दो दूना पाँच / सुशांत सुप्रिय

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कैसा समय है यह
जब भेड़ियों ने हथिया ली हैं
 सारी मशालें
और हम निहत्थे खड़े हैं ...

जैसे पहाड़ से एक बहुत बड़ा पत्थर तेज़ी से लुढ़कता हुआ सीधा उन्हीं की ओर आ रहा था। जैसे समुद्र में उठी एक दैत्याकार सुनामी लहर बहुत तेज़ी से दौड़ती हुई सीधी उन्हीं की ओर आ रही थी। प्रकाश के पिता कुँवर प्रताप को उस पल ठीक ऐसा महसूस हुआ।

" तमाम सबूतों और गवाहों के बयानों की रोशनी में मुल्ज़िम प्रकाश पर लगाए गए सारे इल्ज़ाम सही साबित हो गए हैं। मुल्ज़िम प्रकाश ने जो अपराध किया है वह जघन्य है। यह अदालत उसे दोषी क़रार देती है। मुल्ज़िम प्रकाश के इस कुकृत्य ने इंसानियत को शर्मसार कर दिया है। अदालत का मानना है कि यह अपराध 'रेयरेस्ट ऑफ़ द रेयर' श्रेणी के अंतर्गत आता है। लिहाज़ा यह अदालत मुल्ज़िम प्रकाश वल्द कुँवर प्रताप को ताज़ीरात-ए-हिंद की दफ़ा 302 के तहत फाँसी की सज़ा सुनाती है। ही इज़ टु बी हैंग्ड टिल ही इज़ डेड। " सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जज जस्टिस राममूर्ति की भारी आवाज़ अदालत में गूँज रही थी।

जैसे ख़राब मौसम में बीच मैदान में खड़े ऊँचे दरख़्त पर अचानक बिजली गिर जाती है, प्रकाश के पिता कुँवर प्रताप के लिए वह ठीक ऐसा ही पल था ...

बरसों पहले बहुत पूजा-पाठ, मन्नतों और डॉक्टरों के खूब चक्कर लगाने के बाद कुँवर प्रताप राय की पत्नी जानकी देवी ने एक लड़के को जन्म दिया था।

"आख़िर हमें हमारे कुल का दीपक मिल ही गया।" कुँवर प्रताप ने शिशु को पहली बार गोद में उठाते हुए गर्व से कहा था।

कुँवर प्रताप राय ज़मींदार घराने से थे। उनके पिता कुँवर अखिलेश राय को अंग्रेज़ों ने 'राय साहब' का ख़िताब दिया था। इलाक़े के दर्जनों गाँवों के बाशिंदे उनकी रियाया थे। दर्जनों कुएँ, तालाब, मंदिर और सैकड़ों बीघे ज़मीन उनकी सम्पत्ति थी। उनके दरवाज़े पर हाथी बँधे होते थे और उनके अस्तबल में ख़ास अरबी नस्ल के घोड़े थे। उनके लठैतों और बंदूकधारियों से पूरा इलाक़ा थर्राता था। कुँवर प्रताप राय को यह सब सामंती विरासत में मिला था। हालाँकि क़ानूनी तौर पर ज़मींदारी उनके पिता के समय में ही छिन चुकी थी लेकिन पुरानी ठसक अब भी मौजूद थी।

कुँवर प्रताप ने शिशु का नाम रखा—प्रकाश।

कुँवर प्रकाश राय।

लेकिन जब प्रकाश नौवीं कक्षा में पढ़ता था तब एक बार शहर के किसी सहपाठी से झगड़ा हो जाने पर उसने अपने पिता का रिवाल्वर स्कूल में ले जा कर उस छात्र के सीने पर तान दिया था।

"तूने ऐसा क्यों किया?" अपने रसूख़ के बल पर मामला रफ़ा-दफ़ा करवा लेने के बाद बाप ने बेटे से पूछा था।

"पापा, वह स्साला हम से बराबरी करना चाहता था। कुँवर प्रताप राय के बेटे से! मास्टर की औलाद!" प्रकाश ने घृणा और ग़ुस्से से कहा था।

