दो ईडियट / प्रेमचंद सहजवाला
सब से पहले यही हुआ था कि मैं ही बहक गई थी, पर सिलसिलेवार बताऊँ तो ठीक रहेगा ना।
अपने सती सावित्री और अहिल्या के देश को छोड़ सिर्फ दस दिन ही तो गई थी, पृथ्वी के दूसरे गोलार्ध यानी अमरीका। सब चकचौंध देख मेरा जैसे कायाकल्प सा हो गया था। होटल के कॉरिडोर तक पहुँचते पहुँचते असंख्य नंगे अधनंगे जिस्म देख मुझे चलते चलते जाने किस क्षण लगा था कि मेरे तन पर भी वस्त्र हैं ही नहीं मानो! एक बिजली सी कौंध रही थी मेरे शरीर पर।
मैं उस आग को जीती जीती अपनी कॉर्पोरेट कंपनी का वह टूर निभा रही थी और अपने शरीर में हो रहे तेज तेज परिवर्तन से खुद चकित भी थी। एक चलता फिरता अंधड़ सी बन गई थी मैं अचानक! और खुद को समझना भी मुश्किल पड़ रहा था।
टूर पर मेरे साथ पूरी एक टीम थी। हम चार थे और उनमें से मैं ही एकमात्र महिला थी जो अपनी कंपनी के डिप्टी मैनेजर रूप में मुख्यतः इस टीम की लगभग कर्ता धर्ता थी बस। फ्लॉरीडा के इस होटल में हम सब ने चार कमरे बुक करा लिए थे, एक में मैं थी और दूसरे तीन में से एक एक में मेरे तीनों साथी।
मैं वैसे भी उस चकाचौंध से मानो यकायक ट्रांसफॉर्म सी हो रही थी। हमारे देश की राजधानी दिल्ली में भी अब कम चकचौंध नहीं है, बड़े बड़े मॉल हैं, पाँच सितारा होटल हैं, फ्लाई ओवर पे फ्लाई ओवर, मेट्रो, जहाँ जाओ चमक दमक है। पर सौंदर्य का जो सागर यहाँ इस देश अमरीका में है, वह मेरे लिए भी एक अजूबा सा था। एस्केलेटर वहाँ भी हैं और चमकते दमकते शोरूम वहाँ भी, सब देखा है मैंने, बल्कि अब इतनी बड़ी कंपनी की एग्जीक्यूटिव पोस्ट पर मैं उस सारी तरक्की को जी रही हूँ, मोबाइल है, एफ.एम. पर गाने सुनती हूँ, इंटरनेट पर जाने क्या क्या सर्फ करती रहती हूँ, पर यहाँ पहुँच कर क्या मुझे यह लगने लगा था कि अब उस सब के अलावा मुझ में कुछ दिन के लिए सही, पंख तो उग आए हैं!
घर में एक हर समय फिक्र करने वाली मम्मी है जो जब मैं पहली बार कॉलेज में गई थी तो दरवाजे पर पहुँचते ही कान में एक वार्निंग सी फुसफुसाती बोली थी - 'गल्त कदम जरा भी उठाया ना, खून कर दूँगी तेरा!'
