दौड़ / ममता कालिया / पृष्ठ 7
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अंततः जब वह चिमटे या कलछी से कोई चीज़ उतारने को होती उसे लगता कहीं से आ कर दो परिचित हाथ मर्तबान उतार देंगे। रेखा बावली बन इधर-उधर कमरों में बच्चे को टोहती पर कमरों की वीरानी में कोई तबदीली न आती। कॉलोनी में कमोबेश सभी की यही हालत थी। इस बुड्ढा-बुड्ढी कॉलोनी में सिर्फ़ गर्मी की लंबी छुट्टियों में कुछ रौनक दिखाई देती जब परिवारों के नाती पोते अंदर बाहर दौड़ते खेलते दिखाई देते। वरना यहाँ चहल-पहल के नाम पर सिर्फ़ सब्ज़ी वालों के या रद्दी खरीदने वाले कबाड़ियों के ठेले घूमते नज़र आते। बच्चों को सुरक्षित भविष्य के लिए तैयार कर हर घर परिवार के माँ बाप खुद एकदम असुरक्षित जीवन जी रहे थे।
शायद असुरक्षा के एहसास से लड़ने के लिए ही यहाँ की जनकल्याण समिति प्रति मंगलवार किसी एक घर में सुंदर-कांड का पाठ आयोजित करती। उस दिन वहाँ जैसे बुढ़वा-मंगल हो जाता। पाठ के नाम पर सुंदर कांड का कैसेट म्यूज़िक सिस्टम में लगा दिया जाता। तब घर के साज ओ सामान पर चर्चाएँ होतीं।
डाइनिंग टेबिल पर माइक्रोवेव ओवन देखकर मिसेज गुप्त मिसेज मजीठिया से पूछतीं-- यह कब लिया?
मिसेज मजीठिया कहतीं-- इस बार देवर आया था, वही दिला गया है।
-- आप क्या पकाती हैं इसमें?
-- कुछ नहीं, बस दलिया-खिचड़ी गर्म कर लेते हैं। झट से गर्म हो जाता है।
-- अरे यह इसका उपयोग नहीं है, कुछ केक-वेक बना कर खिलाइए।
-- बच्चे पास हों तो केक बनाने का मज़ा है।
पता चला किसी के घऱ में वैक्यूम क्लीनर पड़ा धूल खा रहा है, किसी के यहाँ फूड प्रोसेसर। लंबे गृहस्थ जीवन में अपनी सारी उमंग खर्च कर चुकी ये सयानी महिलाएँ एकरसता का चलता-फिरता कूलता-कराहता दस्तावेज़ थीं। रेखा को इन मंगलवारीय बैठकों से दहशत होती। उसे लगता आने वाले वर्षों में उसे इन जैसा हो जाना है।
उसका मन बार-बार बच्चों के बचपन और लड़कपन की यादों में उलझ जाता। घूम-फिर कर वही दिन याद आते जब पुन्नू-छोटू धोती से लिपट-लिपट जाते थे। कई बार तो इन्हें स्कूल भी ले कर जाना पड़ता क्योंकि वे पल्लू छोड़ते ही नहीं। किसी सभा-समिति में उसे आमंत्रित किया जाता तब भी एक न एक बच्चा उसके साथ ज़रूर चिपक जाता। वह मज़ाक करती-- महारानी लक्ष्मीबाई की पीठ पर बच्चा दिखाया जाता है, मेरा उंगली से बंधा हुआ।
क्या दिन थे वे! तब इनकी दुनिया की धुरी माँ थी, उसी में था इनका ब्रह्मांड और ब्रह्म। माँ की गोद इनका झूला, पालना और पलंग। माँ की दृष्टि इनका सृष्टि विस्तार। पवन की प्रारंभिक पढ़ाई में रेखा और राकेश दोनों ही बावले रहे थे। वे अपने स्कूटर पर उसकी स्कूल-बस के पीछे-पीछे चलते जाते यह देखने कि बस कौन से रास्ते जाती है। स्कूल की झाड़ियों में छुप कर वे पवन को देखते कि कहीं वह रो तो नहीं रहा। वह शाहज़ादे की तरह रोज़ नया फ़रमान सुनाता। वे दौड़-दौड़ कर उसकी इच्छा पूरी करते। परीक्षा के दिनों में वे उसकी नींद सोते-जागते।
