दो कंगनाओं के बीच फंसा माधवन / जयप्रकाश चौकसे

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दो कंगनाओं के बीच फंसा माधवन
प्रकाशन तिथि :13 मई 2015


'तनु वेड्स मनु' में नायक आर. माधवन ने प्रभावोत्पादक अभिनय किया था। नायिका प्रधान फिल्म में नायक के लिए कम अवसर होते हैं परंतु सक्षम कलाकार अपनी छाप छोड़ जाते हैं। ऋषि कपूर ने सबसे अधिक नायिका प्रधान फिल्मों में काम किया है परंतु सभी में अपना असर दर्ज किया है। मसलन, उसके पिता की 'प्रेमरोग' में उसका एक दृश्य शम्मी कपूर के साथ है जब वह उनसे अपनी प्रेमकथा के उजागर होने के बाद मिलता है। वह जमींदार शम्मी कपूर की सहायता से महानगर से शिक्षा प्राप्त करके आया है और इसी शिक्षा के शस्त्र से वह अपने आर्थिक संरक्षक के दोहरे मानदंड पर आक्रमण करता है। वह उनकी विधवा लाड़ली भतीजी से प्रेम करता है और जमींदार प्रस्ताव रखता है कि वह उनकी कन्या को लेकर भाग जाए तो वे कुछ दिन रोकर संतोष कर लेंगे कि कलमुंही भाग गई परंतु सरेआम विधवा का विवाह नहीं कर सकते। नायक इनकार करता है कि यह एक विधवा की बात नहीं है, पूरे समाज को विधवा विवाह की बात माननी होगी, अत: वह जमींदार के आशीर्वाद से सबके सामने विवाह करके सड़ी-गली रीतियों के खिलाफ अपना धर्मयुद्ध लड़ना चाहता है। इसी तरह राजकुमार संतोषी की नायिका प्रधान 'दामिनी' में भी अदालत के दृश्य में वह छा जाता है। यश चोपड़ा की 'चांदनी' में श्रीदेवी जैसी निष्णात कलाकार के सामने वह अपना प्रभाव छोड़ता है। संजीव कुमार ने भी नायिका प्रधान फिल्मों में अपना वर्चस्व कायम रखा है। गुलजार की 'नमकीन' में वे तीन सशक्त महिला पात्रों के बावजूद अपनी छाप छोड़ते हैं।

प्राय: नायिका केंद्रित फिल्मों में फिल्मकार भी केंद्रीय पात्र पर अधिक ध्यान देता है। आनंद राय की तनु भी अजब-गजब पात्र था और पटकथा तथा निर्देशक के पक्षपात के बावजूद आर. माधवन ने अपनी जमीन नहीं छोड़ी। अब 'तनु वेड्स मनु' के भाग दो में दो नायिकाओं के बीच आर. माधवन फंसा है और उस पर कयामत यह कि तनु अर्थात कंगना अब महज तनु नहीं वह अभिनय के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली 'क्वीन' है। अब वह अपने काम की बेहतर समझ रखती है। अत: बेचारा आर. माधवन इस 'क्वीन' का महज 'दरबारी' होकर रह सकता है। फिल्म में उसके संवाद भी अपेक्षाकृत कम है। अत: उसे अपनी पहचान बनाए रखने के लिए केवल अपनी प्रतिभा का भरोसा है। एक बड़ा दर्शक वर्ग कंगना का दीवाना है। अत: कंगना अपने घरेलू मैदान पर अपनी भीड़ के बीच नए ताप से प्रस्तुत है। उसकी प्रतिभा से दक्षिण भारत के दर्शक अधिक परिचित हैं और उम्मीद है कि वह अपनी मौजूदगी अवश्य दर्ज कराएगा।

भारत एक वाचाल देश है, यहां खामोशी की ताकत से लोग अपरिचित से हैं। यहां ईश्वर की प्रार्थना भी सस्वर ही की जाती है। इसलिए हमारे सिनेमा में संवाद का बहुत अधिक महत्व है। 'शोले' के बाद ताली पड़ने वाले संवाद पूरी ताकत से लिखे जाते हैं और पटकथा में गुंजाइश न भी हो तो भी संवाद अधिक होते हैं। ध्वनि के दशक में सारी पटकथाएं अंग्रेजी में लिखी जाती थी और एक मुंशीनुमा हिंदी के जानकार को संवाद के अनुवाद के लिए रखा जाता था। फिर ऐसा दौर आया जब संवाद लेखक अपनी हस्ती साबित करने के लिए पटकथा के अर्थ के परे जाकर संवाद लिखने लगा। उसे निर्माता को भी 'प्रतिभा' दिखानी थी ताकि उसका मेहनताना अधिक किया जाए। किसी भी देश के सिनेमा में संवाद लेखक की श्रेणी नहीं है। सब जगह संवाद और पटकथा अविभाज्य हैं।

हमारे देश में प्राय: राजनीतिक शक्ति के भी दो केंद्र है। दल की नीतियों और सरकार की नीतियों में प्राय: द्वंद्व रहता है। समाज में भी दोहरे मानदंड हैं। अत: फिल्म लेखन में शक्ति के दो केंद्र कोई आश्चर्यजनक नहीं है। देश में अनेक लेखक ऐसे हुए हैं, जो कथा-पटकथा और संवाद अकेले ही लिखते थे परंतु दक्षिण भारत में हिंदुस्तानी में बनने वाली फिल्मों में संवाद लेखक राजेंद्र कृष्ण का दबदबा नायक से भी अधिक होता था। विगत दो दशकों में तो ताली पीटे जाने वाले संवाद का विशेष महत्व हो गया है। इस सारे खेल में भारी गलतियां होती हैं। मसलन, 'हारी हुई बाजी को जीत में बदलने वाले को बाजीगर कहते हैं,' जबकि बाजीगर महज ट्रिक्स दिखाता है। बहरहाल, इन हालात में बेचारे माधवन के पास संवाद ही कम हैं परंतु प्रतिभा का सिक्का जमाने का यह बेहतर अवसर है कि हारने वाले खेल को जीत में बदलना है।