द्रोही / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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वह बुद्धिमान था या मूर्ख, दबैल था या हठी, साहसी था या कायर, हम नहीं कहते। क्योंकि जिसे एक कायर कहता है, दूसरा दबैल, उसी को तीसरा बुद्धिमान् कह देता है; जिसे एक मूर्ख या हठी कहता है, वही किसी अन्य के यहाँ साहसी वीर कहकर सराहा जाता है।

हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि वह द्रोही था, सिर से पैर तक द्रोही था। इसके अतिरिक्त उसके, उसके कर्मों के, उसकी मनोगति के विषय में जो कुछ उसने स्वयं अपने हाथों लिखा था, उसी का संकलन करके हम पाठकों के सामने रख देते हैं, उसे देखकर वे जो निष्कर्ष निकालना चाहें निकालें, जिस परिणाम पर हम पहुँचे हैं, वह पाठकों को मान्य होगा या नहीं, यह हम नहीं जानते, इसलिए अपनी सम्मति से हम उन्हें बाधित नहीं करेंगे।

1

कैसा घोर परिवर्तन है यह! अभी उस दिन हम उस पर्वत-श्रेणी पर भटक रहे थे, चारों ओर मीलों तक हिमाच्छादित पर्वत-शिखर दीख पड़ते थे, इधर-उधर जाने में कोई रोक-टोक नहीं था... स्वेच्छाचारिता के लिए कितना विशद क्षेत्र था वह! आज भी, प्रातःकाल को, कितना स्वच्छन्द होकर मैं यमुना के तट पर बाइसिकल लिये चला जा रहा था, कोई रोक नहीं थी, कोई यह नहीं कह सकता था कि इधर मत जाओ... और अब? इस छोटी-सी अँधेरी कोठरी में चारपाई के साथ हथकड़ी लगाए पड़ा हूँ! इतनी भी स्वतन्त्रता नहीं है कि लेटे हुए से उठकर बैठ जाऊँ!

लोग कहते हैं, आत्मा निराकार है, उसे कोई बाँध नहीं सकता। पर जब शरीर बँध जाता है, तो क्यों आत्मा मानो आकाश से गिरकर भूमि पर आ जाती है? क्यों उसे इतनी व्यथा होती है?

आदमी का घर जब जलता है, तब उसे दुःख होता है। क्योंकि आग की तपन को आदमी अनुभव कर सकता है। पर आदमी तो साकार है, आत्मा की तरह तो नहीं है?

कैसी वीभत्स है यह कोठरी! सामने दरवाजा है उसमें सीखचे लगे हुए हैं-कारागार! उसके आगे दालान है, पर उसके किवाड़ ऐसी जगह हैं कि मैं देख न पाऊँ-बन्धन! कोठरी के ऊपर छोटा-सा रोशनदान है, पर वह भी ढाँप दिया गया है कि मैं आकाश का एक छोटा-सा टुकड़ा भी न देख पाऊँ! कैसा विकट बन्धन है यह जिसमें शरीर, दृष्टि और आत्मा, तीनों ही बँधे हुए हैं!

कोठरी की दीवारों पर सफ़ेदी तक नहीं की गयी। अलग-अलग र्ईंटें साफ़ दीखती हैं, और उनके बीच में से मिट्टी गिर रही है...फ़र्श भी गीला है और उसमें से सीलन की सड़ान्ध आ रही है... छत में खड़खड़ का शब्द कहीं हो रहा है-शायद चूहे कूद रहे हैं... और यह, मृत्यु की छाया की तरह काले चमगादड़ मेरे सिर पर मँडरा रहे हैं, इनके पंखों के फड़फड़ाने की आवाज़ तक नहीं आती! किसी भावी अनिष्ट की प्रतिच्छाया की तरह, किसी घोरतम पतन के पूर्व शकुन की तरह, प्रशान्त, भैरव, निःशब्द होकर ये वृत्ताकार घूम रहे हैं... और वह वृत्त धीरे-धीरे छोटा होता जाता है...

आँखें बन्द करके सोचता हूँ, भविष्य के क्रोड़ में क्या है जो मुझसे छिपा हुआ है? बहुत सोचता हूँ, पर एक प्रशस्त अन्धकार के अतिरिक्त कुछ नहीं दीखता। विचार करने लगता हूँ कि मेरा कर्त्तव्य क्या है, तो कितनी सम्भावनाएँ आगे आ जाती हैं...इतने कष्ट में पड़ने से क्या लाभ होगा? वह महान् व्रत धारण किया था... वर्षों जेल में क्यों सड़ता रहूँ? उस दिन एक प्रतिज्ञा की थी...पुलिस सब कुछ तो पहले से जानती है, अगर मैं अपने मुँह से कह दूँ तो क्या हर्ज है? ‘बन्धुओं की रक्षा के लिए मृत्यु के मुख में भी-’ ...माफ़ी मिल सकती है, उसे क्यों छोड़ू? ‘संसार में सबसे पतित व्यक्ति वह है जो डरकर कर्त्तव्य-विमुख- ...हमारे संघ में अनेकों अयोग्य व्यक्ति हैं उन्हें बचाने के लिए मैं क्यों आग में पड़ूँ ? विश्वास की रक्षा कितनी बड़ी निष्ठा है। ...अगर मैं निकलकर संघ का नये और उच्चतर आदर्श पर निर्माण कर सकूँ, तो क्योंकर मरीचिका के लिए जेल जाऊँ? ‘यह वह संग्राम है जिसमें एक चूक भी अक्षम्य होती है, इसमें वे ही हाथ बँटा सकते हैं जो सर्वथा अकलंक हो...’

उफ़? जब स्वतन्त्र था तब तो कभी कर्त्तव्य-पथ अदृश्य नहीं हुआ था! यहाँ आकर क्यों मेरी अन्तर्ज्योति बुझ गयी? भविष्य, अगर तुम्हारा हृदय चीरकर उसके भीतर देख सकूँ! क्या करूँ? क्या करूँ? क्या करूँ?...

मैं आँख बन्द किये पड़ा हूँ, फिर भी चमगादड़ों की रवहीन उड़ान की अनुभूति मेरे हृदय में एक अजीब ग्लानि-मिश्रित भय-सा उत्पन्न कर रही है... वह वृत्त ज्यों-ज्यों छोटा होता जाता है, मेरी अशान्ति बढ़ती जाती है...

पर जिस विकल्प में मैं पड़ा हूँ, वह हटता जाता है... मुझे जो प्रगति की सम्भावनाएँ दीखती हैं, उनकी संख्या कम होती जाती है...

ज्यों-ज्यों उन चमगादड़ों की उड़ान का मंडल छोटा होता जाता है, त्यों-त्यों मेरी मनोगति का मार्ग भी संकीर्णतर होता जाता है... एक ही कामना मेरा हृदय में पुकारती है, एक ही संकीर्ण पथ मेरी आँखों के आगे है, वह की ज्वलन्त प्रश्न मेरे मन में नाच रहा है... वह कामना उत्तम है या अधम, वह पथ उन्नतशील है या अवनति की ओर जाता है, इसकी विवेचना करने की शक्ति मुझमें नहीं है... वह प्रश्न और उसका उत्तर इतने प्रज्वलित, इतने दीप्तिमान हैं कि उनके आगे निष्ठा, कर्त्तव्य, प्रतिज्ञा, व्रत, बन्धु, संघ, आदर्श, कुछ नहीं दीखता!

कमला! कमला! तुम्हें कैसे पाऊँगा?...

निष्ठा क्या है? जिसका हम पालन करें। कर्त्तव्य क्या है? जिसके लिए हम कष्ट झेलें। प्रतिज्ञा क्या है? जिसे हम निभाएँ! पर यह सब उस अखण्ड निष्ठा, उस प्रकीर्ण कर्त्तव्य, उस उग्र प्रतिज्ञा के आगे क्या हैं? उस व्रत के आगे जिसमें माता-पिता, बन्धु-बान्धव, घर-बार? प्रतिष्ठा, कलंक, सब भूल जाने पड़ते हैं? उस आदर्श के आगे जिसका अनुसरण करनेवाला पतित होकर भी दिव्य पुरुष होता है?

जानती हो कमला! वह क्या है?

प्रेम!