रेखा के कलेजे में हूक-सी उठती, कितनी जल्दी गुज़र गए वे दिन। अब तो दिन महीनों में बदल जाते हैं और महीने साल में, वह अपने बच्चों को भर नज़र देख भी नहीं पाती। वैसे उसी ने तो उन्हें सारे सबक याद कराए थे। इसी प्रक्रिया में बच्चों के अंदर तेज़ी, तेजस्विता और त्वरा विकसित हुई, प्रतिभा, पराक्रम और महत्वाकांक्षा के गुण आए। वही तो सिखाती थी उन्हें 'जीवन में हमेशा आगे ही आगे बढ़ो, कभी पीछे मुड़ कर मत देखो।' बच्चों को प्रेरित करने के लिए वह एक घटना बताती थी। पवन और सघन को यह किस्सा सुनने में बहुत मज़ा आता था। सघन उसकी धोती में लिपट कर तुतलाता-- मम्मा जब बैया जंतल मंतल पल चर गया तब का हुआ? रेखा के सामने वह क्षण साकार हो उठता। पूरे आवेग से बताने लगती-- पता है पुन्नू, एक बार हम दिल्ली गए। तू ढ़ाई साल का था। अच्छा भला मेरी उंगली पकड़े जंतर मंतर देख रहा था। इधर राकेश मुझे धूप घड़ी दिखाने लगे उधर तू कब हाथ छुड़ा कर भागा, पता ही नहीं चला। जैसे ही मैं देखूँ पवन कहाँ है। हे भगवान! तू तो जंतर-मंतर की ऊँची सीढ़ी चढ़ कर सबसे ऊपर खड़ा था। मेरी हालत ऐसी हो गई कि काटो तो खून नहीं। मैंने इनकी तरफ़ देखा। इन्होंने एक बार गुस्से से मुझे घूरा-- ध्यान नहीं रखती?
घबरा ये भी रहे थे पर तुझे पता नहीं चलने दिया। सीढ़ी के नीचे खड़े हो कर बोले-- बेटा बिना नीचे देखे, सीधे उतर आओ, शाबाश, कहीं देखना नहीं।
फिर मुझसे बोले-- तुम अपनी हाय-तोबा रोक कर रखो, नहीं तो बच्चा गिर जाएगा। तू खम्म-खम्म सारी सीढ़ियाँ उतर आया। हम दोनों ने उस दिन प्रसाद चढ़ाया। भगवान ने ही रक्षा की तेरी।
बार-बार सुनकर बच्चों को ये किस्से ऐसे याद हो गए थे जैसे कहानियाँ।
पवन कहता-- माँ जब तुम बीमार पड़ी थीं, छोटू स्कूल से सीधे अस्पताल आ गया था।
-- सच्ची। इसने ऎसा खतरा मोल लिया। के.जी. दो में पढ़ता था। सेंट एंथनी में तीन बजे छूट्टी हुई। आया जब तक उसे ढूंढ़े, बस में बिठाए, ये चल दिया बाहर।
पवन कहता-- वैसे माँ अस्पताल स्कूल से दूर नहीं है।
-- अरे क्या? चौराहा देखा है वह बालसन वाला। छह रास्ते फूटते हैं वहाँ। कितनी ट्रकें चलती हैं। अच्छे-भले लोग चकरघिन्नी हो जाते हैं सड़क पार करने में और यह एड़ियाँ अचकाता जाने कैसे सारा ट्रैफ़िक पार कर गया कि मम्मा के पास जाना है। सघन कहता-- हमें पिछले दिन पापा ने कहा था कि तुम्हारी मम्मी मरने वाली है। हम इसलिए गए थे।
-- तुमने यह नहीं सोचा कि तुम कुचल जाओगे।
-- नहीं। सघन सिर हिलाता-- हमें तो मम्मा चाहिए थी। अब उसके बिना कितनी दूर रह रहा है सघन। क्या अब याद नहीं आती होगी? कितना काबू रखना पड़ता होगा अपने पर।
भाग्यवान होते हैं वे जिनके बेटे बचपन से होस्टल में पलते हैं, दूर रह कर पढ़ाई करते हैं और बाहर-बाहर ही बड़े होते जाते हैं। उनकी माँओं के पास यादों के नाम पर सिर्फ़ खत और ख़बर होती है, फ़ोन पर एक आवाज़ और एक्समस के ग्रीटिंग-कार्ड। पर रेखा ने तो रच-रच कर पाले हैं अपने बेटे। इनके गू-मूत में गीली हुई है, इनके आँसू अपनी चुम्मों से सुखाये हैं, इनकी हँसी अपने अंतस में उतारी है।
राकेश कहते हैं-- बच्चे अब हमसे ज़्यादा जीवन को समझते हैं। इन्हें कभी पीछे मत खींचना। रात को पवन का फ़ोन आया। माता-पिता दोनों के चेहरे खिल गए।
-- तबियत कैसी है?
