दो संतरे / कुबेर
उस साल इन्द्र देव की खूब कृपा हुई थी। ज्येष्ठ निकलने में सप्ताह भर बाकी था, तब बरसात शुरू हुई थी और अषाड़ का पहला पाख गुजर चुका था और बरसात उसी लय के साथ जारी थी। बरासात ने किसानों को खूब रुलाया था; धान बुआई का काम ले-दे कर पूरा हुआ था।
सुदूर वनांचल बीच; जहाँ की पहाड़ों से अनेक सोते और नाले जन्म लेकर बीच-बीच में छोटे-छोटे झरनों का निर्माण करते हुए आगे बढ़ते हैं, आपस में मिलते हैं और नदियों का रूप लेते हुए मैदानों तक पहुँच कर बड़ी नदी में परिवर्तित हो जाते हैं; एक गाँव है - मड़ावी टोला। मड़ावी टोला के उत्तर पूर्व की ओर पहाड़ों का एक अटूट सिलसिला है। गाँव के दक्षिण-पश्चिम की ओर इन्हीं पहाड़ों से निकल कर एक बरसाती नाला बहता है जो कुछ ही दूर चल कर कोतरी नदी में जा मिलता है। नदी और नाले के बीच छोटा सा समतल और उपजाऊ कछार है, जहाँ मड़ावी टोला के लोगों की खेती बाड़ी है।
मड़ावी टोला आदिवासियों की बस्ती है। यहाँ के अधिकांश आदिवासी मड़ावी गोत्र के है और शायद इसी वजह से इस बसाहट का नाम मड़ावी टोला पड़ गया होगा। इसी गाँव में रहता है, हेड़मू मड़ावी, अपनी पत्नी, बेटा और बहु के साथ। हेड़मू मड़ावी कब का साठ पूरी कर चुका है, फिर भी उनका शरीर मजबूत है; दिन भर खेत में काम करता है। उनकी हमउम्र पत्नी भी उन्हीं की तरह स्वस्थ है और खेत में हमेशा उनके साथ बनी रहती है। हेड़मू परिवार की जरूरतें बहुत सीमित हैं। हेड़मू अपनी खेती-बाड़ी में हमेशा खुश रहता है। किसी बात का दुख नहीं है उसे। उनको, दुख है तो बस एक ही बात का; बेटे की शादी हुए दस साल बीत गए हैं पर उन्हें अब तक औलाद नहीं हुई है। चिंता इस बात की थी कि बंस आगे कैसे चलेगा और फिर किस बुजुर्ग का मन नाती-पोतों के लिये नहीं मचलता होगा? अपने हिसाब से वह बैगा-गुनिया, तेला-बाती, झाड़-फूँक, दवा-दारू, सूजी-पानी सब करके देख लिया है। सब उदीम करके हार गया है हेड़मू मड़ावी। भगवान की मर्जी के आगे भला कोई क्या कर सकता है?
