दो शब्द / हिंद स्वराज / महात्मा गांधी
लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए गांधीजी ने रास्ते में जो संवाद लिखा और 'हिंद स्वराज' के नाम से छपाया, उसे आज पचास बरस हो गए।
दक्षिण अफ्रीका के भारतीय लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए सतत लड़ते हुए गांधीजी 1909 में लंदन गए थे। वहाँ कईं क्रांतिकारी स्वराज प्रेमी भारतीय नवयुवक उन्हें मिले। उसने गांधीजी की जो बातचीत हुई उसी का सार गांधीजी ने एक काल्पनिक संवाद में ग्रथित किया है। इस संवाद में गांधीजी के उस समय के महत्व के सब विचार आ जाते हैं। किताब के बारे में गांधीजी ने स्वयं कहा है कि मेरी यह छोटी सी किताब इतनी निर्दोष है कि बच्चों के हाथ में भी यह दी जा सकती है। यह किताब द्वेषधर्म की जगह प्रेमधर्म सिखाती है; हिंसा की जगह आत्म-बलिदान को स्थापित करती है; और पशुबल के खिलाफ टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है। गांधीजी इस निर्णय पर पहुँचे थे कि पश्चिम के देशों में, यूरोप-अमेरिका में जो आधुनिक सभ्यता जोर कर रही है, वह कल्याणकारी नहीं है, मनुष्यहित के लिए वह सत्यानाशकारी है। गांधीजी मानते थे कि भारत में और सारी-दुनिया में प्राचीन काल से जो धर्म-परायण नीति-प्रधान चली आई है वह सच्ची सभ्यता है।
गांधीजी का कहना था कि भारत से केवल अंग्रेजों को और उनके राज्य को हटाने से भारत को अपनी सच्ची सभ्यता का स्वराज नहीं मिलेगा। हम अंग्रजों को हटा दें और उन्हीं की सभ्यता और उन्हीं के आदर्श को स्वीकार करें तो हमारा उद्वार नहीं होगा। हमें अपनी आत्मा को बचाना चाहिए। भारते के लिखे-पढ़े लोग पश्चिम के मोह में फँस गए हैं। जो लोग पश्चिम के असर तले नहीं आए हैं, वे भारत की धर्म-परायण नैतिक सभ्यता को मानते हैं। उनको अगर आत्मशक्ति का उपयोग करने का तरीका सिखाया जाए, सत्यग्रह का रास्ता बताया जाए, तो वे पश्चिमी राज्य-पद्धति का और उससे होने वाले अन्याय का मुकाबला कर सकेंगे तथा शस्त्रबल के बिना भारत को स्वतंत्र करके दुनिया को भी बचा सकेंगे।
पश्चिम का शिक्षण और पश्चिम का विज्ञान अंग्रेजों के अधिकार के जोर पर हमारे देश में आए। उनकी रेलें, उनकी चिकित्सा और रुग्णालय, उनके न्यायालय और उनकी न्यायदान-पद्धति आदि सब बातें अच्छी संस्कृति के लिए आवश्यक नहीं है, बल्कि विघातक ही हैं - वगैरा बातें बिना किसी संकोच के गांधीजी इस किताब में दी हैं।
मूल किताब गुजराती में लिखी गई थी। उसके हिंदुस्तान आते ही बंबई सरकार ने आक्षेपार्ह बताकर उसे जब्त किया। तब गांधीजी ने सोचा कि 'हिंद स्वराज' में मैंने जो कुछ लिखा है, वह जैसा का वैसा अपने अंग्रेजी जानने वाले मित्रों और टीकाकारों के सामने रखना चाहिए। उन्होंने स्वयं गुजराती 'हिंद स्वराज' का अंग्रेजी अनुवाद किया और उसे छपाया। उसे भी बंबई सरकार आक्षेपार्ह घोषित किया।
दक्षिण अफ्रीका का अपना सारा काम पूरा करके सन 1915 में गांधीजी भारत आए। उसके बाद सत्याग्रह करने का जब पहला मौका गांधीजी को मिला, तब उन्होंने बंबई सरकार के हुक्म के खिलाफ 'हिंद स्वराज' फिर से छपवाकर प्रकाशित किया। बंबई सरकार ने राज्य में, सारे भारत में और दुनिया के गंभीर विचारकों के बीच ध्यान से पढ़ी जाती है।
स्व. गोखलेजी ने इस किताब के विवेचन को कच्चा कहकर उसे नापसंद किया था और आशा की थी कि भारत लौटने के बाद गांधीजी ने स्वयं इस किताब को रद कर देंगे। लेकिन वैसा नहीं हुआ। गांधीजी ने एकाध सुधार करके कहा कि आज मैं इस किताब को अगर फिर से लिखता, तो उसकी भाषा में जरूर कुछ सुधार करता। लेकिन मेरे मूलभूत विचार वहीं हैं, जो इस किताब में मैंने व्यक्त किए हैं।
गांधीजी के प्रति आदर और उनके विचारों के प्रति सहानुभूति रखने वाले दुनिया के बड़े-बड़े विचारकों ने 'हिंद स्वराज' के बारे में जो संमतिप्रगट की है, उसका सार श्री महादेव देसाई ने नई आवृत्ति की अपनी सुंदर प्रस्तावना में दिया ही है।
अहिंसा का सामर्थ्य, यंत्रवाद का गांधीजी का विरोध और पश्चिमी सभ्यता तीनों के बारे में और सत्याग्रह की अंतिम भूमिका के बारे में भी पश्चिम के लोगों ने अपना मतभेद स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है।
गांधीजी के सारे जीवन कार्य के मूल में जो श्रद्धा काम करती रही, वह सारी 'हिंद स्वराज' में पाई जाती है। इसलिए गांधीजी के विचार सागर में इस छोटी सी पुस्तक का महत्व असाधारण है।
गांधीजी के बताए हुए अहिंसक रास्ते पर चलकर भारत स्वतंत्र हुआ। असहयोग, कानूनों का सविनय भंग और सत्याग्रह - इन तीनों कदमों की मदद से गांधीजी ने स्वराज का रास्ता तय किया। हम इसे चमत्कारपूर्ण घटना का त्रिविक्रम कह सकते हैं।
गांधीजी के प्रयत्न का वही हाल हुआ, जो दुनिया की अन्य श्रेष्ठ विभूतियों के प्रयत्नों का होता आया है।
भारत ने भारत के नेताओं ने और एक ढंग से सोचा जाए तो भारत की जनता ने भी गांधीजी द्वारा मिले हुए स्वराज-रूपी फल को तो अपनाया, लेकिन उनकी जीवन-दृष्टि को पूरी तरह अपनाया नहीं है। धर्म परायण, नीति-प्रधान पुरानी संस्कृति की प्रतिष्ठा जिसमें नहीं है, ऐसी ही शिक्षा-पद्धति भारत में आज प्रतिष्ठित है। न्यायदान पश्चिमी ढंग से ही हो रहा है। इसकी तालीम भी जैसी अंग्रेजों के दिनों में थी वैसे ही आज है। अध्यापक, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर और राजनीतिक नेता - ये पाँच मिलकर भारत के सार्वजनिक जीवन को पश्चिमी ढंग से चला रहे हैं। अगर पश्चिम के विज्ञान और यांत्रिक कौशल्य (Technology) का सहारा हम न लें और गांधीजी के ही सांस्कृतिक आदर्श को स्वीकार करें, तो भारत जैसा महान देश साउदी अरेबिया जैसे नगण्य देश की कोटि तक पहुँच जाएँगा, यह डर भारत के आज के सभी पक्ष के नेताओं को है।