-- एकदम ठीक। दोनों ने कहा। अपनी खाँसी, एलर्जी और दर्द बता कर उसे परेशान थोड़े करना है।
-- छोटू की कोई ख़बर?
-- बिलकुल मज़े में है। आजकल चीनी बोलना सीख रहा है।
-- वी.सी.डी. पर पिक्चर देख लिया करो, माँ!
-- हाँ देखती हूँ। साफ़ झूठ बोला रेखा ने। उसे न्यू सी.डी. में डिस्क लगाना कभी नहीं आएगा।
पिछली बार पवन माइक्रोवेव ओवन दिला गया था। फ़ोन पर पूछा-- माइक्रोवेव से काम लेती हो?
-- मुझे अच्छा नहीं लगता। सीटी मुझे सुनती नहीं, मरी हर चीज़ ज्यादा पक जाए। फिर सब्ज़ी एकदम सफ़ेद लगे जैसे कच्ची है।
-- अच्छा यह मैं ले लूंगा, आपको ब्राउनिंग वाला दिला दूंगा।
-- स्टैला कहाँ है?
पता चला उसके माँ-बाप शिकागो से वापस आ गए हैं। पवन ने चहकते हुए बताया-- अब छोटी ममी बिजनेस सँभालेगी। स्टैला पास विज़िट दे सकेगी।
विज़िट शब्द खटका पर वे उलझे नहीं। फिर भी फ़ोन रखने के पहले रेखा के मुँह से निकला-- सभी हमसे मिलने नहीं आए।
-- आएंगे माँ, पहले तो जैटलैग (थकान) रहा, अब बिजनेस में घिरे हैं। वैसे आपकी बहू आप लोगों की मुलाक़ात प्लान कर रही है। वह चाहती है किसी हाली डे रिसोर्ट (सैर सपाटे की जगह) में आप चारों इकट्ठे दो-तीन दिन रहो। वे लोग भी आराम कर लेंगे और आपके लिए भी चेंज हो जाएगा।
-- इतने ताम-झाम की क्या ज़रूरत है? उन्हें यहाँ आना चाहिए।
-- ये तुम स्टैला से फ़ोन पर डिसकस कर लेना। बहुत लंबी बात हो गई, बाय।
कुछ देर बाद ही स्टैला का फ़ोन आया-- मॉम! आप कंप्यूटर ऑन रखा करो। मैंने कितनी बार आपके ई-मेल पर मैसेज दिया। ममी ने भी आप दोनों को हैलो बोला था पर आपका सिस्टम ऑफ था।
-- तुम्हें पता ही है, जब से छोटू गया हमने कंप्यूटर पर खोल उढ़ा कर रख दिया है।
-- ओ नो माम। अगर आपके काम नहीं आ रहा तो यहाँ भिजवा दीजिए। मैं मंगवा लूंगी। इतनी यूजफूल चीज़ आप लोग वेस्ट कर रहे हैं।
रेखा कहना चाहती थी कि उसके माता पिता उनसे मिलने नहीं आए। पर उसे लगा शिकायत उसे छोटा बनाएगी। वह ज़ब्त कर गई। लेकिन जब स्टैला ने उसे अगले महीने वाटर-पार्क के लिए बुलावा दिया उसने साफ़ इनकार कर दिया-- मेरी छुट्टियाँ खतम हैं। मैं नहीं आ सकती। ये चाहें तो चले जाएँ।
इस आयोजन में राकेश की भी रुचि नहीं थी।
कई दिनों के बाद रेखा और राकेश इंजीनियरींग कॉलेज परिसर में घूमने निकले। एक-एक कर परिचित चेहरे दिखते गए। अच्छा लगता रहा। मिन्हाज साहब ने कहा-- घूमने में नागा नहीं करना चाहिए। रोज़ घूमना चाहिए चाहे पाँच मिनट घूमो। उन्हीं से समाचार मिला। कॉलोनी के सोनी साहब को दिल का दौरा पड़ा था, हॉस्पिटल में भरती हैं।
रेखा और राकेश फ़िक्रमंद हो गए। मिसेज सोनी चौंसठ साल की गठियाग्रस्त महिला है। अस्पताल की भाग दौड़ कैसे सँभालेगी?