माँ की शिक्षा सचमुच बहुत सख्त थी, जैसे किसी भी बात पर सचमुच, खून कर देगी मेरा। स्कूल के दिनों में ही कहती - 'आठ बजे के बाद घर में घुसी ना, घुसने नहीं दूँगी तुझे।' और नीचे साइकिल चला रही हूँ या लड़कियों के साथ खेल रही हूँ, आठ बजने से कई मिनट पहले दिल धक् धक् करना शुरू कर देता, कि मम्मी गैलेरी में यमराज सी खड़ी हो जाएगी, फिर उसके बाद एक मिनट भी नीचे रही तो बस... वह जैसा कहती है, किसी दिन खून कर ही ना दे मेरा! पर मम्मी की शिक्षा धीरे धीरे मेरी रगों में शामिल होती गई। कॉलेज की पढ़ाई करते करते 'खून कर दूँगी' शब्द भूल चुके थे, पर जैसे मैं खुद को ही वार्निंग देती रहती - 'गल्त काम...' और मैं 'हा हा' कर के खुद पर ही हँस पड़ती। बी।.बी.ए. पढ़ लिया, एम.बी.ए. कर लिया, कई दोस्त बनाए, पर वो आठ बजे से पहले पहले घर पहुँचने की जो छड़ी दिमाग पर सवार रही, वह जैसे मेरी शख्सियत का हिस्सा बन गई, कभी किसी ने चल कर चाय पीने को कहा, चल पड़ी, किसी पार्टी में तो हल्की फुल्की बीयर वीयर भी पी ली होगी पर डर डर कर। किसी ने जरा 'किस' की डिमांड की कि उसे थप्पड़ दिखा दिया और हँसती रही कि मम्मी ने कैसा डरावना सा बना दिया है मुझे, खुद अपने आप को ही वार्निंग देती रहती हूँ मैं तो!
एक विधवा बुआ थी पहले, अब मर चुकी। वह कहती थी कि सब कुछ बनाना सीख ले, तभी तू औरत कहलाएगी। उसकी सिखाई हर चीज सीख ली। याद है, जो आखिरी चीज उसने बनानी सिखाई थी वह थी गोलगप्पों का पानी। इमली का रस ले, काला नमक, पुदीना, हरी मिर्च, जीरा। और मैंने उसे सब से पहले जब गोलगप्पों का पानी बना कर दिखाया था और झट से कार ड्राइव कर के बाजार से बीस गोलगप्पे भी ले आई थी...
... मैं खूब हँसती थी खुद पर, बल्कि इस सिलसिलेवार योग्यता पर...
मैं फिलहाल होटल में अपने रूम में अपना सब कुछ रख कर दरवाजा ठीक से लगा कर बिकिनी में ही बैठ गई एक नॉवेल पढ़ने। 'यूज मी ऑर लूज मी - अ सेक्स नॉवेल'। मॉम से छुपा कर ही रखती हूँ ऐसी किताबें। हाहा! पर फिर चौंक कर खड़ी हो गई, यहाँ सात समुंदर पार आते ही मैं इतनी लापरवाही से कैसे बैठ सकती हूँ? फौरन टॉप और केपरी पहन पलंग के किनारे ही बैठ गई। लापरवाही क्षण भर में जाने कहाँ चली गई। और अचानक बेल बजी तो उठ कर दरवाजा खोला। एक नौजवान साधिकार अंदर घुसते चले आने की सी कोशिश करता आ रहा था और हाथ तपाक से आगे करता बोला - 'हेलो। आइ ऐम जितीन!'
- 'ओ जितीन!' मैं इतना खुशी से चौंकी कि जितीन तो मेरा चेहरा ही ताकने लग गया। फिर बोला - 'क्यों, आप को तो इन्फर्मेशन है कि बांबे से मैं भी हूँ इस टूर पर!'
- 'हाँ हाँ क्यों नहीं जितीन। हम लोग तो ई मेल भी एक्सचेंज कर चुके हैं। हम फोन पर भी बात कर चुके हैं, भला कौन नहीं जानेगा कि जितीन आने वाला है!' मैं ने अपना टोन कॉमेडी जैसा बना लिया, उसके अंदर आने के लिए रास्ता भी छोड़ दिया। जितीन साधिकार एक कुर्सी पर बैठ गया। बोला - 'ए, क्या मुझ से यह भी नहीं पूछोगी, मैं क्या लूँगा।'
मैं हँस पड़ी, बोली - 'मैं क्यों पूछूँ। क्या तुमने रूम बुक नहीं कराया? ओ हाँ, याद आया, ई मेल में यही था कि तुम्हारा रूम ट्वेंटीएथ फ्लोर पर है। सॉरी। मैं अभी कोल्ड मँगाती हूँ कुछ। रूम से ही आ रहे हो ना?'