भारत शांततावादी है, युद्ध-विरोधी है। दुनिया का साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, शोषणवाद, राष्ट्र-राष्ट्र के बीच फैला हुआ उच्च-नीच भाव-इन सबका विरोध करने का कंकण भारत सरकार ने अपने हाथ में बाँधा है। तो भी जिस तरह के आदर्श का गांधीजी ने अपनी किताब 'हिंद स्वराज' में पुरस्कार किया है, उसका तो उसने अस्वीकार ही किया है। स्वाभाविक है कि इस तरह के नए भारत में अंग्रेजी भाषा का ही बोलबाला रहे। सिर्फ अमेरिका ही नहीं, किंतु रशिया, जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, जापान आदि विज्ञान-परायण राष्ट्रों की मदद से भारत यंत्र-संस्कृति में जोरों से आगे बढ़ रहा है। और उसकी आंतरिक निष्ठा मानती है कि यही सच्चा मार्ग है। पू. गांधीजी के विचार जैसे हैं वैसे नहीं चल सकते।
यह नई निष्ठा केवल नेहरूजी की नहीं, किंतु करीब-करीब सारे राष्ट्र की है। श्री विनोबा भावे गांधीजी के आत्मवाद का, सर्वोदय का और अहिंसक शोषण-विहीन समाज-रचना का जोरों से पुरस्कार कर रहे हैं। ग्रामराज्य की स्थापना से, शांति सेना के द्वारा, नई तालीम के जरिए, स्त्री-जाति की जागृति के द्वारा वे मानस-परिवर्तन, जीवन-परिवर्तन और समाज-परिवर्तन का पुरस्कार कर रहे हैं। भूदान और ग्रामदान के द्वारा सामाजिक जीवन में आमूलाग्र क्रांति करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन उन्होंने देख लिया हे कि पश्चिम के विज्ञान और यंत्र-कौशल्य के बिना सर्वोदय अधूरा ही रहेगा।
जब अमेरिका का प्रजासत्तावाद, रशिया और चीन का साम्यवाद, दूसरे और देशों का और भारत का समाजसत्तावाद और गांधीजी का सर्वोदय दुनिया के सामने स्वयंवर के लिए खड़े हैं, ऐसे अवसर पर गांधीजी की इस युगांतरकारी छोटी सी किताब का अध्ययन जोरों से होना चाहिए। गांधीजी स्वयं भी नहीं चाहते थे कि शब्द-प्रमाण की दुहाई देकर हम उनकी बातें जैसी की वैसी ग्रहण करें।
'हिंद स्वराज' की प्रस्तावना में गांधीजी स्वयं लिखा है कि व्यक्तिश : उनका सारा प्रयत्न 'हिंद स्वराज' में बताए हुए आध्यात्मिक स्वराज की स्थापना करने के लिए ही है। लेकिन उन्होंने भारत में अनेक साथियों की मदद से स्वराज का जो आंदोलन चलाया, कांग्रेस के जैसी राजनीतिक राष्ट्रीय संस्था का मार्गदर्शन किया, वह उनकी प्रवृत्ति पार्लियामेंटरी स्वराज (Parliamentary Swarajay) के लिए ही थी।
स्वराज के लिए अन्याय का, शोषण का और प्रदेशी सरकार का विरोध करने में अहिंसा का सहारा लिया जाए, इतना एक ही आग्रह उन्होंने रखा है। इसलिए भारत की स्वराज-प्रवृत्ति का अर्थ उनकी इस वामनमूर्ति पुस्तक 'हिंद स्वराज' से न किया जाए।
गांधीजी की यह चेतावनी कांग्रेस स्वराज-आंदोलन विपर्यास करने वालों के लिए थी। आज जो लोग भारत का स्वराज चला रहे हैं, उनके बचाव में भी यह सूचना काम आ सकती है। भारत के राष्ट्रीय विकास का दिन-रात चिंतन करने वाले चिंतक और नेता भी कह सकते हैं कि हमारे सिर पर 'हिंद स्वराज' के आदर्श का बोझा गांधीजी ने रखा था।
लेकिन अगर गांधीजी की बात सही है और भारत का और दुनिया का भला 'हिंद स्वराज' में प्रतिबिंबित सांस्कृतिक आदर्श से ही होने वाला है, तो इसके चिंतन का, नव-ग्रथन का और आचरण का भार किसी के सिर पर तो होना ही चाहिए।
मैंने एक दफा गांधीजी से कहा था कि आपने अपनी स्वराज सेवा के प्रारंभ में 'हिंद स्वराज' नामक जो पुस्तक जो लिखी उसमें आपके मौलिक विचार हैं, तो भी शंका होती है कि वे रस्किन, थोरो, एडवर्ड कारपेंटर, टेलर, मैक्स नार्डू आदि लोगों के चिंतन से प्रभावित हैं। इन लोगों ने आधुनिक सभ्यता के दोष दिखाए हैं। विश्व-बंधुत्व की बुनियाद पर स्थापित पुरानी सभ्यता का इन लोगों ने पुरस्कार किया, इसलिए आपका 'हिंद स्वराज' पढ़ने से यही ख्याल होता है कि आप भूतकाल को फिर से जाग्रत करने के पक्ष में हैं। आपको बार-बार कहना पड़ता है कि भूतकाल के उपासक नहीं हैं। मानव-जाति ने गलत रास्ते जितनी प्रगति की उतना रास्ता पीछे चलकर सच्चे रास्ते पर लोगने के बाद आप फिर नीतिनिष्ठा, आत्मनिष्ठा रास्ते से नई ही प्रगति करना चाहते हैं। तो : आपका जीवन-कार्य करीब-करीब समाप्त होने आया है। भारत का स्वराज स्थापित होने की तैयारी है। ऐसे समय पर आप फिर से अपने जीवन भर के अनुभव और चिंतन की बुनियाद पर ऐसी एक नई ही किताब क्यों नहीं लिखते, जिसमें भविष्य की एक हजार साल की महामानव संस्कृति की बीज दुनिया को मिले? वे अपने कार्य में इतने व्यस्त थे और बिगड़ता हुआ मामला सुधारने की प्राणपण से चेष्टा करने के लिए इतने चिंतित थे कि मेरी सूचना या प्रार्थना सुनने की भी उनकी तैयारी नहीं थी।
अब जब गांधीजी का दुनियवी जीवन पूरा हो चुका है और उनके लेखों का, भाषणों का, पत्रों का और मुलाकातों का अशेष संग्रह तैयार हो रहा है, तब आदर्श-संस्कृति के बारे में और उसे स्थापित करने के बारे में गांधीजी के विचार इकट्ठा करके ऐसा एक प्रभावशाली चित्र किसी अधिकारी व्यक्ति को तैयार करना चाहिए, जिसे हम 'हिंद स्वराज' की परिणत आवृत्ति नहीं कहेंगे; उसे तो स्वराज भोगी भारत का विश्वकार्य या ऐसा ही कुछ कहना होगा।
जो हो, ऐसी एक किताब की बहुत ही जरूरत है।
इसके मानी यह नहीं कि वह किताब इस 'हिंद स्वराज' का स्थान ले सकेगी। इस अमर किताब का स्थान तो भारतीय जीवन में हमेशा के लिए रहेगा ही।
1 अगस्त, 1959 काका कालेलकर
नई आवृत्ति की प्रस्तावना
('हिंद स्वराज' की यह जो नई आवृत्ति प्रकाशित होती है, उसके दीबाचे के तौर पर 'आर्यन पाथ' मासिक के 'हिंद स्वराज अंक' की जो समालोचना मैंने 'हरिजन' में अंग्रेजी में लिखी थी, उसका तरजुमा देना यहाँ नामुनासिब नहीं होगा। यह सही है कि 'हिंद स्वराज' की पहली आवृत्ति में गांधीजी के जो विचार दिखाए गए हैं, उनमें कोई फेर बदल नहीं हुआ है। लेकिन उनका उत्तरोत्तर विकास तो हुआ ही है। मेरे नीचे दिए हुए लेख में उस विकास के बारे में कुछ चर्चा की गई है। उम्मीद है कि उससे गांधीजी के विचारों को ज्यादा साफ समझने में मदद होगी। - म.ह.दे.)
