दो दोस्त / जयप्रकाश मानस
उसके भीतर दो आत्माएँ रहती थीं-एक जंगली गुरिल्ला, दूसरी डरपोक कायर।
गुरिल्ला सुबह-सुबह उसे झकझोरकर जगाता-"उठो! दुनिया को बदलना है।"
कायर तुरंत उसके कान में फुसफुसाता-"बैठ जाओ, मरोगे क्या?"
दिन बीतते गए। गुरिल्ला धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ने लगा। कायर फूलता गया। एक दिन गुरिल्ला बिल्कुल ही चुप हो गया।
कायर खुश होकर शीशे के सामने खड़ा हुआ। तभी उसे अपनी आँखों में अजीब-सी चमक दिखी। वही पुरानी चिंगारी... पर अब और भी तेज।
अचानक उसके होंठों से गुरिल्ले के शब्द फूट पड़े-"अब तैयार हो जाओ।"
वह समझ गया-गुरिल्ला मरा नहीं था। वह कायर के भीतर समा गया था। अब वह न तो पूरा गुरिल्ला था, न पूरा कायर। वह दोनों का मिला-जुला रूप था-एक ऐसा योद्धा जिसमें गुरिल्ले का साहस और कायर की समझदारी दोनों थी।
उस दिन से उसकी लड़ाई का तरीक़ा बदल गया। अब वह बिना सोचे-समझे भागने वाला नहीं था, न ही बिना सोचे-समझे लड़ने वाला। वह जान गया था-असली जीत दोनों के बीच के संतुलन में है।
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