दो फिल्मी बमों के विकिरण! / जयप्रकाश चौकसे

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दो फिल्मी बमों के विकिरण!
प्रकाशन तिथि :22 दिसम्बर 2015


छोटे बजट की सिताराविहीन फिल्म के असफल होने पर फिल्म उद्योग के तालाब में कोई तूफान नहीं आता। चंद लहरों में हल्का-सा कम्पन होता है परंतु जब दो बड़े बजट की बहुप्रचारित सितारों से सजी फिल्में असफल होती हैं तो उद्योग के तालाब में समुद्र के समान उत्तुंग लहरें उठती हैं और सारे कूल-किनारे हिल जाते हैं। स्वयंभू शहंशाह शाहरुख खान और एक कतार में ढेरों सफल फिल्में देने वाले रोहित शेट्‌टी की 'दिलवाले' की प्रारंभिक तीन दिनों में बॉक्स ऑफिस पर आई रकम अत्यंत कम है और ऐसे प्रारंभ के बाद भविष्य में आय सुधार का आकलन अत्यंत अव्यावहारिक आशावाद है। यह एक अजूबा घटित होने की कामना की तरह है। बड़बोले और बदमिजाज संजय लीला भंसाली की 'बाजीराव मस्तानी' में आधे पुरुष सितारे के साथ अपनी सफलताओं से पुरुष सितारों-सा रुतबा हासिल करने वालीं दो नायिकाएं मिलकर भी लगभग 150 करोड़ की लागत को नहीं बचा पा रहे हैं। तीन सौ करोड़ से अधिक आय अर्जित करने पर ही नेट आय 150 करोड़ रुपए हो पाती है।

फिल्मी आय-व्यय के अफसाने कुछ हैं और हकीकत कुछ और ही है। ग्रॉस का नेट 45 फीसदी ही होता है। इस ग्लैमरस उद्योग के आंकड़े और देश की समृद्धि के आंकड़े समान रूप से महज अफसाने है। शाहरुख खान ने अपनी 'दिलवाले' के वितरण अधिकार विभिन्न क्षेत्रों को बेचकर अपनी लागत को सुरक्षित कर लिया है परंतु असफलता से साख घटती है, जो बाद में कष्ट देती है। उनकी अगली फिल्म फरहान अख्तर द्वारा निर्मित है, जिसकी नायिका पाकिस्तान की श्रेष्ठ अभिनेत्री है परंतु भारतीय समाज में चलती लहरें इसे 'करेला और नीम चढ़ा' में बदल सकती है। पुलिस व प्रशासन कब तक फिल्मों का संरक्षण करते रहेंगे और किसी भी समाज या देश का असली सुरक्षा कवच उसकी भीतरी एकता, समानता और आपसी भाईचारा होता है। इस आदर्श के मिटते ही हर आम आदमी अपनी पीठ पर अदृश्य खंजर होने के अहसास से भयभीत हो जाता है। सिनेमा बीमार समाज की दवा भी हो सकता है और समाज के लिए 'नीले फीते का जहर' (अश्लील फिल्में) भी रच सकता है। शाहरुख की फिल्म में आशातीत मनोरंजन नहीं है परंतु आय की कमी का एक कारण उनका समाज में असहिष्णुता वाला बयान है।

पुलिस और प्रशासन ने प्रशंसनीय शांति बनाए रखी है परंतु यह भी प्रतीत होता है कि उनके असहिष्णुता वाले बयान से दर्शकों का एक वर्ग नाराज जरूर है और यह कबीर की सामाजिक संरचना रूपी चादर में एक दाग है। सिनेमा के 102 वर्ष के इतिहास में पहली बार धर्मनिरपेक्षता, समानता व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर दाग लगा है। 'बाजीराव मस्तानी' में केवल इतना ही ऐतिहासिक तथ्य है कि बाजीराव को झांसी को बचाने के पुरस्कार स्वरूप हीरे-मोती के साथ मस्तानी भी भेंट में मिली थी। फिल्म का दृश्य भी तथ्यात्मक है, जिसमें कहा गया कि झांसी से मिली सम्पदा ने ही पेशवा खजाने को खाली-सा हो जाने के कष्ट से बचाया है। विशेषज्ञ आकार पटेल लिखते हैं कि मराठा योद्धाओं का मूल-मंत्र पराजित राज्यों से चौथाई आय प्राप्त करना था। वे कोई अखिल भारतीय स्वप्न नहीं देखते थे- यह बात भी आकार पटेल ही कहते हैं। यह कैसा वक्त है कि अपना दामन बचाने के लिए किसी विशेषज्ञ को ही उद्‌धृत करना पड़ता है। आप अपने मन की बात भी नहीं कह सकते। भंसाली की फिल्म को शाहरुख की नकारात्मकता का थोड़ा लाभ मिल रहा है, क्योंकि उनकी फिल्म में भव्यता है परंतु वह दिल को नहीं छूती। आम फिल्मों से अलग होने का लाभ भी मिल रहा है परंतु लागत अधिक होने से हानि की आशंका है। उन्होंने अपनी ही पटकथा के क्लाइमैक्स को शूट नहीं किया, जिसमें दोनों के शव शनिवारवाड़ा लाए जाते हैं। मस्तानी सारी उम्र शनिवारवाड़ा जाना चाहती थीं। उसी कालखं़ड में सिख योद्धा पराजित से केवल उसकी आय का दस प्रतिशत ही मांगते थे। सारे युद्ध इस चौथाई या दसवें हिस्से के लिए होते थे। बहरहाल, इन दो भव्य फिल्मों की असफलता में फिल्म उद्योग के लिए कई संकेत हैं। उन छोटी पूर्ण फिल्मों की संख्या बढ़ेगी, जिनके प्रचार अौर प्रदर्शन पर दस करोड़ लगाकर कोई अपनी चार करोड़ की लागत निकालने का प्रयास नहीं करेगा। अब आमिर खान की अगली फिल्म के प्रदर्शन में भी विरोध संभव है। अत: फिल्मकारों को अपना मुंह बंद रखने का संदेश है और नके द्वारा अभिव्यक्त भय निर्मूल नहीं थे। यह बात नकारात्मक ताकतों ने सच कर दी है।

यह तो बिना विवाद के कहा जा सकता है कि फिल्म माध्यम का जो इस्तेमाल रूस और अमेरिका ने किया, वह भारत में नहीं हो पाया परंतु भारतीय फिल्मकार के कष्ट और सीमाएं भी किसी अन्य देश के फिल्मकार ने नहीं झेले हैं। अनेक भाषाओं, बोलियों, धर्मों के मानने वाले भारत में फिल्मकार को अधिकतम दर्शक की पसंद के लिए बहुत जतन करना पड़ता है। सेंसर की बेड़ियां भी सख्त हैं और सरकार उद्योग के लाभ में हमेशा स्लीपिंग पार्टनर की तरह रही है। अधिकतम की पसंद खोजना अर्थात मेंढक तोलने की तरह है। विपरीत हालात में कोई भी सृजन कठिन हो जाता है।

अब फिल्मकारों के लिए अनावश्यक विरोध नामक नई मुसीबत आ गई है। अत: पलायनवादी फिल्म बनाने के अतिरिक्त कोई और रास्ता भी नहीं है। इन दोनों फिल्मों को ही क्रिसमस की छुट्टियों का लाभ मिलेगा और उनके घाटे भी कम हो सकते हैं।