जब प्रकाश दसवीं कक्षा में पहुँचा तो कुँवर प्रताप राय ने बेटे को हीरो-होंडा बाइक गिफ़्ट में दी। मोटरसाइकिल पा कर प्रकाश फूला नहीं समाया। एकाध साल के भीतर ही उसने अपना एक बाइक-गैंग बना लिया जिसमें इलाक़े के बाहुबली लोगों के लड़के शामिल थे। शहर की लड़कियों को छेड़ना और उन्हें आतंकित करना

इन लफ़ंगों का प्रिय शग़ल था। प्रकाश और उसके साथी कभी राह चलती किसी लड़की को छेड़कर सर्र से निकल जाते, कभी किसी बेख़बर लड़की की चुन्नी खींच कर उड़न-छू हो जाते। कभी-कभी 'हाइ' फ़ील करने के लिए ये बिगड़े हुए लड़के राह चलती किसी महिला के गले से उसकी सोने की चेन भी खींच लेते। इस तरह धीरे-धीरे प्रकाश अपराध की दुनिया की ओर क़दम बढ़ाने लगा था। लेकिन यदि कभी बात बढ़ जाती और पुलिस-थाने की नौबत आ जाती तो इन लड़कों के प्रभावशाली बाप मामले को रफ़ा-दफ़ा कराने में कोई कसर नहीं छोड़ते।

कॉलेज में दाख़िला लेने के बाद प्रकाश बेलगाम घोड़े-सा हो गया। कुँवर प्रताप राय ने अपना सारा पुश्तैनी धन शहर में बड़े-बड़े मॉल्स, मल्टीप्लेक्सेज़ और होटल ख़रीदने में लगा दिया था। वे अपने कारोबार में व्यस्त थे। घर पर भी कई बार बाप-बेटे की मुलाक़ात कई-कई दिनों तक नहीं होती। किसी दिन कुँवर साहब अपनी मर्सिडीज़ में रात में देर से घर लौटते, किसी दिन प्रकाश अपने दोस्तों के साथ पार्टियों या डिस्कोथेक में मस्त होता।

इस बीच एक नए ही क़िस्म के इंडिया की नींव रखी जा चुकी थी। चारो ओर विदेशी पूँजी की नायाब फ़सल उगी हुई थी ... चमचमाते मॉल्स थे। मल्टीप्लेक्सेज़ थे। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ थीं। कॉल-सेंटर्स थे। शो-विंडोज़ में सजे-धजे मैनेक्विन्स थे। शीशे वाली लिफ़्ट्स थीं। बाज़ार की चकाचौंध थी। समूचे बाज़ार को ख़रीद कर अपनी अट्टालिकाओं में भर लेने को बेताब नव-धनाढ्य लोग थे और हर जायज़-नाजायज़ तरीके अपना कर किसी तरह जीवन में करोड़पति और 'सफल' बनने की ऐसे लोगों की तेज़ भूख थी।

एक ओर सेंसेक्स की भारी उछाल थी। दूसरी ओर भारत के करोड़ो भूखे-नंगे ग़रीब किसानों और मज़दूरों की झुग्गी-झोंपड़ियाँ थीं। इनके दुख-दर्द जीवन से बढ़ कर थे। इन्हें-इन्हें दो वक़्त की रोटी भी नसीब नहीं थी। इनके बच्चे कुपोषण और अकाल-मृत्यु के शिकार थे। इस नए क़िस्म के इंडिया में इनके लिए कोई जगह नहीं थी।