कछार में नाले से लगा हुआ, हेड़मू मड़ावी का आधा-पौन एकड़ का छोटा सा एक खेत है। खरीफ में वह खेत के एक हिस्से में कुलथी और मड़िया तथा बांकी में साठिया धान की खेती करता है। साठिया धान जल्दी पकता है और पानी भी कम लगता है। साठिया धान के बाद बंगाला, मिरी, भाटा, मुरई, गोभी की सब्जियाँ लगाई जाती हैं। खेत के एक कोने में कुछ ऊँची जगह पर उनका झाला है। झाला के खदर की छानी में रखिया, तुमा और कुम्हड़ा भी खूब फलते हैं। खेत में कटहर, आमा, जाम, लिंबू और संतरा के भी पेड़ हैं। अपने-अपने मौसम में ये भी खूब फलते हैं।
हेड़मू पत्नी सहित साल के बाराहों महीने और आठों पहर, बाड़ी में ही रहता है। झाला ही उनका घर है। बहू-बेटे रोज कहते हैं कि दिन में तो ठीक है पर रात बाड़ी म न रहा करें। आखिर यह वनवास क्यों? पर हेड़मू किसी की सुनता कब है? कहता है - गाँव में रखा ही क्या है? जो जमीन पेट भरने के लिये अनाज देती है, वही तो माँ है, उसी का कोरा अच्छा लगता है। घर में पल भर रहने का मन नहीं करता। यहाँ पर खेत है, बाड़ी है, आमा, लिमउ, संतरा, केरा, जाम के भाई जैसे पेड़ हैं; उसी की सेवा-जतन में दिन कँट जाता है।
बेटा का पैर न तो घर में ठहरता है और न ही खेत में। पता नहीं दिन भर कहाँ-कहाँ भटकता रहता है? क्या कमाता है? कहाँ कमाता है? पर कमाता जरूर है। तभी तो घर-गिरस्ती चल रहा है।
बहू सोला आना है। सुबह होते ही वह भी खेत आ जाती है। दो-दो जगह चुल्हा जलाना उचित नहीं है। चुल्हा यहीं जलता है, सुबह का भी और सांझ का भी। दोनों समय का भोजन यहीं बनता है। सांझ के समय सास-ससुर को भोजन कराने के बाद वह रात-मुंधियार होते तक घर लौट जाती है। जिस दिन पति बाहर रहता है, उस दिन दोनों का भोजन वह यहीं से ले जाती है।
बहु की सेवा जतन से हेड़मू का मन सदा प्रसन्न रहता है। कहता है - “कोनों जनम के बेटी होही, सेवा करे बर आय हे।”
यहाँ से दो-तीन कोस की दूरी पर एक बड़ा गाँव है, जहाँ प्रत्येक सनीचर के दिन साप्ताहिक बाजार लगता है। मानपुर, मोहला, नांदगाँव, दल्ली, बालोद के लिए बस भी यहीं से पकड़ना होता है। वहाँ तक जाने का रास्ता हेड़मू के खेत की मेंड़ से ही होकर जाता है। दिन भर लोगों की आवाजाही लगा रहता है। गाँव के संगी-साथी हेड़मू से मिले बिना, राम-रमउवा किये बिना, चोंगी-माखुर पिए बिना आगे नहीं बढ़ते। पाँच-छ कोस के आस-पास के सभी गाँव वाले इसी बाजार में सौदा-सुलफ के लिये आते हैं। सब इसी रास्ते से होकर आते-जाते हैं। हेड़मू-बाड़ी को सब जानते हैं। हेड़मू को भी सब जानते हैं।
खेत और जंगल से जो भी उपज, जैसे - लाख, महुआ, चिरौंजी, इमली इन्हें मिलती है, आस-पास के सारे बनवासी, बाजार से उसके बदले में चहापत्ती, गुड़, नून, माखुर, और साबुन-सोडा बदल लाते है। बीसवीं सदी के अंतिम दिनों में भी वस्तुविनिमय का यह चलन अव्यवहारिक जान पड़ता है, पर फिर भी यह यहाँ चल रहा है क्योंकि बाहर से व्यापार करने के लिये आने वाले व्यापारी इसी के बलबूते तो मौज कर रहे हैं।
बाजार में नांदगाँव, दल्ली और बालौद तक के व्यापारी आकर यहाँ नमक, गुड़, सोने-चाँदी, कपड़े और बर्तन वगैरह की दुकानें लगाते हैं। पाँच साल पहले जो व्यापारी यात्री बस में एक चक्की गुड़ और एक टीपा तेल लेकर आता था, वह अब खुद की ट्रक और जीप से आता है।
बाजार करते-करते हेड़मू मड़ावी का अब चौथा-पन आ गया है। चार-पाँच साल में इन व्यापारियों के पास इतना पैसा कहाँ से आ जाता है? हेड़मू मड़ावी के लिये यह एक पहेली बना हुआ है। सब अपना-अपना भाग है, ज्यादा क्यों सोचे वह इस विषय पर?
