दौड़ / ममता कालिया / पृष्ठ 3
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3 (तीसरा भाग)
बहुत कुरेदने पर पता चला किरीट देसाई सरल मार्ग के कैंप में जाना चाहता है। राजकोट में ही तेरह मील दूर पर उसके स्वामी जी का कैंप लगेगा। जो काम तुम्हारे माँ बाप के लायक है वह तुम अभी से करोगे। पवन ने कहा। नहीं सर, आप एक दिन कैंप के मेडिटेशन में भाग लीजिए। मन को बहुत शांति मिलती है। स्वामी जी कहते हैं, मेडिटेशन प्रिपेर्स यू फॉर योर मंडेज। (ध्यान लगाने से आप अपने सोमवारों का सामना बेहतर ढंग से कर सकते हैं।) तो इसके लिए छुट्टी की क्या ज़रूरत है। तुम काम से लौट कर भी कैंप में जा सकते हो। नहीं सर। पूजा और ध्यान फुलटाइम काम है।
पवन ने बेमन से किरीट को छुट्टी दे दी। मन ही मन वह भुनभुनाता रहा। एक शाम वह यों ही कैंप की तरफ़ चल पड़ा। दिमाग़ में कहीं यह भी था कि किरीट की मौजूदगी जाँच ली जाए।
राजकोट जूनागढ़ लिंक रोड़ पर दाहिने हाथ को विशाल फाटक पर ध्यान शिविर सरल मार्ग का बोर्ड लगा था। तक़रीबन स्वतंत्र नगर वसा था। कारों का काफ़िला आ और जा रहा था। इतनी भीड़ थी कि उसमें किरीट को ढूँढ़ना मुमकिन ही नहीं था। जिज्ञासावश पवन अंदर घुसा। विशाल परिसर में एक तरफ़ बड़ी-सी खुली जगह वाहन खड़े करने के लिए छोड़ी गई थी जो तीन चौथाई भरी हुई थी। वहीं आगे की ओर लाल पीले रंग का पंडाल था। दूसरी तरफ़ तरतीब से तंबू लगे हुए थे। कुछ तंबुओं के बाहर कपड़े सूख रहे थे। उस भाग में भी एक फाटक था जिस पर लिखा था प्रवेश निषेध।
पंडाल के अंदर जब पवन घुसने में सफल हुआ तब स्वामी जी का प्रवचन समापन की प्रक्रिया में था। वे निहायत शांत, संयत, गहन गंभीर वाणी में कह रहे थे, प्रेम करो, प्राणिमात्र से प्रेम करो। प्रेम कोई टेलीफ़ोन कनेक्शन नहीं है जो आप सिर्फ़ एक मनुष्य से बात करें। प्रेम वह आलोक है जो समूचे कमरे को, समूचे जीवन को आलोकित करता है। अब हम ध्यान करेंगे। ओम्। उनके 'ओम्' कहते ही पाँच हज़ार श्रोताओं से भरे पंडाल में सन्नाटा खिंच गया। जो जहाँ जैसा बैठा था वैसा ही आँख मूँद कर ध्यानमग्न हो गया।
आँखें बंद कर पाँच मिनट बैठने पर पवन को भी असीम शांति का अनुभव हुआ। कुछ-कुछ वैसा जब वह लड़कपन में बहुत भाग दौड़ कर लेता था तो माँ उसे ज़बरदस्ती अपने साथ लिटा लेती और थपकते हुए डपटती, बच्चा है कि आफत। चुपचाप आँख बंद कर, और सो जा। उसे लगा अगर कुछ देर और वह ऐसे बैठ गया तो वाकई सो जाएगा।
उसने हल्के से आँख खोल कर अगल-बगल देखा, सब ध्यानमग्न थे। देखने से सभी वी.आई.पी. किस्म के भक्त थे, जेब में झाँकता मोबाइल फ़ोन और घुटनों के बीच दबी मिनरल वाटर की बोतल उन्हें एक अलग दर्जा दे रही थी। सफलता के कीर्तिमान तलाशते ये भक्त जाने किस जैट रफ़्तार से दिन भर दौड़ते थे, अपनी बिजनेस या नौकरी की लक्ष्य पूर्ति के कलपुर्जे बने मनुष्य। पर यहाँ इस वक्त ये शांति के शरणागत थे।
