दो मोर्चे की लड़ाई / सहजानन्द सरस्वती
अब हमारे सामने जो प्रश्न आ खड़े होते हैं वे हैं; यह कैसे हो? हम अपने संगठित आंदोलन को कैसे दृढ़ करें और इस तरह किसानों को अंतिम आक्रमण के लिए तैयार करें? राजनीतिक सत्ता को हथियाने के लिए दिमागी तौर पर तैयार करने के साथ ही वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के भीतर मिल सकनेवाली थोड़ी-बहुत सुविधाएँ किसानों को कैसे दिलाई जाएँ? उनमें वर्गचेतना कैसे लाई जाए?
दो मोर्चे हैं जिन पर हमारा संघर्ष अविराम रूप से चालू रखना होगा। एक ओर तो पार्लिमेंटरी (वैधानिक) कार्यक्रम और हलचलें हैं जो स्थिर स्वार्थ एवं प्रतिक्रिया के दुर्ग पर निर्णायक धावा बोलने के लिए किसानों को बहुत कुछ तैयार कर सकती हैं, बशर्ते कि वे परिक्षित एवं विश्वसनीय नेताओं के द्वारा क्रांति कारी दृष्टि से चलाई जाएँ। इन हलचलों से यही नहीं होता कि किसानों को समय-समय पर सहायता एवं सुविधाएँ मिली जाती हैं, फिर चाहे वह कितनी ही अल्प क्यों न हों। किंतु एक ओर तो इनके चलते देश के कर्णधारों और उनकी सरकार का भंडाफोड़ होता है। दूसरी ओर धीरे-धीरे किसानों को यकीन हो जाता है कि वैधानिक संघर्ष तथा तरीके केवल धोके की टट्टी हैं। बेशक यह अंतिम बात तभी होती है जब पार्लिमेंट के भीतर की लड़ाई बाहर की प्रत्यक्ष लड़ाइयों के साथ-साथ चलती है। वस्तुत: जनता के छुटकारे के लिए बाहरी हलचलों पर ही निर्भर किया जा सकता है, करना होगा। वैधानिक संघर्ष सिर्फ उन्हीं के सहायक होते हैं। बेशक ये बाहरी एवं अवैधानिक हलचलें किसानों के एकमात्र वर्ग संघर्ष ही तो हैं।