- 'ह्म्म्म। रूम से। तुम तो खासी खूबसूरत हो डार्लिंग!'
मैं बिफर पड़ी - 'भला ये क्या बकवास है। डार्लिंग क्यों कहते हो?'
- 'सॉरी सॉरी। आदत सी है। सॉरी। वेरी सॉरी। बोल जाता हूँ ज्यादा...'
- 'आदत है! मतलब क्या मैरेज हो चुकी है आप की?'
- 'ओ नो। पर यूँ ही, इमैजिन सा कर लेता हूँ, कि जिस से होगी, उस से क्या कहूँगा... हा हा।'
- 'और उसी के खयालों में रहते हो सुबह शाम। और जो भी लेडी मिले उसे डार्लिंग कह देते हो?'
- 'हा हा... कभी कभी मार भी खा सकता हूँ ना!...'
अब की बार मैं हँसी न रोक सकी। हँस पड़ी - 'हा हा हा हा... मैं भी तुम्हें...' पर फिर चुप हो गई। मेरे शरीर में जाने क्या सा हो रहा था। मेरी आग फिर भड़कने लगी। बमुश्किल मैंने खुद को सँवारा था, बल्कि सँभाला था। बोली - 'खूबसूरत तो हूँ ही। आग हूँ आग!' जाने कैसे जैसा महसूस हो रहा था इन दिनों, वही बोल गई।
बहरहाल। जितीन भी हमारे टूर का ही हिस्सा था। जितीन हमारी ग्रेटर नॉएडा ब्रांच से है और मैं पहले उस से कभी मिली न थी। फिर वह मुंबई टूर पर कब चल पड़ा, पता ही न चला। अब उस का प्रोग्राम कंपनी ने कुछ जटिल सा बना दिया था। फिलहाल वह मुंबई टूर पर था, वहाँ टूर खत्म कर के हमारे टूर पर आया, और फिर ग्रेटर नॉएडा रिपोर्ट करते ही वह फिर पोस्ट हो जाएगा मुंबई ब्रांच, मुंबई का ही मूलतः वह है, हम लोग जो अपनी कंपनी की तरफ से 'डॉक्यूमेंटम' बेचने संबंधी डिस्कशन करने गए थे, उसमें जितीन भी आ के शामिल होगा, यह हमारे टूर शिड्यूल में था। जितीन से मैं बोल पड़ी - 'क्या तुम भी आग हो?'
- 'पू...री तरह।' जितीन भी घबराने वालों में से नहीं लगता, यह मैं जान गई। पर अपने सवाल से ही मुझे लगा कि मैं शायद घर की वह दहलीज लाँघ कर अब सात समुंदर पार आ गई हूँ, जिस दहलीज को पार करते समय कोई माँ अपनी बेटी को घूरते हुए, बल्कि उसे चीर डालने वाली नजरों से देखते हुए कहती थी - 'खून कर दूँगी...!'
जितीन बोला - 'पर अब जिस काम से आए हैं, उसमें तो माथा खपाएँ! वर्ना कंपनी हमारी नौकरियों को ही आग लगा देगी। हा हा!'