लोग कहते हैं, जब तक विकल्प रहता है तब तक अशान्ति रहती है, जब आदमी किसी ध्रुव पर पहुँच जाता है तो उसे शान्ति मिल जाती है। फिर क्यों मेरे मन में स्मृतियाँ उठकर मुझे तंग करती हैं, क्यों भूले हुए चेहरे मेरे आगे हँसते हैं और मुझे कोसते हैं?

मैंने निर्णय कर लिया है, सब-कुछ भूलकर एक व्रत निभाऊँगा, उसके लिए जो कुछ होगा सह लूँगा... व्रत का अनुष्ठान पूरा करने में आनन्द होना चाहिए था, फिर क्यों मेरे हृदय के अन्दर-ही-अन्दर यह आग-सी सुलग रही है?

एक स्मृति आती है... एक व्यक्ति कठघरे में खड़ा है, सामने सुल्तानी गवाह बयान देने को खड़ा है। जज, वकील, दर्शक सब निःस्तब्ध बैठे हैं-वह व्यक्ति गम्भीर स्वर में कुछ कह रहा है...

“लोग कहते हैं, हमें अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान नहीं है। आप कहते हैं, हमने षड़यन्त्र किये हैं, बग़ावात फैलाई है, राज के कर्मचारियों को मारने का प्रयत्न किया है, इसलिए हम दोषी हैं।

“आपने जो अभियोग मुझ पर लगाया है, उसकी मुझे परवाह नहीं है। मैं उसके विषय में अपनी सफ़ाई भी नहीं दूँगा? क्यों? क्योंकि मैं जानता हूँ, यह न्यायालय नहीं है। यह रंगभूमि है, और नाटक का अन्त क्या होगा? यह आप और मैं अच्छी तरह जानते हैं, क्योंकि हम दोनों ही इस अभिनय के पात्र हैं। दर्शकों के मन में शायद कुछ कुतूहल हो-मेरे मन में नहीं है।

“परन्तु जो दूसरा आक्षेप, जो लोगों ने हम पर किया है... उसका उत्तर देना मेरा कर्त्तव्य है।

“अगर मैं एक दिन के लिए, कालिदास, या रवि ठाकुर या माइकेल एंजेलो, या शेषन्ना हो सकता, तो मुझे जितना आनन्द, जितना अभिमान होता, उतना एक समूचे राष्ट्र का विधाता होकर भी नहीं हो सकता। परन्तु उस जीवन का, उस जीवन के सौ वर्षों का, मैं देश की सेवा में बिताए हुए एक क्षण के लिए प्रसन्नता से उत्सर्ग कर दूँगा, क्योंकि मुझे अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान है, मैं जानता हूँ कि एक दासताबद्ध देश को कवियों और कलाकारों की अपेक्षा योद्धाओं की अधिक आवश्यकता है...”

मैं आँखों के आगे हाथ रख लेता हूँ... पर वह व्यक्ति मेरी ओर देखकर कहता है, “क्यों रघुनाथ, तुम तो बहुत बातें बनाते थे...”

हट जाओ! मेरे आगे से हट जाओ! क्यों तुम जलाने आ रहे हो? मैं तुम्हारी बात नहीं सुनूँगा, नहीं सुनूँगा!

एक स्त्री - उसका मुख परिचित है - सुधा! केश बिखरे हुए हैं, मैला आँचल सिर पर से गिरा हुआ है... कितना निर्भीक खड़ी है वह!

“मुझ पर जो अभियोग लगाया गया है, उसमें दोषी ठहराए जाने में ही गौरव है... जो गुलाम होकर भी उस दोष के दोषी नहीं हैं, वे कायर, नपुंसक, नीच हैं...”

फिर, - “रघुनाथ, तुम यह जानकर भी पतित हो गये...”

उफ़! ये स्मृतियाँ...!

मैं निर्णय कर चुका हूँ। अब नहीं बदलूँगा। मैंने व्रत धारण किया है, उसे निभाऊँगा।

कितनी आत्मभर्त्सना, कितने व्याघात सहने पड़े हैं मुझे... पर मैं दृढ़ रहूँगा...

तुम तो मेरी सहायता करोगी न, तुम तो मुझे नहीं कोसोगी?

कमला! कमला! केवल तुम्हें पाने के लिए मैं यह सब कर रहा हूँ...

मैंने बयान दिया है, बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बातें कहीं हैं। अच्छा किया है।

वे मुझसे पूछते, “फिर तुम्हारे साथियों ने अमुक काम किया है। ठीक है न?”

उन्होंने किया था या नहीं, इससे मुझे क्या? मेरी बातों से उनकी कितनी हानि होगी, इससे मुझे क्या? वे उदार हृदय नहीं हैं। नहीं तो रात को, जब मैं सोने लगता हूँ, तब वे क्यों आकर मुझे सताते हैं? अब मैं उस अन्धेरी कोठरी में नहीं हूँ, एक बहुत अच्छे कमरे में बिजली के प्रकाश में पलंग पर सोता हूँ, फिर भी उनकी स्मृतियाँ चैन नहीं लेने देती... वे मुझे तड़फाती रहें, और मैं प्रतिशोध न करूँ? मैं आदमी हूँ, कोई भेड़-बकरी नहीं हूँ! मैं प्रतिशोध करूँगा, भीषण प्रतिशोध! जितनी घड़ियाँ मैंने छटपटाते हुए काटी हैं, उन्हें भूलूँगा नहीं!

मैं उत्तर दे देता, “हाँ, ठीक है। उन्होंने किया।”

मैंने जो कुछ किया, उचित किया। अगर इसके लिए रातें जागकर काटनी पड़ें, तो काटूँगा।

ये स्मृतियाँ कब तक रहेंगी? जब यहाँ से छूटकर तुम्हें पा जाऊँगा, क्या तब भी ये मुझे सताएँगी कमला?

कितना धीरे-धीरे चलता है समय!

इतने दिन हो गये, मैं अपना बयान समाप्त कर चुका, पर जिरह अभी चल रही है। कैसे मर्मभेदी प्रश्न होते हैं वे!

“तुम जब बनारस से आये, तो कहाँ ठहरे?”

“बाबू कामता प्रसाद के घर में।”

“बाबू कामता प्रसाद उस समय घर में थे?”

“नहीं।”

“कौन था?”

“उनका लड़का।”

“और?”

“मुझे याद नहीं है।”

“याद कर लो, कोई जल्दी नहीं है। उनकी लड़की भी वहाँ थी?”

“शायद।”

“उसका नाम क्या है?”

“मैं नहीं जानता।”

“उसका नाम कमला है, ठीक है न? सोचकर बताओ।”

कोई उत्तर नहीं। क्यों वे बार-बार चक्कर काटकर उसी बात पर आते हैं? क्या अभिप्राय है उनका?

“उस बाग़ में तुम्हें कौन-कौन मिलने आया?”

“मैं बता चुका हूँ।”

“उनके सिवा और कोई नहीं आया?”

“नहीं।”

“कमला?”

“नहीं।”

“याद कर लो।”

“कह चुका हूँ, नहीं।”

“अच्छा ख़ैर, जाने दो।”

समझ नहीं आता, क्यों वे बार-बार इसी बात पर चक्कर काटते हैं... न जाने क्या अभिप्राय है! क्या चाहते हैं वे मुझसे कहलाना? किस वास्ते?

यह कहलाकर कि मैं कमला से प्रेम करता हूँ, क्या वे उसे मुझसे अलग करना चाहते हैं?

अगर चाहते हैं, तो उनकी इस आशा को फलीभूत न होने देना, कमला!

हमने सीखा था, किसी विशाल आदर्श के लिए झूठ बोला जाय तो उसमें कोई हानि नहीं है, इसके विपरीत वह सर्वथा सराहनीय है। तब क्यों लोग मुझे कुत्ते से भी बुरा समझते हैं? जब मैं अदालत में जाता हूँ, तब सब दर्शक मेरी ओर कैसे देखते हैं...कैसी ग्लानि, कितना तिरस्कार, कितनी उपेक्षा उनकी दृष्टि में होती है... और उसके साथ ही एक घृणा-मिश्रित कुतूहल, जैसा सड़क के किनारे पड़े मरे हुए कुत्ते को देखकर होता है! जी में आता है उन सब दर्शकों की इतनी आँखें न होकर एक ही आँख होती और मैं उसमें एक तपी हुई सलाख घुसेड़ देता!