कुछ देर बाद सभा विसर्जित हुई। सबने स्वामी जी को मौन नमन किया और अपने वाहन की दिशा में चल दिए। पार्किंग स्थल पर गाड़ियों की घरघराहट और तीखे मीठे हार्न सुनाई देने लगे। वापसी में पवन का किरीट के प्रति आक्रोश शांत हो चुका था। उसे अपना स्नायु मंडल शांत और स्वस्थ लग रहा था। उसे यह उचित लगा कि आपाधापी से भरे जीवन में चार दिन का समय ध्यान के लिए निकाला जाय। स्वामी जी के विचार भी उसे मौलिकता और ताज़गी से भरे लगे। जहाँ अधिसंख्य गुरुजन धर्म को महिमा मंडित करते हैं, किरीट के स्वामी जी केवल अध्यात्म पर बल देते रहे। चिंतन, मनन और आत्मशुद्धि उनके सरल मार्ग के सिद्धांत थे।
सरल मार्ग मिशन के भक्त उन भक्तों से नितांत भिन्न थे जो उसने अपने शहर में साल दर साल माघ मेले में आते देखे थे। दीनता की प्रतिमूर्ति बने वे भक्त असाध्य कष्ट झेल कर प्रयाग के संगम तट तक पहुँचते। निजी संपदा के नाम पर उनके पास एक अदद मैली कुचैली गठरी होती, साथ में बूढ़ी माँ या आजी और अंटी में गठियाये दस बीस रुपए। कुंभ के पर्व पर लाखों की संख्या में ये भक्त गंगा मैया तक पहुँचते, डुबकी लगाते और मुक्ति की कामना के साथ घर वापस लौट जाते। संज्ञा की बजाय सर्वनाम वन कर जीते वे भक्त बस इतना समझते कि गंगा पवित्र पावन है और उनके कृत्यों की तारिणी। इससे ऊपर तर्कशक्ति विकसित करना उनका अभीष्ट नहीं था।
पर किरीट के स्वामी कृष्णा स्वामी जी महाराज के भक्त समुदाय में एक से एक सुशिक्षित, उच्च पदस्थ अधिकारी और व्यवसायी थे। कोई डॉक्टर था तो कोई इंजीनियर, कोई बैंक अफ़सर तो कोई प्राइवेट सेक्टर का मैनेजर। यहाँ तक कि कई चोटी के कलाकार भी उनके भक्तों में शुमार थे। साल में चार बार वे अपना शिविर लगाते, देश के अलग-अलग नगरों में। समूचे देश से उनके भक्त गण वहाँ पहुँचते। उनके कुछ विदेशी भक्त भी थे जो भारतीयों से ज़्यादा स्वदेशी बनने और दिखने की कोशिश करते।
पवन ने दो चार बार स्वामी जी का प्रवचन सुना। स्वामी जी की वक्तृत्वता असरदार थी और व्यक्तित्व परम आकर्षक। वे दक्षिण भारतीय तहमद के ऊपर भारतीय कुर्ता धारण करते। अन्य धर्माचार्यों की तरह न उन्होंने केश बढ़ा रखे थे, न दाढ़ी। वे मानते थे कि मनुष्य को अपना बाह्य स्वरूप भी अंतर्स्वरूप की तरह स्वच्छ रखना चाहिए। उनका यथार्थवादी जीवन दर्शन उनके भक्तों को बहुत सही लगता। वे सब भी अपने यथार्थ को त्याग कर नहीं, उसमें से चार दिन की मोहलत निकाल कर इस आध्यात्मिक हालिडे के लिए आते। वे इसे एक 'अनुभव' मानते। स्वामी जी एकदम धारदार, विश्वसनीय अंग्रेज़ी में भारतीय मनीषा की शक्ति और सामर्थ्य समझाते, भक्तों का सिर देशप्रेम से उन्नत हो जाता। स्वामी जी हिंदी भी बखूबी बोल लेते। महिला शिविर में वे अपना आधा वक्तव्य हिंदी में देते और आधा अंग्रेज़ी में।