-- देखो जी, कल तो मैंने भूषण को बैठा दिया था वहाँ पर। आज तो उसने भी काम पर जाना था।
रेखा और राकेश ने तय किया वे शाम को सोनी साहब को देख कर आएंगे।
पर सोनी के दिल ने इतनी मोहलत न दी। वह थक कर पहले ही धड़कना बंद कर बैठा। शाम तक कॉलोनी में अस्पताल की शव-वाहिका सोनी का पार्थिव-शरीर और उनकी बेहाल पत्नी को उतार कर चली गई।
सोनी की लड़की को सूचना दी गई। वह देहरादून ब्याही थी। पता चला वह अगले दिन रात तक पहुँच सकेगी। मिसेज सोनी से सिद्धार्थ का फ़ोन नंबर ले कर उन्हीं के फ़ोन से इंटरनेशनल कॉल मिलाई गई।
मिसेज सोनी पति के शोक में एकदम हतबुद्धि हो रही थीं। फ़ोन पर वे सिर्फ़ रोती और कलपती रहीं-- तेरे डैडी, तेरे डैडी... तब फ़ोन मिन्हाज साहब ने सँभाला-- भई सिधारथ, बड़ा ही बुरा हुआ। अब तू जल्दी से आ कर अपना फ़र्ज़ पूरा कर। तेरे इंतज़ार में फ्यूनरल (दाह संस्कार) रोक के रखें?
उधर से सिद्धार्थ ने कहा-- अंकल! आप ममी को सँभालिए। आज की तारीख़ सबसे मनहूस है। अंकल! मैं जितनी भी जल्दी करूंगा, मुझे पहुँचने में हफ़्ता लग जाएगा।
-- हफ़्ते भर बॉडी कैसे पड़ी रहेगी? मिन्हाज साहब बोले।
-- आप मुरदाघर में रखवा दीजिए। यहाँ तो महीनों बॉडी मारच्यूरी में रखी रहती है। जब बच्चों को फ़ुर्सत होती है फ्यूनरल कर देते हैं।
-- वहाँ की बात और है। हमारे मुलुक में एयरकंडीशंड मुरदाघर कहाँ हैं। ओय पुत्तर तेरा बाप उप्पर चला गया तू इन्नी दूरों बैठा बहाने बना रहा है।
-- ज़रा मम्मी को फ़ोन दीजिए।
कॉलोनी के सभी घरों के लोग इंतज़ाम में जुट गए। जिसको जो याद आता गया, वही काम करता गया। सवेरे तक फूल, गुलाल, शाल से अर्थी ऐसी सजी कि सब अपनी मेहनत पर खुद दंग रह गए। पर इस दारुण-कार्य के दौरान कई लोग बहुत थक गए। मिन्हाज साहब के दिल की धड़कन बढ़ गई। उनके ल़ड़के ने कहा-- डैडी, आप रहने दो, मैं घाट चला जाता हूँ।
भूषण ने ही मुखाग्नि दी।
रेखा, मिसेज गुप्ता, मिसेज यादव, मिसेज सिन्हा और अन्य स्त्रियाँ मिसेज सोनी के पास बैठी रहीं। मिसेज सोनी अब कुछ संयत थीं-- आप सब ने दुख की घड़ी में साथ दिया।
-- यह तो हमारा फ़र्ज़ था। कुछ आवाज़ें आईं।
रेखा के मुँह से निकल गया-- ऐसा क्यों होता है कि कुछ लोग फ़र्ज़ पहचानते हैं, कुछ नहीं। अरे सुख में नहीं पर दुख में तो साथ दो।
मिसेज सोनी ने कहा-- अपने बच्चे के बारे में कुछ भी कहना बुरा लगता है, पर सिद्धू ने कहा मैं किसी को बेटा बनाकर सारे काम करवा लूँ। ऐसा भी कभी होता है।
-- और रेडीमेड बेटे मिल जाएँ, यह भी कहाँ मुमकिन है। बाज़ार में सब चीज़ मोल जाती है पर बच्चे नहीं मिलते।
-- ऐसा ही पता होता है कि पच्चीस बरस पहले परिवार-नियोजन क्यों करते। होने देते और छः बच्चे। एक न एक तो पास रहता।
-- वैसे इतनी दूर से जल्दी से आना हो भी नहीं सकता था। मिसेज मजीठिया ने कहा-- हमारी सास मरी तो हमारे देवर कहाँ आ पाए।
-- पर आपके पति तो थे ना? उन्होंने अपना फ़र्ज़ निभाया।
