दो / शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
सन्तान के नामकरण के समय माता-पिता की मूर्खता पर, विधाता अन्तरिक्ष में बैठे हुए-अधिकतर केवल हंसकर ही सन्तुष्ट नहीं हो जाते, तीव्र प्रतिवाद भी करते हैं। इसी से उनका सम्पूर्ण जीवन-उनके स्वयं के नामों को ही मरण-पर्यन्त चिढ़ाता रहता है। कंगाली की मां के जीवन का इतिहास छोटा-सा है, परन्तु उस छोटे-से कंगाली-जीवन ने विधाता के इस परिहास से छुटकारा पा लिया है। उसके जन्म के बाद ही उसकी मां मर गई, पिता ने क्रुद्ध होकर उसका नाम रक्खा ‘अभागी’। मां थी नहीं, पिता नदी में मछली पकड़ते घूमता रहता था-वह न दिन देखता, न रात। फिर भी न जाने किस प्रकार, छोटी-सी अभागी एक दिन कंगाली की मां बनने के लिए बची रही-यह एक आश्चर्य की बात है।
जिसके साथ विवाह हुआ, उसका नाम था रसिक बाघ। कुछ दिन बाद ही वह अभागी को छोड़कर दूसरे गांव में चला गया; अभागी अपने अभाग्य एवं उस शिशुपुत्र कंगाली को लेकर गांव में ही पड़ी रही।
उसका वही कंगाली आज बड़ा होकर पन्द्रहवें वर्ष में पदार्पण कर रहा है। फिलहाल उसने बेंत का काम सीखना आरम्भ किया है। अभागी को आशा होने लगी है कि और एक वर्ष तक अपने अभाग्य के साथ जूझ लेने पर उसका दु:ख अतिरिक्त और कोई नहीं जानता।
कंगाली ने पोखर (कच्चा तालाब) से हाथ-मुंह धोकर लौटकर देखा-उसके भोजन की थाली के बचे भोजन को मां एक मिट्टी के पात्र से ढक कर रख रही है। आश्चर्यचकित होकर उसने पूछा-
‘तुमने नहीं खाया मां ?’
‘बहुत देर हो गई बेटा-अब भूख नहीं रही।’
लड़के ने विश्वास नहीं किया, बोला-
‘नहीं, भूख क्यों नहीं रही ? कहां है, देखूं तो तेरी हांडी ?’
इस छलना द्वारा वह बहुत दिनों से कंगाली को धोखा देती आ रही है; आज उसने हांडी देखकर ही छोड़ी। उसमें केवल एक ही व्यक्ति के भोजन के लिए भात था। तब वह प्रसन्न मुख से मां की गोद में जा बैठा। इस उम्र के बालक साधारणत: इस प्रकार नहीं करते, परन्तु शैशव से अक्सर बीमार रहने के कारण मां की गोद छोड़कर उसे बाहर के संगी-साथियों में हिलमिल जाने का सुयोग नहीं मिला। एक बांह गले में डालकर, मुंह के ऊपर मुंह रखकर कंगाली ने चकित स्वर में कहा-
‘मां, तेरा शरीर तो गर्म है; तू क्यों धूप में खड़ी होकर-मुर्दे को जलता हुआ देखने गई ? फिर क्यों जाकर नहा आई ?...मुर्दा जलना क्या तैने..।’
मां ने झटपट लड़के के मुंह को हाथ से दबाते हुए कहा-
‘छि: बच्चे, मुर्दा जलना नहीं कहते, पाप होता है ! सती लक्ष्मी महारानी रथ पर चढ़कर स्वर्ग गई हैं।’
बालक ने सन्देह करते हुए कहा-‘तेरे पास एक ही बात है मां। रथ पर चढ़कर भी कहीं कोई स्वर्ग जाता है ?’
मां बोली-
‘मैंने तो आंखों से देखा है कंगाली-ब्राह्मणी मां रथ के ऊपर बैठी थीं। उनके रंगे हुए दोनों पांवों को सबने अपनी आंखों से देखा है रे !’
‘सबने देखे हैं ?’
‘हां, सभी ने देखे हैं !’
कंगाली मां की छाती से चिपककर बैठा सोचने लगा। मां का विश्वास करना ही उसकी आदत है, विश्वास करने की ही उसने बचपन से शिक्षा पाई है। वही मां जब कह रही है कि सबने आंखें गड़ाकर इतनी बड़ी बात को देखा-तब अविश्वास करने का फिर कोई कारण ही नहीं है। थोड़ी देर बाद वह धीरे-धीरे बोला-
‘तब तो तू भी स्वर्ग जाएगी मां ? बिंदी की मां उस दिन राखाल की बुआ से कह रही थीं-कंगाली की मां के समान सती लक्ष्मी दूलों के मुहल्ले में और कोई नहीं है।’
कंगाली की मां चुप रह गई। कंगाली उसी प्रकार धीरे-धीरे कहने लगा-
‘पिता ने जब तुझे छोड़ दिया, तब कितने दु:ख और कष्ट तुझे झेलने पड़े। फिर भी एक दिन के लिए भी पिता पर तेरा क्रोध नहीं देखा गया। तुझे आशा थी कि कंगाली के बचने पर तेरा दु:ख दूर हो जाएगा। हां मां, तेरे न बचने पर मैं कहां बचता ? मैं तो बिना खाये-पीए, उतने दिनों में कब का मर गया होता।’
मां ने लड़के को दोनों हाथों से पकड़कर छाती से चिपटा लिया। वस्तुत: अनेक प्रकार के परामर्श देने वाले लोगों का अभाव न होते हुए भी सहायता करने वाला व्यक्ति उन दिनों कोई नहीं मिल पाया था। यही नहीं, और भी बहुत उपद्रव उसके साथ किया गया था। उन बातों को स्मरण कर अभागी की आंखों से पानी बहने लगा। लड़का अपने हाथ से इन्हें पोंछता हुआ बोला-
‘कांथरी बिछा दूं मां, सोएगी ?’
