दौर-ए-शराब बंदी में एक बहकी गाथा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :18 मई 2016
यह आश्चर्य की बात है कि विभिन्न क्षेत्रों के शीर्ष नेताओं के मन में एक ही तरंग बहती है। उनका असली काम तो अवाम के सुख-दु:ख मालूम करके उनके निदान के प्रयास करना होना चाहिए, परंतु वे शतरंज के खिलाड़ियों की तरह एक-दूसरे की अगली चाल का अनुमान लगाने में लगे रहते हैं। उनके मन कभी नहीं मिलते परंतु कई बार उनकी सनक एक-सी होती है। आजकल नेताओं का नया शिगूफा है शराब बंदी करने का। क्या इसका यह अर्थ है कि अवैध शराब का धंधा करने वालों का एक दल बन गया है और वे सभी नेताओं को यह असफल मंत्र दे रहे हैं। हुकूमते बरतानिया ने भी एक दौर में शराब बंदी की थी अौर उसी दौर में फ्रांस से लौट रहे ऑस्कर वाइल्ड से कस्टम अधिकारी ने पूछा कि आपके सूटकेस में क्या है, तो लेखक ने कहा कि केवल कपड़े हैं। सूटकेस खोले जाने पर उसमें शराब की बोतल निकली तो ऑस्कर वाइल्ड ने कहा कि यह उनका नाइट कैप है। उन्होंने सत्य ही कहा, क्योंकि उन्हें शराब पीने पर ही नींद आती थी। शराब के सेवन से होने वाले संदिग्ध लाभ या हानियों के परे शाश्वत सत्य यह है कि शराब पीना इंसानी फितरत में शामिल है। इसके साथ यह भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता कि अनेक गरीब परिवार शराबखोरी के कारण नष्ट हुए हैं। शराब बंदी के बाद उसके विकल्प के रूप में कई लोग बूटपॉलिश पी जाते हैं। आयुर्वेद के शक्तिवर्द्धक के रूप में प्रचारित एक पेय में अल्कोहल का कॉफी प्रतिशत होता है और एक ही समय में पूरी बोतल पीने पर कुछ नशा भी आ जाता है। तपस्या करने वालों ने शराब अन्य नाम से पी है और लेखकों तथा कवियों ने भी इसे पीने के हसीन बहाने खोजे हैं। इन अभिनव बहानों में मनुष्य की कल्पना शक्ति का अनुमान लगता है।
उमर खय्याम से लेकर हरिवंश राय बच्चन तक ने एक बहाने के रूप में ही सही परंतु इसके गीत गाए हैं, फिर चाहे वह खय्याम की रूबाइयां हों या बच्चन महोदय की 'मधुशाला।' सभी ने अनोखे रूपक गढ़े हैं। इन प्रशंसा करने वालों में गालिब का अंदाज-ए-बयां किसी के पास नहीं है। क्रिश्चिएनिटी में तो बेनेडिक्शन में शराब पी जाती है और शवयात्रा के बाद मरने वालों की स्मृति में भी शराब पी जाती है। जनजातियों के लोग शराब को शराब कहकर ही पीते हैं। उनकी जीवन शैली में बहानेबाजी और स्वांग का कोई स्थान नहीं है। एक जनजाति में शादी के समय दूल्हा-दुल्हन एक-दूसरे के सिर पर तीन कुल्हड़ शराब उड़ेलते हैं और शादी संपन्न मानी जाती है। इस तरह के विवाह में न पंडित है, न मौलवी और न ही पादरी। जहां प्रेम धर्म होता है, वहां पंडित, मौलवी अौर पादरी अनावश्यक हो जाते हैं। विवाह और मृत्यु पर्व ने पंडित, मौलवी व पादरी को महत्वपूर्ण बनाया और रोजी-रोटी का साधन दिया है। अनंतमूर्ति लिखित 'संस्कार' को गिरीश कर्नाड ने फिल्माया है। यह दो ब्राह्मण मित्रों की कथा है, जिसमें से एक तथाकथित निम्न जाति की स्त्री के साथ रहा, दूसरा नीरस जीवन को आदर्श मानकर ढोता रहा। निम्न जाति की महिला दूसरे बामन के पास आती है कि उसके मित्र की मृत्यु हो गई है और अंतिम संस्कार बतौर बामन होगा या अपनी रीति से करें। यह एक विलक्षण फिल्म थी।
शराब को 'स्पिरिट' अर्थात आत्मा कहकर भी संबोधित किया गया है। इसके सेवन से मनुष्य अपने अवचेतन से रू-ब-रू होता है। इस मुलाकात का यह एकमात्र तरीका नहीं है परंतु अत्यंत लोकप्रिय बहाना है। शरत बाबू का अमर पात्र देवदास कहता है, 'कौन कम्बख्त कहता है कि मैं पीता हूं, पीता हूं ताकि सांस ले सकूं।' यह संवाद केदार शर्मा ने 1935 में बनी न्यू थिएटर्स की देवदास के लिए लिखा था और उनकी इजाजत से राजिंदर सिंह बेदी ने इसे बिमल राय की 1956 में बनी दिलीप अभिनीत देवदास में प्रयोग किया। शराब स्वयं को विस्मृति में डुबाने के लिए नहीं वरन् स्वयं को पा जाने के लिए पी जाती है। दरअसल, शराब का मिज़ाज और असर हर पीने वाले के साथ बदलता है गोयाकि वह तो महज एक ग्लास है, जिसमें क्या डाला जा रहा है यह व्यक्ति पर निर्भर करता है। इसीलिए एक शायर ने कहा कि शराब में नशा होती तो सुराही और ग्लास पर चढ़ जाता। साधारणीकरण यह है कि नशा पीने वाले के दिमाग में होता है। अच्छा आदमी इसे पीकर और अधिक अच्छा हो जाता है और बुरा व्यक्ति और अधिक बुरा।
मेरी फिल्म 'शायद' में अवैध शराब पीकर मरने वालों की घटना के पार्श्व में मन्ना डे के गाए गीत का प्रयोग किया गया है। सर्वप्रथम काशिफ इंदौरी का शेर है, जो मेरी स्मृति में इस तरह दर्ज है, 'सरासर गलत है मुझपे इल्जामे बला नोशी का, जिस कदर अांसू पीये हैं, उससे कम पी है शराब,' और फिर निदा फाज़ली का गीत है, 'दिनभर धूप का पर्बत काटा, शाम को पीने निकले हम, जिन गलियों में मौत बिछी थी, उनमें जीने निकले हम।'