भक्कल ऐसा नहीं मानता। वह सोचता है। इसीलिये कई बार वह इन व्यापारियों से उलझ चुका है। आज भी वह हेड़मू से कह रहा था - “ददा! आज तंय बाजार न जा। पानी-बादर के डर हे। चिखला-पानी में थक जाबे। का-का लाना हे बता दे, मैं ले आहूँ।”
हेड़मू, भक्कल का स्वभाव जानता है। पैदा किया है, पाल-पोस कर बड़ा जो किया है उसे। सोचता होगा, ’बुढ़गा आज फिर व्यापारियों के हाथों ठगा कर आयेगा।’ और फिर जवान है, इस उमर में घूमने-फिरने का मन भी तो करता होगा उसका। उनकी अपनी जरूरतें होंगी, बहू की जरूरतें होंगी। कैसे बतायेगा इन बातों को वह? ठीक ही तो कहता है। आज वही जायेगा बाजार।
पर कहीं लखमू आ गया तो? लखमू , हेड़मू का बचपन का साथी है। उमर बीत गई लखमू की, उसके बिना कभी वह बाजार नहीं जाता। आकर जिद्द करेगा। फिर तो वह उसे मना नहीं कर पायेगा, जाना ही पड़ेगा। बचपन का साथ छूटता है क्या? ठीक है, सौदा-सुलफ बेटा कर लेगा। पर संगवारी के साथ वह भी यूँ ही बाजार घूम आयेगा।
आधी रात से बरसात थमी हुई है। अब तो कहीं-कहीं से सूरज भी झांकने लगा है। लगता है आज मौसम खुला रहेगा। तब तो बाजार में खूब भीड़ होगी। दस नहीं बजा है, बजरहा लोग सिर पर सामानों की टोकरी लेकर और तुमा में पेज-पसिया धर-धरके बाजार जाने लगे हैं। हेड़मू झाला के अंदर माखुर बनाता हुआ खटिया पर बैठा हुआ है। आँखें रास्ते पर लगी हुई हैं। अपनों को देेेखकर, जान-पहचान वालों को देखकर, मन में उत्साह भर आता है। अब तक हेड़मू से कई लोग जय-जोहार कर चुके हैं, पर उसके मन में अपेक्षित उत्साह नहीं दिख रहा है, चेहरे पर चमक नहीं है।
तभी कमरा-खुमरी धारी एक आदमी आता दिखाई दिया। चलने का ढंग देखकर हेड़मू ने दूर से ही उसे पहचान लिया। लखमू के सिवा भला वह और कौन हो सकता है?
बाड़ी का राचर हटाकर अंदर आते हुए लखमू ने आवाज लगाई - “मड़ावी पारा कोनों हव जी?”
खाट पर बैठने की जगह बनाते हुए हेड़मू ने कहा - “आ भइया! आ। जोहार ले। तोर दरसन करे बर तो आँखीं मन ह तरसत तिहिथें जी, जुड़ा गे।”
लोटा में पानी रखकर पाँव पड़ते हुए बहु ने कहा - “गजब दिन म दिखेस ममा, ले गोड़ धो ले।”
बहु की ममता भरी आवाज में अपने लिये ममा संबोधन सुनकर लखमू को माँ की याद आ जाती है। आसीस देते हुए कहा - “खुस रह दाई! खुस रह। आजी के दिन तो आय रेहेंव माता, कहाँ गजब दिन होय हे।”
हेड़मू जब तक संगवारी की ओर माखुर की डिबिया बढा़ पाता, बहु गिलास में चहा लेकर आ गई। लखमू ने कहा - “ला न दाई, इही ह तो आजकाल के पेज आय। ..... आज भउजी ह नइ दिखत हे?”