कितना आह्लाद-जनक होता उनका पीड़ा से छटपटाना, कितना शान्तिप्रद! पर यह आशा कितनी असम्भव है!

होने दो। वे मुझसे घृणा करते हैं, करें। मेरा तिरस्कार करते हैं, करें। वे हैं क्या? मुझे क्या परवाह है उनकी?

पर यह, यह क्या है? मैं अपनी आँखों में भी पतित, अनादृत, तिरस्कृत होता जाता हूँ...

क्यों? क्यों?

संसार मुझ पर हँसता है, मैं संसार पर हँसूँगा। वह मेरी उपेक्षा करता है, मैं उसकी उपेक्षा करूँगा। इतनी महती शक्ति मुझे आश्रय दे रही है, मेरी रक्षा कर रही है, फिर मुझे किस का डर है? मैं कायर पुरुष नहीं हूँ, विश्वास-घातक नहीं हूँ। जिस शक्ति ने मुझे शरण दी है, उसके प्रति मेरा जो प्रण है, उसे पूर्ण करूँगा।

उनका अधिकार क्या है मेरा तिरस्कार करें? मैंने कोई पाप नहीं किया है। मेरा अपराध क्या है? यही कि मैंने प्रेम किया है? प्रेम पुण्य है, धर्म है, अपराध नहीं है। अगर वे प्रेम नहीं करते, तो उन्हें चाहिए, चुल्लू-भर पानी में डूब मरें। मुझ पर हँसने का उन्हें क्या अधिकार है? उन्हें प्रेम की अनुभूति नहीं हुई, उन्होंने प्रेम का तत्त्व नहीं समझा, तो वे मूर्ख हैं, मैं उनकी बात की परवाह करके मूर्ख क्यों बनूँगा?

मैं अकेला हूँ, अकेले ही इतना बड़ा काम करने का बीड़ा उठाया है। इतने बड़े षड्यन्त्र का, जिसकी शाखें देश के न जाने किस कोने तक फैली हुई हैं, मैं अकेला ही स्पष्टीकरण करने लगा हूँ। मैं अकेला हूँ तो क्या हुआ? एक विराट् सुसंगठित शक्ति इस काम में मेरी सहायता कर रही है और करेगी! फिर मैं इसे कैसे हारूँगा? कैसे वे मुझे सता पाएँगे?

-पर?

जबसे मैं बन्दी हुआ हूँ मेरा आत्म-संयम टूट-सा गया है। मैं क्षण-भर भी अपने मनोवेग को थाम नहीं सकता! बेलगाम घोड़े की तरह वह मुझे जिधर चाहता है, लेकर भाग जाता है। और मैं डरकर उससे चिपटकर बैठा रहता हूँ कि कहीं गिर न पड़ूँ, उसे रोकने का प्रयत्न करने के लिए मेरे हाथों को अवकाश ही नहीं मिलता।

मैं द्रोही हूँ? कौन कहता है?

मैंने एक बार, एक अस्थायी जोश में आकर, राजद्रोह करने का और करवाने का बीड़ा उठाया था। पर वह तो यौवन की एक उमंग थी, हृदय का एक उद्गार था, उमंग आयी और चली गयी, उद्गार उठा और मिट गया। उस एक बार के लिए क्या मैं सदा के लिए द्रोही हो जाऊँगा? और फिर मैं उसका समुचित प्रायश्चित भी तो कर रहा हूँ। जो आग मैंने सुलगाई थी, क्या उसे बुझाने में मैं सरकार की भरसक सहायता नहीं कर रहा हूँ?

देशद्रोह!

नहीं, यह देशद्रोह नहीं है। जो बीज मैंने बोया था, उससे अगर पौधा अच्छा नहीं लगा, तो क्यों न मैं उसकी जड़ काटूँ, क्यों न उसे समूल उखाड़ फेकूँ और नये वृक्ष के लिए स्थान बनाऊँ?

नया वृक्ष बोने के लिए मैं अयोग्य हो गया हूँ। पर क्या इस डर से मैं वह सड़ा हुआ पौधा न उखाड़ता? वह होता देशद्रोह! मैंने जो किया है, ठीक किया है, देश की सच्ची सेवा की है। मैं नया पौधा नहीं लगा पाऊँगा, न सही। पर औरों के प्रयत्न के लिए स्थान तो बना जाऊँगा।

फिर उस दिन जब वकील ने पूछा, ‘तुम द्रोही हो कि नहीं?” तब किसने मेरे कान में कहा, “नीच! कायर! एक बार तो सच बोल!” किस अज्ञात किन्तु अदम्य प्रेरणा ने मेरे मुँह से कहला दिया, “हाँ, मैं द्रोही हूँ, और अगर कोई मुझे प्राणदण्ड देगा तो मैं उसे उचित दण्ड समझूँगा।”

कुछ नहीं। वह क्षणिक भावुकता थी, एक अस्थाई उन्माद था।

पर अगर अस्थाई था, तो क्यों वह हर समय मेरे पीछे लगा रहता है? क्यों रात को जब सिपाही आवाज़ देते हैं, तब मैं नींद से चौंक उठता हूँ मानो किसी ने पुकारा हो, ‘द्रोही’, जब पवन चलता है, तब मुझे उसकी सरसर ध्वनि में सुन पड़ता है, ‘द्रोही!’ क्यों जब वृक्षों के पत्ते खड़खड़ाते हैं, तो मेरे मन में भावना कहती है, ‘द्रोही!’ क्यों, जब पक्षी रव करते हैं-तो मुझे मालूम होता है कि वे तिरस्कार-पूर्वक चिल्ला रहे हैं, ‘द्रोही! द्रोही! द्रोही!’

एक विराट् शक्ति मेरी रक्षा कर रही है, मुझे प्रसन्न रखने की चेष्टा में अपनी पूरी सामर्थ्य लगा रही है, पर, यह अचला, उद्भ्रान्त, रहस्यमयी प्रकृति कितनी महती शक्ति होगी, जो एक ही अनिर्दिष्टपूर्व उपेक्षापूर्ण हँसी में उसकी सारी शान धूल में मिला देती है!

कितना विचित्र तुमुल है यह जिसके बीच में मैं खड़ा हूँ, कमला!

द्रोही क्यों?

दुनिया की मेरे प्रति जो भावनाएँ हैं, उनकी मैं उपेक्षा करता हूँ, क्या इसी से मैं द्रोही हो गया? अपने कर्मों के फल की मैं चिन्ता नहीं करता, क्या यह द्रोह है? एक बड़े आदर्श के लिए मैंने एक छोटे आदर्श को छोड़ दिया, क्या वह विद्रोह है?

हमारे देश में पैंतीस करोड़ आदमी हैं। अगर वे सब मिलकर थोड़ा-थोड़ा भी काम करें, तो देश की बहुत सेवा हो सकती है; फिर क्यों वे हमसे आशा करते हैं कि हम तो सारी उमर जेलों में काटें और वे निखट्टुओं की तरह घर बैठकर गुलछर्रे उड़ाएँ?

देशभक्त? नहीं, हमें देशभक्त कहलाने का चाव नहीं है। देशभक्ति उन्हीं को मुबारक हो जो पिकेटिंग करके दो महीने जेल में काट आते हैं। और फिर आयु-भर उसकी याद में इठलाते फिरते हैं - “अजी जेल की क्या पूछते हो! हमने जो देखा सो हमीं जानते हैं!”

मुझमें यह पाखंड, यह झूठा दम्भ नहीं है। मैंने प्रेम के आदर्श के लिए इस देशभक्ति के आदर्श को छोड़ दिया है, इस बात को मैं मानता हूँ। पर यह द्रोह है?

हमारे देश में कितने ही किस्से प्रचलित हैं, जिनमें प्रेम का महत्त्व दिखाया गया है। विदेश में भी जो लोग घर-बार, राज-पाट, सब छोड़कर प्रेम का अभिसरण करते हैं, उन्हें आदर्श गिना जाता है। जनरल बूलाँजेयर जब फ्रांस के मन्त्रित्व को ठुकराकर एक ऐक्ट्रेस के प्रेम के लिए इंग्लैंड चले गये, तब किसने उन्हें द्रोही कहा? यूनान के प्रिंस कैरोल ने एक नर्त्तकी के प्रेम में पड़कर देश से निर्वासित होना भी स्वीकार किया, तब किसने उन्हें द्रोही कहा? वे तो चरित्रहीन स्त्रियों से प्रेम करके देश के लाड़ले बने रहे और मैं...।

वे बड़े आदमी थे, देश के विधाता बन सकते थे और मैं एक छोटा-सा अप्रसिद्ध व्यक्ति हूँ, क्या इसलिए उनका प्रेम क्षम्य है और मेरा अक्षम्य?