तय हुआ कि नीचे लॉबी में ही बैठ कर आज की मीटिंग के प्वाइंट्स तय कर लेंगे। लॉबी में हम पाँचों बैठे और फिर उस कंपनी से मैंने कॉल कर के मि. जेम्स जो उस के प्रतिनिधि थे को इनफॉर्म किया कि हमारी मीटिंगें पहले से ही तयशुदा शिड्यूल के मुताबिक होंगी। एक मीटिंग तो आज दोपहर ढाई बजे लोकल टाइम पर ही तय हुई और हम सब ढाई बजे से काफी पहले निकल पड़े। वहाँ आज उनके प्रोजेक्ट पर सब से पहला डिस्कशन होगा और उनके ऑफिस में लगे उनके सिस्टम से फैमीलराइजेशन।
यहाँ आ कर सब को नए नए 'सिम' भी लेने पड़े। सब के इंडियन नंबर डीएक्टीवेट हो चुके, नए नंबर मिल गए। मैं ने पापा ममी दोनों से बात कर ली कि अब इस नंबर से मैं उन्हें काल कर दूँगी। पर बहुत भारी फोन-बिल के डर से या जाने किस बोध से एक एक दो दो मिनट ही बात कर के फोन काट दिया था मैंने। पापा बोले - 'एन्जॉय बेटे, यह टूर तुम्हारा फर्स्ट टूर है। अपने एमएनसी को इंप्रेस कर के रख दो।' पापा हमेशा ऐसी ही बातें कर के मेरी हिम्मत बढ़ाते हैं। मम्मी ने तो छोटी छोटी बातों से खोदना ही शुरू कर दिया। पर मैं ने फौरन फोन डिस्कनेक्ट करने से पहले उस से कहा - 'यहाँ से फोन बहुत महँगा पड़ेगा मॉम, पलीज, वहाँ आऊँ तो पूछ लेना सब।' और झट से मोबाइल अपनी केपरी की पॉकेट के हवाले कर दिया। जितीन की आदत बड़ी गंदी कि वह सीरियस टाक खत्म होते ही मुझ से जरा फासला बना कर खड़ा हो जाता और आपादमस्तक मुझे देखने लगता, जैसे मैं कोई कागज हूँ और वह मुझ पर कविता लिखेगा। मेरे फ्लॉवरी टॉप पर उसकी निगाह टिक जाती, फिर वह जाने किस बिंदु पर अपनी निगाह फिक्स सी कर देता, फिर कांशस सा हो कर निगाह को नीचे, मेरे घुटनों तक छलाँग सी लगवा देता। जाने क्यों, मुझे लगता कि जितीन को नहीं, यहाँ तो मुझे ही कुछ हवा लग गई है! मैं ही बहक सी रही हूँ, जितीन हो सकता है बिल्कुल स्वाभाविक तरीके से देख रहा हो मेरी तरफ।
हम उस ऑफिस जा कर डिस्कशन का पहला पार्ट पूरा कर आए। दिल्ली में चीफ मैनेजर को फोन पर अवगत कराती रही मैं - 'सर, यह पार्टी बहुत पॉजिटिव जा रही है। इनकी कालाराडो ब्रांच में तो हमारा ही 'डॉक्यूमेंटम' है ही। बल्कि उनका यहाँ का ऑफिस तो वहाँ कालारडो से काफी बड़ा है। वी आर अप सर...'