प्रकाश इस नए क़िस्म के इंडिया का होनहार सपूत था। उसके पास लेटेस्ट मोबाइल फ़ोन, लैप-टॉप, पॉम टॉप, आइ पॉड, आइ-पैड और न जाने क्या-क्या गिज़्मोज़ थे। उसके पास रीड ऐंड टेलर के सूट थे। वैन ह्यूसेन और ज़ोडिएक की क़मीज़ें थीं। बेनेटन और लेवीज़ की जीन्स थीं। रे-बैन के सन-गलासेज़ थे। वुडलैंड के जूते थे और टोयोटा लैंडक्रूज़र एस. यू. वी. गाड़ी थी। उसके पास यह सब था लेकिन मूल्य नहीं थे, आदर्श नहीं थे, संवेदना नहीं थी, इंसानियत नहीं थी। यह वह युग था जब हर रात टी. वी. पर अधिकांश चैनल 'रियलिटी शोज़' के नाम पर दर्शकों के लिए धड़ल्ले से बेहूदगी परोस रहे थे। एक साथ कई पीढ़ियों के संस्कारों को नष्ट करने का कुत्सित खेल खेला जा रहा था। टी. आर. पी. बढ़ाने की अंधी दौड़ में हर रात एक प्राचीन सभ्यता और संस्कृति का गला रेता जा रहा था।

उन दिनों कॉलेज के महात्मा गाँधी सभागार में यूथ-फ़ेस्टिवल चल रहा था। उस शाम कविता-पाठ का आयोजन किया गया था। मुख्य अतिथि के रूप में वरिष्ठ कवि, रंगकर्मी और समाज-सेवक अकबर हाशमी जी मंच पर आसीन थे। उनके उदात्त और धर्म-निरपेक्ष विचारों से कौन नहीं अवगत था। कट्टरपंथी ताक़तें उनके विरुद्ध लामबंद हो रही थीं। बाद में माफ़िया और गुंडों ने उनकी निर्मम हत्या भी कर दी। किंतु उस शाम मंच पर आसीन अक़बर हाशमी एक व्यक्ति नहीं, संस्था लग रहे थे। रोशन विचारों के प्रखर सूर्य लग रहे थे:

" ... अब दिन

निर्जन द्वीप पर पड़ी

ख़ाली सीपियों-से

लगने लगे हैं

और रातें

एबोला वायरस के

रोगियों-सी

क्या आइनों में ही

कोई नुक़्स आ गया है

कि समय की छवि

इतनी विकृत लगने लगी है ... "

काव्य-पाठ ज़ोरों पर था। अच्छी कविताओं को खूब सराहा जा रहा था।

" ... कैसा समय है यह

जब भेड़ियों ने हथिया ली हैं

सारी मशालें और हम

निहत्थे खड़े हैं

कैसा समय है यह

जब भरी दुपहरी में

घुप्प अँधेरा है

जब भीतर भरा है

एक अकुलाया शोर

जब अयोध्या से बामियान तक

ईराक़ से अफ़ग़ानिस्तान तक

बौने लोग डाल रहे हैं

लम्बी परछाइयाँ ... "

तभी ऑडिटोरियम के बाहर नारेबाज़ी का शोर सुनाई दिया। देखते-ही-देखते प्रकाश के नेतृत्व में पंद्रह-बीस गुंडा तत्व सभागार में दाख़िल हो गए. उनके हाथों में हॉकी-स्टिक्स, सरिये और साइकिल की चेनें थीं। वे कॉलेज द्वारा अकबर हाशमी जी को इस काव्य-संध्या का मुख्य अतिथि बनाए जाने का विरोध कर रहे थे। कुछ ही पलों में वे गुंडे तोड़-फोड़ और मार-पीट पर उतारू हो गए. भगदड़ मच गई. कई छात्र-छात्राओं के सिर फूट गए। कइयों की बाँह टूट गई. कुछ छात्र-कार्यकर्ता बड़ी मुश्किल से मंच के पिछली ओर के दरवाज़े से अकबर हाशमी जी को बचा ले गए।

लेकिन इतनी बड़ी घटना के बाद भी प्रकाश और उसके गुंडा साथियों का बाल भी बाँका न हुआ। कॉलेज प्रशासन ने उन्हें केवल चेतावनी देकर छोड़ दिया। यह आज़ाद भारत का दुर्भाग्य ही था कि गुंडा तत्वों के आका उच्च पदों पर आसीन थे। असामाजिक तत्वों को संरक्षण प्राप्त था। सच्ची बात कहने वाले को जान से मार दिया जाता था। सही बात कहने वाले लेखकों की किताबों पर पाबंदी लगा दी जाती थी। अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनने वाले साहित्यकारों और कलाकारों को देश-निकाले का दर्द झेलना पड़ता था।