“है न ममा, बखरी म साग सिल्होत हे।” कहती हुई वह भी बाड़ी अंदर चली गई।
लखमू ने बहु को लक्ष्य करके हेड़मू से कहा - “बिहाव होय दस बरिस ले जादा भइगे। दवा-दारू सब करके हार गेस। अउ कतका आस करबे? बाबू के दूसर बिहाव नइ कर देस।”
हेड़मू - “मोरो मन म अइसने बिचार आथे। फेर दुनों झन के मया-परेम ल देखथंव; सग बेटी ह नइ करतिस तइसन सास-ससुर के सेवा करइ ल देखथंव, तहाँ मोर हिम्मत ह हार जाथे। बहु आय फेर बेटी ले बढ़ के हे। भगवान ह नइ चीन्हे तउन ल का करही बिचारी ह। का गलती हे येमा वोकर? तहीं बता; ये ह कोनों तोर बेटी होतिस तब अइसने गोठ करतेस का तंय ह?”
लखमू - “बने केहेस रे भाई, मंय तो तोर मन लेवत रेहेंव। भगवान के जइसन मरजी। पाप के भागी हम काबर बनबोन?”
बहु तब तक बाड़ी से बंगाला, मिरी और धनिया तोड़ कर लौट आई। कहती है - “चटनी पीसत हंव ममा। मोहलाइन पान म अंगाकर रोटी रांधे हंव, खा लेहू तब जाहू।”
लखमू सोचता है - हाथ से थापकर बनाई गई चाँवल के आटे की मोटी रोटी को मोहलाइन अथवा केले के कच्चे पŸो से ढंक कर कंडे के अंगारे की धीमी आंच में जब पकाई जाती है, तो ऐसे पके हुए अंगाकर के स्वाद का मुकाबला छप्पनभोग भी नहीं कर पाता। और फिर बनाने वाली है कौन? अपनी चतुर और गुनी दसमो बहु। साथ में गुड़ और बंगाले की चटनी हो जाय तो फिर और क्या पूछना; स्वाद कई गुना बढ़ जाता है।
चार बजते तक बजरहा लोग अपने-अपने घर लौट आए। दो बजे से ही मौसम फिर गढ़ाने लगा था। दक्षिण की और से कालेजामुन के समान काले-काले बादल आसमान को ढँकने लगे थे। सांझ नहीं हुआ था पर सांझ के छ बजे के समान अंधेरा छा गया था। ऐसा बादर तो पहले कभी नहीं छाया था। आसमान की ओर निहारते हुए हेड़मू ने कहा - “आज तो बादर ह धरती म गिर जाही तइसे लागत हे।”
भक्कल ने कहा - “ददा! आज तो तुमन घर चलो। नंगत पानी गिर जाही ते पुरा आ जाही। तुमन इहाँ छेंका जाहू। के दिन ले पूरा रही न के दिन ले। इहाँ कोन तुँहर सेवा-जतन करही?”
बहु ने भी किलोली किया, भगवान का वास्ता दिया।
पर हेड़मू कब मानने वाला था। उसने कहा - “सालपुट तो पूरा आथे। नवा बात का हे? छेंकइच् जाबोन ते अभी रांधे-खाय के पुरती गत्तर ह चलत हे। तिपो के अलवा-जलवा खा लेबोन। सब जिनिस तो माड़े हे। फिकर काबर करथो?”
“झाला ह बूड़ जाही त कइसे करबे?”
“एको साल तो नइ बूड़े हे, एसोच् बूड़ जाही?”
“एसो जइसे पानी अउ कभू गिरे रिहिस हे?”
बहू को सास-ससुर की ज्यादा चिंता है। लत्ते-कपड़े और सामानों की मोटरियाँ बनाकर उसने कहा - “चलो न ममा, जीव ह तुहँरे डहर लगे रही। काबर पेलियाही करथव?”