चीफ मैनेजर खुश होते - 'ओके सेलीना, कम विद फ्लाइंग कलर्स। दिस इज यूअर फर्स्ट टूर। थम्स अप।'
रोज ऐसे ही होता। हम डिस्कशन टेबल पर होते तो सब के सामने अपने अपने लैपटॉप होते। उधर से कोई भी क्वेरी होती, हम फट से लैपटॉप में उनकी क्वेरी का जवाब खोज कर उन्हें बता देते। कुछ डिटेल वे और माँग रहे थे, सो मैंने वहीं बैठे बैठे उनके लैपटॉप पर ईमेल कर दिए। कुछ बातें बॉस से पूछनी पड़ी सो फोन कर दिया। यहाँ टाइम का भी मामला था। यहाँ मैं रात दस बजे लोकल टाइम पर बैठ जाती अपने रूम में ताकि दिल्ली में हमारा बॉस अपने ऑफिस में सुबह दस बजे हो और वह मुझ से बात कर सके। जरूरत पड़ने पर रात देर तक बॉस से बातचीत चलती रहती और ऐसे तीन दिन बीत गए। बस आखिरी मीटिंग सिर्फ आधे घंटे की थी। उस कंपनी के प्रतिनिधि मि. जेम्स ने कहा उन्हें हमारा प्राडक्ट पसंद है और इस बारे में फर्दर बातचीत चलती रहेगी। हम लोग सक्सेसफुल थे।
और अब मैं फ्री थी सो जैसे अपने ही भीतर घुस गई मैं। तीन चार दिन के हेक्टिक में पता ही ना चलता, मैं हूँ कौन। अब मैं खुद अपने साथ थी और एक शाम कॉरिडोर में यूँ ही आवारा सी टहलते टहलते एक लंबी सी खिड़की से नीचे झाँका मैंने और जाने क्यों, अपने ही शरीर का तूफान अचानक सँभाल से बाहर हो गया। कुछ ऐसे नजारे नीचे ही दिख रहे स्विमिंग पूल पर थे। उसके बाद मुझ से जैसे सब कुछ तेजी से हो गया। लिफ्ट में मैं बीसवीं मंजिल जा रही थी। लिफ्ट से ही मैंने जितीन का नंबर भी मिला लिया, साधिकार बोली - 'मैं आ रही हूँ जितीन, तुम्हारे रूम में थोड़ी देर आ सकती हूँ न?' कहते कहते फिर बदन में आग सी महसूस की मैंने।
- 'ओ श्योर...' जितीन इतनी दिलदार आवाज में बोलता है कि बस...
जितीन के कमरे तक पहुँच गई मैं। जितीन ने दरवाजा खोला और अपने बदन पर तौलिया ठीक से फिट करता बोला - 'ओ माई डार... सॉरी सॉरी आइ मीन ओ सेल! मैं बस अभी आया!'
जितीन जींस में था पर उसकी छाती नंगी थी जिसे उसने तौलिए से ठीक से ढक सा लिया, मेरे फोन करने के बावजूद उसे शायद खयाल ही ना आया था कि वह कम से कम कोई बनियान वनियान तो पहन ले! रास्कल। मुझे अंदर आने दे कर तुरंत बोला - 'बैठो, जस्ट, थोड़ा स्पंच कर लेता हूँ। अभी आया, हम्म!'
- 'ओ के ए ए...' एक लंबा सा लापरवाह ओके कह कर मैंने क्या किया कि उसके बेड पर पीठ फैलाए बड़े प्यासे तरीके से लेट गई, जैसे जितीन को यहाँ रेप करने आई हूँ। मेरे पाँव तो बेड के किनारे से नीचे थे और मेरी पीठ व सिर आदि बेड पर फैले थे। फिर मैंने क्या किया कि जैसे मेरे शरीर के सब के सब अंग अलग अलग हो गए हों, मेरा सर अलग हो, मेरा वक्षस्थल अलग मेरी कमर अलग मेरी जाँघें और पाँव तक अलग, ऐसे, दिमाग की नसों में एक टूटन सी महसूस की मैंने। जैसा दृश्य मैंने नौवीं मंजिल के कारिडर की खिड़की से नीचे एक स्विमिंग पूल में देखा था, वही अधनंगे जोड़े का दृश्य उस टुटन में घुसपैठ सी करने लगा। सोचने लगी कितनी तो आजादी से यहाँ के जोड़े एक दूसरे से लिपट कर सोते हैं, लॉन पर भी... यूँ हिंदुस्तानी तो कभी