दो शहर और दो भाइयों का संघर्ष / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 21 नवम्बर 2012
रामगोपाल वर्मा बुढ़ा गए हैं या अपने सिनेमा से ऊब गए हैं। वरना पॉन्टी चड्ढा प्रकरण उनके लिए फिल्म बनाने का अच्छा विषय हो सकता है। शराब व्यापारी पॉन्टी चड्ढा और उसका भाई एक-दूसरे पर गोलियां चलाते हुए अपनी महत्वाकांक्षा और लालच के शिकार हो गए। उत्तरप्रदेश में हजारों खेरची दुकानों और गोदामों के मालिक का यह कमाल था कि वे मायावती के जमाने में फैले थे तो मुलायम सिंह के जमाने में उसके उद्योग में नए विस्तार हो रहे थे। गोयाकि सत्ता परिवर्तन से उसके कारोबारी साम्राज्य में कोई अंतर नहीं पड़ा। पॉन्टी की इस जादूगरी का रहस्य खोजना कोई कठिन काम नहीं होना चाहिए। उत्तरप्रदेश में पॉन्टी चड्ढा की सितारा हैसियत कुछ ऐसी थी कि निर्माता और बैनर के बदलने के बावजूद वह सुपरहिट था। वह स्वतंत्र भारत के नए निजाम का प्रतीक था। उसकी कथा रेग्स टू रिचेस थी। कुछ वर्ष पूर्व शराब की दुकान के बाहर वह नमकीन की रेहड़ी लगाता था। आगे चलकर वह न केवल उसी दुकान का मालिक बना, वरन हजारों की शृंखला खड़ी कर दी। पॉन्टी के उदय के पूर्व यह धंधा कुछ अलग नियमों पर चलता था और इसमें समान हैसियत वाले कई खिलाड़ी थे, परंतु पॉन्टी ने सारे नियम बदल दिए, आबकारी नियमों में परिवर्तन प्रस्तुत किए और वह ऐसा शहंशाह बन गया कि जहां खड़ा होता था, वहीं से कतार शुरू होती थी और कतार में सारे बंदों के चेहरे उसके ही समान थे।
सफलता के साथ नई जीवन-शैली आती हैं। उसने भवन निर्माण का काम भी किया, फिल्मों में पूंजी भी लगाई और फिल्म वितरण व्यवसाय भी स्थापित किया। इसके साथ ही वह मल्टीप्लैक्स उद्योग में कदम जमाने में सफल हुआ। शराब व्यवसाय बारहमासी व्यवसाय है। मनुष्य गम में भी पीता है और खुशी में भी। हर मौसम में हर हाल में पीता है और कई लोग तो इस तरह तबाह होते हैं कि वे उतनी बूंदों के लिए तरसते हैं, जितनी कभी पैमाने में छोड़ देते थे। इसी तरह सिनेमा व्यवसाय को भी सदा-सुहागन व्यवसाय कहते हैं, क्योंकि इसमें नए स्रोत से धन आता रहता है। पुराना एक दफ्तर बंद होता है, तो नई दस दुकानें खुल जाती हैं। यह भी एक तरह का नशा ही है, गोयाकि पॉन्टी चड्ढा साहब नशों के सारे क्षेत्रों के प्रमुख व्यापारी थे। सत्ता भी एक नशा ही है।
कहते हैं कि तीन व्यवसाय ऐसे हैं, जिनमें मंदी के दौर का प्रभाव नहीं पड़ता; शराब, मनोरंजन और शबाब। पॉन्टी शबाब के व्यवसाय में नहीं था। उसकी परीकथा जैसे अविश्वसनीय सफलता की गंगोत्री राजनीति थी, जिसमें उसका सीधा कोई दखल नहीं था। सत्ता का यह दुश्चक्र सर्वव्यापी है कि चुनाव जीतने के लिए धन लगता है और सत्ता धन बनाने के लाइसेंस देती है। अत: उद्योगपति और नेता एक-दूसरे के सहायक होते हैं। बहरहाल, पॉन्टी जांबाज खिलाड़ी था। उसने सफलता पाते ही अपने परिवार के सारे सदस्यों को काम दिया, ओहदे दिए और ताकत दी। कालांतर में महत्वाकांक्षाएं और उपेक्षाएं टकरा जाती हैं और हर सदस्य स्वयं को साम्राज्य के नींव का पत्थर मानने लगता है और एक दिन नींव को ही धक्का लग जाता है। तीव्रगति से अकल्पनीय विकास में ही उसके पतन के कारण भी छुपे होते हैं। यहां बात पॉन्टी चड्ढा के परिवार की नहीं वरन दर्जनों परिवारों की की जा रही है।
प्राय: विकास करते नगरों की सरहदों पर फार्महाउस बनाए जाते हैं। कृषि की जमीन पर खड़े ये जलसाघर विलास के ठिए बन जाते हैं। यहां रास रचे जाते हैं। यह भारत के नव-धनाढ्य लोगों की संस्कारहीनता और प्रदर्शनप्रियता के नमूने हैं। दिल्ली के इर्द-गिर्द ऐसे फार्महाउस हैं, जो दुनिया के किसी भी देश के रईसों की ऐशगाह से बेहतर हैं। पॉन्टी चड्ढा का फार्महाउस संभवत: कुरुक्षेत्र से थोड़ी-सी दूरी पर है, परंतु हकीकत तो यह है कि यहां से हजारों मील दूर भी अनेक लोगों ने अपने घर-आंगन को कुरुक्षेत्र बना दिया है, जहां भाइयों की जंग होती रहती है। कुरुक्षेत्र तो हमारे जींस में बसा है, हमारे डीएनए का हिस्सा है।
जिस दिन पॉन्टी चड्ढा और उसके भाई का कत्ल हुआ, उसी दिन साढ़े तीन बजे बालासाहेब ठाकरे का निधन हुआ। इन घटनाओं में कोई समानता नहीं है, सिवाय इसके कि ठाकरे परिवार भी विभाजित है। अनेक लोगों का अनुमान था कि दुख की इस घड़ी में दोनों दलों का विलय होगा, परंतु अंतिम यात्रा के समय भी अलगाव स्पष्ट नजर आया। उद्धव और राज की अनबन पुरानी है और अब उद्धव का सुपुत्र भी कानून की पढ़ाई के अंतिम वर्ष का छात्र है और उसका राजनीति में आना तय है।
उद्धव और राज में अपनी विशेषताएं हो सकती हैं, परंतु दोनों के पास बालासाहेब ठाकरे का जादू नहीं है। बालासाहेब अपने ओजस्वी भाषणों से एक लहर जगाते थे, परंतु उनके भाषण में हास्य व लतीफे थे और वे एक तरह का वन मैन वैायटी शो प्रस्तुत करते थे। बहरहाल, इस समय देश में सभी ओर भीतरी विभाजन स्पष्ट नजर आता है।