दो दिलों की दो राहें / कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
“कितने बजे पहुँचोगी स्टेशन?” रुद्रांश ने सीधा सा सवाल पूछा.
क्यों, मिलने की बहुत जल्दी है? ट्रेन के समय पर ही पहुंचेंगे.” उधर से अनामिका ने खिलखिलाते हुए उसकी बात का जवाब दिया. दोनों तरफ से फिर हलकी-फुलकी नोंक-झोंक होते हुए बात समाप्त हुई.
ट्रेन अपनी स्पीड से दौड़ी जा रही थी. दोनों का दिल भी उसी तेजी से धड़क रहा था. उनका दिल कर रहा था कि ये सफ़र कभी ख़तम न हो, बस ऐसे ही चलता रहे और वे दोनों भी साथ चलते रहें. उनके चाहने से क्या होना था क्योंकि न तो समय को उन दोनों के लिए रुकना था और न ही ट्रेन को. समय ने तो जैसे उनका साथ ही नहीं दिया. किसी न किसी रूप में उनको बंधन में बाँधे रखा था, जिसके चलते वे दोनों कभी एकदूसरे से अपने दिल की बात न कह सके. आज दोनों के पास उतना ही समय था, जितना कि उस यात्रा ने दे रखा था. इसको वे दोनों पूरी आज़ादी से बिताना चाह रहे थे, बिता भी रहे थे.
अनामिका रुद्रांश के साथ अकेले यात्रा कर रही थी. अकेले क्या, अनामिका पहली बार रुद्रांश के साथ किसी यात्रा पर थी. उस छोटे से शहर में जहाँ ‘लोग क्या कहेंगे’ का संकोच होने के कारण अनामिका कभी भी रुद्रांश के साथ न पैदल घूमने निकली न कभी उसकी बाइक पर. ऐसा नहीं कि रुद्रांश ने कभी अनामिका से नहीं कहा साथ चलने को या ऐसा भी नहीं कि अनामिका का मन न हुआ उसके साथ घूमने को मगर अपनी सीमाओं के कारण वे दोनों कभी एकसाथ अपने ही शहर की गलियों में, सड़कों पर न टहल सके.
“चाय पियोगी या कोल्ड ड्रिंक?” कोच में आये वेंडर को देखकर रुद्रांश ने उससे पूछा.
“कुछ भी, जो तुम्हारा मन हो वही पी लेंगे.” अनामिका ने अपनी पसंद भी रुद्रांश की पसंद से जोड़ दी.
“हमारा मन तो कुछ और पीने का रहता है और वो यहाँ मिलेगा नहीं. तुम भी पियोगी?” कहते हुए रुद्रांश हँस दिया.
अनामिका ने मुँह बिचकाते हुए उसके चेहरे पर पंच मारने का भाव दिखाया. “फिर पी लो, जो पीना हो. हमसे क्यों पूछ रहे. हमें न पीना कुछ, न तुम्हारी चाय न कोल्ड ड्रिंक.”
“अरे, गुस्सा न हो. चाय ही पीते हैं.” कहते हुए रुद्रांश ने दो चाय का आर्डर दिया.
“हमें न पीनी. तुम ही पी लो दोनों कप.” अनामिका मुँह फेर कर बैठी गई.
रुद्रांश ने मुस्कुराते हुए एक कप अनामिका की तरफ बढ़ा दिया. उसने बनावटी गुस्सा दिखाते हुए रुद्रांश के हाथ से कप लेकर होंठों से लगा लिया.
“वैसे चाय जैसा स्वाद तो नहीं होता है बीयर में.” रुद्रांश ने कहते हुए जीभ अपने होंठों पर फिराई.
अनामिका ने आँखें तरेरते हुए उसे देखा. “फिर शुरू हो गए.”
रुद्रांश ठहाका लगाते हुए चुपचाप चाय पीने लगा.
“क्या राक्षसों जैसे हो-हो-हो करने लगते हो.” अनामिका ने भी उसके हँसने की नक़ल उतारी.