“कोनों किसम के फिकर झन कर बहू। ले जाव तुमन अब। पानी गिरने वाला हे।”
हार मान कर भक्कल और दसमो बहु, दोनों डबडबायी आँाखों के साथ लौट आये। उनके घर पहुँचते ही रझरिझ-रझरिझ मूसलाधार बारिस शुरू हो गई। छानी-परवा एक हो गए। चारों ओर सफेदी छा गया। न पहाड़ दिखता था और न ही जंगल-झाड़ी दिखते थे। ऐसा लगता था मानों जंगल-पहाड़, पेड़-पौधे सब के सब अचानक गायब हो गए हों। गाँव के नाले में देखते ही देखते बाढ़ आ गई। घंटे भर की ही बरसात से बाढ़ का पानी नाले के किनारों की मर्यादा तोड़कर खेतों में बहने लगा। मानों बरसात नहीं हो रही थी बल्कि आसमान टूटकर कर धरती पर गिर रहा था।
भक्कल ने कहा - “कइसनो करके मंय ह बाड़ी जावत हंव। सियान मन ल धर के लाहूँ। अइसने पानी कहूँ गिरत रही त रात भर म कुछू नइ बाँचय। सियान मन ह कहिथें, हमर जनम नइ होय रिहिस तब बहुत साल पहिली अइसने पानी गिरे रिहिस, सात दिन अउ सात रात ले सरलग, कछार म बाँस भर पानी के धारी चले रिहिस हे। कछार के मेड़ खेत, सब एक हो गे रिहिस हे। रूख-राई सब बोहा गे रिहिन हे। गाँव के घला कतरो अकन घर-कुरिया ह बोहा गे रिहिन हे।” कहते-कहते भक्कल की आँखें छलछला गईं।
दसमो कुछ नहीं कह सकी। माँ-बाप के लिए उसकी भी चिंता कम न थी, पर उसे पति की भी चिंता थी। वह जानती थी कि पति जो भी कह रहा है, उसे कर पाना अब असंभव हो चुका है। कहाँ तो छाती-कमर इतना पानी में ही नाला पार करने में कई लोग बह चुके है; और अब तो उसमें दो-दो बांस पानी प्रचंड वेग से बह रहा है। उस पार जाना असंभव है। न डोंगा काम आ सकता है न मोरी। किसी तरह उस पार चले भी गए तो बुजुर्गों को लेकर वापस कैसे आया जायेगा? अनहोनी की आशंका से ही डर कर दसमों पति की छाती से लग गई।
तभी शरीर पर कमरा और कमरे के ऊपर सरकारी झिल्ली का मोरा लपेटे, सिर पर खुमरी लगाए, लाठी टेकता हुआ लखमू आ पहुँचा। उसे भी पता है कि हेड़मू नाले पार कछार में ही फंसा हुआ है। भावुकता और जवानी के जोश में भक्कल नाला पार करने की भूल न कर बैठे, इसी चिंता में; और बच्चों के मन को ढाढस भी तो देना है इसलिए भी, वह इस मूसलाधार बारिश में यहाँ तक चला आया।
बारिश में भींगते हुए भक्कल नाले तक जाकर कई बार लौट आया था। हर बार नाले का पानी गाँव की ओर और बढ़ आता था। नाले के किनारे पर खड़ा होकर उसने कई बार आवाज लगाई थी; यह जानने के लिए कि उधर सब खैरियत तो है? पर बारिश के इस शोर में उसकी आवाज वहाँ तक कैसे पहुँच सकती थी? अँधेरा होने से पहले तक उसे बाड़ी और बाड़ी में बना हुआ उसका झाला सुरक्षित दिख रहा था। भक्कल ने गढ़माता मैया को, तैतिस कोटि देवी-देवताओं को और अपने कुल देवी को कई बार याद किया, बदना बदी, दुआएँ मांगी। गाँव वालों ने भी गंगा मैया के प्रकोप को शांत करने के लिये, बाढ़ से गाँव को बचाने के लिए सोने-चाँदी सहित पंचधातु का मेल जल में प्रवाहित किये। उस रात न तो भक्कल से कुछ खाया गया और न ही दसमो से। रात भर उनकी निगाहें कछार की ओर लगी रहीं; बाड़ी में बने झाले की खैरियत टटोलती रहीं; पर रात के अँधेरे में कुछ भी दिख पाना संभव नहीं था।