भारत का समाज कितना क्षुद्रहृदय है? किस्से-कहानियों में, बातों में तो कहते हैं, प्रेम बड़ा भारी आदर्श है, इसके आगे सब-कुछ तुच्छ है? पर जब वास्तव में कोई बात सामने आती है, तब कितनी जल्दी पंचायत बिठाकर बिरादरी में बाहर करने की सूझती है! कितनी कठोरता से नैतिक स्वातन्त्र्य का दमन किया जाता है।

पर प्रेम प्रेम ही तब है जब उसके पथ में काँटे हों, उपेक्षा हो, तिरस्कार हो, और हो भयंकर विद्वेष!

अति खीन मृनाल के तारहु ते, तेहि ऊपर पाँव दै आवनो है,

सुई बेह ते द्वार सकी न तहाँ परतीति को टाँड़ो लदावनो है,

कवि बोधा अनी घनी नेजहु ते चढ़ि तापै न चित्त डिगावनो है,

यह प्रेम को पन्थ कराल महा, तरवार की धार पै धावनो है!

कमला, जब तक तुम उस पथ के ध्रुवस्वरूप खड़ी हो, मैं समाज की उपेक्षा करके उस ‘तरवार की धार’ पर चलने को तैयार हूँ!

मनुष्य जब पतन की ओर अग्रसर होता है तो कितनी जल्दी कितनी दूर पहुँच जाता है!

मैं तो पतित हुआ ही था, साथ ही दूसरों को घसीटने का प्रयत्न करते हुए भी मुझे शर्म न आयी!

उस दिन जब पुलिसवाले मेरे पास आये और बोले, “रघुनाथ, हमने उस विमलकान्त की खूब खबर ली है, पर वह कुछ बताता ही नहीं। तुम्हीं कुछ उपाय बताओ।” तब किस तत्परता से मैंने कहा था, “मुझे उसके पास ले चलो, मैं ठीक कर लूँगा।”

वे मुझे उसके पास ले गये। मैंने देखा, वह चारपायी पर बैठा हुआ था, दोनों हाथों में पीठ के पीछे हथकड़ियाँ लगी थीं, पैरों में बेड़ियाँ पड़ी हुई थीं। कपड़े मैले, फटे हुए-बहुत दिनों से हजामत नहीं बनी थी। बाँहों पर रस्सी के निशान पड़े थे, सिर पर पट्टी बँधी हुई थी। आँखें लाल हो रही थीं, मानो बहुत देर से सोने का सौभाग्य न प्राप्त हुआ हो...

वह मुझे जानता था, पर मुझे देखकर चौंका नहीं। चुपचाप मेरी ओर देखता रहा, मानो मुझे पहचानता ही न हो!

मैंने पूछा, “विमल! तुम तो बहुत कष्ट में हो?”

वह बोला, “आपका परिचय क्या है? मैं तो आपको जानता ही नहीं!”

मैंने बात पलटकर कहा, “देखो, विमल, इसमें कोई फ़ायदा नहीं है। क्यों अपने को और अपने घरवालों को व्यर्थ दुःख देते हो? सच-सच बात क्यों नहीं कह देते? पुलिस तो सब-कुछ जानती है, तुम्हें छोड़ तो देगी नहीं, फिर क्यों नहीं उसकी बात मानकर उसका फ़ायदा उठाते?”

वह चुपचाप सुन गया, एक शब्द भी नहीं बोला। मैंने समझा, मेरी बात असर कर गयी। मैंने फिर कहा, “बयान दे दो, मैंने स्वयं दे दिया है।”

क्षण-भर उसने इसका भी उत्तर नहीं दिया। फिर एक ही शब्द बोला-एक ही!

“निर्लज्ज!”

मैं जल्दी से उठकर बाहर निकल गया। पुलिसवाले बहुत रोकते रहे, पर मैंने अपने ही कमरे में आकर दम लिया।

निर्लज्ज!

कितनी मेहनत से मैंने एक कवच बनाया था, पर उसके एक ही शब्द ने उसे छिन्न कर दिया।

उसमें शान्ति है, धैर्य है, स्थिरता है। मैं चंचल हूँ, ओछा हूँ।

वह नव-विवाहित था, फिर भी उसका मुख मलिन नहीं होता, फिर भी इतना अत्याचार सह कर वह हँसता है-फिर भी विचलित नहीं होता!

उसने क्या प्रेम का तत्त्व नहीं जाना? उसे क्या अपनी स्त्री से प्रेम नहीं है? वह क्या हृदयहीन है?

फिर क्यों उसे वह शान्ति इतनी सुलभ है जो मैं पा नहीं सकता? क्यों प्रेम का विचार उसे दृढ़तर बनाता है?

क्या मैं ही नीच हूँ? क्यों मैं ही अपने-आपको भुलाए हुए हूँ? क्या मेरा ही प्रेम मिथ्या है कुत्सित है, गर्हित है? क्या मेरे ही हृदय में दुर्वासना प्रेम का अभिनय कर रही है?

कमला, कितनी भयंकर कल्पना है यह!

नीच! कायर! लम्पट! नीच!

कितनी घोर आत्म-प्रवंचना है, कितना पाखंड! कितना निष्फल दम्भ!

मैंने जो घोर नारकीय कुकर्म किया है, उसे छिपाने के लिए मैं कितनी रेत की दीवारें खड़ी करता हूँ... किसके लिए? किससे मैं अपनी नीचता को छिपाना चाहता हूँ...

संसार से? वह पहले ही सब-कुछ जानता है! अदालत से? अभी उस दिन जज ने स्वयं कहा था कि मैं द्रोही हूँ! इन पहरा देनेवाले सिपाहियों से? ये मेरी ओर दया की (या ग्लानि की) दृष्टि से देखते हैं और उन अभियुक्तों की मेरे सामने ही प्रशंसा करते हैं! यहाँ का भंगी तक तो मेरे कमरे को ‘सुल्तानी का कमरा’ कहता है!

अपने-आपसे? मेरे अन्दर जो आत्मग्लानि की आग धधक रही है, उसके प्रकाश में कुछ नहीं छिपा सकता!

कमला से?

कमला...

उस अन्तर्दीप्ति का प्रज्वलन मेरे कानों में कह रहा है-पाखंडी! प्रेम का ढोंग करनेवाले! यह प्रेम नहीं है! यह है वासना, काम-पिपासा, इन्द्रिय-लिप्सा!

कमला, कितना पतित हूँ मैं! कितना स्वार्थी, द्वेषी, नृशंस, अधम!

स्वार्थ द्वेष, दम्भ के धुएँ से मेरा हृदय काला पड़ गया है, वह पुरानी अरुणिमा उसके एक कोने में भी नहीं रही! कमला, दुर्वासनाओं से झुलस कर यह हृदय इतना विद्रूप हो गया, इतना अन्धकारमय कि इसमें तुम्हारे योग्य स्थान नहीं रहा!

कैसी प्रतारणा है! जिस आशा ने मुझे इस विश्वासघात, इस द्रोह के लिए बाध्य किया, वही मुझे छोड़कर चली गयी! एक स्वप्न की आशा में इतनी नीचता की थी (इसे नीचता नहीं तो क्या कहूँ?), वह स्वप्न टूट गया-धोबी के कुत्ते की तरह मुझे कहीं का न छोड़कर!

मैं पतन के गहरे गड्ढे में गिर गया हूँ, पर कमला! तुम्हारी स्मृति मुझे क्षणभर के लिए आकाश में पहुँचा देती है।

केवल क्षण-भर के लिए! उसके बाद...

उफ़! कमला!

लोग कहते हैं : बच्चा भगवान का अवतार होता है।

जाने भगवान है भी या नहीं, लेकिन बच्चे में कोई दिव्य शक्ति अवश्य होती है।

नहीं तो, उस बच्चे के सीधे-से प्रश्न में मुझे शाप की कठोरता का अनुभव क्यों हुआ?