ना कर सकें, वे तो घर में बीवी के साथ सोएँ तो भी बड़े सतर्क से हो जाएँ। कम से कम औरत तो देखेगी ही कि बाहर घर के कमरों में बाकी सब सो गए कि नहीं। हा हा...। गोलगप्पों का पानी याद आने लगा मुझे... पर फिर जाने क्यों, कोई चीज हड़पने का सा अहसास पाती मुँह में पानी भी आने लगा... खून कर दूँगी अगर गल्त काम किया तो... जब तक जितीन वाशरूम से लौटे तब तक जैसे मैं बहुत विचलित सी होती रही। आखिर क्या किया कि अलग अलग बेडरूम पोजेज में खुद ही लेट लेट कर हथेलियों को आपस में लॉक कर के सिर के नीचे टिकाया और सिर्फ टाँगें पलंग के किनारे से नीचे लटकाए छत की तरफ ताकते ताकते आँखें बंद कर ली। एक आग सी थी जो उस समय लहराने सी लगी थी मेरे बदन में, और सब कुछ हो हवा भी गया! जितीन बार बार बोला था - 'जस्ट, इट इज कैजुअल... टेक इट ईजी' ...मैंने ही इनीशेटिव लिया था, फिर पीछे छिटकी थी, खुद को चंगुल से छुड़ाने की कोशिश की थी, फिर खुद को ही चंगुल में वापस फँसा भी दिया था, पूरी तरह मुक्त होने की कोशिश ईमानदारी से की क्या मैंने... और जितीन अपनी बकवास करता ही रहा - 'जस्ट... इट इज कैजुअल... कैजुअल... आह!' मैं तो ऐसे सरेंडर हो रही थी जैसे मेरी हत्या हो रही हो, कोई औरत मेरा खून कर रही हो उस समय... हालाँकि लग तो मुझे भी रहा था कि मैं कैजुअल का अर्थ समझना चाहती हूँ, पर जब सब कुछ हो हवाने के बाद भी जितीन मेरी गुदाज सी छातियों के साथ अपनी अँगुलियों से खेल रहा था, मैं जाने क्यों अचानक रो पड़ी थी!
किंगफिशर आई टी थ्री थ्री सिक्स में मैं उड़ी जा रही थी और अपने ही भीतर उत्तेजना में जाने क्या का क्या बोलती भी जा रही थी। अनाऊंस्मेंट भी हो गया - 'वी आर लाईक्ली तो लैंड ऐट मुंबई एयरपोर्ट सून... पलीज टाईटेन यूअर सीट बेल्ट्स...' मैं अब तक मन ही मन जितीन से एक युद्ध सा लड़ती रही थी - 'जितीन अगर मैं बहक गई तो तुमने क्यों खुद को नहीं रोका। क्या तुमने मेरा बलात्कार किया, या मैंने तुम्हारा। उफ! बलात्कार। बड़ा ही शर्मनाक शब्द। और मैं क्या का क्या सोचती पहुँच गई दिल्ली से मुंबई।
जितीन उस रेस्तराँ में मेरे सामने था और मैंने उस रेस्तराँ के बड़े से हॉल का मुआयना सा कर के सोच लिया कि हाँ, यही ठीक कॉर्नर है, जहाँ हम बैठे हैं और जहाँ मैं जितीन को हड़प सा सकती हूँ कि जितीन, मेरे मन मस्तिष्क पर जो बोझ उस कैजुअल मूर्खता से ठहर गया है, उसे हटाओ पलीज। मुझ से...'
जितीन के पहले मैं ऑफिस गई थी। वहाँ अपने कैबिन में खूब बिजी था जितीन। बार बार मोबाइल बज रहा था उसका। फिर वह बोला - 'मैं अभी आया सेल।' और उठ कर चला गया। फिर आया। आते आते किसी से मोबाइल पर ही बात कर रहा था - 'हाँ हाँ डार्लिंग, पर अभी ना, कोई आ गया है दिल्ली से। प्लीज, रात को मिलेंगे... हाँ हाँ तुम तब तक मेरी मॉम से बात कर लो डार्लिंग, वह तुम्हें उस मॉल में ले जाएगी, जहाँ से खरीदा था तुमने वो, तुम सिर्फ उसे पिछली बार की रिसीट दिखा देना और कहना कि बस, यह एक आइटम हमें सूट नहीं कर रही, प्लीज चेंज कर दो... ओके?'