इस अकस्मिक घटना ने सबके लिए सबक का काम किया। सभी ने अपने वसीयतनामे सँभाले और बैंक खातों के ब्यौरे। क्या पता कब किसका बुलावा आ जाय। आलमारी में दो-चार हज़ार रुपए रखना ज़रूरी समझा गया।
कॉलोनी के फ़ुरसत पसंद बुजुर्गों की विशेषता थी कि वे हर काम मिशन की तरह हाथ में लेते। जैसे कभी उन्होंने अपने दफ़्तरों में फ़ाइलें निपटाई होंगी वैसे वे एक एक कर अपनी ज़िम्मेदारियाँ निपटाने में लग गए। सिन्हा साहब ने कहा-- भई, मैंने तो एकादशी को गऊदान भी जीते जी कर लिया। पता नहीं, अमित बंबई से आ कर यह सब करे या नहीं।
गुप्ता जी बोले-- ऐसे स्वर्ग में सीट रिज़र्व नहीं होती। बेटे का हाथ लगना चाहिए।
श्रीवास्तव जी के कोई लड़का नहीं था, इकलौती लड़की ही थी। उन्होंने कहा-- किसी के बेटा न हो तो?
-- तब उसे ऐसी तड़-फड़ नहीं होती, जो सोनी साहब की मिसेज को हुई।
रेखा यह सब देख सुन कर दहशत से भर गई। एक तो अभी इतनी उम्रदराज़ वह नहीं हुई थी कि अपना एक पैर श्मशान में देखे। दूसरे उसे लगता, ये सब लोग अपने बच्चों को खलनायक बना रहे हैं। क्या बूढ़े होने पर भावना समझने की सामर्थ्य जाती रहती है?
कॉलोनी के हर कठोर निर्णय पर उसे लगता, मैं ऐसी नहीं हूँ, मैं अपने बच्चों के बारे में ऐसी क्रूरता से नहीं सोचती। मेरे बच्चे ऐसे नहीं हैं।
रात की आखिरी समाचार बुलेटिन सुन कर वे अभी लेटे ही थे कि फ़ोन की लंबी घंटी बजी। घंटी के साथ-साथ दिल का तार भी बजा-- ज़रूर छोटू का फ़ोन होगा, पंद्रह दिन से नहीं आया। फ़ोन पर बड़कू पवन बोल रहा था-- हैलो माँ, कैसी हो? आपने फ़ोन नहीं किया?
-- किया था पर आंसरिंग मशीन के बोलने से पहले काट दिया। तुम घर में नहीं टिकते।
-- अरे माँ, मैं तो यहाँ था ही नहीं। ढाका चला गया था, वहाँ से मुंबई उतरा तो सोचा स्टैला को भी देखता चलूँ। वह क्या है, उसकी शकल भी भूलती जा रही थी।
-- तुमने जाने की खबर नहीं दी।
-- आने की तो दे रहा हूँ। मेरा काम ही ऐसा है। अटैची हर वक़्त तैयार रखनी पड़ती है। और सुनो तुम्हारे लिए ढाकाई साड़ियाँ लाया हूँ।
निहाल हो गई रेखा। इतनी दूर जा कर उसे माँ की याद बनी रही। तुरंत बहू का ध्यान आया।
-- स्टैला के लिए भी ले आता।
-- लाया था माँ, उसे और छोटी ममी को पसंद ही नहीं आईं। स्टैला को वहीं से जींस दिला दी। चलो तुम्हारे लिए तीन हो गईं। तीन साल की छुट्टी।
-- मैंने तो तुमसे मांगी भी नहीं थीं। रेखा का स्वर कठिन हो आया।
एक अच्छे मैनेजर की तरह पवन पिता से मुखातिब हुआ-- पापा इतवार से मैं स्वामी जी के ध्यान-शिविर में चार दिन के लिए जा रहा हूँ। सिंगापुर से मेरे बॉस अपनी टीम के साथ आ रहे हैं। वे ध्यान-शिविर देखना चाहते हैं। आप भी मनपक्कम आ जाइए। आपको बहुत शांति मिलेगी। अपने अख़बार का एक विशेषांक प्लान कर लीजिए स्वामी जी पर। विज्ञापन खूब मिलेंगे। यहाँ उनकी बहुत बड़ी शिष्य-मंडली हैं।
राकेश हूँ... हाँ... करते रहे। उनके लिए जगह की दूरी, भाषा का अपरिचय, छुट्टी की किल्लत, कई रोड़े थे राह में। वे इसी में मगन थे कि पुन्नू उन्हें बुला रहा है।
-- छोटू की कोई ख़बर?