मैं अपना बयान दे रहा था। जलपान के समय में थोड़ी ही देर थी, मैं सोच रहा था, जल्दी समय पूरा हो और मैं इस प्रखर बाण-वर्षा से छुटकारा पाऊँ!

उसी समय कुछ स्त्रियाँ आकर दर्शक-श्रेणी में बैठ गयीं। उनके साथ दो-तीन बच्चे भी थे। मैं उनकी ओर देखने लगा। शायद किसी की अस्पष्ट प्रतीक्षा मेरे मन में छिपी थी!

वह उनमें नहीं थी। मैंने आँखें उधर से हटा लीं। पर कान नहीं हटे!

एक छोटे-से लड़के के तीव्र स्वर ने पूछा, “माँ, यह कौन खड़ा है?”

किसी स्त्री-कंठ से निकली हुई कम्पित ध्वनि ने उत्तर दिया, “यही है वायदा-माफ़ गवाह।”

“वही जिसने भइया को और उन सबको फँसाया है?”

मैं सवाल का जवाब देना भूल गया। वही बच्चे का प्रश्न एक भयंकर शाप की तरह मेरे कानों में गूँजने लगा-”वही जिसने भाइया को और उन सबको फँसाया है!” वही! वही, वही, वही!

मैंने चाहा, पूछूँ, ‘कौन है तेरा भइया? मैंने उसे नहीं फँसाया!’ पर मेरा सिर ही ऊपर नहीं उठा।

अदालत उठ गयी। अभियुक्त नारे लगाने लगे। मैं जल्दी से बाहर निकल गया। उस समय मेरे हाथ कितने काँप रहे थे!

मेरे कानों में घूम-घूमकर वही ध्वनि गूँज रही थी, ‘वही, वही, वही!’

अबोध बालक! मुझे शाप न दे! मैंने किसी को नहीं फँसाया! वे सब अपने कर्मों से फँस गये थे-”मैं भी तो फँसा हुआ हूँ!

और जिस जंजाल में मैं फँसा हूँ, उसे कौन सुलझाएगा!

जलपान का समय पूरा हो गया, पर मेरी फिर अदालत में जाने की हिम्मत नहीं हुई! मैंने कहला भेजा कि बीमार हूँ, अदालत स्थगित हो गयी।

वही, वही, वही!

मेरे व्रत का क्या यही पुरस्कार है? भविष्य में मेरा जो सत्कार होगा, क्या यही उसका पूर्वाभास है?

वही, वही, वही!

कितना कठोर अभिशाप है!

झूठा कौन है? नीच कौन है? कायर कौन है? बन्धुद्वेषी कौन है?

स्वार्थी कौन है? कृतघ्न कौन है? द्रोही कौन है?

एक छोटे-से बच्चे की उँगली संकेत से कहती है-

वही, वही, वही!

यह क्या है? अनुताप?

ये उन्माद के लक्षण हैं!

मैं पागल हो रहा हूँ, कमला, पागल! पागल! पागल!

दबाऊँगा इसको, कुचल डालूँगा इस उन्माद के वेग को!

मनोवृत्तियाँ मुझे पागल बना रही हैं, इन्हें पीस डालूँगा!

मन का संयम करूँगा। अब तक मन मुझे लेकर स्वच्छन्द फिरता था, अब मैं उसे बाँधकर ले जाऊँगा।

पर-!

मन को बाँध लूँगा, पर इन कुवासनाओं को कैसे बाँधूँगा? और इन्होंने पतन के जिस गहरे गह्वर में मुझे धकेल दिया है, उससे कैसे निकल पाऊँगा?

एक छोटी-सी भूल के लिए कहाँ तक पहुँचना पड़ता है। पर क्या एक बार पतित होकर उठने का कोई उपाय नहीं है? क्या दुर्वासनाओं का दमन ही नहीं हो सकता? क्या बीच कर्म का कोई प्रतीकार नहीं है, कोई प्रायश्चित्त नहीं है?

प्रायश्चित... प्रायश्चित...

एक मनोविकार के लिए, एक क्षणिक तृप्ति-लालसा के लिए, मैंने कितनी उत्फुल्ल जीवनियों का खंडन कर दिया; कितने परिवारों की शिखरमणियाँ तोड़ डालीं! इसका क्या समुचित प्रायश्चित है? अपना जीवन देकर भी तो मैं कुछ नहीं कर सकता!

प्रतीकार... प्रतीकार...

क्या करूँ? अब तो सबकुछ कर चुका, अब मेरे हाथ में क्या रह गया है?...

बयान!

बयान वापस ले सकता हूँ...

पर उससे क्या होगा? और भी तो द्रोही हैं? मेरे बयान वापस लेने पर भी वे रह जाएँगे... और सबूत हमारे अतिरिक्त भी तो कितने ही गवाह हैं, और सबूत भी तो बहुत हैं... एक मेरे बदल जाने से क्या होगा? जिन जीवनियों का खंडन कर चुका, वे तो खंडित ही रह जाएँगी; जो मणियाँ नष्ट हो गयीं वे तो नष्ट ही रहेंगी; जो घर उजड़ गये वे तो उजड़े ही रह जाएँगे; जिन अभागिनियों के सौभाग्य-सूर्य अस्त हो गये, उनके भाग्य तो फिर जागेंगे नहीं... और मुझे अलग दण्ड मिलेगा। तब उस सब उत्पात का क्या फल होगा? जिस स्वातन्त्र्य को मैंने इतने दामों पर मोल लिया है, वह भी छिन जाएगा और प्रतीकार भी नहीं होगा... एक क्षणिक भावुकता में पड़कर बुलबुले की तरह मेरी चिरसंचित आशाएँ फूल जाएँगी और मैं देखता रहा जाऊँगा!...

और तुम्हें, कमला, तुम्हें भी नहीं पा सकूँगा!...

जब संसार की सृष्टि भी नहीं हुई थी, तब भी अनन्त आकाश में महामाया का राज था। आज विद्या इतनी फैल गयी है, सद्बुद्धि का प्रचार हो रहा है, फिर भी मोह पीछा नहीं छोड़ता...

मैं निश्चय कर लेता हूँ, वासना का दमन करूँगा, मन को विशुद्ध करूँगा, दुष्कर्मों का प्रायश्चित्त करूँगा, फिर एक छाया, एक छाया की छाया, उस नाम की स्मृति, मेरे सारे निश्चयों को बिखेर देती है! यह है संयम जिसका मुझे इतना अभिमान था!

मेरा प्रायश्चित्त विफल होगा, मेरा क्या हुआ प्रतीकार विडम्बना होगा। पर क्या इसीलिए मैं दूसरी बार कर्तव्यच्युत हो जाऊँ ?

न सही प्रायश्चित्त, न सही प्रतीकार। अपनी पाप-वृत्ति के लिए अपने को दण्ड ही दूँगा।

दूसरों को मैं इतनी सज़ा दिला रहा हूँ और वे उसे प्रसन्नता से झेल रहे हैं, फिर मैं ही क्या ऐसा हूँ, जो दो-तीन साल जेल में नहीं काट सकूँगा?

पर... पर और भी तो दण्ड मिलेगा... यह जो आजीवन मेरी सहायता करने का सरकार का वायदा था, वह नहीं रहेगा... जब जेल से बाहर आऊँगा, तब काम कैसे चलेगा? उलटे सरकार अधिक सतायेगी!...

नहीं। जब दण्ड देना है तो समुचित देना होगा, बाद में जो होगा उसकी बात नहीं सोचनी होगी।

कमला, तुम स्त्री हो या आँधी!

विवेक कहता है, ‘दण्ड देना होगा।’ हृदय रोता है, ‘कमला’! विवेक कहता है, ‘यह प्रेम नहीं है, मोह है।’

कमला, कमला, कमला! तुम्हें नहीं छोड़ सकूँगा... प्रेम न सही, आसक्ति सही, मोह सही, वासना सही, पर कितनी सुखद आसक्ति, कितना मनोरम मोह, कितनी मीठी, कितनी सुरभित, कितनी प्रकाण्ड वासना है यह!

2

स्वप्न...

कैसा भयानक था उसका रूप! बड़ी-बड़ी लाल आँखें, चौड़ी नाक, वराह की तरह बाहर निकले हुए बड़े-बड़े दाँत और इतना काला शरीर!