यह डार्लिंग है कौन साली?
मैं कुढ़ गई मन ही मन, और करती भी क्या। जितीन तो ऑफिस से निकल कर कार में मेरे साथ था और फिर अमरीका की तरह तफरीह जैसे मूड में आ गया। पर अपनी ही धुन में गाता जा रहा था। कार में कोई स्टीरियो चल पड़ा था, एक पुरानी प्रसिद्ध सी गजल - तुम चले जाओगे तो सोचेंगे, हमने क्या खोया और क्या पाया...'
मेरे मन में दर्द का एक अंधड़ सा उठ पड़ा था। पर जाने क्या था, मैं भी कुछ बोल कहाँ पा रही थी, और जितीन का भी फिलहाल मेरी तरफ ध्यान ही नहीं था! जितीन तो कुछ देर अपनी मम्मी के पास भी ले चला। हीरानंदानी गार्डन की एक बीस मंजिला इमारत। अपनी मॉम से परिचय कराते समय बोला था - 'ये हैं सेल, यानी सेलीना। अमरीका टूर में मेरी बॉस।' फिर उस की मॉम ने कॉफी पिलाई थी, बहुत प्यार किया था मुझे। यहाँ जितीन का कोई पापा नहीं रहता। जितीन ने बताया था, मॉम ने डाईवोर्स ले लिया। पापा को उनकी आजादी पसंद नहीं थी। फिर जितीन अपनी प्यारी सी मॉम जो बात बात में उसकी बलैयाँ ले रही थी को यह बता कर मेरे साथ बाहर आ गया कि आज शाम वह मेरे साथ रहेगा क्योंकि बिजनेस संबंधी कुछ बातें करनी हैं, और कि वह पगली को मॉल में ले जाए। पिछली बार जो नेकलेस पीस उसने लिया था वह उसे पसंद नहीं है, चेंज कराना चाहती है।
मैं मन ही मन केवल कुढ़ कर इतना ही कह पाई - 'पगली। यह भी कोई निकनेम है! पर उस पगली का असली नाम है क्या? जिसे जितीन बार बार डार्लिंग डार्लिंग कहता रहता है। पग्ली! ईडियट नंबर वन।'
उस रेस्तराँ में मैंने चौतरफ उभरते शोर का फायदा उठा कर मेज पर काफी झुक कर जितीन से कहा - जितीन, मैं वह बहकने वाले क्षण भूल नहीं पा रही। पलीज, मेरी मदद करो।' और फिर जैसे जितीन को पत्थर ही मार दिया मैंने - 'प्लीज, मुझ से शादी कर लो अब, तभी, और सिर्फ तभी सामान्य हो पाऊँगी मैं। वर्ना मैं... खुद को मार ही दूँगी वर्ना...'
जितीन ने अचानक मुझे यह कह कर चौंका ही दिया, बोला - 'वहाँ से निकल कर तो हम होटल के बेसमेंट में एक केमिस्ट के पास गए ही थे!'
- 'मैं वो बात कह ही नहीं रही जितीन, कुछ भी नहीं हुआ मुझे।' और मैं कह गई - 'मुझ पर रहम करो जितीन, मैं उस अंधड़ से निकल नहीं पा रही, इतनी संस्कारी बना दी गई थी मैं, अपने स्कूल के दिनों से ही... कि...'
जितीन हाथ ही नहीं आ रहा था, तब अचानक एक पेपर में रैप किए गिलास के अंदर ऊपर उठ रही मिल्क शेक की गुलाबी झाग रूपी तूफान को सिप करते करते मैंने जितीन को घूर कर देखा, जाने क्या कहना चाहती थी मैं उसे, जो शायद मैं खुद भी ना समझ पाई, जैसे मैंने उसी समय वह घूरना आविष्कृत कर लिया हो, क्या उसे धमकी दे रही थी मैं? न न, खुद को ही झुठला दिया मैंने। फिर अपनी आँखों में फैली धमकी को समेट सिर्फ इतना ही बोली - 'अभी तो एक ही महीना हुआ है ना जितीन, हमें क्या पता, कि उस अंधडपन का परिणाम कब और क्या निकलेगा। केमिस्ट लोगों की दवाइयाँ...'