जल्दी ही प्रकाश कॉलेज का 'दादा' बन गया। इस बार प्रकाश और उसके गैंग ने जूनियर्स की रैगिंग करते समय ऐसे-ऐसे हथकंडे अपनाए कि 'गुलाल' फ़िल्म में दिखाए गए रैगिंग के हथकंडे भी उनके सामने फीके पड़ गए. मारे डर, अपमान और पीड़ा के कई छात्र-छात्राओं ने कॉलेज छोड़ दिया। एक छात्र ने इस मानसिक यातना से पीड़ित हो कर आत्महत्या तक करने की कोशिश की। कॉलेज के शिक्षकों ने भी गुंडों के डर से चुप्पी साध ली।

"हम सब घर-परिवार, बाल-बच्चे वाले हैं। इन गुंडों के मुँह कौन लगे। इनकी पहुँच ऊपर तक है।" लोग दबी ज़बान में एक-दूसरे से कहते।

कुछ पीड़ित छात्र-छात्राओं के अभिभावकों ने इन गुंडों के विरुद्ध शिकायत करने की भूल की। उन्हें शायद पता नहीं था कि कॉलेज की मैनेजिंग कमेटी के ज़्यादातर सदस्य प्रकाश और उसके गिरोह के अन्य लड़कों के प्रभावशाली पिता लोगों की जेब में थे। ज़ाहिर है, सभी मामले रफ़ा-दफ़ा कर दिए गए।

इस बीच प्रकाश के पिता कुँवर प्रताप राय नगर-निगम के महापौर भी बन गए थे। उनका क़द कुछ और बढ़ गया था। उनकी नाक कुछ और खड़ी हो गई थी।

यह उन्हीं दिनों की बात थी। हुआ यह कि प्रकाश को कॉलेज में पढ़ने वाली एक लड़की निशा पर 'क्रश' हो गया। अब यह तो कहीं लिखा नहीं था कि गुंडों को किसी लड़की को चाहने का अधिकार नहीं होता। लेकिन शरीफ़ घराने की कोई लड़की किसी गुंडे को लिफ़्ट दे, ऐसा भी नहीं सुना जाता।

लिहाज़ा प्रकाश को ग़ुस्सा आ गया। ग़ुस्सा उसका ख़ानदानी हथियार था।

कहते हैं कि एक बार शिकार पर गए प्रकाश के परदादा के पालतू कुत्ते शेरा को किसी चीते ने मार डाला। चीते की इस धृष्टता से प्रकाश के परदादा इतने ख़फ़ा हुए थे कि उन्होंने एक हफ़्ते के भीतर सौ चीतों का सफ़ाया कर दिया था। भारत में चीतों की प्रजाति के विलुप्त हो जाने के पीछे नि: संदेह प्रकाश के परदादा की मुख्य भूमिका रही होगी।

प्रकाश के दादा का ग़ुस्सा भी किंवदंतियों का विषय बन गया था। हुआ यह था कि एक बार प्रकाश के दादा किसी काम से कोर्ट-कचहरी जाने के लिए निकले ही थ कि एक कौए ने उनके सिर पर बीट कर दी। इस वाहियात हरकत से प्रकाश के दादा इतने नाराज़ हुए कि अपनी दुनाली ले कर वे कौओं के ख़ून के प्यासे हो गए. बताया जाता है कि उन्होंने अंजुलि में गंगा-जल ले कर यह शपथ ली कि वे पूरी पृथ्वी को सात बार काग-विहीन कर देंगे। पुराने लोग बताते हैं कि एक ही हफ़्ते में उन्होंने इलाक़े के तक़रीबन एक हज़ार कौए मार गिराए थे। कहते हैं कि इलाक़े का कोई भी ऐसा काग-परिवार नहीं बचा था जिसका कम-से-कम एक सदस्य इस काग-संहार में मारा न गया हो। कई काग-परिवारों की तो तीन-तीन पीढ़ियाँ प्रकाश के दादा के ग़ुस्से की बलि चढ़ गई थीं। पता नहीं इस बात में कितना दम है, किंतु लोक-कथाएँ ऐसे ही तो बनती हैं।