महत्व का प्रकाशन
'आर्यन पाथ' मासिक ने अभी-अभी 'हिंद स्वराज अंक' प्रकाशित किया है। जिस तरह ऐसा अंक निकालने का विचार अनोखा है, उसी तरह उसका रूप-रंग भी बढ़िया है। इसका प्रकाशन श्रीमती सोफिया वाड़िया के भक्तिभाव-भरे श्रम का आभारी है। उन्होंने 'हिंद स्वराज' की नकलें परदेश में अपने अनेक मित्रों को भेजी थीं और उनमें जो मुख्य थे उन्हें उस पुस्तक के बारे में अपने विचार लिख भेजने के लिए कहा था। खुद श्रीमती सोफिया वाड़िया ने तो उस पुस्तक के बारे में लेख लिखे ही थे और ये विचार जाहिर किए थे कि उसमें भारतवर्ष के उजले भविष्य की आशा रही है। लेकिन उस पुस्तक में यूरोप की अंधाधुंधी को मिटाने की शक्ति है, ऐसा यूरोप के विचारकों और लेखक-लेखिकाओं से उन्हें कहलाना था। इसलिए उन्होंने यह योजना निकाली। उसका नतीजा अच्छा आया है। इस खास अंक में अध्यापक सॉडी, कोल, डिलाइल बर्न्स, मिडलटन मरी, बेरेसफर्ड, ह्यूम फॉसेट, क्लॉड हूटन, जिराल्ड हार्ड कुमारी रैथबोन वगैरा अनेक नामी लेखक-लेखिकाओं के लेख छपे हैं। उनमें से कुछ तो शांति वादी और समाजवादी तौर पर मशहूर हैं लेकिन जिनके विचार शांति वाद और समाजवाद के खिलाफ हैं, ऐसे लोगों के लेख भी इस अंक में आए होते तो अंक कैसा होता! जो लेख दिए गए है उनकी व्यवस्था इस तरह की गई है कि 'शुरू के लेखों में जो आलोचनाएँ और उज्र आए हैं, उनमें से बहुते के जवाब बाद के लेखों में आ जाते हैं।' लेकिन दो-एक टीकाएँ लगभग सब लेखकों ने की हैं, इसलिए पहले उनका विचार करना ठीक होगा। कुछ बातें ऐसी कही गई हैं, जिन्हें तुरंत स्वीकार कर लेना चाहिए। अध्यापक सॉडी ने लिखा है कि वे हाल में ही हिंदुस्तान में आए थे और यहाँ उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं देखा जिसे ऊपर-ऊपर देखने पर ऐसा लगे कि 'हिंद स्वराज' में बताए हुए सिद्धांतो को कुछ ज्यादा सफलता मिली है। यह बिलकुल सच बात है। ऐसी ही सही बात मि. कोल ने कही है कि गांधीजी 'सिर्फ अकेले की बात सोचनी हो तो वे ऐसे स्वराज के नजदीक इनसान जितना पहुँच सकता है उतना पहुँच ही चुके हैं। लेकिन उसके अलावा एक और सवाल रहता है; यह वह कि इनसान के बीच जो खाई है, खुद अकेले अमुक आचरण करना और दूसरों को उनकी बुद्धि के मुताबिक आचरण करने में मदद करना-इन दोनों के बीच जो अंतर है उसे कैसे पाटा जाए? इस दूसरी चीज के लिए तो औरों के साथ रहकर, उनमें से एक बनकर, उनके साथ तादात्म्य-एकता सुधार कर मनुष्य को आचरण करना पड़ता है; एक ही समय में अपना असली रूप और दूसरे का धारण किया हुआ रूप यानी व्यक्तित्व (जिसे खुद जाँच सके, जिसकी टीका-टिप्पण कर सके और जिसकी कीमत आँक सके), ऐसे दो तरह के बरताव रखने पड़ते हैं। गांधीजी ने अपने आचरणकी साधना को आखिरी हद तक पहुँचाया जरूर है, लेकिन इस दूसरे सवाल को, खुद को संतोष हो इस तरह, वे हल नहीं कर पाए हैं। फिर जॉन मिडलटन मरी कहते हैं वह भी सही है कि 'अहिंसा को अगर सिर्फ राजनीतिक दबाव के एक साधन के तौर पर इस्तेमाल किया जाए, तो उसकी शक्ति जल्दी खतम होती है।' और फिर सवाल उठता है कि 'ऐसी अहिंसा को क्या सच्ची अहिंसा कहा जा सकता है?'
लेकिन यह सारी प्रक्रिया लगातार विकास की क्रिया है। उस संध्या की सिद्धि के लिए कोशिश करते-करते मनुष्य साधन की संपूर्णता के लिए भी कोशिश करता रहता है। सैकड़ों बरस पहले बुद्ध और ईसा मसीह ने अहिंसा और प्रेम के सिद्धांत का उपदेश किया था। इन सैकड़ो बरस में इक्के-दुक्के व्यक्तियों ने छोटे-छोटे सीमित प्रश्नों में उनका प्रयोग किया है। गांधीजी के बारे में एक बात स्वीकार हो चुकी है, जिसका जिक्र करते हुए इस लेख-संग्रह में जिराल्ड हर्ड ने कहा है कि 'गांधीजी के प्रयोग में सारे जगत को दिलचस्पी है, और उसका महत्व युगों तक कायम रहेगा। इसका कारण यह है कि उन्होंने समूह को लेकर या राष्ट्रीय पैमाने पर उसका प्रयोग करने की कोशिश की है।' उस प्रयोग की कठिनाइयाँ तो साफ है, लेकिन गांधीजी को भरोसा है कि इन मुसीबतों को पार करना नामुमकिन नहीं हैं। हिंदुस्तान में 1921 में वह प्रयोग नामुमकिन मालूम हुआ और उसे छोड़ देना पड़ा। लेकिन जो बात उस समय नामुमकिन थी, वह 1930 में मुमकिन हुई। अब भी बहुत बार यह सवाल उठता है कि 'अहिंसक साधन का अर्थ क्या है?' उस शब्द का सबको मंजूर हो ऐसा अर्थ और उसकी मर्यादा तय करने और उसे चालू करने से पहले अहिंसक लेंबे अरसे तक प्रयोग और आचरण करने की जरूरत है। पश्चिम के विचारक अकसर भूल जाते हैं कि अहिंसा के आचरणों में सबसे जरूरी और टाली जा सकने वाली चीज प्रेम है; और शुद्ध नि:स्वार्थ प्रेम मन की और शरीर की बेदाग-निष्कलंक शुद्धि के बिना संभव नहीं है और प्राप्त नहीं किया जा सकता।
'हिंद स्वराज' की प्रशंसा भरी समालोचना में सब लेखकों ने एक बात का जिक्रकिया है : वह है गांधीजी का यंत्रो के बारे में बिरोध।
समालोचना इस विरोध को नामुनासिब और अकारण मानते हैं। मिडलटन मरी कहते हैं : 'गांधीजी अपने विचार के जोश में यह भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है, वह भी एक यंत्र ही है और कुदरत की नहीं लेकिन इंसान की बनाई हुई एक अकुदरती-कुत्रिम चीज है। उनके उसूल के मुताबिक तो उसका भी नाश करना होगा।' डिलाइल बर्न्स कहते हैं : 'यह तो बुनियादी विचार-दोष है। उसमें छिपे रूप से यह बात सूचित की गई है कि जिस किसी चीज का बुरा उपयोग हो सकता है, उसे हमें नैतिक दृष्टि से हीन मानना चाहिए। लेकिन चरखा भी तो एक यंत्र ही है। और नाक पर लगाया हुआ चश्मा भी आँख की मदद करने को लगाया हुआ यंत्र ही है। हल भी यंत्र है। और पानी खिंचने के पुराने से पुराने यंत्र भी शायद मानव-जीवन को सुधारने की मनुष्य की हजारों बरस की लगातार कोशिश के आखिरी फल होंगे...। किसी भी यंत्र का बुरा उपयोग होने की संभावना रहती है। लेकिन अगर ऐसा हो तो उसमें रही हुई नैतिक हीनता यंत्र की नहीं, लेकिन उपयोग करने वाले मनुष्य की है।'
