उसे अच्छा नहीं लगा। पर सीढ़ियाँ खत्म होते ही अंदर एक हैंडलूम की चीजें बेचने वाली औरत पलथी मार बैठी थी। ऐसी जितनी भी औरतें यहाँ हैं बहुत खूबसूरत हैं, बल्कि जानलेवा खूबसूरत हैं। और सबमें एक चीज कॉमन कि सबकी माँग में सिंदूर लगा है। मैं अनायास हँसना शुरू कर के डिंपल से बोला - 'ये जो औरत है न, और ऐसी और, ये सब वैसी हैं पता है...'
डिंपल अभी तक मुझसे सहानुभूति के टोन में ही बतियाती चल रही थी पर बहुत मामूली सा आवाज को सख्त बनाती बोली - 'आप को कैसे पता?'
डिंपल को मैं क्या बताता कि यहाँ ऐसी कई और औरतें भी घूमती हैं जो कुछ भी नहीं बेचतीं सिर्फ अपना जिस्म बेचती हैं और इसीलिए मुस्करा भी देती हैं। सब की माँग में सिंदूर जैसे एक यूनीफॉर्म है। जब उस औरत के सामने आखिरी सीढ़ी उतर कर बाएँ मुड़े तो मैं उस औरत के साथ मुस्करा दिया। औरत जानती है कि ऐसे बुड्ढों में वो हिम्मत नहीं कि हमारे साथ कहीं चलने की जुर्रत पाल लें, सिर्फ हँसते हैं और बातें करते हैं। खरीदते तक कुछ नहीं। यदि उस औरत के सामने दिल खोल पाता तो उसे बताता कि बाजारू औरत से ज्यादा क्रेज तो मुझ बुड्ढे, जिसके बारे में कहा जा सकता है कि पाँव कब्र में लटके हैं, को अपनी गर्लफ्रेंड के साथ एन्जॉय करने में आता है। और मैं फिर बहक गया था। चलते चलते डिंपल से बहुत अच्छी तरह बात करता बोला - 'काश हमारी मेट्रो भी एक ही होती...' पर डिंपल मुझे आड़े हाथों लेती बोली थी - 'आप उस औरत के साथ ऐसे क्यों हँस रहे थे। जानती है क्या आपको...' पर तब तक ऊपर जाने की सीढ़ियों में खूब अँधेरा था और यहाँ मैं अपने पैसे के सारे घाटे को भूल जी खोल कर बहका और डिंपल को नहीं छोड़ा। उसे बुरी तरह कस लिया और आखिर उसके कपोलों का...
अब डिंपल को सँभालना मुश्किल था। डिंपल दौड़ने सी लगी। बोली - 'अब आपसे मेरी यह आखिरी मुलाकात थी सर...' वह तेजी से निकल गई, हालाँकि मैंने भी तेजी से उसका पीछा किया। और राजीव चौक की भीड़ में वह नीचे की ओर जाने वाली सीढ़ियों में लुप्त हुई तो उसके बाद पंद्रह दिन तक उसका मेरा मिलना संभव न हो सका।
मैं एक थियेटर में फिल्म देख रहा हूँ। साथ में पत्नी भी है। पर फिल्म में मेरा ध्यान कहाँ। मैं तो मोबाइल में एस.एम.एस. पर एस.एम.एस. टाइप किए जा रहा हूँ। सोचता हूँ डिंपल भी उन असंख्य महिलाओं में से है जिन्होंने पिछले दो दशकों में खूब तरक्की कर ली है। पिछले दो दशकों में नारी ने घर की दहलीज लाँघ कर उसे कब का कुचल दिया और निकल पडी, विश्वविद्यालय में, कॉर्पोरेट जगत में, न जाने कहाँ कहाँ... आसमान में भी... पर...
मैंने एक एस.एम.एस. कर के अचानक डिंपल को अपने घर का पता भेज दिया। उस से पहले उसे तीन एस.एम.एस. किए थे पर कोई जवाब न मिला तो एक और एस.एम.एस. किया कि आपसे तो संपर्क करना ही अब पहाड़ सा लगता है। आखिर एड्रेस वाले एस.एम.एस. के बाद उसका एस.एम.एस. आया - 'यह एड्रेस किसलिए सर, क्या मुझे...'