मुझे देखकर वह ठठाकर हँसा। सारा आकाश उसके खुले हुए मुख में समा गया... जिधर देखता उधर उसका खुला हुआ वीभत्स मुँह...

और उसके अन्दर-उसके अन्दर मैंने देखा-

बहुत-से स्त्री-पुरुष-युग्म आश्लेषण कर रहे थे... पर... पर मैंने यह भी देखा, उनको बहुत-से बड़े-बड़े साँप लिपट-लिपटकर बाँध रहे थे और धीरे-धीरे अपना बन्धन कसते जाते थे... उन युगल मूर्तियों के मुख पर अनुराग की लालिमा, सौन्दर्य की आभा, तृप्त-लालसा की स्मृति धीरे-धीरे मिटती जाती थी और उसके स्थान में-

क्रूर लोलपुता, भीषण ग्लानि, और दारुण वेदना एक साथ ही अधिकार जमा रही थी...

वह हँसा - कितना घोर अट्टहास था वह! फिर बोला, ‘ये भी करते थे ऐसा प्रेम! अब तुम आओगे, तुम!”

वह मुख मेरी ओर अग्रसर होने लगा...

मैंने बड़े ज़ोर से चीख़ मारी-

स्वप्न!

मेरे पास जो इंस्पेक्टर सोया था, जाग पड़ा और बोला, “क्या हुआ! क्या हुआ?” मैंने लज्जित होकर कहा, “कुछ नहीं!” और पड़ा रहा। वह फिर सो गया।

पर मैं... वह स्वप्न नहीं भुला सका...

मच्छर मेरे कानों में भिन्नाते, तो मुझे सुन पड़ता, ‘तुम, तुम, तुम!’ मैं उठकर बैठ गया, सारी रात जागते ही काटी!

कमला, क्या प्रेम की यही व्याख्या है? अगर है तो कितना कुत्सित है यह!

पारिजात के फूलों की तरह नींद अलभ्य हो गयी है! पर मैं, जिसका मन निकृष्ट विचारों में भरा हुआ है, मैं क्यों पारिजात के फूलों की बात सोचता हूँ?

रात की-रात की कितनी आँखें हैं! वे सभी घूर-घूरकर मेरी ओर देखती हैं, मैं उनसे आँख नहीं मिला सकता। पर जब आँखें बन्द कर लेता हूँ, तो उन बड़े-बड़े दन्तुर राक्षसों का समुह मुझे देखकर हँसता है!

कहते हैं, प्रकाश में डर नहीं लगता। पर मुझे प्रकाश में भी जाग्रत स्वप्न दीखते हैं-स्मृतियाँ आकर चित्रवृत मेरे आगे खड़ी हो जाती हैं...

दीवार की ओर देखता हूँ, तो दीवार परदे की तरह आँखों के आगे से हट जाती है...

कृष्णपक्ष की कोई रात है। पवन बिलकुल निश्चल है, कहीं एक पत्ता तक नहीं हिलता। पृथ्वी के उतप्त उच्छ्वासों की तरह वायुमंडल भी गरम भी वाष्पमय हो रहा है-

एक जंगल। बहुत घने, छोटे-छोटे पेड़ हैं, काँटे भी बिखरे हुए हैं। बीच में एक छोटा-सा खुला हुआ स्थान है, वहीं अन्धेरे में दो व्यक्ति खड़े हैं। उनके बीच में एक शरीर ज़मीन पर पड़ा है उसके दोनों हाथ नहीं हैं, मुँह का बहुत-सा अंश मानो झुलस कर काला पड़ गया है और पेट... जहाँ पेट होना चाहिए, वहाँ रक्त का एक कुंड बन रहा है!

दोनों व्यक्ति उस शरीर पर झुके हैं। एक शायद रो रहा है...

वह-वह शरीर प्राणहीन नहीं है, पर उसके मुँह से व्यथा के शब्द नहीं निकलते!

वह धीरे-धीरे गुनगुना रहा है... ‘मैं जा रहा हूँ। तुम रोते क्यों हो? मैं अपना काम पूरा नहीं कर सका। मेरे हाथ नहीं रहे! तुम क्यों अधीर होते हो? जिस काम को मैं अधूरा छोड़ चला हूँ, उसे तुम पूरा करना...’

मुख पर एक क्षणिक वेदना की रेखा-फिर एक बहुत हल्की-सी हँसी...

‘मेरे काम को भूलना मत!’

सिर से पैर तक एक कम्पन, सिर उठाने का एक क्षीण, विफल प्रयत्न... फिर शान्ति...

दोनों व्यक्ति एक-दूसरे की ओर देखते हैं, एक कहता है - ‘चले गये...’

नहीं देखूँगा उस दीवार की ओर! वह इतनी निश्चल है, मेरा मन उस पर स्थिर नहीं रहता!

लैम्प पर ये पतंगे मँडरा रहे हैं। इनमें चांचल्य है, ये निर्जीव, निःस्पन्द नहीं हैं।

पतंगे... ये कितने उन्मत्त होकर लैम्प से टकराते हैं और उसी की दीप्ति में भस्म हो जाते हैं!

कितनी देर के लिए उस उन्माद का अनुभव उन्हें होता है? लैम्प को देखते ही वे अपने-आपको उत्सर्ग कर देते हैं!

यह है प्रेम! मैं भी हूँ प्रेमी, जो अपनी इच्छा पूर्ति के लिए सुखी परिवारों को छिन्न-भिन्न कर रहा हूँ...

प्रेम? पर प्रेम में इतनी भीषणता तो नहीं होती, प्रेम अन्धा तो नहीं करता, उन्मत्त तो नहीं बनाता; प्रेम तो स्निग्ध, शीतल, शान्तिदायक होता है। यह ज्वाला, यह उन्माद, यह अन्धा कर देनेवाली दीप्ति तो वासना में ही होती है!

क्यों कवियों ने इसकी प्रशंसा की है? क्यों वे प्रेम की उपमा अग्निशिखा से देते हैं और प्रेमी की पतंग से?

या यह मेरा ही भ्रम है? पंतगा अपने-आपको जला देता है, उसे शायद उसी से शान्ति मिलती हो। मैंने तो अपने-आपको उत्सर्ग नहीं किया, मैं तो अपनी तृप्ति के लिए दूसरों को ही जलाता रहा हूँ... जिसे मैं प्रेम करता हूँ, वह तो आत्मरक्षा का, स्वार्थपरता का नामान्तर था...

मैंने पहले-पहल ऐसी भूल की हो, यह बात नहीं। मुझे याद आता है-

वह दुबला-पतला था, कुछ चिड़चिड़ा था, फिर भी सब लोग उसका आदर करते थे, क्योंकि वह चालाक था। उसका रंग पीला पड़ गया था, आँखें धँस गयी थीं, पर उसकी बोल-चाल में कुछ ऐसी मादकता थी...

यह कृतघ्न था, भगोड़ा था। मैंने तो केवल प्रेम ही किया है, एक पवित्र मूर्ति से प्रेम-वह बहुत गिर चुका था...

मैं उसे अब भी देख सकता हूँ। उसके शरीर में अब भी वही मादकता व्याप्त है और वह मेरी ओर देखकर मुस्करा रहा है, इशारे से मुझे बुला रहा है...

क्या कहते हो तुम?

“देखो, रघुनाथ, व्यर्थ की चिन्ता में क्यों पड़े हो? ऐसे व्याख्या करने लगोगे, तो पागल हो जाओगे। मन तुम्हारा सच्चा मित्र है, उसकी प्रेरणा का तिरस्कार मत करो। प्रेम के आगे सब-कुछ तुच्छ है, इसीलिए मैंने तो बन्धुओं को और प्रतिज्ञाओं को भूलकर उसका अनुसरण किया था। मैं लज्जित नहीं हूँ, क्यों होऊँ? तुम भी इन व्यर्थ की बातों को भूल जाओ और मेरे साथ आओ! यही जीवन है!”

चुप रहो, तुम भगोड़े थे, कृतघ्न थे! तुम अपने बन्धुओं को छोड़ गये!

और मैं तो भगोड़ा ही था, अपने साथियों को भूला ही था... मैंने उन्हें फँसा-कर उनका सत्यानाश कर डाला! फिर भी मैं उसे भगोड़ा कहने का साहस करता हूँ - मैं, कृतघ्न, कायर, अधम! मैं, जिसके लिए उचित सम्बोधन किसी कोष में नहीं होगा...

