दोहरी ज़िंदगी / विजयदान देथा 'बिज्जी'
अदेही, अनंग, तुष्टमान होकर हरेक को दो-दो जीवन बख़्शे कि बारह और बारह चौबीस कोस की दूरी पर दो बस्तियां बसी हुई थीं। उन बस्तियों के सेठ अपनी कंजूसी के लिए समूचे मुल्क में मशहूर थे। दोनों बस्तियों में सरीखी हैसियत के दो हमउम्र साहूकार रहते थे। दूर बसते हुए भी दोनों में गहरी दोस्ती थी। इत्तफ़ाक़ की बात और अनमोल रात कि दोनों का एक साथ सेहरा बंधा। बेहद सुंदर बहुओं के साथ ही हथलेवा जुड़ा और सीप-सीप में साथ ही मोती पड़ा। तब ख़ुशी-ख़ुशी दोनों साहूकार परस्पर वचनबद्ध हो गए कि चाहे जिस किसी के बेटा-बेटी हो, वे एक-दूसरे के विवाह बंधन में बंधेंगे। पेट की आशा के दरम्यान ही संतानों का रिश्ता तय हो गया।
एक-दूसरे की प्रीत में बावले और धनपागल उन सेठों को कुदरत के खेल का रंचमात्र भी ख़्याल नहीं था। नौवें महीने एक ही नक्षत्र में दोनों के दो लड़कियां जनमीं। कुछ तो दी हुई ज़ुबान के नशे में और कुछ कंजूसी की लत के दबाव में एक सेठ बेईमानी कर गया। बेटी होने के बावजूद सूप की जगह कांसे का थाल बजवाया। नाई भेजकर दोस्त के गांव बेटे की बधाई पहुंचवाई। दोनों सेठों की हवेलियों में उत्सव के साथ गुड़ बांटा गया।
पहले-पहल मां ने सोचा कि दोनों दोस्तों में परस्पर मज़ाक़ का रिश्ता है। वक़्त आने पर आप ही सारी बात सामने आ जाएगी, तब तक इस भ्रम से कोई हानि नहीं है। अबूझ बचपन तक क्या छोरा और क्या छोरी। यह जो जवानी छाने पर ही भेद वाले मर्म की ठीक से पहचान होती है।
पर बाप ने उस भ्रम को मिटाने के लिए जाने-अनजाने कोई चेष्टा नहीं की। लड़की की लड़के के समान परवरिश की। वक़्त से पहले ही कमर में मेखला और धोती, बदन पर अंगरखी और सिर पर बंधेज का साफ़ा। पहले तो सारी बातें मसख़री सी लगती थीं, पर जब वक़्त का उभार ज़ाहिर होने पर भी बाप की नीयत नहीं बदली तो मां का माथा ठनका। एक दफ़ा मीठे उलाहने के साथ पति को सचेत किया। कहने लगी, “यों देखते हुए भी अंधे कैसे बने हो ?”
तब हकलाते हुए सेठ बोला, “मैं तो कहीं अंधा नहीं हूं। मुझे तो तीन लोक की सूझती है।”
सेठानी सिर पर हाथ लगाकर बोली, “तीन लोक की सूझने वाले बेटे के कपड़ों में बेटी का जोबन नज़र नहीं आता ?”
सेठ सफ़ेद झूठ बोला, “इन छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देने के लिए मेरे पास वक़्त ही कहां है ?”
सेठानी की अभ्यस्त ज़ुबान से अपने आप ही रोज़ाना का संबोधन निकला, “मुन्ने के बापू, तुम यह क्या पागलपन कर रहे हो ? बेटी तो हाथ पीले करने लायक हो गई और तुम्हें यह छोटी बात नजर आती है ?”
“पर हाथ पीले करने की मेरी मनाही थोड़ी ही है। मेरी तेज़ अक़्ल की कौन बराबरी कर सकता है ! मैंने तो कोख के भीतर ही रिश्ता निपटा दिया था।”
सेठानी क़रीब आकर कहने लगी, “तुम्हारे निपटाने से क्या होता है ! भला, छोरी से छोरी की कहीं शादी हुई है ?”