मां चुप रही। कंगाली ने चटाई बिछाई, कांथरी बिछाई, माचे के ऊपर से तकिया उठाकर रख दिया। फिर उसे बिछौने की ओर खींचकर ले जाने लगा तो मां बोली-
‘कंगाली, आज तुझे काम पर जाने की जरूरत नहीं।’
काम-काज न करने का प्रस्ताव कंगाली को बहुत अच्छा लगा, परन्तु बोला-‘जलपान के दो पैसे फिर वह नहीं देगा मां।’
‘न दे-आ तुझे एक कथा सुनाऊं।’
और नहीं लुभाना पड़ा, कंगाली उसी क्षण मां की छाती से लगकर लेटते हुए बोला-
‘तो अब कह ! राजपुत्र, कोतवाल का पुत्र और वह पक्षीराज घोड़ा...।’
अभागी ने राजपुत्र, कोतवाल के पुत्र और पक्षीराज घोड़े की बात से कहानी आरम्भ की। ये सब उसकी दूसरों से बहुत दिनों की सुनी एवं कितनी ही बार कही हुई कथाएं थीं। परन्तु कुछ देर बाद ही-कहां गया उसका राजपुत्र, और कहां गया उसका कोतवाल का पुत्र-उसने इस प्रकार उपकथा आरम्भ की कि जो उसने दूसरे से नहीं सीखी थी-स्वयं की रचना थी। उसका स्वर जितना बढ़ने लगा, उष्ण रक्त-स्रोत जितने द्रुतवेग से मस्तिष्क में बहने लगा, उतनी ही वह जैसे नयी-नयी उपकथाओं के इन्द्रजाल की रचना करने लगी। उनका विराम नहीं था, विच्छेद नहीं था-कंगाली की छोटी-सी देह बार-बार रोमांचित होने लगी ! भय, विस्मय और पुलक से वह जोर से मां के गले को पकड़कर उसकी छाती में जैसे समा जाने की कोशिश करने लगा।
बाहर दिन ढल चुका था। सूर्य अस्ताचल को चले गए, सन्ध्या की म्लान छाया प्रगाढ़ होती हुई चराचर को व्याप्त कर उठी; परन्तु घर के भीतर आज फिर दीपक नहीं जला, गृहस्थी का शेष कर्तव्य पूरा करने के लिए कोई उठा नहीं-निविड़ अन्धकार में केवल रुग्ण माता का अबोध, गुंजन, निस्तब्ध पुत्र के कानों में सुधावर्षण करता हुआ चलने लगा। वह उसी श्मशान और श्मशान की कहानी थी-वही रथ, वही दोनों रंगे हुए पांव, वही उसका स्वर्ग जाना। किस प्रकार शोकार्त्त पति ने अन्तिम पदधूलि देकर रोते हुए विदा ली, किस प्रकार हरिध्वनि करते हुए लड़के माता को ढोते हुए ले गए, उसके पश्चात् सन्तान के हाथ की अग्नि। वह अग्नि केवल अग्नि ही नहीं कंगाली, वह तो साक्षात् हरिस्वरूप थी ! उसका आकाश तक उठा हुआ धुआं, धुआं नहीं था बच्चे, वह तो स्वर्ग का रथ था !
‘कंगालीचरण, मेरे बेटे !’
‘क्या मां ?’
‘तेरे हाथ की अग्नि यदि पा लूँ बेटे, तो ब्राह्मणी मां की भांति मैं भी स्वर्ग जा सकूंगी।’
कंगाली ने अस्फुट स्वर में केवल यह कहा-‘जा-ऐसा नहीं कहते।’
मां उस बात को शायद सुन भी नहीं सकी; उष्ण नि:श्वास छोड़कर कहने लगी-
‘छोटी जात की होने पर भी, तब कोई घृणा नहीं कर सकेगा-दु:खी होने पर भी कोई रोककर नहीं रख सकेगा। आह ! लड़के के हाथ की अग्नि-रथ को तो आना ही पड़ेगा !’
लड़के ने मुंह ऊपर मुंह रखकर भर्राये कण्ठ से कहा-‘ऐसा मत कहो मां, मुझे बड़ा डर लगता है।’
मां ने कहा-
‘और देख कंगाली, तेरे पिता को एक बार पकड़ लाऊंगी, वैसे ही अपने पांव की धूलि मस्तक पर देकर वे मुझे विदा करेंगे। वैसे ही पांवों में आलता, माथे पर सिन्दूर देकर-परन्तु कौन उसे देगा ? तू देगा न रे कंगाली। तू मेरा लड़का है, तू ही मेरी लड़की है-तू ही मेरा सर्वस्य है।’
कहते-कहते उसने लड़के को कसकर छाती से चिपटा लिया।