चार पहर की रात चार युग की तरह बीता। सुबह होने तक बारिश थम चुकी थी पर इस दौरान बाढ़ ने सब कुछ लील लिया था। गाँव टापू बन चुका था। पूरा कछार बाढ़ में डूब चुका था। कछार के ऊपर से इतना पानी बह रहा था कि वहाँ के सारे पेड़ उसमें डूब चुके थे। भक्कल की पूरी दुनिया बाढ़ में बह चुकी थी।
तीन दिन बाद स्थिति सामान्य हुई। सब कुछ तहस-नहस हो चुका था। झाले का नामोंनिशान भी नहीं बचा था। दो दिन तक नाले के किनारे लगे, नीचे की ओर के गाँवों में बूढ़े-बूढ़िया की तलाश की जाती रही। सरकारी राहत दल ने भी साथ दिया, पर हाथ कुछ भी नहीं आया। कोतवाल के माघ्यम से थाने को सूचित कर दिया गया।
कुछ दिन बाद थाने से भक्कल का बुलावा आया। दूसरे थाने के अंतर्गत कई कोस दूर, नाले के किनारे झाड़ियों में उलझे हुए, एक पुरूष की और एक महिला की सड़ी-गली अवस्था में लाश पाई गई थी। शिनाख्त नहीं हो पाने के कारण शवों को दफना दिया गया था, लेकिन तहकीकात के लिये उनके वस्त्र इस थाने में भिजवाये गये थे। भक्कल से इन्हीं वस्त्रों की पहचान कराई गई। कपड़ों को देखते ही भक्कल पागलों की तरह रोने लगा।
घर आकर भक्कल ने सामाजिक रीति-रिवाजों के अनुसार माँ-बाप का क्रिया-कर्म किया। उस दिन के बाद भक्कल ने कछार की ओर देखा भी नहीं।
बाढ़ ने धान के फसल को चौपट कर ही दिया था। पर क्वाँर का महीना लगते ही कछार में सब्जियों की बोआई-रोपाई का काम शुरू हो गया। लखमू ने भक्कल को कई बार समझाया कि ’जाने वालों के के लिये लोग जीना नहीं छोड़ देते। जिन्दा रहना पड़ता है; और जीने के लिये काम भी करना पड़ता है। सियान को बाड़ी से बड़ा लगाव था। बाड़ी का त्याग करने से उनकी आत्मा दुखी ही होगी। अच्छा होगा कि बाड़ी को फिर से आबाद किया जाय।’ पर भक्कल कुछ समझने के लिये तैयार ही नहीं था।
दीपावली का त्यौहर आया। नन्हें दीपकों से सब के घर रौशन हुए। पर भक्कल के घर का अँधेरा इतना घना था कि लाखों दीयों की रौशनी से भी वह दूर नहीं हो सकता था।
लखमू के बहुत समझाने-बुझाने और मान-मनौव्वल के बाद एक दिन भक्कल और दसमो रापा-कुदाल लेकर कछार आये। साथ में लखमू भी था। हेड़मू मड़ावी के भाई समान कटहर, आमा, जाम, लिंबू और संतरा के पेड़ अपनी-अपनी जगह पर कायम थे परन्तु फल किसी में भी नहीं लगे थे। मानो मालिक के लिये ये भी दुखी हो। आमा के फलने का अभी मौसम नहीं आया था। कटहर के फूलने का समय था। परन्तु इस मौसम में खूब फलने वाले जाम, लिंबू और संतरा के पेड़ों पर भी तो फल नहीं लगे थे। भक्कल और दसमो ने बारी-बारी से सभी पेड़ों के पास जाकर उनके पत्तों को, शाखों को और तनों को सहलाया। मानों माँ-बाप के स्पर्ष को अनुभव करना चाहते हों। फिर छः-सात फीट ऊँचे संतरे के पेड़ के पास आकर मेड़ पर दोनों बैठ गए। हेड़मू को रास्ते के किनारे आबाद इसी पेड़ से सर्वाधिक लगाव था। बाजार से खरीद कर लाये गये संतरे के फल से निकले बीजों से तैयार इस पेड़ में लगने वाले फल न तो संतरे के समान होते थे और न ही मौसम्बी के समान; पर स्वादिष्ट खूब थे।
