दौर ये चलता रहे, रंग बदलता रहे / जयप्रकाश चौकसे

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दौर ये चलता रहे, रंग बदलता रहे
प्रकाशन तिथि : 30 अगस्त 2014


लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने सार्वजनिक गणेशोत्सव पूना में प्रारंभ किए और उनका प्रयोग किया स्वतंत्रता का संदेश देने के लिए तथा सामाजिक व्याधियों के उन्मूलन के लिए क्योंकि हुक्मराने बरतानिया ने अभिव्यक्ति पर पाबंदी लगाई थी। गांधीजी की सभाओं को भी प्रार्थना सभा कहा जाता था और उनका प्रारंभ भी धर्म वंदना से होता था। इसके अनेक दशक पूर्व 1857 की क्रांति का संदेश भी धर्म की ओट में छुपाकर प्रचारित किया गया। अंग्रेजों की हुकुमत ने हमेशा ही अपने गुप्तचर मंदिरों और मस्जिदों में तैनात किए कि वे जन समूह की बातों का ब्यौरा उन्हें दे। कहा जाता है कि अंग्रेजों ने शिमला में अवाम के असंतोष का ब्यौरा इन्हीं धार्मिक स्थानों पर हुई कानाफूसी के माध्यम से किया था। किवदंती है कि जाते समय अंग्रेज इस असंतोष के रोजनामचे को नष्ट कर गए परंतु इन सब बातों का निष्कर्ष यह निकलता है कि अवाम के मूड को मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारों में अवाम की आपसी कानाफूसी से समझा जा सकता है गोयाकि धर्मस्थल पर सामाजिक तापमान की जानकारी भी ली जा सकती है। हमारे धार्मिक ठिए अप्रकाश्य अखबारों का जखीरा रहे हैं।

तिलक वाले दौर में ही गोविंद धुंडिराज फाल्के ने 'लाइफ ऑफ क्राइस्ट' नामक फिल्म देखकर ही सोचा कि इस नए जादुई माध्यम से कृष्ण चरित अभिव्यक्त किया जा सकता है। इसका यह अर्थ भी है कि भारतीय कथा फिल्म की कुंडली में धर्म कथाएं रोपित रही हैं और पहले दशक की सारी फिल्में इन्हीं पर आधारित रही हैं परंतु इन धार्मिक फिल्मों से भी देश प्रेम की भावना को जगाया गया है जैसे सम्पतशाह की 1919 में बनी फिल्म 'महात्मा विदुर' में विदुर पात्र अभिनीत करने वाले कलाकार को गांधीनुमा पोशाक पहनाई गई और सहारे के लिए लाठी भी दी गई। इसी तरह 'कीचक वध' नामक फिल्म में दुष्ट कीचक का पात्र एक अंग्रेज कलाकार से कराया गया। सच तो यह है कि विगत सौ वर्षों में बनी अधिकांश सामाजिक फिल्मों के पात्रों ने भले ही आधुनिक पोशाक पहनी हो परंतु उनकी विचार प्रक्रिया में पौराणिकता मौजूद रही हैं। हमारे फिल्मकारों की आधुनिकता भी इसी पौराणिकता का एक मुखौटा मात्र रही हैं।

अनेक फिल्मकारों ने अपनी सामाजिक फिल्मों में पौराणिक संकेत भरे हैं आैर कई जगह इनके रूपक का भी प्रयोग किया गया है। मसलन ऋषिकेश मुखर्जी की 'सत्यकाम' में महाभारत की जाबाली उपकथा का रूपक मौजूद है। यहां तक कि कम्युनिस्ट ख्वाजा अहमद अब्बास की लिखी आैर राजकपूर की निर्देशित 'आवारा' में भी रामायण का मैटाफर है। केंद्रीय पात्र का नाम जज रघुनाथ है और वह भी अपनी गर्भवती पत्नी को निष्कासित करता है आैर उस दृश्य में प्रयुक्त गीत के बोल हैं "जुल्म सहे भारी, सीता राजदुलारी'। इस तरह की अनेक फिल्में हैं।

हॉलीवुड में भी धार्मिक आख्यानों पर अनेक फिल्में बनी हैं जैसे 'बेनहर', 'टेन कमांडमेंट्स' इत्यादि। हॉलीवुड की भूत-प्रेत फिल्मों में भी क्रिश्चिएनिटी का प्रचार है क्योंकि क्रास और पवित्र जल से ही भूत-प्रेत नष्ट होते हैं गोयाकि हॉरर फिल्में भी फेथ फिल्मों का ही एक रूप हैं। 'बेनहर' का नया संस्करण 2016 के मध्य में प्रदर्शित होने जा रहा है।

भारतीय सिनेमा तो अब स्वयं एक माइथोलॉजी हो गया है। बाजार की ताकत इसे छद्म आधुनिकता के बांस पर टांग कर एक माइथोलॉजिकल ध्वजा की तरह फहरा रही है। सिनेमा ने कुछ भूली-बिसरी धार्मिक कथाओं को भी जीवित कर दिया है मसलन संतोषी मां की कथा। मजे की बात यह है कि कस्बाई दर्शक धार्मिक फिल्म में जूते-चप्पल बाहर उतार कर सिनेमाघर में प्रवेश करता है। यह पौराणिकता ही हिन्दुस्तानी सिनेमा का 'स्थायी' है। विचारणीय यह है कि कभी किसी फिल्मकार ने धार्मिक कथा आधारित फिल्म में आधुनिकता के दृष्टिकोण से फिल्म नहीं बनाई है और ना ही उसकी स्वतंत्र तर्क सम्मत व्याख्या की है। गुलजार ने अपनी मीराबाई फिल्म में चमत्कार को वर्जित करके मीरा के मानवीय स्वरूप को प्रस्तुत किया और फिल्म असफल हो गई।