प्रकाश के पिता कुँवर प्रताप राय का ग़ुस्सा भी जग-प्रसिद्ध था। बचपन में एक बार एक बंदर ने उनके हाथ से केला छीन लिया था। उन्होंने भी क़सम खाई कि वे उस इलाक़े से बंदरों को खदेड़ कर ही दम लेंगे। बड़े हो कर उन्होंने इलाक़े में काले मुँह वाले लंगूरों को बड़ी संख्या में ला कर छोड़ दिया। धीरे-धीरे इन लंगूरों ने बंदरों को उस इलाक़े से ही भगा दिया।

ऐसे ग़ुस्सैल ख़ानदान का चिराग़ था प्रकाश। इसलिए जब निशा ने उसे 'लिफ़्ट' नहीं दी तो उसे ग़ुस्सा आ गया। लेकिन यह क्रोध ऐसा भयावह रूप ले लेगा इसकी कल्पना तो प्रकाश के पिता कुँवर प्रताप राय ने भी नहीं की थी।

एक दिन जब प्रकाश ने निशा से बदतमीज़ी करने की कोशिश की तो निशा ने उसे थप्पड़ जड़ दिया। प्रकाश आग-बबूला हो गया। उसी शाम जब निशा बाज़ार जा रही थी, प्रकाश अपने गिरोह के साथ बाइक पर आया और चलती मोटर-साइकिल से निशा के मुँह पर एसिड फेंक कर निकल भागा। ख़ुशक़िस्मती से प्रकाश का निशाना चूक गया। निशा ने अपने हाथ बचाव की मुद्रा में उठा लिए थे और अपना चेहरा पीछे झुका लिया था। इसलिए उसका चेहरा बच गया और एसिड का सारा वार उसके हाथों ने झेला। दर्द से तड़पती निशा को लोग अस्पताल ले गए।

यह एक गम्भीर मामला था। लेकिन कुँवर प्रताप राय ने फ़ौरन बेटे को उसके ननिहाल भेज दिया। कई झूठे गवाह तैयार कर लिये गए जिन्होंने इस मामले में गवाही दी कि इस घटना वाले दिन प्रकाश शहर में था ही नहीं क्योंकि वह तो दो दिन पहले ही अपने ननिहाल चला गया था।

कुँवर प्रताप राय के पास रुतबा था, रसूख़ था, दौलत थी। लिहाज़ा प्रकाश एक बार फिर बच निकला। कुँवर प्रताप राय ने बेटे को सावधान रहने की सलाह दी।

अगले कुछ महीने प्रकाश ने 'लो-प्रोफ़ाइल' रहने की कोशिश की। लेकिन लम्पट जवानी के भड़कीले शोले को भला कौन रोक सकता है।

कुछ ही महीने बाद प्रकाश और उसके कुछ मित्र अपनी-अपनी गर्ल-फ़्रेंड्स के साथ 'सरिस्का' में बाघ देखने के बहाने गए. लेकिन वहाँ उन्होंने दो 'ब्लैक बक' (हिरण की एक प्रजाति) का अवैध रूप से शिकार करके उन्हें मार डाला। शहर के एक खोजी पत्रकार को इसकी भनक लग गई. 'ब्लैक बक' संरक्षित जीव थे। मामला तूल पकड़ने लगा। लेकिन लड़कों के बाप किस मर्ज़ की दवा थे। हर स्तर पर कुछ दे-दिला कर किसी तरह इस मामले को भी दबा दिया गया।