उसकी ओर देखूँगा, उस दीप्तिमान लैम्प की ओर! क्या फिर भी ये स्मृतियाँ मुझे सताएँगी?

कैसी शान्ति ज्योति है! मेरे मन के जो उद्गार उठकर मुझे हिला देते हैं, उनसे यह कम्पायमान भी नहीं होती!

इसकी दीप्ति शान्तिमयी है, स्थिर है, किन्तु इसमें भव्यता नहीं है, भैरवता नहीं है।

उसमें भी महाशान्ति थी, पर कितनी भव्य, कितनी भैरव थी वह दीप्ति!

वह चिन्ता थी, पर श्मशान-भूमि में नहीं थी! एक महापुरुष की चिता थी, पर उसमें चन्दनादि सुगन्धित द्रव्य नहीं थे। वह थी जंगल में बीनी हुई छोटी-छोटी लकड़ियों की चिता और उसके पास रोने को खड़े थे तीन युवक!

तीनों फ़ौजी ढंग से, एक क़तार में, सिर की टोपियाँ उतारे हुए, सावधान खड़े थे। उस प्रज्वलित चिता की लाल-लाल, काँपती हुई ज्योति में मैंने देखा, उनके मुँह पर विषाद का भाव था, आँखों में एक विचित्र चमक; पर आँसू, रोना, कहीं नहीं था...

चिता धीरे-धीरे कुछ स्वर कर रही थी, मानो तृप्त होकर एक निःश्वास ले रही हो। और कोई ध्वनि कहीं नहीं हो रही थी...

एकाएक कहीं दूर घोड़ों की टापों का शब्द हुआ। वे तीनों चौंके... फिर... जल्दी-जल्दी मिट्टी डालकर उन्होंने वह अधजली चिता बुझा दी!

रात्रि के धुन्धले प्रकाश में उन्होंने चिता से वह शरीर उठाया और नदी के किनारे पर ले गये... एक-दो बार ज़ोर से हिलाकर उन्होंने...

छप्

नदी के प्रवाह में वह कहीं लुप्त हो गयी...

एक युवक धीरे से बोला - “इतना भी न कर पाये!”

कोई उत्तर नहीं मिला। तीनों अँधेरे में कहीं ओझल हो गये...

वंचिता चिता से दुर्गन्धमय धुआँ फिर भी आकाश की ओर उठता रहा, मानो भूखी चिता ईश्वर के आगे पुकार करने को अपनी मूक वाणी भेज रही हो!

चन्द्रमा! कितनी स्निग्ध है उसकी ज्योत्स्ना!

निर्निमेष होकर उसकी ओर देखता हूँ, मुझे कलंक कहीं नहीं दीखता। न कहीं पर्वत-तंग और गड्ढे ही दीख पड़ते हैं। दीखता है एक मन्द स्मित-मानव-मुख।

वह मुस्कान है या मेरी दशा पर तिरस्कारपूर्ण हँसी?

नहीं, उसमें तिरस्कार नहीं है, अनुकम्पा है, आश्वासन है। वह मानो मुझे कह रहा है, चंचल मत हो, घबरा मत।

उस दिन जब शशिकान्त हमें दिलासा दे रहे थे, उस दिन उनके मुखर भी यही भाव था...

हम दुमंज़िले के ऊपर बैठे हुए थे, नीचे पुलिस आ गयी थी। दोनों ओर से गोलियाँ चल रही थीं - उधर से लगातार, हमारी ओर से कभी-कभी मौक़ा देखकर...

हमारा गोलियों का ढेर बड़ी शीघ्रता से छोटा होता जाता। मैं सोच रहा था, ‘अभी पाँच मिनट बाद क्या होगा?’

उन्होंने मुख का भाव देख लिया। बोले, “रघुनाथ, यही तो जीवन का मजा है! इतने दिन भागते फिरे, आज एकाध हाथ दिखा देंगे!”

उनकी वाणी में इतना विश्वास भरा हुआ था, मुझसे उत्तर देते नहीं बना।

मैंने आँख बचाकर गोलियों के ढेर की ओर देखा।

उनसे वह भी नहीं छिप सका! बोले, “वह क्या देखते हो? हमारा बल उसमें नहीं है। हमें चाहिए धैर्य! वह तो आपत्ति-काल के लिए एक निमित्त मात्र है - हमारी शक्ति है दिल में !”

मैं लज्जित होकर धीरे-धीरे-बहुत धीरे-धीरे, अपने रिवाल्वर में गोलियाँ भरने लगा...

‘दिल में!’ मैंने अपने दिल की ओर ध्यान किया, वह बड़े ज़ोर से धड़क रहा था!

न जाने कैसे, शशिकान्त को कुछ आभास-सा मिल गया। वे खिन्न होकर बोले, अभी समय है। मैं इन्हें यहाँ फँसाए रखता हूँ, तुम दोनों पिछली गली से निकल जाओ! अभी पुलिस उधर नहीं गयी है।”

मेरे जी में आया, दौड़कर निकल जाऊँ। पर मेरा साथी हिला भी नहीं। मैं लज्जित होकर बैठ गया... कितना काँप रहा था मेरा शरीर!

उन्होंने फिर पूछा, “जाते क्यों नहीं?”

मेरा साथी बोला, “दादा, तुम्हें अकेला छोड़कर हम नहीं जाएँगे।”

वे एक क्षण चुप रहे... फिर बोले, ‘ओबे आर्डर्स।”

आज्ञा!

हम दोनों ने अपने रिवाल्वर जेब में रखे और चुपचाप उठकर चल दिये। मैंने एक बार मुड़कर देखा, पर वे मानों हमें भूल गये थे शान्त, कुछ मुस्कराते हुए, नीचे की ओर तीव्र दृष्टि से देख रहे थे, जैसे बाज़ झपटने से पहले अपने शिकार की ओर देखता...

उसके बाद?

...

मेरा मन विकृत है, उन विकारों की प्रतिच्छाया मुझे प्रत्येक वस्तु में दीखती है। चन्द्रमा की ज्योत्स्ना तक में वही व्याप्त हो रही है!

इस तरह मैं अपनी विच्छिन्न मनःशक्ति को और भी निर्बल बना रहा हूँ! किसी की ओर देखूँगा - कुछ सोचूँगा!

आज भूख नहीं लगी। खाना इतना अच्छा बनकर आया था, फिर भी न जाने क्यों, खाने की इच्छा ही न हुई!

भोजन-भट्ट!

कितनी नीच हूँ मैं इतना विश्वासघात करके, इतनी नृशंसता के बाद, अब भी उसी शारीरिक तृप्ति की बात सोच रहा हूँ!

किसी दिन मैं कितना आदरणीय व्यक्ति समझा जाता था! उन दिनों मैं संगठन का काम कर रहा था, कितने सरल, विश्वासी नवयुवक मेरे आगे श्रद्धाभाव से खड़े हो रहते, मेरी बात कितनी व्यग्रता से सुनते, मानो अमृत पी रहे हों! उनमें अनभिज्ञता-जनित अन्धविश्वास था, अनुभव-हीनता के कारण वे दूसरों में भी सहसा विश्वास कर लेते थे! पर कितना सुखद स्निग्ध, कितना कोमल होता था वह निःशंक विश्वास; कितना आह्लादजनक था वह श्रद्धाभाव!

मैं, मैं उस विश्वास के, उस श्रद्धा के, कितना अयोग्य निकला! जो मुझ पर इतना विश्वास करते थे कि मेरे एक इंगित पर जान तक दे देते, उनका मैंने कैसा प्रत्युपकार किया!

मैं जो आशा करता हूँ कि स्मृतियों से छुटकारा पाऊँगा, यह व्यर्थ की आशा है। मैं जो काम कर रहा हूँ, उसकी प्रतिक्रिया मेरे मन पर होती रहेगी, उसे कैसे रोक सकता हूँ?

पर कब तक यह प्रतिक्रिया होती रहेगी? जब मैं अपनी गवाही देकर अलग हो जाऊँगा, जब मैं जेल से निकल जाऊँगा, क्या तब भी यमदूत की तरह ये स्मृतियाँ मेरा पीछा करती रहेंगी?

