दो बांके / भगवतीचरण वर्मा
लखनऊ के सफेदा आम, लखनऊ के खरबूजे, लखनऊ की रेवड़ियां, ये सब ऐसी चीजें हैं जिन्हें लखनऊ से लौटते समय लोग सौगात के तौर पर साथ ले जाया करते हैं, लेकिन कुछ ऐसी भी चीजें हैं जो साथ नहीं ले जाई जा सकतीं और उनमें लखनऊ की जिन्दादिली और लखनऊ की नफासत विशेष रूप से आती है।
ये तो वे चीजें हैं, जिन्हें देशी और परदेशी सभी जान सकते हैं, पर कुछ ऐसी भी चीजें हैं जिन्हें कुछ लखनऊ वाले तक नहीं जानते, और अगर परदेशियों को इनका पता लग जाय, तो समझिए कि उन परदेशियों के भाग खुल गए। इन्हीं विशेष चीजों में आते हैं लखनऊ के ‘बांके’।
‘बांके’ शब्द हिन्दी का है या उर्दू का, यह विवादग्रस्त विषय हो सकता है, और हिन्दी वालों का कहना है- इन हिन्दी वालों में मैं भी हूं – कि यह शब्द संस्कृत के ‘बंकिम’ शब्द से निकला है, पर यह मानना पड़ेगा कि जहां ‘बंकिम’ शब्द में कुछ गम्भीरता है, कभी-कभी कुछ तीखापन झलकने लगता है, वहां ‘बांके’ शब्द में एक अजीब बांकापन है।
अगर जवान बांका-तिरछा न हुआ, तो आप निश्चय समझ लें कि उसकी जवानी की कोई सार्थकता नहीं। अगर चितवन बांकी नहीं, तो आंख का फोड़ लेना अच्छा है, बांकी अदा और बांकी झांकी के बिना जिन्दगी सूनी हो जाए।
मेरे खयाल से अगर दुनिया से बांका शब्द उठ जाए, तो कुछ दिलचले लोग खुदकुशी करने पर आमादा हो जाएंगे। और इसीलिए मैं तो यहां तक कहूंगा कि लखनऊ बांका शहर है, और इस बांके शहर में कुछ बांके रहते हैं, जिनमें गजब का बांकपन है। यहां पर आप लोग शायद झल्ला कर यह पूछेंगे-मियां यह ‘बांके’ हैं क्या बला? कहते क्यों नहीं? और मैं उत्तर दूंगा कि आप में सब्र नहीं, अगर इन बांकों की एक बांकी भूमिका नहीं हुई, तो फिर कहानी किस तरह बांकी हो सकती है?
हां, तो लखनऊ शहर में रईस हैं। तवायफें हैं और इन दोनों के साथ शोहदे भी हैं। बकौल लखनऊ वालों के, ‘ये शोहदे’ ऐसे-वैसे नहीं है। ये लखनऊ की नाक हैं। लखनऊ की सारी बहादुरी के ये ठेकेदार हैं और ये जान ले लेने तथा जान दे देने पर आमादा रहते हैं। अगर लखनऊ से ये शोहदे हटा दिए जाएं, तो लोगों का यह कहना ‘अजी लखनऊ, तो जनानों का शहर है’ सोलह आने सच्चा उतर जाए।”
जनाब, इन्हीं शोहदों के सरगनों को लखनऊ वाले ‘बांके’ कहते हैं। शाम के वक्त तहमत पहने हुए और कसरती बदन पर जालीदार बनियान पहनकर उसके ऊपर बूटेदार चिकन का कुरता डांटे हुए जब ये निकलते हैं, तब लोग-बाग बड़ी हसरत की निगाहों से उन्हें देखते हैं।
उस वक्त इनके पट्टेदार बालों में करीब आधा-पाव चमेली का तेल पड़ा रहता है, कान में इत्र की अनगिनत फरहरियां खुंसी रहती हैं और एक बेले का गजरा गले में तथा एक हाथ की कलाई पर रहता है। फिर ये अकेले भी नहीं निकलते, इनके साथ शागिर्द शोहदों का जुलूस रहता है, एक-से-एक बोलियां बोलते हुए, फबतियां कसते हुए और हांकते हुए। उन्हें देखने के लिए एक हजूम उमड़ पड़ता है।
तो उस दिन मुझे अमीनाबाद से नख्खास जाना था। पास में पैसे थे, इसलिए जब एक नवाब ने आवाज दी, ‘नख्खास’ तो मैं उचककर उनके इक्के पर बैठ गया। यहां यह बतला देना बेजा न होगा कि लखनऊ के इक्के वालों में तीन-चौथाई शाही खानदान के हैं, और यही उनकी बदकिस्मती है कि उनका वसीका (राजकीय सहायता) बंद या कम कर दिया गया और उन्हें इक्का हांकना पड़ रहा है।
इक्का नख्खास की तरफ चला और मैंने मियां इक्के वाले से कहा, ”कहिए नवाब साहब! खाने-पीने भर को तो पैदा कर लेते हैं?”
