द्ररावपथी, दरबार और संस्कार / जयप्रकाश चौकसे

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द्ररावपथी, दरबार और संस्कार
प्रकाशन तिथि : 14 मार्च 2020


दक्षिण भारत में अल्प बजट में बनी गैर सितारा फिल्म ‘द्ररावपथी’ इतनी अधिक देखी जा रही है कि पहले दिन ही उस पर लगाई गई पूंजी वसूल हो गई। गौरतलब है कि इसी फिल्म के साथ ‘दरबार’ नामक सुपर सितारा फिल्म का प्रदर्शन भी हुआ था, परंतु उसे उतने दर्शक नहीं मिले। बॉक्स ऑफिस पर यह प्रकरण दीए और तूफान के बीच का सा द्वंद्व बन गया। ऐसा कई बार हुआ है कि अल्प बजट की सिताराविहीन फिल्में सफल रही हैं। अमिताभ बच्चन के दौर में अमोल पालेकर की फिल्मों ने भी लाभ कमाया है। यश चोपड़ा की अल्प बजट की फिल्म ‘नूरी’ की कमाई से उनकी बहु सितारा फिल्म ‘काला पत्थर’ के घाटे की भरपाई हुई। दरअसल संगीतकार खय्याम साहब ने नूरी का अकल्पन किया था। उन्हें फिल्म मुनाफे का भागीदार भी बनाया गया था। उनको शिकायत रही कि बंदरबांट के कारण उन्हें अपना पूरा लाभांश प्राप्त नहीं हुआ।

इस प्रकरण में सबसे अधिक चिंताजनक तथ्य यह है कि अल्प बजट की सफल फिल्म अंतरजातीय प्रेम विवाह की मुखालफत करती है। फिल्म की बॉक्स ऑफिस पर प्राप्त अपार सफलता यह तथ्य रेखांकित करती है कि अवाम भी संकीर्णता का हामी है। ज्ञातव्य है कि दक्षिण भारत के एक मंदिर में सदियों से औरतों का जाना प्रतिबंधित रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि लिंग के आधार पर पूजा स्थल में प्रवेश पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। इस फैसले से दलित महिलाएं अत्यंत प्रसन्न थीं, परंतु यथार्थ यह है कि आज भी हुड़दंगियों के आतंक के कारण महिलाएं मंदिर में प्रवेश नहीं करतीं। न्यायालयों के फैसलों से समाज नहीं सुधरता। हृदय से सुधार के लिए हूक उठना चाहिए। अवाम से बड़ी कोई शक्ति नहीं होती। आज अवाम संकीर्णता के पक्ष में खड़ा दिख रहा है।

मराठी भाषा में बनी फिल्म ‘सैराट’ में प्रस्तुत किया गया कि अंतरजातीय प्रेम विवाह करने वालों को उन दोनों के परिवार के सदस्यों ने ही मार दिया था। ‘सैराट’ के अंतिम दृश्य में उन दोनों का अबोध शिशु जीवित है जो संकेत था कि भविष्य में कुरीतियां समाप्त हो जाएंगी। सुना है कि सैराट के हिंदी में बने चरबे में शिशु को भी मार दिया गया, परंतु जख्मी कन्या जीवित है। संभवत: यह सफल फिल्म के भाग दो की संभावना को देखकर किया गया।

समाज के समुद्र की सतह पर उत्तुंग लहरें परिवर्तन की प्रतीत हैं। समुद्र के तल में कभी कुछ नहीं बदलता। यही हमारे समाज का कटु यथार्थ है। हुड़दंग प्रायोजित हो सकता है, परंतु कुरीतियों के प्रति अवाम का मोह साफ नजर आता है। ज्ञातव्य है कि दशकों पूर्व गिरीश कर्नाड की फिल्म ‘संस्कार’ भी सराही गई थी। संस्कार में बचपन से ही दो ब्राह्मण गहरे मित्र रहे हैं। उनमें से एक को दलित स्त्री से प्रेम हो जाता है और वह उसी के साथ रहने लगता है। समाज में नाराजगी है, परंतु प्रेमी इसकी परवाह नहीं करते। कालांतर में दलित महिला के साथ रहने वाले ब्राह्मण की मृत्यु हो जाती है तो वह अपने प्रेमी पति के बचपन के मित्र से पूछने आती है कि क्या मरने वाले का अंतिम संस्कार ब्राह्मणों की विधि से किया जाएगा? इस प्रकरण पर निर्णय के लिए वह कुछ समय मांगता है, मन के द्वंद्व को शांत करने के लिए वह नदी में स्नान करने जाता है। वहीं पर स्त्रियों के लिए बने घाट पर गीली साड़ी में उस दलित स्त्री को पानी से निकलते देखता है। वह उसकी देह के सौंदर्य से अभिभूत हो जाता है और सोचता है कि उसके विद्रोही बाल सखा ने कितना सुखी जीवन जीया होगा इसका उसे भान हो जाता है। वह निर्णय देता है कि मृतक का अंतिम संस्कार एक ब्राह्मण की तरह ही किया जाएगा। जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं। यदाकदा किए गए सुधार प्रयास से कोई लाभ नहीं होता।

यह तथ्य भी सामने है कि राजनीति में भी चुनाव क्षेत्र में अधिक मतदाता जिस जाति के होते हैं, चुनाव लड़ने का अवसर भी उसे ही दिया जाता है। हमारी गणतंत्र व्यवस्था में जातिवाद ने दरारें बना दी हैं और कालांतर में व्यवस्था ढह सकती है। यह भी चिंतनीय है कि अपेक्षाकृत कम सफल फिल्म जातिवाद पर प्रहार करने वाली फिल्म है।