मुझे इतना तो कबूल करना चाहिए कि गांधीजी ने 'अपने विचारो के जोश में' यंत्रों के बारे में अनगढ़ भाषा इस्तेमाल की है और आज अगर वे इस पुस्तक को फिर से सुधारने बैठें तो उस भाषा को वे खुद बदल देंगे। क्योंकि मुझे यकीन है कि मैंने ऊपर समालोचकों के जो कथन दिए हैं उनका गांधीजी स्वीकार करेंगे; और जो नैतिक गुण यंत्र के गुण कभी नहीं माना। मिसाल के तौर पर 1924 में उन्होंने जो भाषा इसतेमाल की थी वह ऊपर दिए हुए दो कथनों की याद दिलाती है। उस साल दिल्ली में गांधीजी का एक भाई के साथ जी संवाद हुआ था, वह मैं नीचे देता हूँ :
'क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं?' रामचंद्रन् ने सरल भाव से पूछा। गांधीजी ने मुस्कराते हुए कहा : 'वैसा मैं कैसे हो सकता हूँ, जब मैं जानता हूँ कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है? खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी दाँत-कुरेदनी भी एक यंत्र है। मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं है, बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है, उसके लिए है। आज तो जिन्हें मेहनत बचाने वाले यंत्र कहते हैं, उनके पीछे लोग पागल हो गए हैं। उनसे मेहनत जरूर बचती है, लेकिन लाखों लोग बेकार होकर भूखों मरते हुए रास्तों पर भटकते हैं। समय और श्रम की बचत तो मैं भी चाहता हूँ, परंतु वह किसी खास वर्ग की नहीं, बल्कि सारी मानव-जाति की होनी चाहिए। कुछ गिने-गिनाए लोगों के पास संपत्ति जमा हो ऐसा नहीं, बल्कि सबके पास जमा हो ऐसा मैं चाहता हूँ। आज तो करोड़ों की गरदन पर कुछ लोगों के सवार हो जाने में यंत्र मददगार हो रहे हैं। यंत्रों के उपयोग के पीछे जो प्रेरक कारण है वह श्रम की बचत नहीं है, बल्कि धन का लोभ है। आज की इस चालू अर्थ-व्यवस्था के खिलाफ मैं अपनी तमाम ताकत लगाकर युद्ध चला रहा हूँ।'
रामचंद्रन् ने आतुरता से पूछा : 'तब तो, बापूजी, आपका झगड़ा यंत्रों के खिलाफ नहीं, बल्कि आज यंत्रों का जो बुरा उपयोग हो रहा है उसके खिलाफ है?'
'जरा भी आनाकानी किए बिना मैं कहता हूँ कि 'हाँ'। लेकिन मैं इतना जोड़ना चाहता हूँ कि सबसे पहले यंत्रों की खोज और विज्ञान लोभ के साधन नहीं रहने चाहिए। फिर मजदूरों से उनकी ताकत से ज्यादा काम नहीं लिया जाएगा, और यंत्र रुकावट बनने के बजाए मददगार हो जाएँगे। मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करने का नहीं है, बल्कि उनकी हद बाँधने का है।'
रामचंद्रन् ने कहा : 'इस दलील को आगे बढ़ाए तो उसका मतलब यह होता है कि भौतिक शक्ति से चलने वाले और भारी पेचीदा तमाम यंत्रों का त्याग करना चाहिए।'
गांधीजी ने मंजूर करते हुए कहा : 'त्याग करना भी पड़े। लेकिन एक बात मैं साफ कहना चाहूँगा। हम जो कुछ करें उसमें मुख्य विचार इनसान के भले का होना चाहिए। ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए जो काम न रहने के कारण आदमी के अंगों को जड़ और बेकार बना दें। इसलिए यंत्रों को मुझे परखना होगा। जेसे, सिंगर की सीने की मशीन का मैं स्वागत करूँगा। आज की सब खोजों में जो बहुत काम की थोड़ी खोजें हैं, उनमें से एक यह सीने की मशीन है। उसकी खोज के पीछे अद्भूत इतिहास है। सिंगर ने अपनी पत्नी को सीने और बखिया लगाने का उकताने वाला काम करते देखा। पत्नी के प्रति रहे उनके प्रेम ने गैर जरूरी मेहनत से उसे बचाने के लिए सिंगर को ऐसी मशीन बनाने की प्रेरणा की। ऐसी खोज करके उसने न सिर्फ अपनी पत्नी का ही श्रम बचाया, बल्कि जो भी ऐसी सीने की मशीन खरीद सकते हैं उन सबको हाथ से सीने उबाने वाले श्रम से छुड़ाया है।'
रामचंद्रन् ने कहा : 'लेकिन सिंगर की सीने की मशीनें बनाने के लिए तो बड़ा कारखाना चाहिए और उसमें भौतिक शक्ति से चलने वाले यंत्रों का उपयोग करना ही पड़ेगा।'
रामचंद्रन् के इस विरोध में सिर्फ ज्यादा जानने की ही इच्छा थी। गांधीजी ने मुसकराते हुए कहा : 'हाँ, लेकिन मैं इतना कहने की हद तक समाजवादी तो हूँ ही कि ऐसे कारखानों का मालिक राष्ट्र हो या जनता की सरकार की ओर से ऐसे कारखने चलाए जाएँ। उनकी हस्ती नफे के लिए नहीं बल्कि लोगों के भले के लिए हो। लोभ की जगह प्रेम को कायम करने का उसका उद्देश्य हो। मैं तो यह चाहता हूँ कि मजदूरों की हालत में कुछ सुधार हो। धन के पीछे आज जो पागल दौड़ चल रही है वह रुकनी चाहिए। मजदूरों को सिर्फ अच्छी रोजी मिले, इतना ही बस नहीं है। उनसे हो सके ऐसा काम उन्हें रोज मिलना चाहिए। ऐसी हालत में यंत्र जितना सरकार को या उसके मालिक को लाभ पहुँचाएगा, उतना ही लाभ उसके चलाने वाले मजदूर को पहुँचाएगा। मेरी कल्पना में यंत्रों के बारे में जो कुछ अपवाद हैं, उनमें से एक यह है। सिंगर मशीन के पीछे प्रेम था, इसलिए मानव सुख का विचार मुख्य था। उस यंत्र का उद्देश्य है मानव-श्रम की बचत। उसका इस्तेमाल करने के पीछे मकसद धन के लोभ का नहीं होना चाहिए, बल्कि प्रामाणिक रीति से दया का होना चाहिए। मसलन, टेढ़े तकुवे को सीधा बनाने वाले यंत्र का मैं बहुत स्वागत करूँगा। लेकिन लुहारों का तकुवे बनाने का काम ही खतम हो जाए, यह मेरा उद्देश्य नहीं हो सकता। जब तकुवा टेढ़ा हो जाए तब हर एक कातने वाले के पास तकुवा सीधा कर लेने के लिए यंत्र हो, इतना ही मैं चाहता हूँ। इसलिए लोभ की जगह प्रेम को दें। तब फिर सब अच्छा ही अच्छा होगा।'