-- हाँ पापा उसका ताइपे से खत आया था। जॉब उसका ठीक चल रहा है पर उसकी चाल-ढाल ठीक नहीं लगी। वह वहाँ की लोकल-पालिटिक्स में हिस्सा लेने लगा है। यह चीज़ घातक हो सकती है।
राकेश घबरा गए-- तुम्हें उसे समझाना चाहिए।
-- मैंने फ़ोन किया था, वह तो नेता की तरह बोल रहा था। मैंने कहा, नौकरी को नौकरी की तरह करो, उसमें उसूल, सिद्धांत ठोकने की क्या ज़रूरत है।
-- उसने क्या कहा?
-- कह रहा था, भैया, यह मेरे अस्तित्व का सवाल है।
रेखा को संकट का आभास हुआ। उसने फ़ोन राकेश से ले लिया-- बेटे! उसको कहो फ़ौरन वापस आ जाए। उसे चीन- ताइवान के पचड़े से क्या मतलब।
-- माँ मैं समझा ही सकता हूँ। वह जो करता है उसकी ज़िम्मेदारी है। कई लोग ठोकर खा कर ही सँभलते हैं।
-- पुन्नू तेरा इकलौता भाई है सघन। तू पल्ला झाड़ रहा है।
-- माँ! तुम फ़ोन करो, चिठ्ठी लिखो। अड़ियल लोगों के लिए मेरी बरदाश्त काफ़ी कम हो गई है। मेरी कोई शिकायत मिले तो कहना।
दहशत से दहल गई रेखा। तुरंत छोटू को फ़ोन मिलाया। वह घर पर नहीं था। उसे ढूंढ़ने में दो-ढाई घंटे लग गए। इस बीच माता-पिता का बुरा हाल हो गया। राकेश बार-बार बाथरूम जाते। रेखा साड़ी के पल्लू में अपनी खाँसी दबाने में लगी रही।
अंततः छोटू से बात हुई। उसने समीकरण समझाया।
-- ऐसा है पापा! अगर मैं लोकल लोगों के समर्थन में नहीं बोलूंगा तो ये मुझे नष्ट कर देंगे।
-- तो तुम यहाँ चले आओ। इन्फोटेक (सूचना तकनीकि) में यहाँ भी अच्छी से अच्छी नौकरियाँ हैं।
-- यहाँ मैं जम गया हूँ।
-- परदेस में आदमी कभी नहीं जम सकता। तंबू का कोई न कोई खूँटा उखड़ा ही रहता है।
-- हिंदुस्तान अगर लौटा तो अपना काम करूंगा।
-- यह तो और भी अच्छा है।
-- पर पापा उसके लिए कम से कम तीस-चालीस लाख रुपए की ज़रूरत होगी। मैं आपको लिखने ही वाला था। आप कितना इंतज़ाम कर सकते हैं, बाकी जब मैं जमा कर लूँ, तब आऊँ।
राकेश एकदम गड़बड़ा गए-- तुम्हें पता है घर का हाल। जितना कमाते हैं उतना खर्च कर देते हैं। सारा पोंछ-पाँछ कर निकालें तो भी एक-डेढ़ से ज़्यादा नहीं होगा।
-- इसी बिना पर मुझे वापस बुला रहे हैं। इतने में तो पी,सी,ओ, भी नहीं खुलेगा।
-- तुमने भी कुछ जोड़ा होगा, इतने बरसों में।
-- पर वह काफ़ी नहीं है। आपने इन बरसों में क्या किया? दोनों बच्चों का खर्च आपके सिर से उठ गया, घूमने आप जाते नहीं, पिक्चर आप देखते नहीं, दारू आप पीते नहीं, फिर आपके पैसों का क्या हुआ?
राकेश आगे बोल नहीं पाए। बच्चा उनसे रुपये-आने-पाई में हिसाब मांग रहा था।
रेखा ने फ़ोन झपट कर कहा-- तू कब आ रहा है, छोटू? सघन ने कहा-- माँ, जब आने लायक हो जाऊंगा तभी आऊंगा। तुम्हें थोड़ा इंतज़ार करना होगा।
समाप्त
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