लेकिन यह सब तो केवल 'ट्रेलर' था। 'हॉरर मूवी' तो अभी बाक़ी थी।

एक बार देर रात अपने मित्रो के साथ किसी पार्टी में मौज-मस्ती करने के बाद प्रकाश अपनी टोयोटा-लैंडक्रूज़र में घर लौट रहा था। लोगों का कहना है कि नशे की हालत में उसने अंधाधुंध गाड़ी चलाते हुए फुटपाथ पर सो रहे कुछ ग़रीब मज़दूरों पर अपनी गाड़ी चढ़ा दी। इस हादसे में छह-सात मज़दूर मौक़े पर ही दम तोड़ गए. प्रकाश अपनी गाड़ी घटना-स्थल से ले कर भाग खड़ा हुआ। कई घायल मज़दूर वहाँ ख़ून से लथपथ कराहते-छटपटाते रहे। उन में से कुछ और ने भी बाद में अस्पताल मेंअंतिम साँसें लीं।

पुलिस ने प्रकाश को गिरफ़्तार कर लिया। लेकिन कुछ दिन जेल में रहने के बाद ही प्रकाश ज़मानत पर रिहा हो गया। कुँवर प्रताप राय के पास दौलत थी, रुतबा था। उनका मानना था कि हर कोई बिकाऊ होता है। लेकिन हर आदमी की क़ीमत अलग-अलग होती है। केवल सही बोली लगाने वाला होना चाहिए. लिहाज़ा उन्होंने अपनी तिजोरी का मुँह खोल कर गवाहों को ख़रीद लिया। दूसरी ओर उनके पास अच्छे वकीलों की एक पूरी फ़ौज तैयार थी जिन्होंने अदालत में यह साबित कर दिया कि दरअसल इस हादसे के समय प्रकाश गाड़ी चला ही नहीं रहा था। वह तो साथ वाली सीट पर बैठा मात्र था। जबकि उस समय गाड़ी तो प्रकाश का ड्राइवर चला रहा था। इस तरह प्रकाश को एक बार फिर बचा लिया गया। दौलतमंद और बाहुबली लोगों की बिगड़ी औलादों की रैश-ड्राइविंग से यदि कई ग़रीब मज़दूर मर भी जाते थे तो क्या हुआ? आख़िर आज़ाद भारत में ग़रीब मज़दूरों की औक़ात ही क्या थी? कीड़े-मकोड़ों से ज़्यादा थोड़े ही समझी जाती थी उनके जीवन की क़ीमत!

प्रकाश बच गया लेकिन वह कहाँ सुधरने वाला था। जल्दी ही उसकी दोस्ती अंडरवर्ल्ड के कुछ लोगों से हो गई जो सुपारी ले कर हत्याएँ करते थे। उसने उनसे एक ए. के. 47 राइफ़ल ख़रीद ली। लेकिन कुछ दिनों के बाद ही इस गैंग के कुछ बदमाश पुलिस के हत्थे चढ़ गए. पूछताछ में उन्होंने पुलिस के सामने यह बात भी उगल दी कि उन्होंने शहर के महापौर कुँवर प्रताप राय के बेटे प्रकाश को एक ए. के. 47 राइफ़ल बेची थी। पुलिस ने 'आर्म्स एक्ट' के तहत मामला दर्ज़ करके प्रकाश को गिरफ़्तार कर लिया। वैसे भी देश की सुरक्षा को आतंकवादियों से बड़ा ख़तरा था। कैलेशनिकोव राइफ़ल अपने पास रखना अवैध था। जुर्म था।

लोगों को लगा कि प्रकाश इस बार बुरी तरह फँस गया। लेकिन कुँवर प्रताप राय फिर हरकत में आए. प्रकाश उनका अपना ख़ून था। उनका मानना था कि जवानी में बच्चों से ग़लतियाँ हो ही जाती हैं। लिहाज़ा उन्होंने देश के सर्वश्रेष्ठ क्रिमिनल लॉयर श्याम वंजानी की सेवा ली। नतीजा यह निकला कि कुछ महीने जेल में रहने के बाद प्रकाश एक बार फिर जेल से बाहर आ गया।