मुझे नहीं लगता कि ऊपर के संवाद में गांधीजी ने जो कहा है, उसके बारे में इन आलोचकों में से किसी का सिद्धांत की दृष्टि से विरोध हो। देह की तरह यंत्र भी, अगर वह आत्मा के विकास में मदद करता है तो, और जितनी हद तक मदद करता हो उतनी हद तक ही, उपयोगी है।
पश्चिम की सभ्यता के बारे में भी ऐसा ही है। 'पश्चिम की सभ्यता मनुष्य की आत्मा की महाशत्रु है' - इस कथन का विरोध करते हुए मि. कोल लिखते हैं : मैं कहता हूँ कि स्पेन और एबिसीनिया के भयंकर संहार हमारे सिर पर हमेशा लटकने वाला भय, सब तरह की रिद्धि-सिद्धि पैदा करने की शक्ति मौजूद होने पर भी करोड़ों का दारिद्र्य, ये सब पश्चिम की सभ्यता के दूषण हैं, गंभीर दूषण हैं। लेकिन वे खुदरती नहीं हैं, सभ्यता की जड़ नहीं हैं। ...मैं यह नहीं कहता कि हम अपनी इस सभ्यता को सुधारेंगे; लेकिन वह सुधर ही नहीं सकती, ऐसी मैं नहीं मानता। जो चीजें मानव की आत्मा के लिए जरूरी हैं, उनके साफ इनकार पर उस सभ्यता की रचना हुई है ऐसा मैं नहीं मानता।' बिलकुल सही बात है। और गांधीजी ने उस सभ्यता के जो दूषण बताए वे पुस्तक में गांधीजी का मकसद भारतीय सभ्यता की प्रवृत्ति पश्चिम की सभ्यता की प्रवृत्तियों से कितनी भिन्न हैं यही देखने का था। पश्चिम की सभ्यता को सुधारना नामुमकिन नहीं है, मि. कोल की इस बात से गांधीजी पूरी तरह सहमत होंगे; उनको यह भी मंजूर होगा कि पश्चिम को पश्चिम के ढंग का ही स्वराज चाहिए; वे आसीन से यह भी स्वीकार करेंगे कि वह स्वराज 'गांधी जैसे आत्मा-निग्रहवाले पुरुषों के विचार के अनुसार तो होगा, लेकिन वे पुरुष हमारे पश्चिम के ढंग के होंगे; और वह ढंग गांधी या हिंदुस्तान का नहीं, पश्चिम अपना निराला ही ढंग हो।'
सिद्धांत की मर्यादा
अध्यापक कोल ने नीचे की उलझन सामने रखी है -
'जब जर्मन और इटालियन विमानी स्पेन की प्रजा का संहार कर रहे हों, जब जापान के विमानी चीन के शहरों में हजारों लोगों को कत्ल कर रहे हों, जब जर्मन सेनाएँ आस्ट्रिया में घुस चुकी हों और वेकोस्लोवाकिया में घुस जाने की धमकियाँ दे रही हों, जब एबिसीनिया पर बम बरसाकर उसे जीत लिया गया हो, तब आज के ऐसे समय में क्या यह (अहिंसा का) सिद्धांत टिक सकेगा? दो-एक बरस पहले मैं तमाम संजोगों में युद्ध का और मृत्युकारी हिंसा का विरोध करता था। लेकिन आज, युद्ध के बारे में मेरे दिल में नापसंदगी और नफरत होने पर भी, इन कत्लेआमों-हत्याकांडों को रोकने के लिए मैं युद्ध का खतरा जरूर उठाऊँगा।
उनके मन में एक-दूसरे के विरोधी ये विचार सख्त संघर्ष मचा रहे हैं, यह नीचे की सतरों से जाहिर होता है। वे कहते हैं :
'मैं युद्ध का खतरा जरूर उठाऊँगा, परंतु अभी भी मेरा वह दूसरा व्यक्तित्व इनसान की हत्या करने के विचार से घबराकर, चोट खाकर पीछे हटता है। मैं खुद तो दूसरे की जान लेने के बजाए अपनी जान देना पसंद करूँगा। लेकिन अमुख संजोगों में खुद मर-मिटने के बजाए दूसरे की जान लेने की कोशिश करना क्या मेरा फर्ज नही होगा? गांधी शायद जवाब देंगे कि जिसने व्यक्तिगत स्वराज पाया है, उसके सामने ऐसा धर्मसंकट पैदा ही नहीं होगा। ऐसा व्यक्तिगत स्वराज मैंने पाया है, यह मेरा दावा नहीं है। लेकिन ख्याल कीजिए कि मैंने ऐसा स्वराज पा लिया है, तो भी उसे पश्चिम यूरोप में आज के समय मेरे लिए यह सवाल कुछ कम जोरदार हो जाएगा ऐसा मुझे विश्वास नहीं होता।'
मि. कोल ने जो संजोग बताए हैं, वे मनुष्य की श्रद्धा की कसौटी जरूर करते हैं। लेकिन इसका जवाब गांधी जी अनेक बार दे चुके हैं, हालाँकि उन्होंने अपना व्यक्तिगत स्वराज पूरी तरह पाया नहीं है; क्योंकि जब तक दूसरे देशबंधुओं ने स्वराज नहीं पाया है, तब तक वे अपने पाए हुए स्वराज को अधूरा ही मानते हैं। लेकिन वे श्रद्धा के साथ जीते हैं और अहिंसा के बारे में उनकी जो श्रद्धा है वह इटली या जापान के किए हुए कत्लेआमों की बात सुनते ही डगमगाने नहीं लगती। क्योंकि हिंसा में से हिंसा के ही नतीजे पैदा होते हैं; और एक बार उस रास्ते पर जा पहुँचे कि फिर उसका कोई अंत ही नहीं आता। 'चीन का पक्ष लेकर आपको लड़ना चाहिए' ऐसा कहने वाले एक चीनी मित्र को जवाब देते हुए 'वार रेजिस्टर' नामक पत्र में फिलिप ममफर्ड ने लिखा है :
'आपकी शत्रु तो जापान की सरकार है; जापान के किसान और सैनिक आपके दुश्मन नहीं हैं। उन अभागे और अनपढ़ लोगों को तो मालूम भी नहीं कि उन्हें क्यों लड़ने का हुक्म किया जाता है। फिर भी, अगर आप अपने देश के बचाव के लिए मौजूदा लश्करी तरीकों का उपयोग करेंगे, तो आपको इन बेकसूर लोगों को ही - जो अपने बच्चे दुश्मन नहीं हैं उन्हीं को-मारना पड़ेगा। अहिंसा की जो रीति गांधीजी ने हिंदुस्तान में आजमाई, उसी के जरिए अगर चीन अपनी रक्षा करने की कोशिश करेगा-और गांधीजी की वह रीति चीन के महान धर्म-गुरुओं के उपदेश से बहुत ज्यादा मेल खाती है - तो मैं बेधड़क कहूँगा कि यूरोप के शस्त्रयुद्ध की रीति की नकल करने के बजाए इस अहिंसा की रीति से उसे बहुत ज्यादा सफलता मिलेगी। ...चीन की जनता, जो जगत की सबसे ज्यादा शांति प्रिय प्रजा है, जगत की किसी भी लड़ाकू प्रजा के बनिस्बत ज्यादा लंबे अरसे तक अपने को और अपनी संस्कृति को कायम रख सकती है, यह हकीकत ही मानव-जाति के लिए एक सबक है। जो शूरवीर चीनी अपने देश के बचाव के लिए लड़ रहे हैं, उनके लिए हमें आदर नहीं है ऐसा आप न मानें। हम उनके त्याग और बलिदान की भारी कदर करते हैं और समझते हैं कि वे हमसे भिन्न सिद्धांतों में मानने वाले हैं। फिर भी हम तो मानते हैं कि हिंसा सब संजोग में बुरी है और उसमें से अच्छा फल निकलना असंभव है। अहिंसा का पालन आपको तमाम दुखों से उबार तो नहीं लेगा, लेकिन मैं मानता हूँ कि आपके सब शस्त्र-अस्त्रों और लश्करों के बनिस्बत अहिंसा एक अरसे के बाद आपके भावी विजेता के खिलाफ ज्यादा असरकारक साबित होगी; और सबसे ज्यादा महत्व की बात तो यह है कि इससे आपकी प्रजा के आदर्श जीवित रहेंगे।'