सरल मार्ग मिशन आराम करने से पूर्व स्वामी जी पी.पी. के. कंपनी में कार्मिक प्रबंधक थे। मिशन की संरचना, संचालन और कार्य योजना में उनका प्रबंधकीय कौशल देखने को मिलता था। शिविर में इतनी भीड़ एकत्र होती थी पर न कहीं अराजकता होती न शांति भंग। अनजाने में पवन उनसे प्रभावित होता जा रहा था। पर किसी भी प्रभाव की आत्यंतिकता उस पर ठहर नहीं पाती क्योंकि काम के सिलसिले में उसे राजकोट के आसपास के क्षेत्र के अलावा बार-बार अहमदाबाद भी जाना पड़ता। अहमदाबाद में दोस्तों से मिलना भी भला लगता। अभिषेक के यहाँ जा कर अंकुर की नई शरारतें देखना सुख देता।
अभिषेक जिस विज्ञापन कंपनी में काम करता था उसमें आजकल अक अन्य कंपनी की टक्कर में टूथपेस्ट युद्ध छिड़ा हुआ था। दोनों के विज्ञापन एक के बाद एक टी.वी. के चैनलों पर दिखाए जाते। एक में डेंटिस्ट का बयान प्रमाण की तरह दिया जाता तो दूसरे में उसी बयान का खंडन। दोनों टूथपेस्ट बहुराष्ट्रीय कंपनियों के थे। इन कंपनियों का जितना धन टूथपेस्ट के निर्माण में लग रहा था लगभग उतना ही उसके प्रचार में। टूथपेस्ट तक़रीबन एक से थे, दोनों की रंगत भी एक थी पर कंपनी भिन्न होने से उनकी भिन्नता और उत्कृष्टता सिद्ध करने की होड़ मची थी। इसी के लिए अभिषेक की कंपनी क्रिसेंट कॉर्पोरेशन को नब्बे लाख का प्रचार अभियान मिला था। अभिषेक ने विजुअलाइज़र से आइडिया समझा। स्क्रिप्ट लिखी गई। अब विज्ञापन फ़िल्म बननी थी। उन्हें ऐसी माडल की तलाश थी जिसके व्यक्तित्व में दांत प्रधान हों, साथ ही वह खूबसूरत भी हो। इसके अलावा दो एक पंक्ति के डायलाग बोलने का उसे शऊर हो। उनके पास माडल्स की एक स्थायी सूची थी पर इस वक्त वह काम नहीं आ रही थी। मुश्किल यह थी किसी भी उत्पाद का प्रचार करने में एक माडल का चेहरा दिन में इतनी बार मीडिया संजाल पर दिखाया जाता कि वह उसी उत्पाद के विज्ञापन से चिपक कर रह जाता। अगले किसी उत्पाद के विज्ञापन में उस माडल को लेने से विज्ञापन ही पिट जाता। नए चेहरों की भी कमी नहीं थी। रोज़ ही इस क्षेत्र में नई लड़कियाँ जोखम उठाने को तैयार थीं पर उन्हें माडल बनाए जाने का भी एक तंत्र था। अगर सब कुछ तय होने के बाद कैमरामैन उसे नापास कर दे तब उसे लेना मुश्किल था।
आजकल अभिषेक के ज़िम्मे माडल का चुनाव था। वह एक ब्यूटी पार्लर की मालकिन निकिता पर दबाव डाल रहा था कि वह अपनी बेटी तान्या को माडलिंग करने दें। इस सिलसिले में वह कई बार 'रोजेज' पार्लर में गया। इसी को ले कर पति पत्नी में तनाव हो गया।