बच्चों की उदासी को भांप कर लखमू भी वहीं पर आकर बैठ गया। भक्कल और दसमो की निगाहें पूरी तल्लीनता के साथ लगातार संतरे के इस पेड़ की शाखाओं और पत्तियों की ओर लगी हुई थी। मानों मन ही मन माँ-बाप की आत्मा को इन पत्तियों के बीच तलाश रहे हों। दसमो अचानक चहक पड़ी। पति को झकझोरते हुए कहा - “ऐ! देख तो कतका सुघ्धर पाका-पींयर फर फरे हे।”
भक्कल ने पत्नि की इशारा करती हुई ऊँगली का अनुशरण किया और उसे भी वह फल दिख गया। परन्तु चहकने बारी अब भक्कल की थी। उसी फल के पास कुछ ऊँचाई पर पीला पका हुआ पहले वाले से कुछ बड़ा एक और फल था जिसे उसने देखा था।
भैया-भौजी के जाने के बाद लखमू ने पहली बार बच्चों के चेहरों पर खुशी देखी थी। कहा - “काला देखथो रे भइ! हमला नइ देखाव।”
“दू ठन संतरा फरे हे कका, पाका-पाका, पींयर-पींयर।” दसमो ने कहा।
लखमू - “कहाँ? कते करा फरे हे?ं”
भक्कल ने ऊँगली से इशारा करते हुए बताया - “वो देख, अंगरी के सोझ म।”
परन्तु लाख प्रयत्न करने पर भी वे फल लखमू को दिखाई नहीं दिये। लखमू ने सोचा - जंगल के अतका बेंदरा- भालू, चिरई-चिरगुन, रद्दा रेंगइया हरहा-खुरखा, कोनों ल ये फर मन ह नइ दिखिनं, मुही ल काबर दिखही? जउन मन ल दिखना रिहिस हे, वो मन ल दिख गे। कहा - “सियाना आँखी रे भइ, हमला तो नइ दिखे। टोर के देखाहू ते देख लेबोन।”
भक्कल ने एड़ी के बल खड़ा होकर उन दोनों फलों को तोड़ लिया। हथेलियों पर रख कर कका को दिखाया - “ले देख, अब दिखिस।”
लखमू को फलों में भैया-भौजी की आत्मा की उपस्थिति का अनुभव हुआ। हाथों में लेकर माथे से लगाया और लौटाते हुए कहा - “ये रद्दा म रोज पचासों झन आदमी रेंगत हें। जंगल के बेंदरा-भालू हें, चिरई-चिरगुन हें, कोनों ल नइ दिखिस। तुँहिच् मन ल कइसे दिख गे? सियान मन के आसिरवाद समझ के अपन-अपन फर ल तुमन खा लेव।”
ऐसा ही किया गया।
संतरे के वे दोनों फल भक्कल के लिये खुशियों का सौगात लेकर आए थे। अगले साल की दीपावली आते तक भक्कल के घर का सारा अँधेरा मिट चुका था। कुल को रोशन करने वाला कुल का दीपक जो आ गया था।
हेड़मू मड़ावी की बाड़ी अब फिर आबाद हो गई है। बह गए झाले की जगह पर नया झाला बन गया है। सब्जी की नई क्यारियाँ बन गई हैं। क्यारियों में सब्जियाँ खूब फलती हैं। पेड़ों पर भी खूब फल लगते हैं। भक्कल और दसमो दोनों, अपने सुंदर-सलौने बेटे को झाला में चारपाई पर लिटा कर बाड़ी में खूब लगन के साथ काम करते हैं।