दो पाटन के बीच में 'होली' / ओशो
रंग न रंगोली इस बार अपनी होली बैरंग ही होले-होले आगे-आगे होली। अट्ठाइस को अच्छे दिन का बजट था, पाँच की होली, आठ को महिला दिवस! हमारा पाँच न आठ हो पाया न अट्ठाइस, बस तीन-तेरह हो कर रह गया। दो पाटों के बीच फंसी हमारी स्थिति संत कबीर समान थी। गनीमत बस इतनी थी कि हम साबुत बच गए। दरअसल हमारे फागुन का नास तो बजट आते-आते ही हो गया था। थोड़ी बहुत जो कसर बाकी थी, वह महिल दिवस ने पूरी कर दी। हमारे सूर्यमुख पर ग्रहण-सी उदासी थी और चंद्रमुखी पत्नी के चंद्रमुख पर महिला दिवस की खुमारी। होली को आना था वह आई, उसने न राहू ग्रसित हमारे मुख की परवाह की और न ही पत्नी दिवस की खुमारी की। बावजूद तमाम विषम परिस्थितियों के फगुन की बयार ने हमारे अंतर्मन को झकझोरा, उसने करवट बदली, अंगड़ाई ली और हमें समझाया, ‘उदासी छोड़ मनुआ, होली है।’ बजट की उदासी कब तक ओढ़े रहोगे, उतार फेंको, होली है। अच्छे दिन आए या न आए, इससे फर्क क्या पड़ता है! ‘फील गुड’ के समान ‘अच्छे दिन’ फील तो कर ही सकते हो! कुछ न होते हुए भी सम्राट होने का अहसास तो किया ही जा सकता है! बचुआ, अहसास मन का भाव है, अहसास करो! अंतर्मन की बात हमारे बाह्य उदास मन को नहीं भायी। ‘बजट ने अपना बजट बिगाड़ दिया है, होली का रंग फीक पड़ गया है’ उसने अपनी बात बताई। अंतरमन हँस दिया, अरे इसमें नया क्या है? बजट अच्छे दिन का हो या बुरे दिन का आता ही बिगाड़ने के लिए है। बजट का अर्थ ही बिगाड़ना है। तू उदासी छोड़ होली खेल। अंतर्मन की बात सुन कमबख्त बाह्य मन बहकने लगा, होली के रंग में रंगने लगा। उदासी त्याग, हमने पत्नी संग चिरोरी करने का मन बनाया। होली 'गुलाल और गाल' का त्यौहार है, अत: हाथों में गुलाल लिए हम पत्नी के गालों की तरफ अग्रसर हुए और बोले, प्रिय होली है! पत्नी ने आँखें तरेरी, आँखों ही आँखों में अखियन ते क्रोध की पिचकारी छोड़ी। हम सहम गए, सहसा ही अतीत के रंग में डूब गए। अरे, यह क्या! पिछली होली पर तो पत्नी ने 'मोरी रंग दे अंगिया, कर दे धानी चुनरिया' फाग का राग सुनाया था। इस बार क्यों ऊंगली छुआते ही चारसो चालीस का करंट मारने लगी। होली पर भी क्यों आँखें दिखने लगी। हमने फिर साहस किया, हाथ आगे बढ़ाया, विरह और मिलन के मिश्रित रस में पगी पक्तियां गुनगुनाई, गुल हैं, चिराग रोशन कर दो। उदास फि़ज़ाओं में फागुन भर दो। कट न जाए यह रात यूं ही तन्हा, तन्हा रातों में यौवन भर दो। पत्नी ने फिर धमकाया, देखो जी! महिला दिवस है अब शोषण नहीं चलेगा। महिलाएं जागृत हो गई हैं, अब हमारा हुकुम चलेगा। तुम्हारा नहीं। भूखे श्वान-समान हमने पत्नी के मुख की ओर निहारा। पिछली होली तक पलास के खिले फूलों के समान लगने वाले पत्नी के गाल हमे दहकते अँगारों के समान प्रतीत हुए। हमारा सिर चकराया। सावधान की मुद्रा में स्तब्ध-से खड़े-खड़े हम सोचने लगे, 'अरे, महिला दिवस आता तो प्रत्येक वर्ष था, किन्तु, हमारा आशियाना उसके वॉयरस से प्राय: अछूता ही रहता था। किन्तु, इस बार स्वाइन फ्ल्यू वॉयरस के समान उसके वॉयरस हमारे घर में भी प्रवेश कर गए।' सोचते-सोचते माथे पर उतर आई चिन्ता और विषाद की लकीरें पौंछी और अल्पमत की सरकार की तरह हम समझौते पर उतर आऐ और मिम्याते सुर में बोले, झगड़ा किस बात का, प्रिय! हम न सही, तुम ही हमारा शोषण कर लो, किन्तु जैसे भी हो होली के इस पावन पर्व पर हमारा जीवन धन्य कर दो! पत्नी जवाब में हमें खरबूजे और छुरी की कहावत सुनाने लगी। फिर घरेलू हिंसा विरोधी कानून के पहाड़े पढ़ाने लगी। हमें अचानक ही महिला दिवस ‘त्रिया दिवस’-सा नज़र आने लगा। धीरे-धीरे होली का बुखार भी उतरने लगा। बुझे मन से हम पत्नी से कहने लगे, प्रिये! महिला दिवस आज ही क्यों, जब से तुमने हमारी कुण्डली में प्रवेश किया है, हमारे जीवन में तो उसी पुण्य दिवस से महिला दिवस छाया है। कभी दहेज विरोधी कानून तो कभी घरेलू हिंसा कानून। प्रत्येक कानून हमारे वैवाहिक जीवन में राहू की मानिन्द छाया है। तुम समान अधिकार की मांग करती हो, कंधे से कंधा मिलाकर चलने का दंभ भरती हो। भूले से भी कंधे से कंधा छू जाए तो ईव टीजिंग का आरोप लगाती हो। अरे, पुरुष-पुरुष का दुशमन हो गया है। पुरुष प्रधान समाज में पुरुष हो कर स्त्री प्रधान कानून बनाता है! अरे, विश्व के पुरुषों एक हो जाओ, भ्रुण हत्या रोको, महिलाओं की संख्या बढ़ाओ। खुद अल्पमत हो जाओ और फिर अल्पमत होने का लाभ उठाओ, प्रतिदिन होली मनाओ।