- 'हाँ, इस एड्रेस पर हो सके तो मुझे 2,700 का चेक कोरियर कर देना।'
- 'ठीक है सर। थोड़े दिन कुछ पर्सनल बैलेंस नहीं था मेरे पास। और सर मैं बहुत बिजी रही। आपकी किसी भी कॉल का या एस.एम.एस. का जवाब न दे सकी... सॉरी सर...'
मैंने दो किस्त में एक लंबा एस.एम.एस. उसे भेजा कि कल रात तीन तीन बार तुम्हें कॉल किया पर आखिर में तुम्हारी बहन ने उठाया और बोली कि डिंपल मोबाइल घर में ही छोड़ गई है। कोई खास बात?'
- 'हाँ सर, ऐसा ही था... मैं मोबाइल भूल जाती हूँ कभी कभी...'
नारी ने खूब तरक्की की पर क्या उनका एक वर्ग पहले की तरह ही मर्दों की पौकेट पर चल रहा है? और फिर... कुछ कुछ ऐसे ही अजीबोगरीब खयालों में मैं बेमन से फिल्म देखता रहा। खुद पर भी तरस का सा भाव मन में आ गया कि ऐसे कंगाल आशिक...!
डिंपल इसके चौथे दिन ही मुझे ब्रिटिश काऊंसिल लायब्रेरी में मिली थी। तीन टेबलें दूर एक किताब में नजरें गड़ाए थी। मुझे देखा होगा उसने और एक एस.एम.एस. किया - 'नमस्कार सर। मैं हॉल में ही हूँ...'
उसके बाद मेरे किसी एस.एम.एस. का जवाब नहीं।
लायब्रेरी से निकल आया मैं। कई कदम बाद पीछे मुड़ कर देखा डिंपल चली आ रही है और चलते चलते बड़े रिदम से मेरे साथ साथ चलने लगी है। ऐसे ही न जाने कितनी चुप्पी ओढ़ वह बाराखंबा रोड मेट्रो स्टेशन पर नीचे को जाने वाली सीढ़ियाँ उतरने लगी मेरे साथ। अपना अपना स्मार्ट कार्ड टच कराया और फिर प्लैटफॉर्म को जाने वाली सीढ़ियाँ। प्लैटफॉर्म पर पहुँचते ही ट्रेन खड़ी मिली और दोनों अंदर चले गए। बस, यहीं तक का साथ था डिंपल का। वह मेरे बुढ़ा चुके चेहरे को लगातार देखती रही तो मुझे लगा किसी भी सूरत में मैं उसके काबिल नहीं हूँ। तभी तो निरंतर मेरे चेहरे को पढ़ रही है कि... कि आखिर इस बुड्ढे में है क्या कि मैं... कुछ भी नहीं बोली वह मुझसे। न आगे मिलने की बात न पैसों की... उसकी चुप्पी एक निर्लज्जता से कम कुछ नहीं लग रही थी, एक बेबसी सी भी थी उसके चेहरे पर... राजीव चौक स्टेशन तो दो मिनट बाद ही आ गया। डिंपल उतर गई। मुझे क्षण भर को पता भी न चला। सोचा नीचे वाली लाइन चली गई है। सो एक एस.एम.एस. किया - 'कम से कम विश तो कर जाती...'
पर लगातार एस.एम.एस. भेजने की कहानी और है। मैंने कई एस.एम.एस. भेजे। नया वर्ष आया तो मुंबई में था। नए वर्ष की शुभकामनाओं का एस.एम.एस. ठीक बारह बजते ही किया, जैसे इतने दिन बाद एक हूक सी उठी हो कि डिंपल को विश किए बिना कैसे रह सकता हूँ। सोचा नेटवर्क बुरी तरह बिजी होगा सो उसे मेरा एस.एम.एस. नहीं मिला होगा। पर अगली सुबह जो भेजा उसे मिल गया। कोई जवाब नहीं। लगा जैसे हम दोनों जो कुछ एक दूसरे से चाहते थे, वह न दे पाना अपनी अपनी मजबूरी थी, सो अलग हो गए! डिंपल उसके बाद आज तक कहीं नहीं मिली...