श्याम वंजानी और वकीलों की उनकी टीम ने क़ानून की कमज़ोरियाँ का फ़ायदा उठाते हुए अदालत में उसकी ऐसी व्याख्या कर दी कि प्रकाश फिर से बच निकला। यह ख़बर अगले दिन अख़बारों के मुख-पृष्ठ पर छा गई. टी. वी. चैनलों में इस विषय पर 'टॉक-शो' आयोजित करने की होड़ लग गई. कई टी. वी. चैनलों ने अपना पक्ष रखने के लिए प्रकाश को 'प्राइम-टाइम' में अपने स्टूडियो में आमंत्रित किया। यह प्रसारण 'लाइव' जा रहा था। इस पैनल में प्रकाश के वक़ील श्याम वंजानी के अलावा प्रकाश के पिता कुँवर प्रताप राय और कुछ क्राइम-एक्सपर्ट्स भी बुलाए गए. कुछ चैनलों ने सेवानिवृत्त पुलिस-आयुक्तों को भी ऐसे कार्यक्रमों में बुलाया। इन सभी प्रोग्रामों में इस विषय पर मंथन का लम्बा दौर चला। हर चैनल ने प्रकाश के साथ 'एक्स्क्लूज़िव' इंटरव्यू दिखाने का दावा किया। देखते-ही-देखते प्रकाश एक सेलेब्रेटी बन गया। दूसरी ओर इन खबरिया चैनलों का टी. आर । पी. भी बढ़ गया।

इस मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए प्रकाश के पिता कुँवर प्रताप राय ने कॉलेज के एक प्राध्यापक को प्रकाश के जेल के दिनों पर एक किताब लिखने के लिए कहा। प्राध्यापक को इसके बदले एक मोटी रक़म दी गई. लेकिन यह किताब प्रकाश के नाम से छपी. शीर्षक था—'ऐन इनोसेंट मैन्स जेल-डायरी' (एक बेक़सूर आदमी की जेल-डायरी) । उप-शीर्षक था—'हाउ आइ वाज़ इल्लीगली डीटेंड ऐंड टार्चर्ड इन जेल फ़ॉर मंथ्स' (कैसे मुझे कुछ महीनों तक अवैध रूप से जेल में रख कर यातनाएँ दी गईं) । यह किताब प्रसिद्ध प्रकाशक लेंग्विन पब्लिशर्स ने छापी. देखते-ही-देखते यह किताब 'नेशनल बेस्टसेलर' बन गई. कई भाषाओं में इस पुस्तक के अनुवाद भी प्रकाशित हो गए. कुछ ही महीनों में इस किताब की लाखों प्रतियाँ बिक गईं। प्रकाश को रॉयल्टी के रूप में एक मोटी रक़म मिली। मुंबई के एक प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता-निर्देशक ने इस विषय पर फ़िल्म बनाने का अधिकार प्रकाश और उसके पिता से एक करोड़ रुपये में ख़रीद लिया। प्रकाश की दसों उँगलियाँ घी में थीं।

कुछ महीने बाद कुँवर प्रताप ने धूम-धाम से प्रकाश की शादी एक दौलतमंद और ऊँचे ख़ानदान की लड़की से कर दी। ब्याह में खूब सारा दहेज़ भी मिला जिसमें एक मर्सिडीज़ गाड़ी भी शामिल थी। कुँवर प्रताप राय ने सोचा कि शादी का खूँटा प्रकाश को बाँध कर रख सकेगा। वे चाहते थे कि प्रकाश अब उनके व्यवसाय में उनका हाथ बँटाए।

लेकिन कुँवर साहब का यह सोचना ग़लत साबित हुआ। प्रकाश की शादी के कुछ महीने बाद ही यह कांड हो गया ...