कुमारी रैथबोन ने ऐसी ही एक समस्या रखी है। वे लिखती हैं : 'जालिम के सामने सिर झुकाकर और अपनी अंदर की आवाज के विरुद्ध चलकर अगर छोटे मुलायम बच्चों और बच्चियों को बचाया जा सकता हो, तो इस दुनिया में ऐसा कौन आदमी है - सामान्य या संतपुरुष - है, जो उसकी हत्या होने देगा? गांधी इस सवाल का जवाब नहीं देते। उन्होंने यह सवाल उठाया तक नहीं है। ...इस बारे में ईसा मसीह का कहना ज्यादा स्पष्ट है। ...उनके शब्द ये हैं : मुझ पर श्रद्धा रखने वाले इन नन्हें मुन्नो के खिलाफ जो कोई हाथ उठाए, उसके गले में चक्की का पाट लटकाकर उसे समुद्र के पानी में डुबों दिया जाए। ...यों हमें इस बारे में गांधीजी बनिस्बत ईसा मसीह की ओर से ज्यादा मदद मिलती है...।'
मुझे लगता है कि ईसा मसीह के वचन सिर्फ उनका पुण्य-प्रकोप प्रकट करते हैं, और उन्होंने जो कदम उठाने की बात कही है, वह गुनहगारों को कोई और आदमीसजा करे इसलिए नहीं, बल्कि गुनहगार खुद अपने को प्रायश्चित के तौर पर सजा दे इसलिए है। और क्या कुमारी रैथबोन ने पक्का यकीन है कि जिसे वे ईसा का उपाय मानती हैं, उसे आजमाकर वे बालकों को मौत से बचा सकेंगी? गांधीजी ने यह सवाल उठाया ही नहीं है, ऐसा उनका मानना सही नहीं है। उन्होंने यह सवाल उठाया है और उसका साफ-साफ जवाब भी दिया है; जैसे 1300 बरस पहले उन अमर मुश्लिम शहीदों ने भी यह सवाल उठाया था ओर अपने काम से उसका जवाब दिया था। जालिम के सामने झुकने और अपनी अंतर आत्मा को धोखा देने के बजाए अपने बीबी बच्चों को भूखे-प्यासे तड़पते हुए मरने देना ही उन्होंने ज्यादा पसंद किया था; क्योंकि जालिम के सामने झुकने और अपनी अंतर-आत्मा को धोखा देने का परिणाम यही होता है कि जालिम नए-नए जुल्म गुजारने का बढ़ावा मिलता है।
लेकिन कुमारी बैथबोन ने भी 'हिंद स्वराज' को 'बहुत भारी असरकारक पुस्तक' कहा है और लिखा है कि 'उसे पढ़कर, उसमें रही भारी प्रामाणिकता को देखकर अपनी प्रामाणिकता की जाँच करना मेरे लिए जरूरी हो गया है। लोगों से मेरी बिनती है कि वे इस पुस्तक को जरूर पढ़ें।'
'आर्यन पाथ' मासिक के संपादकों ने यह 'हिंद स्वराज अंक' निकालकर शांति और अहिंसा के कार्य की निर्विवाद सेवा की है, ऐसा हमें कहना होगा।
महादेव हरिभाई देसाई
(अंग्रेजी के गुजराती अनुवाद से)
उपोद्घात
लॉर्ड लोधियन जब सेवाग्राम आए थे तब उन्होंने मुझसे 'हिंद स्वराज' की नकल माँगी थी। उन्होंने कहा था : 'गांधीजी आजकल जो कुछ भी कह रहे हैं वह इस छोटी सी किताब में बीज के रूप में है, और गांधीजी का ठीक से समझने के लिए यह किताब बार-बार पढ़नी चाहिए'।
अचरज की बात यह है कि उसी अरसे में श्रीमती सोफिया वाड़िया ने 'हिंद स्वराज' के बारे में एक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने हमारे सब मंत्रियों से, धारासभा के सदस्यों से, गोरे और भारतीय सिविलियनों से, इतना ही नहीं, आज के लोक-शासन के अहिंसक प्रयोग की सफलता चाहने वालेहर एक नागरिक से यह किताब बार-बार पढ़ने की सिफारिश की थी। उन्होंने लिखा था : 'अहिंसक आदमी अपने ही घर में तानाशाही कैसे चला सकता है? वह शराब कैसे बेच सकता है? अगर वह वकील हो तो अपने मुवक्किल को आदालत में जाकर लड़ने की सलाह कैसे दे सकता है? इन सारे सवालों का जवाब देते समय बहुत ही महत्व के राजनीतिक सवालों का विचार करना जरूरी हो जाता है। 'हिंद स्वराज' में इन प्रश्नों की सिद्धांत की दृष्टि से चर्चा की गई है। इसलिए वह पुस्तक लोगों में ज्यादा पढ़ी जानी चाहिए और उसमें जो कहा गया है उसके बारे में लोकमत तैयार करना चाहिए।'
सोफिया वाड़िया की बिनती ठीक वक्त पर की गई है। 1909 में गांधीजी ने विलायत से लौटते हुए जहाज पर यह पुस्तक लिखी थी। हिंसक साधनों में विश्वास रखने वाले कुछ भारतीय के साथ जो चर्चाएँ हुई थीं, उन पर से उन्होंने मूल पुस्तक गुजराती में लिखी थी और 'इंडियन ओपीनियन' नामक साप्ताहिक में सिलसिलेवार लेखों में उसे प्रगट किया गया था। बाद में उसे पुस्तक के रूप में प्रकट किया गया और बंबई सरकार ने उसे जब्त किया। गांधीजी ने मि. कैलनबैक के लिए उस किताब का अंग्रेजी में जो अनुवाद किया था, उसे बंबई सरकार ने हुक्म के जवाब के रूप में प्रकाशित किया गया। गोखलेजी ने 1912 में जब दक्षिण अफ्रीका गए तब उनहोंने वह अनुवाद देखा। उन्हें उसका मजमून इतना अनगढ़ लगा और उसके विचार ऐसे जल्दबाजी में बने हुए लगे कि उन्होंने भविष्यवाणी की कि गांधीजी एक साल भारत में रहने के बाद खुद ही उस पुस्तक का नाश कर देंगे। गोखलजी की वह भविष्यवाणी सच नहीं निकली। 1921 में गांधीजी ने उस पुस्तक के बारे में लिखते हुए कहा था :