इस सवाल का पूछा जाना था कि नवाब साहब के उद्गारों के बांध का टूट पड़ना था। बड़े करूण स्वर में बोले, ”क्या बतलाऊं हुजूर, अपनी क्या हालत है, कह नहीं सकता! खुदा जो कुछ दिखलाएगा, देखूंगा। एक वो दिन थे जब हम लोगों के बुजुर्ग हुकूमत करते थे! ऐशोआराम की जिन्दगी बसर करते थे, लेकिन आज हमें-उन्हीं की औलादों को-भूखों मरने की नौबत आ गई। और हुजूर, अब पेशे में कुछ रह नहीं गया।
पहले तो तांगे चले, जी को समझाया-बुझाया, मियां अपनी-अपनी किस्मत! मैं भी तांगा ले लूंगा, यह तो वक्त की बात है, मुझे भी फायदा होगा, लेकिन क्या बतलाऊं हुजूर, हालत दिनो-दिन बिगड़ती ही गई। अब देखिए, मोटरों पर मोटरें चल रही हैं। भला बतलाइए हुजूर, जो सुख इक्के की सवारी में है, वह भला तांगे या मोटर में कहां मिलने का? तांगे में पलथी मारकर आराम से बैठ नहीं सकते। जाते उत्तर की तरपफ हैं, मुंह दक्खिन की तरफ रहता है।
अजी साहब, हिन्दुओं में मुरदा उलटे सिर ले जाया जाता है, लेकिन तांगे में लोग जिन्दा ही उलटे सिर चलते हैं। और जरा गौर फरमाइये! ये मोटर शैतान की तरह चलती हैं, जहां जाती है, वह बला की धूल उड़ाती है कि इन्सान अन्धा हो जाए। मैं तो कहता हूं कि बिना जानवर के आप चलने वाली सवारी से दूर ही रहना चाहिए, उसमें शैतान का फेर है।”
इक्के वाले नवाब और न जाने क्या-क्या कहते, अगर वे ‘या अली!’ के नारे से चौंक न उठते। सामने क्या देखते हैं कि आलम उमड़ा पड़ रहा है। इक्का रकाबगंज के पुल के पास पहुंचकर रूक गया।
एक अजीब समां था। रकाबगंज के पुल के दोनों तरफ करीब पन्द्रह हजार की भीड़ थी, लेकिन पुल पर एक आदमी नहीं। पुल के एक किनारे करीब पचीस शोहदे लाठी लिए हुए खड़े थे, और दूसरे किनारे भी उतने ही। एक खास बात और थी कि पुल के एक सिरे पर सड़क के बीचो-बीच एक चारपाई रखी थी, और दूसरे सिरे पर भी सड़क के बीचो-बीच दूसरी। बीच-बीच में रूक-रूक कर दोनों ओर से ‘या अली!’ के नारे लगते थे।
मैंने इक्के वाले से पूछा, ”क्यों मियां, क्या मामला है?”
मियां इक्के वाले ने एक तमाशाई से पूछकर बतलाया, ”हुजूर, आज दो बांकों में लड़ाई होने वाली है, उसी लड़ाई को देखने के लिए यह भीड़ इकट्ठी है।”
मैंने फिर पूछा, ”यह क्यों?”
मियां इक्के वाले ने जवाब दिया, ”हुजूर पुल के इस पार के शोहदों का सरगना एक बांका है और उस पार के शोहदों का सरगना दूसरा बांका। कल इस पार के एक शोहदे से पुल के उस पार के दूसरे शोहदे का कुछ झगड़ा हो गया और उस झगड़े में कुछ मार-पीट हो गई। इस फसाद पर दोनों बांकों में कुछ कहासुनी हुई और उस कहासुनी में ही मैदान बद दिया गया।”
चुप होकर मैं उधर देखने लगा। एकाएक मैंने पूछा, ”लेकिन ये चारपाइयां क्यों आई हैं?”
”अरे हुजूर! इन बांकों की लड़ाई कोई ऐसी-वैसी थोड़ी ही होगी, इसमें खून बहेगा और लड़ाई तब तक खत्म न होगी, जब तक एक बांका खत्म न हो जाए। आज तो एक-आध लाश गिरेगी। ये चारपाइयां उन बांकों की लाश उठाने आई हैं। दोनों बांके अपने बीवी-बच्चों से रूखसत लेकर और कर्बला के लिए तैयार होकर आवेंगे।”
इसी समय दोनों और से ‘या अली!’ की एक बहुत बुलन्द आवाज उठी। मैंने देखा कि पुल के दोनों तरफ हाथ में लाठी लिए हुए दोनों बांके आ गए। तमाशाइयों में एक सकता-सा छा गया, सब लोग चुप हो गए।
पुल के उस पार वाले बांके ने कड़क कर दूसरे पार वाले बांके से कहा, ”उस्ताद!” और दूसरे पार वाले बांके ने कड़क कर उत्तर दिया, ”उस्ताद!”
पुल के इस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, आज खून हो जाएगा, खून!”
पुल के उस पार वाले ने कहा, ”उस्ताद, आज लाशें गिर जाएंगी, लाशें!”