"वही दाल-रोटी आदमी रोज़-रोज़ नहीं खा सकता। कभी-कभी उसे स्पेशल डिश की दरकार भी होती है।" एक दिन प्रकाश ने अपने गैंग के एक सदस्य से कहा।

दरअसल प्रकाश अपराध के घोड़े पर चढ़ चुका था। उसके मुँह में जुर्म के ख़ून का स्वाद लग गया था। उसके भीतर से इंसानियत कब की पलायन कर चुकी थी। उसके भीतर अच्छाई की नदी का पानी तो बहुत पहले सूख गया था। अब वहाँ केवल बुराई की रेत बची हुई थी।

मदमस्त साँड़-सा प्रकाश अब अपने शिकार की तलाश में जुट गया और उसकी निगाह अपने ही घर पर तैनात एक गार्ड की सोलह वर्षीया बेटी पर पड़ी। एक दिन उस हैवान ने काले शीशे वाली गाड़ी में उस लड़की को उठा लिया। एक ख़ाली फ़्लैट में ले जा कर उस दरिंदे ने उस लड़की से कुकर्म किया। फ़्लैट के बाहर उसके गैंग के सदस्य पहरे पर रहे। उस राक्षस ने इस पूरे कांड का अश्लील एम.एम. एस. भी बना लिया ताकि बाद में उसे इंटरनेट पर अपलोड कर सके। फिर उस शैतान ने उस बेचारी लड़की का गला घोंट कर उसकी हत्या कर दी। लड़की अपनी जान की भीख माँगती रही लेकिन प्रकाश ने उसकी एक नहीं सुनी। फिर अपने कुकर्मों को छिपाने के लिए उस वहशी जानवर ने लड़की की लाश के टुकड़े-टुकड़े किए और बाद में उन्हें अपने पिता के होटल के तंदूर में जला दिया ...

"... यह अदालत मुल्ज़िम प्रकाश वल्द कुँवर प्रताप को ताज़ीरात-ए-हिंद की दफ़ा 302 के तहत फाँसी की सज़ा सुनाती है। ही इज़ टु बी हैंग्ड टिल ही इज़ डेड।" सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जज जस्टिस राममूर्ति की भारी आवाज़ अदालत में गूँज रही थी।

जैसे गर्म तवे पर पड़ गई पानी की बूँद छन्न से भाफ़ बन कर उड़ जाती है, कुँवर प्रताप राय को लगा कि अदालत के इस फ़ैसले से उनका अपना वजूद भी वैसे ही मिट गया हो। उन्हें चक्कर आ गया। उनकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। लेकिन उनके ज़हन के उस अँधेरे में ही अचानक एक बहुत पुरानी स्मृति किसी उजली लकीर-सी कौंधी ...

सात साल का प्रकाश स्कूल से रोता हुआ घर आया है। उसके गाल पर थप्पड़ का निशान है।

"क्या हुआ बेटा? क्यों रो रहा है? किसी ने मारा है क्या?"

"मास्टर ने।"

"क्यों?"

"हमने दो दूना पाँच बताया था। मास्टर कहने लगा—ग़लत है।"

"फिर?"

"हमने कहा—हम कुँवर प्रताप राय के बेटे हैं। हमने दो दूना पाँच कह दिया तो वही सही है। इस बात पर मास्टर ने हमें मारा। पापा, आपका नाम सुनने के बाद भी मारा।"

दो दिन बाद उस मास्टर को नौकरी से निकाल दिया गया था ...

और घिरते अँधेरे के बीच अदालत के कमरे में बैठे कुँवर प्रताप को लगा—

शुरुआत ही ग़लत हो गई थी। नींव में ही गड़बड़ी आ गई थी तभी तो आज पूरी इमारत असमय ही भड़भड़ा कर गिर पड़ी। यदि उस दिन उन्होंने प्रकाश को बता दिया होता कि उसके मास्टरजी सही थे—कि चाहे कोई भी कहे, दो दूना पाँच कभी सही नहीं होता—तो आज उन दोनों को यह दिन नहीं देखना पड़ता।

(जिस नए क़िस्म के इंडिया की नींव रखी जा चुकी थी उसमें भ्रष्ट, अवसरवादी, बेईमान, दग़ाबाज़, फ़रेबी, जालसाज़, दोगले और अपराधी क़िस्म के लोगों की चाँदी थी। दो दूना पाँच को सही बताने वाले न जाने कितने ऐसे लोग सीना ताने आज़ाद घूम रहे थे।)