और जितीन बिल पे कर के उठ खड़ा हुआ।
जैसे वह खुद एक अंधड़ में फँस गया था।
और मैं उसे चेतावनी दे कर वापस चली आई इस उम्मीद से कि जल्द ही जितीन मेरी बात मानेगा और मुझे फोन करेगा।
- 'जन्म जन्म का संबंध!' मैं तो हैरान थी और बार बार यह गौर से देख रही थी कि जो शख्स मेरे साथ बहस कर रही थी वह और कोई नहीं, मेरी मॉम ही है, जो कभी कहती थी 'गल्त काम करोगी तो खून कर दूँगी,' अब कह रही थी - 'उस पगली लड़की से वह लड़का जितीन जो तुम बता रही हो, प्रेम करता होगा, जन्म जन्म के संबंध के सपने बुने होंगे दोनों ने, और तुम, इसलिए मुंबई गई कि...'
मैंने तो माँ को सब कुछ ही बता दिया था कि मैं मुंबई गई किसलिए थी, यह सोच कर भी कि वह मेरा खून करती है तो करे। पर मैं चकित थी, बल्कि बेहद चकित, कि माँ उस पगली नाम की लड़की, जिस के बारे में न मैं जानती थी न वह, का संदर्भ दे कर कह रही है कि तुम ईडियट हो सेल बेटी, कभी अगर कुछ हो हवा भी गया तो उसे भूल जाना चाहिए ना! अब तुम उस के पास क्यों गई कि वह तुम से शादी करे...!'
पर जितीन को शादी मुझ से करनी पड़ी।
मैं और जितीन उसी होटल में हनीमून पर आए हैं, यानी फ्लॉरीडा होटल में। संयोग कि फ्लोर तो बीसवाँ ही है, पर अब की बार जैसे परिवर्तन के लिए एक और कमरे में हैं। जितीन निर्वस्त्र सा मेरे सामने लेटा है और मैं भी उस की छाती पर अपनी देह को पूरी एक सर्पिणी सी बनाए उसके गिर्द लिपटी हुई सी हूँ, पर जितीन देखो तो वहाँ है ही नहीं। और हनीमून ऐसे ही, अनमने से ही खत्म भी हो गया। हम कुछ ही दिन बाद हीरानंदानी गार्डन में थे। पर अचानक एक दिन फोन पर जितीन की मॉम कोई बात सुन कर सहसा चीख सा पड़ी, और बिफर बिफर कर रोने लगी। जितीन उस के पास गया - 'क्या हुआ है मॉम!'
मॉम अपने आप को सँभाल नहीं पा रही थी, पर उठ कर जितीन के ही सीने का सहारा ले कर उस के कंधे पर उसने अपना सिर रख दिया, बोली - 'उस पगली ने... ईडियट... मैंने उसे बहुत समझा समझा कर कहा था कि जितीन मजबूर था और वह अपना जन्म जन्म का प्यार कुर्बानी की तरह खत्म कर दे... जहाँ कोई रिश्ता खत्म हो वहाँ जिंदगी खत्म नहीं हो जाती... उसने...'
मैं अवाक थी। सोच रही थी, किसने गलत किया? उसने? या मैंने? और उसके बाद कई दिन तक एक निस्तब्धता सी मेरे चेहरे पर छाई रही। जितीन भी खोया खोया सा रहा। जिंदगी चल तो पड़ी थी, पर सोचने के लिए बहुत कुछ छोड़ गई थी, जो एक और ईडियट बच गई थी, उसके लिए।
उसकी समझ से सचमुच, सब कुछ परे था!