“शादी का क्या, की और हुई ! पर दिया हुआ वचन तो मरते दम तक नहीं तोड़ा जा सकता।”
सेठानी की आंखें ऊपर ललाट में चढ़ गईं। यह मज़ाक का लहजा तो नहीं है। सूरज की तरह दमकती सच्चाई पति को क्या दिखाए ! भला, ये बातें किसी को समझाने की हैं ! उसका मुंह फटा का फटा रह गया। पर अब इत्मीनान रखने से ग़ज़ब हो जाएगा। आख़िर बमुश्किल मन कड़ा करके कहने लगी, “भले आदमी, तुम्हारे वचनों से सेज़ों की कमी कैसे पूरी होगी ? कुछ तो ख़्याल करो। मैंने तो इतने बरस का मज़ाक़ मानकर तुम्हें छेड़ा नहीं।”
“मैं छेड़ने जैसा काम भी तो नहीं करता। बेशुमार दहेज मिलेगा। धूमधाम से बेटे की बारात ले जाऊंगा। मर्द की जुबान नहीं बदला करती। कुदरत की ग़लती का नुक़सान मैं क्यूं उठाऊं ?”
सेठानी असमंजस में पड़ गई। या तो अभी पति उससे हंसी कर रहे हैं, या अपने वचन से हर्गिज़ इधर-उधर नहीं होंगे। पर आज बात को अधर में नहीं छोड़ना है। फ़ैसला होने पर ही सेठानी को चैन पड़ेगा। ग़ुस्से से खौलती कहने लगी, “तुम्हारा नफ़ा-नुक़सान गया भाड़ में। तुम्हारे जैसा बाप मिलने पर बेटी सेज़ों का नुक़सान कैसे पूरा करेगी ? इस बात का तुम्हें कुछ ख़्याल भी है ?”
सेठ गुमान से बोला, “क्यूं, ख़्याल क्यूं नहीं ! आठ-दस बरस पति के दिसावर जाने पर भी समझदार बहुएं सब्र रखती हैं। ऐसा-वैसा पति मिलने पर जैसे-तैसे करते कोख की साध पूरती हैं। बाल रांड भी आख़िर अपने दिन काटती ही हैं। बेटी की क़िस्मत, बेटी के साथ। आप ही खींचेगी और आप ही ओढ़ेगी।”
अब जाकर सेठानी को पुख़्ता विश्वास हुआ कि ये बातें हंसी की नहीं हैं। पति तो गुथे हुए जाल की एक गांठ भी ढीली नहीं करना चाहते। बेटी के चेहरे की धुंधली तस्वीरें उसे चारों ओर तैरती नज़र आने लगीं। रुंधे गले से बोली, “अपनी जायी बेटी है। यों कैसे उसे बांधकर जलाएं ? छोरी के साथ शादी होने पर वह क्या तो खींचेगी और क्या ओढ़ेगी ! मुझसे तो सपने में भी इस अकर्म के लिए हां नहीं की जाती।”
पति चिढ़ते हुए बीच में बोला, “मैंने तुझे हां करने के लिए कहा ही कब है ! इस काम के लिए तो मैं अकेला ही बहुत हूं अगर फिर टांग अड़ाई तो मैं ख़ुदकुशी करके मर जाऊंगा। वचन हारने से तो मरना बेहतर है। और, सेठों की सेजों का घाटा कैसे भरा जाता है, तू क्या समझती नहीं ! जान-बूझकर अनजान मत बन। तेरे बाप का नाम कैसे चला, समूचे इलाक़े में यह किसी से छुपा नहीं है। पर फिर भी मैंने दिखती आंखों मक्खी निगली कि नहीं !”
पति के मुंह से इस ताने की सोठानी को क़तई उम्मीद नहीं थी। सुनते ही उसका मुंह मानो सी दिया गया हो। रगों का ख़ून जम गया। वाक़ई यह किसी से छिपा नहीं था। उसकी मां ने आंखों देखे किसी मर्द को नहीं छोड़ा। कापुरुष बाप तो अपने कारोबार और हिसाब-किताब में मग्न था और उधर उन्मादित मां ज़ात-बदज़ात का ख़्याल भी भूल गई थी। उस चमार के साथ खुल्लम-खुल्ला ऐश करती थी। चमार गरांडील और ख़ूबसूरत था। सेठानी हूबहू उस पर गई थी। वैसा ही चेहरा और वैसी ही चाल। ढकी हुई हंडिया का ढक्कन हटाते ही वह पस्त हो गई। अटकते-अटकते बोली, “जो तुम्हारी मर्ज़ी हो, करो।”
पति को ऐसे अचूक निशाने की आशा नहीं थी। बात ही बात में सारा झगड़ा निपट गया। इत्तफ़ाक़ की बात कि दूसरे ही दिन शुभ मुहूर्त की घड़ी में साहूकार के घर सावा आया। बाप ने तो उत्साह से सावा क़बूल किया, पर मां के कलेजे पर आरी सी चल गई। फिर भी उसने न तो होंठ खोले और न चूं ही की। आपकरमी बेटी जाने और बेटी का करम जाने।
पर बेटी तो निरी नादान थी। उसे न तो अपने यौवन की जानकारी थी और न करम का कुछ ख़्याल था। बरसों बेटे की तरह पली कन्या मन ही मन ख़ुद को बेटा ही समझने लगी थी। शादी का वास्तविक मतलब न जानते हुए भी उसे इस नई बात की बेहद ख़ुशी थी।
शादी होने पर ज़रूर चिकने गालों की मसें भीगेंगी। मूछों को ताव देने के लिए उसे चुटकी में खाज चलती सी महसूस होती थी। और बेटी की यह नासमझी देखकर मां अंदर ही अंदर सुलगती रहती थी। एक दफ़ा एक हमउम्र लड़की ने उसे नहाते हुए अचानक देख लिया तो उसकी सारी ग़लतफ़हमी दूर हो गई। इतने बरस तो उसने समझा कि मां-बाप कोई टोटका कर रहे हैं, पर सावा क़बूलने के बाद बारात चढ़ने के लिए उसकी उमंग देखी तो आख़िर सब्र की पाल फूल गई। उसे मेड़ी में ले जाकर समझाने लगी, “देखो जीजी...”