वह द्वेषधर्म की जगह प्रेमधर्म सिखाती है; हिंसा की जगह आत्मबलिदान को रखती है; पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है। उसमें से मैंने सिर्फ एक ही शब्द -और वह एक महिला मित्र की इच्छा को मानकर - रद किया है। उसे छोड़कर कुछ भी फेरबदल नहीं किया है। इस किताब में आधुनिक सभ्यता की सख्त टीका की गई है, वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है। ...लेकिन मैं पाठकों को एक चेतावनी देना चाहता हूँ। वे ऐसा न मान लें कि इस किताब में जिस स्वराज की तस्वीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज कायम करने के लिए आज मेरी कोशिशें चल रही हैं, मैं जानता हूँ कि अभी हिंदुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है। ऐसा कहने में शायद ढिठाई का भास हो, लेकिन मुझे तो पक्का विश्वास है। उसमें जिस स्वराज की तस्वीरे मैंने खींची है, वैसा स्वराज पाने की मेरी निजी कोशिश जरूर चल रही है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज की मेरी सामूहिक प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पार्लियामेंटरी ढंग का स्वराज पाना है।'
1938 में भी गांधीजी को कुछ जगहों पर भाषा बदलने के सिवा और कुछ फेरबदल करने जैसा नहीं लगा। इसलिए यह किताब किसी भी प्रकार की काट-छाँट के बिना मूल रूप में ही फिर से प्रकाशित की जाती है।
लेकिन इसमे बताए हुए स्वराज के लिए हिंदुस्तान तैयार हो या न हो, हिंदुस्तानियों के लिए यह उत्तम है कि वे इस बीज रूप ग्रंथ का अध्ययन करें। सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों के स्वीकार से अंत में क्या नतीजा आएगा, उसकी तस्वीर इसमें है। इसे पढ़ कर उन सिद्धांतों को स्वीकार करना चाहिए या उनका त्याग, यह तो पाठक ही तय करें।
वर्धा, 02-02-1938
महादेव हरिभाई देसाई
(अंग्रेजी के गुजराती अनुवाद से)
संदेश
जिन सिद्धांतों के समर्थन के लिए 'हिंद स्वराज' लिखी गई थी, उन सिद्धांतों की आप जाहिरात करना चाहती हैं, यह मुझे अच्छा लगता है। मूल पुस्तक गुजराती में लिखी गई थी; अंग्रेजी आवृत्ति गुजराती का तरजुमा है। यह पुस्तक अगर आज मुझे फिर से लिखनी हो, तो कहीं-कहीं मैं उसकी भाषा बदलूँगा। लेकिन इसे लिखने के बाद जो तीस साल मैंने अनेक आँधियों में बिताए हैं, उनमें मुझे इस पुस्तक में बताए हुए विचारों में फेरबदल करने का कुछ भी कारण नहीं मिला। पाठक इतना ख्याल में रखें कि कुछ कार्यकर्ताओं के साथ, जिनमें एक कट्टर अराजकतावादी थे, मेरी जो बातें हुई थीं, वे जैसी की तैसी मैंने इस पुस्तक में दे दी हैं। पाठक इतना भी जान ले कि दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों में जो सड़न दाखिल होने वाली ही थी, उसे इस पुस्तक ने रोका था। इसके विरुद्ध दूसरे पल्ले में रखने के लिए पाठक मेरे एक स्वर्गीय मित्र की यह राय भी जान लें कि 'यह एक मूर्ख आदमी की रचना है।'
सेवाग्राम, 14-7-1938
मोहनदास करमचंद गांधी
(अंग्रेजी के गुजराती अनुवाद से)
'हिंद स्वराज' के बारे में
मेरी इस छोटी सी किताब की ओर विशाल जनसंख्या का ध्यान खिंच रहा है, यह सचमुच ही मेरा सौभाग्य है। यह मूल तो गुजराती में लिखी गई है। इसका जीवन-क्रम अजीब है। यह पहले-पहल दक्षिण अफ्रीका में छपने वाले साप्ताहिक 'इंडियन ओपीनियन' में प्रगट हुई थी। 1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए जहाज में हिंदुस्तानियों के हिंसावादी पथ को और उसी विचार धारा वाले दक्षिण अफ्रीका के एक वर्ग को दिए गए जवाब के रूप में यह लिखी गई थी। लंदन में रहने वाले हर एक नामी अराजकतावादी हिंदुस्तानी के संपर्क में आया था। उनकी शूरवीरता का असर मेरे मन में पड़ा था, लेकिन मुझे लगा कि उनके जोश ने उल्टी राह पकड़ ली है। मुझे लगा कि हिंसा हिंदुस्तान के दुखों का इलाज नहीं है, और उनकी संस्कृति को देखते हुए उसे आत्मरक्षा के लिए कोई अलग और ऊँचे प्रकार का शस्त्र काम में लाना चाहिए। दक्षिण अफ्रीका का सत्याग्रह उस वक्त मुश्किल से दो साल का बच्चा था। लेकिन उसका विकास इतना हो चुका था कि उसके बारे में कुछ हद तक आत्म-विश्वास से लिखने की मैंने हिम्मत की थी। मेरी वह लेख माला पाठक-वर्ग को इतनी पसंद आई कि वह किताब के रूप में प्रकाशित की गई। हिंदुस्तान में उसकी ओर लोगों का कुछ ध्यान गया। बंबई सरकार ने उसके प्रचार की मनाही कर दी। उसका जवाब मैंने किताब का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करके दिया। मुझे लगा कि अपने अंग्रेज मित्रों को इस किताब के विचारों से वाकिफ करना उनके प्रति मेरा फर्ज है।
मेरी राय में यह किताब ऐसी है कि यह बालक के हाथ में भी दी जा सकती है। यह द्वेषधर्म की जगह प्रेमधर्म सिखाती है; हिंसा की जगह आत्म-बलिदान को रखती है; पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है। इसकी अनेक आवृत्तियाँ हो चुकी हैं; और जिन्हें इसे पढ़ने की परवाह है उनसे इसे पढ़ने की मैं जरूर सिफारिश करूँगा। इसमें से मैं सिर्फ एक ही शब्द - और वह एक महिला मित्र की इच्छा को मानकर - रद किया है; इसके सिवा और कोई फेरबदल मैंने इसमें नहीं किया है।
इस किताब में 'आधुनिक सभ्यता' की सख्त टीका की गई है। 1909 में लिखी गई थी। इसमें मेरी जो मान्यता प्रगट की गई है, वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है। मुझे लगता है कि अगर हिंदुस्तान 'आधुनिक सभ्यता' का त्याग करेगा, तो उससे उसे लाभ ही होगा।