राजुल का मानना था कि रोजेज अच्छी जगह नहीं है। वहाँ सौंदर्य उपचार की आड़ में ग़लत धंधे होते हैं। उसका कहना था कि विज्ञापन फ़िल्म बनाने का काम उनकी कंपनी को मुंबई इकाई करे, यहाँ अहमदाबाद में अच्छी फ़िल्म बनना मुमकिन नहीं है। अभिषेक का कहना था कि वह बंबइया विज्ञापन फ़िल्मों से अघा गया है। वह यहीं मौलिक काम कर दिखाएगा। यों कहो कि तुम्हें माडल की तलाश में मज़ा आ रहा है। राजुल ने ताना मारा। यही समझ लो। यह मेरा काम है, इसी की मुझे तनख़्वाह मिलती है। मज़े हैं तनख़्वाह भी मिलती है, लड़की भी मिलती है। अभिषेक उखड़ गया, क्या मतलब तुम्हारा। तुम हमेशा टेढ़ा सोचती हो। जैसे तुम्हारे टेढ़े दाँत हैं वैसी टेढ़ी तुम्हारी सोच है।
राजुल का, ऊपर नीचे का एक-एक दाँत टेढ़ा उगा हुआ था। विशेष कोण से देखने पर वह हँसते हुए अच्छा लगता था। शुरू में इसी बाँके दाँत पर आप फिदा हुए थे। राजुल ने कहा, आज आपको यह भद्दा लगने लगा। फिर तुमने ग़लत शब्द इस्तेमाल किया। बाँका शब्द दाँत के साथ नहीं बोला जाता। बाँकी अदा होती है, दाँत नहीं। शब्द अपनी जगह से हट भी सकते हैं। शब्द पत्थर नहीं हैं जो अचल रहें। तुम अपनी भाषा की कमज़ोरी छुपा रही हो। कोई भी बात हो, सबसे पहले तुम मेरे दोष गिनाने लगते हो। तुम मेरा दिमाग़ ख़राब कर देती हो। अच्छा सारी पर अब तुम निकिता के यहाँ नहीं जाओगे। इससे अच्छा है तुम यूनिवर्सिटी की छात्राओं में सही चेहरा तपाश करो। तपास नहीं तलाश करो। तलाश सही पर तुम रोजेज नहीं जाओगे।
जब से राजुल ने नौकरी छोड़ी उसके अंदर असुरक्षा की भावना घर कर गई थी। साढ़े चार साल की नौकरी के बाद वह सिर्फ़ इसलिए हटा दी गई क्योंकि उसकी विज्ञापन एजेंसी मानती थी कि घर और दफ्तर दोनों मोर्चे सँभालना उसके बस की बात नहीं। ख़ास तौर पर जब वह गर्भवती थी, उसके हाथ से सारे महत्वपूर्ण कार्य ले कर साधना सिंह को दे दिए गए। अंकुर के पैदा होने तक दफ्तर में माहोल इतना बिगड़ गया कि प्रसव के पश्चात राजुल ने त्यागपत्र ते दिया। पर तब से वह पति के प्रति बड़ी सतर्क और संदेहशील हो गई थी। उसे लगता था अभिषेक उतना व्यस्त नहीं जितना वह नाट्य करता है। फिर विज्ञापन कंपनी की दुनिया परिवर्तन और आकर्षण से भरपूर थी। रोज़ नई-नई लड़कियाँ माडल बनने का सपना आँखों में लिए हुए कंपनी के द्वार खटखटाती। उनके शोषण की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता था।
विज्ञापन एजेन्सी का सारा संजाल स्वयं देख लेने से इधर कई दिनों से राजुल को जो अन्य सवाल उद्वेलित कर रहे थे, उन पर वह अभिषेक के साथ बहस करना चाहती थी। पर अभिषेक जब भी घर आता, लंबी बातचीत के मूड में हरगिज़ न होता। बल्कि वह चिड़चिड़ा ही लौटता। उस दिन वे खाना खा रहे थे। टी.वी. चल रहा था। समाचार से पहले 'स्पार्कल' टूथपेस्ट का विज्ञापन फ्लैश हुआ। इसकी कापी अभिषेक ने तैयार की थी। अंकुर चिल्लाया, पापा का एड, पापा का एड।
