दोहे मोहे सोवे आैर पसंदीदा शेर / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 04 नवम्बर 2014
टेलीविजन का शिक्षा में प्रयोग किया जा सकता है, आज के सांस्कृतिक शून्य की समस्या भी टेलीविजन द्वारा कुछ हद तक ठीक की जा सकती है। भारत में टेलीविजन के प्रारंभिक दौर में दूरदर्शन पर अनेक अच्छे कार्यक्रम प्रस्तुत हुए। उस दौर में दूरदर्शन निर्देशक के विषय को स्वीकार कर, अपने ढंग से बनाने की पूरी छूट देते थे। प्राइवेट चैनल आने के साथ ही कार्यक्रमों की लोकप्रियता आंकने की टीआरपी का प्रवेश हुआ जिसके आधार पर विज्ञापन दरें तय हुईं, फूहड़ता का दौर शुरु हुआ। गांधीजी आैर मदनमोहन मालवीय द्वारा समाज सुधार के सारे प्रयासों को टेलीविजन पर प्रस्तुत फूहड़ता ने खत्म कर दिया। अंधविश्वास, कुरीतियों को ताकत दी। आर्थिक उदारवाद ने एेसा समाज रचा जिसमें जिंदगी की जद्दोजहद में थके-मांदे लोग घर आकर प्रसारित फूहड़ता देखते ऊब बिछा, थकान आेढ़कर सो जाते। इनके सपनों में फूहड़ता रेंगती रहती। इन बाजार की संतानों को यह अहसास नहीं था कि वे बाजार में स्वयं सिक्कों की शक्ल में खर्च हो रहे हैं।
विगत समय टेलीविजन पर तीन घटनाएं परिवर्तन का संकेत दे रही हैं। अनिल कपूर ने अमेरिका के एक कार्यक्रम के अधिकार खरीद "24' को जस का तस प्रस्तुत किया। अजीब संयोग देखिए कि जिस चैनल ने फूहड़ता को बढ़ाया, उसी ने पाकिस्तानी सीरियलों का प्रदर्शन 'जिंदगी' चैनल पर किया। इनकी गुणवत्ता सामाजिक सोद्देश्यता दर्शकों को प्रभावित कर रही है। यह भी रेखांकित कर रही है कि सरहद के दोनों आेर मानवीय समस्याएं करुणा समान है, अंधविश्वास कुरीतियां समान हैं। जहालत पर किसी का एकाधिकार है, कॉपीराइट। अन्याय शोषण आधारित व्यवस्था को अस्तित्व बनाए रखने के लिए फूहड़ता, जहालत, अंधविश्वास जैसी सामाजिक बुराइयां जमाए रखना आवश्यक लगता है। उन्हें सुलगती सरहदें ही रास आती है।
परिवर्तन का तीसरा संकेत टाटा स्काई 'डायरेक्ट टू होम' सेवाआें के अंतर्गत दो सप्ताह से प्रसारित 'एक्टिव, जावेद अख्तर' कार्यक्रम है। चार सप्ताह तक मुफ्त है। बाद में 99 रुपए देकर यह सेवा ली जा सकती है। इस सांस्कृतिक शैक्षणिक कार्यक्रम के दो हिस्से हैं। पहला है "दोहे मोहे सोवे' जिसमें जावेद अख्तर एक दोहा सुनाते हैं आैर सदियों बाद आज उसकी उपयोगिता बताते हैं। मसलन रहीम के एक दोहे का अर्थ है "जो लोग अनावश्यक भार कंधे से उतार भाड़ (अग्नि) में झोंक देते हैं अर्थात उससे मुक्त हो जाते हैं, वे उस पार पहुंच जाते है, अन्यथा डूब जाते हैं। संपदा, अहंकार, खोखले सम्मान भार होते हैं। उन्होंने वृंद, कबीर, रहीम बिहारी तुलसीदास इत्यादि भक्ति कवियों के दोहे चुने हैं। साथ ही वे काव्य सौंदर्य की बात भी करते हैं। फिर कोई गायक-गायिका दोहे की संगीतमय प्रस्तुति करता है, बीच में आज के जीवन के दृश्य होते हैं। कार्यक्रम के दूसरे हिस्से में शेर सुनाते हैं। मीर, गालिब, जफर, फिराक गोरखपुरी इत्यादि उस्तादों के साथ वे समकालीन ताज भोपाली का शेर भी सुनाते हैं। विशद व्याख्या शायरी के नियमों के साथ करते है। इकबाल का शेर "यह दस्तूरे जवां बंदी है कैसा तेरा, यहां तो बात करने को तरसती जवां मेरी'। जफर "बात करना मुश्किल कभी ऐसी तो ना थी, जैसी अब है तेरी महफिल कभी ऐसी तो ना थी'। संगीतमय प्रस्तुति भी होती है। पूरा कार्यक्रम 15-20 मिनट का है, टाटा स्काई पर चौबीस घंटे चलता है।
आज हमारे बच्चे युवा विज्ञान, टेक्नोलॉजी पढ़ रहे हैं। कोई भी शिक्षा संस्थान जीवन मूल्य नहीं सिखाता, वह पाठ्यक्रम में नहीं है। अत: इस कार्यक्रम के 15 मिनट की रिकॉर्डिंग शिक्षण संस्थाआें में दिखाई जा सकती है। कम से कम छुट्टी के दिन ही बच्चे को दिखा सकते हैं। दरअसल घर बच्चे की पहली पाठशाला है आैर पाठशाला को घर से दूर घर की तरह होना चाहिए। क्या माता-पिता अपने बच्चों को सप्ताह या माह में एक दोहा आैर एक शेर नहीं समझा सकते। बारह माह में बारह दोहे आैर बारह शेर याद करने पर दस वर्ष में उसके पास वह ज्ञान होगा जो उसके लिए कई रास्ते खोल देगा। टाटा स्काई आैर जावेद बधाई के पात्र हैं। फूहड़ता जहालत के खिलाफ जंग की यह छोटी पहल दूरगामी परिणाम दे सकती है।