ऐसा ही हल्का-फुल्का हँसी-मजाक दोनों के बीच ऑफिस में भी चलता रहता था. वे दोनों एकदूसरे को पसंद करने के बाद भी अपनी भावनाओं का इजहार नहीं कर पाये थे या ऐसा करने से बचते रहे थे. दोनों तरफ किसी न किसी तरह के बंधन स्पष्ट रूप से उनको रोकने का काम करते.
पूरे सफ़र के दौरान कई बार रुद्रांश के मन में आया कि अनामिका से अपने दिल की बात कह दे मगर वह समझता था कि अब इसका कोई अर्थ नहीं. अब तो सामाजिक परम्पराओं, रीति-रिवाजों ने भी उन दोनों के पैरों में बंधन बाँध दिए थे. उसके साथ यात्रा कर रही, हँसती अनामिका उसके साथ होकर भी उसकी न थी. उसके पास होकर भी उससे बहुत दूर थी. आँखें बंद कर उसने अपना सिर सीट पर पीछे की ओर टिका लिया.
“क्या हुआ? क्या सोचने लगे?”
रुद्रांश ने अनामिका के सवालों का जवाब देने के बजाय आँखें खोले बिना ख़ामोशी से अपनी हथेलियों के बीच अनामिका की हथेली को थाम लिया. अनामिका ने महसूस किया जैसे वह अपने आगोश में उसे छिपाने की कोशिश कर रहा हो. ट्रेन की रफ़्तार भरे शोर के बीच भी दोनों एकदूसरे के दिल की धड़कन को सुन पा रहे थे. ऐसा लग रहा था जैसे पूरे कोच में नितांत ख़ामोशी के बीच सिर्फ वही दोनों हैं. अनामिका ने अपनी दूसरी हथेली रुद्रांश के हाथ पर रखते हुए अपना सिर उसके कंधे पर टिका आँखें बंद कर लीं.
एकदूसरे के जज्बातों को वे दोनों ही समझ रहे थे. उनके बीच का मौन वार्तालाप ही सबकुछ कह रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे दोनों के दिल आपस में अपने दिल की बात कर रहे हों. इससे पहले की दोनों की मौन भावनाएँ आँखों के रास्ते से बाहर आ जाएँ रुद्रांश ने शरारत से अनामिका को छेड़ते हुए उसके कान में धीरे से कहा “वो महिला सोच रही होगी कि ये कैसी लड़की इसके साथ बैठी है. जरा भी मैच नहीं कर रही.”
अनामिका ने आँखें खोलकर देखा तो सामने बैठी एक महिला को अपनी ओर ताकते पाया. उसने कोहनी मारते हुए बनावटी गुस्सा दिखाया, “तो उसी के बगल में बैठ जाओ. खुद को ज्यादा स्मार्ट न समझो.”
दोनों एकदूसरे की तरफ देख मुस्कुरा दिए. रास्ते भर कभी संवेदित होते, कभी भावनाओं में बहते हुए, कभी हास-परिहास करते, कभी दिल की बात कहते-कहते रुकते, कभी एकदूसरे को छेड़ते कब वे अपने शहर के प्लेटफ़ॉर्म पर खड़े थे, उन्हें पता ही न चला. शाम गहराकर रात में बदलने वाली थी. सडकों को अँधेरे ने घेरना शुरू कर दिया था.
“हमारे साथ चलो रिक्शे से. पहले तुमको घर छोड़ देते हैं.” रुद्रांश ने कहा.
“न, न, मैं चली जाऊँगी. लोग देखेंगे एकसाथ तो न जाने क्या कहें. अब तो और भी कहेंगे.” संकोच अनामिका के शब्दों में स्पष्ट झलक रहा था.
दोनों ख़ामोशी के साथ अपरिचितों की तरह बाहर निकले. रुद्रांश का रिक्शा कुछ दूरी बनाकर अनामिका के रिक्शे के पीछे तब तक चलता रहा जब तक कि वह सुरक्षित अपने घर न उतर गई.
छोटे से शहर के बड़े से अनजाने भय में दो दिल अलग-अलग चलते रहे. अलग-अलग चलते चले गए.