यह विज्ञापन आज पाँचवी बार आया था पर वे सब ध्यान से देख रहे थे। विज्ञापन में पार्टी का दृश्य था जिसमें हीरो के कुछ कहने पर हिरोइन हँसती है। उसकी हँसी में हर दाँत मे मोती गिरते हैं। हीरो उन्हें अपनी हथेली पर रोक लेता है। सारे मोती इकट्ठे होकर 'स्पार्कल' टूथपेस्ट की ट्यूब बन जाते हैं। अगले शाट में हीरो हीरोइन लगभग चुंबनबद्ध हो जाते हैं।
अभिषेक ने कहा, राजुल कैसा लगा एड? ठीक ही है। राजुल ने कहा। उसके उत्साहविहीन स्वर से अभिषेक का मूड उखड़ गया। उसे लगा राजुल उसके काम को ज़ीरो दे रही है, ऐसी श्मशान आवाज़ में क्यों बोल रही हो? नहीं, मैं सोच रही थी, विज्ञापन कितनी अतिशयोक्ति करते हैं। सच्चाई यह है कि न किसी के हँसने से फूल झरते हैं न मोती फिर भी मुहावरा है कि लीक पीट रहा है। सचाई तो यह है कि माडल लीना भी स्पार्कल इस्तेमाल नहीं करती हैं। वह प्रतिद्वंद्वी कंपनी का टिक्को इस्तेमाल करती है। पर हमें सच्चाई नहीं, प्राडक्ट बेचनी है। पर लोग तो तुम्हारे विज्ञापनों को ही सच मानते हैं। क्या यह उनके प्रति धोखा नहीं है? बिल्कुल नहीं। आखिर हम टूथपेस्ट की जगह टूथपेस्ट ही दिखा रहे हैं, घोड़े की लीद नहीं। सभी टूथपेस्टों में एक-सी चीज़ें पड़ी होती हैं। किसी में रंग ज़्यादा होता है किसी में कम। किसी में फ़ोम ज़्यादा, किसी में कम। ऐसे में कापीराइटर की नैतिकता क्या कहती है? ओ शिट। सीधा सादा एक प्रॉडक्ट बेचना है, इसमें तुम नैतिकता और सच्चाई जैसे भारी भरकम सवाल मेरे सिर पर दे मार रही हो। मैंने आई.आई.एम. में दो साल भाड़ नहीं झोंका। वहाँ से मार्केटिंग सीख कर निकला हूँ। आइ कैन सैल ए डैड रैट (मैं मरा हुआ चूहा भी वेच सकता हूँ) यह सच्चाई, नैतिकता सब मैं दर्जा चार तक मॉरल साइंस में पढ़ कर भूल चुका हुआ हूँ। मुझे इस तरह की डोज़ मत पिलाया करो, समझी?
राजुल मन ही मन उसे गाली देती बर्तन समेट कर रसोई में चला गई। अभिषेक मुँह फेर कर सो गया। अगले दिन पवन आया। वह अंकुर के लिए छोटा-सा क्रिकेट बैट और गेंद लाया था। अंकुर तुरंत बालकनी से अपने दोस्तों को आवाज़ देने लगा, शुब्बू, रुनझुन जल्दी आओ, बैट बाल खेलना।
अभिषेक अभी ऑफ़िस से नहीं लौटा था। राजुल ने दो ग्लास कोल्ड काफी बनाई। एक ग्लास पवन को थमा कर बोली, तुम्हें विज्ञापनों की दुनिया कैसी लगती है?
बहुत अच्छी, जादुई। राजुल, मुल्क की सारी हसीन लड़कियाँ विज्ञापनों में चली गई हैं, तभी राजकोट की सड़कों पर एक भी हसीना नज़र नहीं आती।
गम्मत जम्मत छोड़ो, सीरियसली बोलो, ऐसा नहीं लगता कि मार्केटिंग के लिए विज्ञापन झूठ पर झूठ बोलते हैं।
मुझे ऐसा नहीं लगता। यह तो अभियान है इसमें सच और झूठ की बात कहाँ आती है?