पुल के इस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, आज कहर हो जाएगा, कहर!”
पुल के उस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, आज कयामत बरपा हो जाएगी, कयामत!”
चारों और एक गहरा सन्नाटा फैला था। लोगों के दिल धड़क रहे थे, भीड़ बढ़ती ही जा रही थी।
पुल के इस पार वाले बांके ने लाठी का एक हाथ घुमाकर एक कदम बढ़ते हुए कहा, ”तो फिर उस्ताद होशियार!”
पुल के इस पार वाले बांके ने भी लाठी का एक हाथ घुमाकर एक कदम बढ़ाते हुए कहा, ”तो फिर उस्ताद संभलना!”
पुल के उस पार वाले बांके के शागिर्दों ने गगन-भेदी स्वर में नारा लगाया, ”या अली!”
दोनों तरफ से दोनों बांके, कदम-ब-कदम लाठी के हाथ दिखलाते हुए तथा एक दूसरे को ललकारते आगे बढ़ रहे थे, दानों तरफ के बांकों के शागिर्द हर कदम पर ‘या अली!’ के नारे लगा रहे थे, और दोनों तरफ के तमाशाइयों के हृदय उत्सुकता, कौतूहल तथा इन बांकों की वीरता के प्रदर्शन के कारण धड़क रहे थे।
पुल के बीचो-बीच, एक-दूसरे से दो कदम की दूरी पर दोनों बांके रूके। दोनों ने एक-दूसरे को थोड़ी देर गौर से देखा। फिर दोनों बांकों की लाठियां उठीं, और दाहिने हाथ से बाएं हाथ में चली गईं।
इस पार वाले बांके ने कहा, ”फिर उस्ताद!”
उस पार वाले बांके ने कहा, ”फिर उस्ताद!”
इस पार वाले बांके ने अपना हाथ बढ़ाया, और उस पार वाले बांके ने अपना हाथ बढ़ाया। और दोनों के पंजे गुंथ गए।
दोनों बांकों के शागिर्दों ने नारा लगाया, ‘या अली!’ फिर क्या था। दोनों बांके जोर लगा रहे हैं, पंजा टस से मस नहीं हो रहा है। दस मिनट तक तमाशबीन सकते की हालत में खड़े रहे।
इतने में इस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, गजब के कस हैं!”
उस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, बला का जोर है!”
इस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, अभी तक मैंने समझा था कि मेरे मुकाबिले का लखनऊ में कोई दूसरा नहीं है।”
उस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, आज कहीं जाकर मुझे अपनी जोड़ का जवां मर्द मिला।”
इस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, तबीयत नहीं होती कि तुम्हारे जैसे बहादुर आदमी का खून करूं।”
उस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, तबीयत नहीं होती कि तुम्हारे जैसे शेर-दिल आदमी की लाश गिराऊं।”
थोड़ी देर के लिए दोनों मौन हो गए! पंजा गुंथा हुआ, टस से मस नहीं हो रहा है।
इस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, झगड़ा किस बात है?”
उस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, यही सवाल मेरे सामने है!”
इस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद, पुल के इस तरफ के हिस्से का मालिक मैं।”
उस पार वाले बांके ने कहा, ”उस्ताद पुल के इस तरफ के हिस्से का मालिक मैं।”
और दोनों ने एक साथ कहा, ”पुल की दूसरी तरफ से न हमें कोई मतलब है और न हमारे शागिर्दों को!”
दोनों के हाथ ढीले पड़े, दोनों ने एक-दूसरे को सलाम किया और फिर दोनों घूम पड़े। छाती फुलाए हुए दोनों बांके अपने शागिर्दों से आ मिले। बिजली की तरह यह खबर फैल गई कि दोनों बांके बराबर की जोड़ छूटे और उनमें सुलह हो गई।
इक्के वाले को पैसे देकर मैं वहां से पैदल ही लौट पड़ा, क्योंकि देर हो जाने के कारण नख्खास जाना बेकार था।
इस पार वाला बांका अपने शागिर्दों से घिरा हुआ चल रहा था। शागिर्द कह रहे थे, ”उस्ताद इस वक्त बड़ी समझदारी से काम लिया, वरना आज लाशें गिर जातीं। उस्ताद हम सब के सब अपनी-अपनी जान दे देते। लेकिन उस्ताद, गजब के कस हैं!”
इतने में किसी ने बांके से कहा, ”मुला स्वांग खूब भरयो।”
बांके ने देखा कि एक लम्बा और तगड़ा देहाती, जिसके हाथ में एक भारी-सा लट्ठ है, सामने खड़ा मुस्करा रहा है।
उस वक्त बांके खून का घूंट पीकर रह गए। उन्होंने सोचा-एक बांका दूसरे बांके से ही लड़ सकता है, देहातियों से उलझना उसे शोभा नहीं देता। और शागिर्द भी खून का घूंट पीकर रह गए। उन्होंने सोचा-भला उस्ताद की मौजूदगी में उन्हें हाथ उठाने का कोई हक भी है?