दोस्त-दुश्मन, दुश्मन-दोस्त का दौर / जयप्रकाश चौकसे

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दोस्त-दुश्मन, दुश्मन-दोस्त का दौर
प्रकाशन तिथि :10 मार्च 2017


करण जौहर की अत्यंत उबाऊ फिल्म 'ए दिल है मुश्किल' में संवाद था कि मोहम्मद रफी गाते कम और रोते अधिक थे। दरअसल, सेन्सर बोर्ड को ही यह संवाद हटा देना था परंतु सेन्सर के अधिकारी ध्यान देते हैं केवल स्त्री शरीर के प्रदर्शन वाले दृश्यों पर। उन्हें लगता है कि नारी देह उनकी पांच हजार वर्ष की संस्कृति को हानि पहुंचा सकती है। कितने भयभीत हैं ये लोग। यह भी गौरतलब है कि सारे अपशब्द माताओं और बहनों के संबोधन से जुड़े हैं। किसी अपशब्द की रचना पुरुष से नहीं जुड़ी है। यह प्रकरण ही नारी के प्रति हमारे व्यवहार की पूरी कहानी कहता है। पवन करण और साथियों द्वारा आयोजित 'सिनेमा में नारी' परिसंवाद में यह बात विस्मृत हो गई थी। स्मृति का हिरण अज्ञात झाड़ियों मे कुलांचे भरता है। क्या साहित्य में स्मृति को हिरण के साथ जोड़ा जाना महज इत्तेफाक है और क्या यह भी आश्चर्य की बात नहीं कि श्रीराम भी स्वर्ण हिरण का पीछा करने गए और सीता का अपहरण संभव हो पाया। यह संभव है कि हिरण अपने ही शरीर में स्थित सुगंध स्रोत से अनजान रहता है। हमारे आख्यानों में भी अपहरण के प्रकरण बहुत से हैं। जयद्रथ ने भी द्रौपदी के अपहरण का असफल प्रयास किया था।

महाभारत के अधिकतर पात्र द्रौपदी से प्रेम करते थे। कर्ण को तो द्रौपदी स्वयंवर में भाग ही नहीं लेने दिया गया अन्यथा अर्जुन के लिए कठिनाई होती। श्रीकृष्ण और द्रौपदी का रिश्ता भी श्रीराम कथा तक जाता है और सीता का ही द्रौपदी के रूप में पुन: आगमन माना जाता है। एक धरती से प्रकट भई थीं तो दूजी अग्नि से निकली थी, अत: अब उनके आसमान से अवतरित होने की संभावना है। उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम ही बताएंगे कि क्या श्रीमती अखिलेश यादव में उनका कोई न्यूनतम अणु अंश मौजूद है? श्रीमती अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी एक ही मंच पर कम से कम राजनीतिक दिशा को लेकर आंखों को तो सुकून देती हैं। यूं भी यादव वंश और श्रीकृष्ण का नाता पुराना है।

मोहम्मद रफी विलक्षण गायक थे और निहायत ही पाक-साफ इंसान थे। जब लता मंगेशकर ने गायन की रॉयल्टी की बात उठाई तो भोले-भाले रफी साहब ने उनसे कहा कि फिल्मकार गायक को रिकॉर्डिंग के समय ही भरपूर मुआवजा देता है, रिकॉर्डिंग से शूटिंग तक और प्रचार पर भी धन खर्च करता है तो रॉयल्टी में गायक का हिस्सा मांगना कहां तक जायज है? रफी साहब ने कभी किसी फिल्मकार के सामने कोई शर्त नहीं रखी और जिसने जितना धन दिया उतना बिना गिने ही ले लिया। पांच वक्त के नमाज़ी और ज़कात चुकाने में अग्रणी रफी साहब हर कसौटी पर खरे व्यक्ति थे। इस्लाम अनुयायी के लिए जरूरी शर्त है कि वह अपनी कमाई का 25 फीसदी धन गरीबों की मदद में खर्च करें और इसे ही जकात कहा जाता है। ठीक इसी तरह हिंदू धर्म के मानने वाले अपने बही-खातों में शुभ-लाभ और लाभ-शुभ लिखते हैं, जिसका अर्थ भी जकात की ही तरह है। राजनीति से जुड़े लोगों ने ही यह हव्वा रचा है। आम आदमी भी कम दोषी नहीं, जो इन हुल्लड़बाजों से प्रभावित हो जाता है। इस दुनिया की शतरंज पर आम आदमी तो महज प्यादा है, जिसे केवल एक घर, वह भी अपनी कतार में ही सरकने का अधिकार है। बैंकों के सामने लगी कतार पहली बार नहीं है, यह सिलसिला सदियों से जारी है और केवल हुक्मरान हमेशा नए मुखौटे में प्रस्तुत होता है। उसे यूं ही नट सम्राट नहीं कहते।

जुलाई के जिस मनहूस दिन रफी साहब को सुपुर्दे खाक किया जाना था, उस दिन खूब जमकर बारिश हो रही थी। शव-यात्रा में शामिल किसी भी व्यक्ति ने अपने साथ लाए छाते नहीं खोले। खाकसार भी वहां मौजूद था। एक कम बजट की फिल्म के लिए रफी साहब ने क्या खूब गाया है, 'वह जब याद आए, बहुत याद आए, गमे जिंदगी के अंधेरों में हमने चिरागे मोहब्बत जलाए बुझाए…।' रफी साहब को याद करने के लिए बरसात का होना जरूरी नहीं है, वे तो बादल की तरह अंखियों के पीछे हमेशा मौजूद रहते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि करण जौहर के अवचेतन में भी कुछ इसी तरह की बात थी। उनके अवचेतन में शाहरुख खान इतनी जगह घेरे हुए हैं कि किसी औरत के लिए स्थान ही कहां होगा।

बहरहाल करण जौहर की इस हिमायत का जमकर विरोध किया था गायक सोनू निगम ने और अब इन दोनों में सुलह-सफाई करा दी गई है। ज्ञातव्य है कि अत्यंत प्रतिभाशाली सोनू निम ने 'टी सीरीज' के लिए रफी साहब के गाए हुए कई गीतों के 'संस्करण गीत' गाए हैं। यह 'संस्करण गीत' रॉयल्टी नहीं देने के लिए प्रयोग की गई पतली गली है। हमारी अन्वेषण ऊर्जा केवल पतली गली खोजने में ही खर्च होती है। करण जौहर के लिए यह जरूरी है कि वे सुर्खियों में बने रहें चाहे बात सकारात्मक हो या नकारात्मक। यह बात उस तर्कहीन लोकोक्ति से जुड़ी है कि 'बदनाम होंगे तो क्या नाम नहीं होगा।' इसी तरह की जाने कितनी बातें हैं, मसलन मजबूरी का नाम गांधी है, जबकि गांधी ने हिंसा का विरोध हमेशा किया और सफलता के करीब पहुंचा अपना आंदोलन चौरी-चौरा कांड के बाद वापस ले लिया, जिसके लिए उन्हें कटु आलोचना झेलनी पड़ी। आजकल फिल्म उद्योग में सुलह-सफाई का दौर चल रहा है और सारे गिले-शिकवे भुलाए जा रहे हैं। साजिद नाडियाडवाला और साजिद खान के बीच भी बहनापा निभाते हुए फरहा खान ने समझौता करा दिया है और अब साजिद 'हिम्मतवाला' जैसी फूहड़ता को नहीं दोहराएंगे। दर्शकों के लिए यह बड़ी रियायत है।