तभी अभिषेक भी आ गया। आज वह अच्छे मूड में था। उसके टूथपेस्ट वाले विज्ञापन को सर्वश्रेष्ठ विज्ञापन का सम्मान मिला था। उसने कहा, राजुल कल तुम मुझे कंडैम कह रही थीं, आज मुझे उसी कापी पर एवार्ड मिला।
कांग्रेचुलेशंस। पवन और राजुल ने कहा।
कल तो तुम लानतें कस रही थीं। मेरी परदादी की तरह बाल रही थीं।
जब एथिक्स की यानी नैतिकता की बात आएगी मैं फिर कहूँगी कि विज्ञापन झूठ बोलते हैं। पर अभि, ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ तुम ऐसा करते हो, सब ऐसा करते हैं। जनता को बेवक़ूफ़ बनाते हैं।
जनता को शिक्षा और सूचना भी तो देते हैं। पवन ने कहा।
पर साथ में जनता की उम्मीदों को बढ़ा कर उसका पैसा नष्ट करवाते हैं। राजुल ने कहा।
हाँ हाँ, आज तक मैंने ऐसा विज्ञापन नहीं देखा जो कहता हो यह चीज़ न ख़रीदिए। अभिषेक ने कहा, विज्ञापन की दुनिया का खर्च और विक्री की दुनिया है। हम सपनों के सौदागर हैं, जिसे चाहिए बाज़ार जाए, सपनों और उम्मीदों से भरी ट्यूब ख़रीद लें। ये विज्ञापन का ही कमाल है कि हमारे तीन सदस्यों वाले परिवार में तीन तरह के टूथपेस्ट आते हैं। अंकुर को धारियों वाला टूथपेस्ट पसंद है, तुम्हें वह षोड़षी वाला और मुझे साँस की बू दूर करने वाला। टूथपेस्ट तो फिर भी गनीमत है, तुम्हें पता है- डिटरजेंट की विज्ञापनबाज़ी में और भी अँधेर है। हम लोग सोना डिटरजेंट की एड फ़िल्म जब शूट कर रहे थे तो सीवर्स के क्लीन डिटरजेंट से हमने बालटी में झाग उठवाए थे। क्लीन में सोना से ज़्यादा झाग पैदा करने की ताक़त है।
पवन ने कहा, दरअसल बाज़ार के अर्थशास्त्र में नैतिकता जैसा शब्द ला कर, राजुल, तुम सिर्फ़ कनफ्यूजन फैला रही हो। मैंने अब तक पाँच सौ किताबें तो मैनेजमेंट और मार्केटिंग पर पढ़ी होंगी। उनमें नैतिकता पर कोई चैप्टर नहीं है।
स्टैला डिमैलो इंटरप्राइज कार्पोरेशन में बराबर की पार्टनर थी और उसकी कंपनी गुर्ज़र गैस कंपनी को कंप्यूटर सप्लाई करती थी। पहले तो वह पवन के लिए कारोबारी चिट्ठियों पर महज़ एक हस्ताक्षर थी पर जब कंप्यूटर की दो एक समस्या समझने पवन शिल्पा के साथ उसके ऑफ़िस गया तो इस दुबली पतली हँसमुख लड़की से उसका अच्छा परिचय हो गया।
स्टैला की उम्र मुश्किल से चौबीस साल थी पर उसने अपने माता-पिता के साथ आधी दुनिया घूम रखी थी। उसकी माँ सिंधी और पिता ईसाई थे। माँ से उसे गोरी रंगत मिली थी और पिता से तराशदार नाक नक्श। जीन्स और टाप में वह लड़का ज़्यादा और लड़की कम नज़र आती। उसके ऑफ़िस में हर समय गहमागहमी रहती। फ़ोन बजता रहता, फैक्स आते रहते। कभी किसी फैक्टरी से बीस कंप्यूटर्स का एक साथ ऑर्डर मिल जाता, कभी कहीं कांफ्रेंस से बुलावा आ जाता। उसने कई तकनीशियन रखे हुए थे। अपने व्यवसाय के हर पहलू पर उसकी तेज़ नज़र रहती।