लेकिन मैं पाठकों को एक चेतावनी देना चाहता हूँ। वे ऐसा न मान ले कि इस किताब में जिस स्वराज की तस्वीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज कायम करने के लिए आज मेरी कोशिशें चल रही हैं। मैं जानता हूँ कि अभी हिंदुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है। ऐसा कहने में शायद ढिठाई का भास हो, लेकिन मुझे तो पक्का विश्वास है कि इसमें जिस स्वराज की तस्वीर मैंने खींची है, वेसा स्वराज पाने की मेरी निजी कोशिश जरूर चल रही है। लेकिन इसमे कोई शक नहीं कि आज मेरी सामूहिक प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पार्लियामेंटरी ढंग का स्वराज पाना है। रेलों या अस्पतालों का नाश करने का ध्येय मेरे मन में नहीं है, अगरचे उनकी खुदरती नाश हो तो मैं जरूर उसका स्वागत करूँगा। रेल या अस्पताल दोनों में से एक भी ऊँची और बिलकुल शुद्ध संस्कृति की सूचक (चिह्न) नहीं है। ज्यादा से ज्यादा इतना ही कह सकते हैं कि यह एक ऐसी बुराई है, जो टाली नहीं जा सकती। दोनों में से एक भी हमारे राष्ट्र की नैतिक ऊँचाई में एक इंच की भी बढ़ती नहीं करती। उसी तरह मैं अदालतों के स्थायी नाश का ध्येय मन में नहीं रखता, हालाँकि ऐसा नतीजा आए तो मुझे अवश्य बहुत अच्छा लगेगा। यंत्रों और मिलो के नाश के लिए तो मैं उससे भी कम कोशिश करता हूँ। उसके लिए लोगों की आज जो तैयारी है उससे कहीं ज्यादा सादगी और त्याग की जरूरत रहती है।
इस पुस्तक में बताए हुए कार्यक्रम के एक ही हिस्से का आज अमल हो रहे हैं; वह है अहिंसा। लेकिन मैं अफसोस के साथ कबूल करूँगा कि उसका अमल भी इस पुस्तक में दिखाई हुई भावना से नहीं हो रहा है। अगर हो तो हिंदुस्तान एक ही रोज में स्वराज पा जाए। हिंदुस्तान अगर प्रेम के सिद्धांतों को अपने धर्म के एक सक्रिय अंश के रूप में स्वीकार करे और उसे अपनी राजनीति में शामिल करे, तो स्वराज स्वर्ग से हिंदुस्तान की धरती पर उतरेगा। लेकिन मुझे दुख के साथ इस बात का मान है कि ऐसा होना बहुत दूर की बात है।
ये वाक्य मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि आज के आंदोलन को बदनाम करने के लिए इस पुस्तक में से बहुत सी बातों का हवाला दिया जाता मैंने देखा है। मैंने इस मतलब के लेख भी देखे हैं कि मैं कोई गहरी चाल चल रहा हूँ, आज की उथल-पुथल से लाभ उठाकर अपने अजीब ख्याल भारत के सिर लादने की कोशिश कर रहा हूँ और हिंदुस्तान को नुकसान पहुँचाकर अपने धार्मिक प्रयोग कर रहा हूँ। इसका मेरे पास यही जवाब है कि सत्याग्रह ऐसी कोई कच्ची खोखली चीज नहीं है। उसमें कुछ भी दुराव-छिपाव नहीं है, उसमें कुछ भी गुप्तता नहीं है। 'हिंद स्वराज' में बताए हुए संपूर्ण जीवन-सिद्धांतों के एक भाग को आचरण में लाने की कोशिश हो रही है, इसमें कोई शक नहीं। ऐसा नहीं कि उस समूचे सिद्धांत का अमल करने में जोखिम है; लेकिन आज देश के सामने जो प्रश्न है उसके साथ जिन हिस्सों का कोई संबंध नहीं है ऐसे हिस्से मेरे लेखों में से देकर लोगों को भड़काने में न्याय हरगिज नहीं है।
जनवरी, 1921
मोहनदास करमचंद गांधी,
('यंग इंडिया' के गुजराती अनुवाद से)
प्रस्तावना
इस विषय पर मैंने जो बीस अध्याय लिखे हैं, उन्हें पाठकों के सामने रखने की मैं हिम्मत करता हूँ।
जब मुझसे रहा ही नहीं गया तभी मैंने यह लिख है। बहुत पढ़ा, बहुत सोचा। विलायत में ट्रांसवाल डेप्युटेशन के साथ मैं चार माह रहा, उस बीच हो सका उतने हिंदुस्तानियों के साथ मैंने सोच-विचार किया, हो सका उतने अंग्रेजों से भी मैं मिला। अपने जो विचार मुझे आखिरी मालूम हुए, उन्हें पाठकों के सामने रखना मैंने अपना फर्ज समझा।
'इंडियन ओपीनियन' के गुजराती ग्राहक आठ सौ के करीब हैं। हर ग्राहक के पीछे कम से कम दस आदमी दिलचस्पी से यह अखबार पढ़ते हैं, ऐसा मैंने महसूस किया है। जो गुजराती नहीं जानते, वे दूसरों से पढ़वाते हैं। इन भाइयों ने हिंदुस्तान की हालत के बारे में मुझसे बहुत सवाल किए हैं। ऐसा ही सवाल मुझसे विलायत में किए गए थे। इसलिए मुझे लगा कि जो विचार मैंने यों खानगी में बताए, उन्हें सबके सामने रखना गलत नहीं होगा।
जो विचार यहाँ रखे गए हैं, वे मेरे है और मेरे नहीं भी हैं। वे मेरे हैं, क्योंकि उनके मुताबिक बरतने की मैं उम्मीद रखता हूँ; वे मेरी आत्मा में गढे़-जड़े हुए जैसे हैं। वे मेरे नहीं हैं, क्योंकि सिर्फ मैंने ही उन्हें सोचा हो सो बात नहीं। कुछ किताबें पढ़ने के बाद वे बने हैं। दिल में भीतर ही भीतर मैं जो महसूस करता था, उसका इन किताबों ने समर्थन किया।
यह साबित करने की जरूरत नहीं है कि जो विचार मैं पाठकों के सामने रखता हूँ, वे हिंदुस्तान में जिन पर (पश्चिमी) सभ्यता की धुन सवार नहीं हुई है ऐसे बहुतेरे हिंदुस्तानियों के हैं। लेकिन यह विचार यूरोप के हजारों लोगों के हैं, यह मैं अपने पाठकों के मन में सबूतों से ही जँचाना चाहता हूँ। जिसे इसकी खोज करनी हो, जिसे ऐसी फुरसत हो, वह आदमी वे किताबें देख सकता है। अपनी फुरसत से उन किताबों में से कुछ न कुछ पाठकों के सामने रखने की मेरी उम्मीद है।
'इंडियन ओपीनियन' के पाठकों या औरों के मन में मेरे लेख पढ़कर जो विचार आएँ, उन्हें अगर वे मुझे बताएँगे तो मैं उनका आभारी रहूँगा।
उद्देश्य सिर्फ देश की सेवा करने का और सत्य की खोज करने का और उसके मुताबिक बरतने का है। इसलिए अगर मेरे विचार गलत साबित हों, तो उन्हें पकड़ रखने का मेरा आग्रह नहीं है। अगर वे सच साबित हो तो दूसरे लोग भी उनके मुताबिक बरतें, ऐसी देश के भले के लिए साधारण तौर पर मेरी भावना रहेगी।
सुभीते के लिए लेखों को पाठक और संपादक के बीच के संवाद का रूप दिया गया है।
किलडोनन कैसल,
22.11.1909