वह बीच में ही टोकते बोली, “आज यह नई बात कैसे ? भाई और दादा के बदले तूने मुझे जीजी क्यूं कहा ?”
लड़की मुस्कराते बोली, “क्यूं कहा ? जीजी है तो जीजी कहने पर ग़ुस्सा क्यूं ? बावली, औरतज़ात होकर तू दूल्हा बनने का ख़्वाब देख रही है ? मर्दानगी हुए बग़ैर मर्द के इन तमाशों से कब तक काम चलेगा ?”
“कब तक क्या, सारी उम्र काम चलेगा। पर तुझे मेरी मर्दानगी में क्या कमी नज़र आई ? यह धोती, यह अंगरखी और यह सोलह हाथ का साफ़ा !”
पड़ोसन लड़की होंठों ही होंठों मुस्कराते बोली, “सोलह हाथ के साफ़े से मर्द के साज़ो-सामान की कमी पूरी नहीं की जा सकती ! इस शादी के लिए तू साफ़ मना कर दे। तेरी जवानी तो ख़ुद जोड़ी का वर मांगती है। दोनों छोरियां साथ जुतकर क्या गार खूंदोगी। समझने लायक भरपूर उम्र होते हुए तू ये मामूली बात भी नहीं समझती ?”
सेठ की नादान लड़की फिर भी नहीं समझी। मुंह मस्कोरकर बोली, “तू तो मेरी सुंदर बीवी पर डाह करती है। तुझसे मेरा सुख देखा नहीं जाता।”
पड़ोसन उसे सीने से लगाकर कहने लगी, “अब तेरा क्या किया जाए? आख़िर ठोकर खाने पर ही तुझे अक़्ल आएगी। पर फिर समझकर भी क्या होगा। बाप को तो दहेज का लालच है, पर तेरी मां ने तुझे कुछ नहीं समझाया ? बेहद हैरानी की बात है कि उसका मन कैसे माना?”
तब वह अबूझ लड़की अधीरता से कहने लगी, “अभी जाकर मां से पूछती हूं। वह मुझसे कुछ नहीं छुपाएगी।”
“न छुपाए तो अच्छा है।” इतना कहकर वह अपने घर चली गई और बेटी हड़बड़ाई हुई मां के पास पहुंची। पूछा, “मां, आज एक लड़की ने मुझे हैरानी की बात बताई कि मैं फ़क़त मर्दों के कपड़े पहनती हूं, हक़ीक़त में मर्द नहीं हूं। पर मैं उसकी बात मानूं तब न! तू मुझसे हर्ग़िज न छुपाएगी। बोल, वह झूठी है कि नहीं ? मैंने तो उसके मुंह पर ही कह दिया कि उससे मेरी सुंदर बीवी का रूप सहा नहीं जाता।”
मां ने मुंह घुमाकर आंखें पोंछीं। कुछ देर बाद रुंधे सुर में बोली, “अगर ऐसी बात होती तो क्या मैं तुझे पहले ही होशियार नहीं कर देती ! अबूझ लड़कियां चलते ही चुहल कर लेती हैं।” बेटी जोश के सुर में बढ़-चढ़कर कहने लगी, “चाहे कितनी ही चुहल करें, मैं किसी से दबने वाला नहीं हूं। आदमी न होकर औरत होता तब भी मैं इस शादी के लिए इंकार नहीं करता। यह तो दिल मिलने की बात है। दिल मिल जाए तो दो औरतों की क्या शादी नहीं हो सकती?”