दोस्त / गोवर्धन यादव
दो घनिष्ठ मित्र आपस में चर्चा कर रहे थे, "रमेश, अब तुम्हारे पिताजी की तबीयत कैसी है," "यार मैं तो तंग आ गया हूँ, उन्हें तो अब होश ही नहीं रहता, आए दिन बिस्तर गीला कर देते हैं, कभी तो कपडॆ भी गंदे हो जाते हैं, अब मैं अपने काम-धाम करुँ, आफ़िस जाऊँ या दिन भर घर में बैठा रहूँ, सच कहूँ, अब यह सब नहीं सहा जाता, कभी-कभी सोचता हूँ कि उन्हें वृद्धाश्रम में शिफ़्ट कर दूँ," "वाह बेटॆ वाह, तुम एक अच्छे-होनहार बेटॆ होने का फ़र्ज निभा रहे हो, कभी अपने बचपन को याद करो, जब तुम बित्ता भर के थे तो इसी पिता ने तुम्हें ऊँगली पकड कर चलना सिखाया, तुम्हें नाम दिया और समाज में एक सम्मान दिलाया, कभी तुमने भी तो कपडॆ खराब किए होंगे, तब इन्हीं पिता ने तुम्हारी गंदगी साफ़ की होगी, तुम्हें पढा-लिखा कर एक मुकम्मल आदमी बनाया, पर जब आज पिता असक्त हो गए तो बजाय उनकी मदद करने के तुम उनसे घृणा करने लगे, अगर इसी प्रकार की घॄणा तुम्हारे पिता तुमसे करते तो! कभी इस बात पर तुमने गंभीरता से सोचा, यार बुरा नहीं मानना, एक बात कहूँ, जब तुम अपने पिता के नहीं हो सके तो फिर किसी के नहीं हो सकते, अब तुम दोस्त कहलाने लायक नहीं रहे," इतना कहने के बाद वह उठकर चला गया था।