इस बार पवन अपने घर गया तो उसने पाया वह अपने नए शहर और काम के बारे में घर वालों को बताते समय कई बार स्टैला का ज़िक्र कर गया। सघन बी.एससी. के बाद हार्डवेयर का कोर्स कर रहा था। पवन ने कहा, तुम इस बाल मेरे साथ राजकोट चलो, तुम्हें मैं ऐसे कंप्यूटर वर्ल्ड में प्रवेश दिलाऊँगा कि तुम्हारी आँखें खुली रह जाएँगी। सघन ने कहा, जाना होगा तो हैदराबाद जाऊँगा, वह तो साइबर सिटी है। एक बार तुम एंटरप्राइज़ ज्वाइन करोगे तो देखोगे वह साइबर सिटी से कम नहीं। माँ ने कहा, इसको भी ले जाओगे तो हम दोनों बिल्कुल अकेले रह जाएँगे। वैसे ही सीनियर सिटीजन कालोनी बनती जा रही है। सबके बच्चे पढ़ लिख कर बाहर चले जा रहे हैं। हर घर में, समझो, एक बूढ़ा, एक बूढ़ी, एक कुत्ता और एक कार बस यह रह गया है। इलाहाबाद में कुछ भी बदलता नहीं है माँ। दो साल पहले जैसा था वैसा ही अब भी है। तुम भी राजकोट चली आओ। और तेरे पापा? वे यह शहर छोड़ कर जाने को तैयार नहीं है। पापा से बात की गई। उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया। शहर छोड़ने की भी एक उम्र होती है बेटे। इससे अच्छा है तुम किसी ऐसी कंपनी में हो जाओ जो आस-पास कहीं हो। यहाँ मेरे लायक नौकरी कहाँ पापा। ज़्यादा से ज़्यादा नैनी में नूरामेंट की मार्केटिंग कर लूँगा। दिल्ली तकभी आ जाओ तो? सच दिल्ली आना-जाना बिल्कुल मुश्किल नहीं है। रात को प्रयागराज एक्सप्रेस से चलो, सबेरे दिल्ली। कम से कम हर महीने तुम्हें देख तो लेंगे। या कलकत्ते आ जाओ। वह तो महानगर है। पापा मेरे लिए शहर महत्वपूर्ण नहीं है, कैरियर है। अब कलकत्ते को ही लीजिए। कहने को महानगर है पर मार्केटिंग की दृष्टि से एकदम लद्धड़। कलकत्ते में प्रोड्यूसर्स का मार्केट है, कंज्यूमर्स का नहीं। मैं ऐसे शहर में रहना चाहता हूँ जहाँ कल्चर हो न हो, कंज्यूमर कल्चर ज़रूर हो। मुझे संस्कृति नहीं उपभोक्ता संस्कृति चाहिए, तभी मैं कामयाब रहूँगा। माता पिता को पवन की बातों ने स्तंभित कर दिया। बेटा उस उम्मीद को भी ख़त्म किए दे रहा था जिसकी डोर से बँधे-बँधे वे उसे टाइम्स ऑफ इंडिया की दिल्ली रिक्तियों के काग़ज़ डाक से भेजा करते थे।
रात जब पवन अपने कमरे में चला गया राकेश पांडे ने पत्नी से कहा, आज पवन की बातें सुन कर मुझे बड़ा धक्का लगा। इसने तो घर के संस्कारों को एकदम ही त्याग दिया। रेखा दिन भर के काम से पस्त थी, पहले तुम्हें भय था कि बच्चे कहीं तुम जैसे आदर्शवादी न बन जाएँ। इसीलिए उसे एम.बी.ए. कराया। अब वह यथार्थवादी बन गया है तो तुम्हें तकलीफ़ हो रही है। जहाँ जैसी नौकरी कर रहा है, वहीं के कायदे कानून तो ग्रहण करेगा। यानी तुम्हें उसके एटिट्यूड से कोई शिकायत नहीं है। राकेश हैरान हुए। देखो अभी उसकी नई नौकरी है। इसमें उसे पाँव जमाने दो। घर से दूर जाने का मतलब यह नहीं होता कि बच्चा घर भूल गया है। कैसे मेरी गोद में सिर रख कर दोपहर को लेटा हुआ था। एम.ए., बी.ए. करके यहीं चप्पल चटकाता रहता, तब भी तो हमें परेशानी होती।
रेखा का चचेरा भाई भी नागपुर में मार्केटिंग मैनेजर था। उसे थोड़ा अंदाज़ था कि इस क्षेत्र में कितनी स्पर्धा होती है। वह एक फटीचर पाठशाला में अध्यापिका थी। उसके लिए बेटे की कामयाबी गर्व का विषय थी। उसकी सहयोगी अध्यापिकाओं के बच्चे पढ़ाई के बाद तरह-तरह के संघर्षों में लगे थे।
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