पब्लिक की स्मरणशक्ति बहुत कमज़ोर है। वह अच्छा-बुरा सभी-कुछ बहुत जल्दी भूल जाती है। नहीं तो कैसे सम्भव था कि इतने द्रोही अब तक जीवित रहते? यह पब्लिक! जिनकी यह पूजा करती है, उन्हें भी तो पाँच-सात वर्ष में भूल जाती है।

और द्रोहियों को? उन्हें तो पब्लिक शायद वर्ष-भर भी नहीं याद रख पाती।

वे मुझे भूल जाएँगे! मैं चुपचाप किसी छोटे-से गाँव में रहूँगा, पुलिस मेरी रक्षा करेगी फिर दिन धीरे-धीरे बीत जाएँगे... और शायद उस नये जीवन में मैं अकेला नहीं रहूँगा, शायद...

कमला! अगर उस जीवन में तुम भी मेरे साथ होगी, तो कितना अकथनीय सुख होगा वह!

जब भी तुम्हें याद करता हूँ, मेरा यह अनिश्चय, यह कारण आशंका, एकदम दूर हो जाते हैं, तुम्हारी ही मूर्ति से मेरा अंतःकरण दीप्तिमान हो जाता है। आँखें बन्द करके तुम्हारा ही ध्यान करूँगा और उस ध्यान में कितनी शान्ति मिलेगी मुझे!

मैं तुम्हें देख सकता हूँ। यह कम्पनी बाग के लताकुञ्ज का द्वार है और उसके एक खम्भे पर हाथ रखे खड़ी हो - तुम! हल्के नीले रंग की साड़ी पहने, सिर झुकाए मूर्तिमान प्रतीक्षा की तरह-तुम!

कमला, मुझे एक श्लोक याद आ रहा है...

त्चमसि मम भूषणं त्वमसि मम जीवनं त्वमसि मे भवजलधिरत्नम्!

भवतु भवतीह मयि सततमनुरोधिनी तत्र मम हृदयमतियत्नम्!

मैं तुम्हारे मुख की ओर देख रहा हूँ।

यह क्या है? तुम्हारा आँचल गीला क्यों है? तुम्हारा मुखश्री मुरझाया हुआ क्यों है? तुम्हारी आँखों में आँसू क्यों है? तुम्हारी दृष्टि इतनी विरक्त क्यों है! और तुम्हारा साँस किस वेग से, कितना कम्पित, चल रहा है! कमला, कमला, कमला! तुमको क्या हो गया है? तुम मेरी ओर देखती क्यों नहीं? मुझे पहचानती क्यों नहीं? मुझे देखकर प्रसन्न क्यों नहीं होतीं।

कमला, मेरी ओर देखो, केवल एक बार! उफ्! तुम्हारी आँखों में व्यथा नहीं है - यह तो ज्वाला है!

किसने तुम्हारा अनादर किया है कमला! क्यों तुमने यह चण्डी का रूपधारण किया है? मुझे बताओ, मैं प्रतिशोध करूँगा!

मैं...

मैंने...

कमला! कमला! कमला! क्या कह रही हो तुम? ‘तुमने, तुमने, तुमने मुझे कलंकित कर दिया है!’

मैंने!

तुम पागल तो नहीं हो गयी? या परिहास तो नहीं कर रहीं? पर नहीं, तुम्हारी आँखों में आँसू हैं और बड़े यत्न से दबाए हुए क्रोध के आँसू!

मैंने तुम्हें कलंकित कर दिया है; मैंने, जो कि सब निछावर करेक तुम्हारी एकाग्र उपासना कर रहा हूँ! मैंने, जो कि तुम्हारे आगे इतने नवयुवकों के जीवन को तुच्छ समझता हूँ!

कितना असह्य लांछन लगा रही हो मुझ पर तुम, कमला!

तुम ठीक कहती थीं, कमला, मैंने कलंकित कर दिया है। मैं तुमसे प्रेम करता था! वह प्रेम ही वासना था, कलुषित, कलंकित, कुत्सित। तुमने मुझे मेरी भूल सूझा दी है।

कमला, मैं दोषी हूँ!

पहले मैंने राजद्रोह किया था फिर अब देशद्रोह कर रहा था... पर तुमने, तुमने मुझे सुझा दिया कि मैं मानवता के प्रति भी द्रोह कर रहा हूँ... सच्चाई के साथ ही मैंने मानवता भी खो दी! अब मैं क्या हूँ? इन चिंउटों की तरह, इन मच्छरों की तरह, जो भिन्नाते हैं, काटते हैं, पर जिनमें कर्त्तव्याकर्त्तव्य-ज्ञान नहीं है!

मैं बहुत गिर चुका हूँ, इतना कि शायद अब उठ नहीं सकूँगा! पर कमला, एक काम अवश्य करूँगा, एक काम जिससे मैं इतना डरता था, एक काम जिससे मेरी सब एकत्रित उमंगें टूटकर बिखर जाएँगी। मेरे पास एक ही साधन रह गया है। प्रायश्चित्त का नहीं, प्रतीकार का नहीं, तुम्हारे मुख पर से वह घोर कलंक का टीका मिटाने का नहीं, तुम्हारे योग्य बनने का नहीं; केवल यह दिखा देने का कि मैं प्रायश्चित्त करना चाहता था, तुम्हारे मुख से वह कलंक मिटाकर तुम्हारे योग्य बनना - तुम्हारे योग्य बनने का प्रयत्न करना - चाहता था! संसार शायद फिर भी मेरे नाम पर थूकता रहेगा, रहे। अब मैं उसका ध्यान नहीं करूँगा केवल तुम्हारा, केवल तुम्हारे और तुम्हारे श्रीहीन मुख का!

मैं जीवन में निरुद्देश्य होकर बहुत गिर चुका हूँ, पर अब यह खोया हुआ उद्देश्य मुझे फिर वापस मिल गया है।

कल-मैं मिटा दूँगा उस कलंक की स्मृति भी...

कल-वापस लूँगा बयान...

3

मैं खड़ा था, उस गोल कमरे के बीच में अभियुक्त, वकील और जज, सब अपने अपने स्थान पर बैठे थे। जिरह का समय आरम्भ होने वाला था।

नित्य की तरह मेरे हृदय में कँपकँपी नहीं थी, मैं चौंक-चौंककर इधर-उधर नहीं देखता था... मेरे जीवन में निश्चय था, वह पहले की तरह उद्देश्यहीन नहीं रह गया था।

मेरे शरीर में बिजली दौड़ गयी... एक जीवित स्वप्न आया और दर्शकों में बैठ गया-एक बहुत ही मधुर स्वप्न-कमला! मैंने मन-ही-मन कहा, ‘कैसा अच्छा संयोग है यह! आज मैं उसका कलंक मिटाने आया था, आज वह स्वयं उपस्थित है। वह देखेगी।”

मैंने उसकी ओर फिर नहीं देखा। एक भावना मेरे कानों में कहने लगी, ‘वह कलंकिनी है, तुमने उसे कलंकित कर दिया था। जब अपना काम कर चुकोगे, तब उधर देखना।”

वकील खड़ा हुआ! मेरा दृढ़ हृदय धक् से हो गया, उसका स्पन्दन मुझे सुन पड़ने लगा... किस प्रश्न का क्या उत्तर दूँगा, कैसे वकील चौंककर उठेंगे और एक नये औत्सुक्य - एक नयी उत्कंठा से मेरी ओर देखने लगेंगे...

एक अभियुक्त उठा और बोला, “मेरा एक वक्तव्य है।”

जज बोला, “लिखकर भेज दो!”

“नहीं, मैं जबानी कहूँगा।” कहकर वह पढ़ने लगा...

देर होती गयी और मेरे हृदय का स्पन्दन बढ़ता गया। दर्शकों की ओर दर्शकों में बैठी उसकी ओर देखने की व्यग्रता भी बढ़ती गयी... इस दुविधा में वह वक्तव्य भी ठीक से नहीं सुन पाया...

“विदेशी सरकार ने हमारा जो उपकार किया है, हमने उसकी क़द्र नहीं की, इसी का उत्तर माँगने के लिए आपने हमें यहाँ बुलाया है। मैं इस प्रश्न का उत्तर नहीं दूँगा। क्यों? क्योंकि इसका उत्तर हिन्दुस्तान की भूमि के रेणु-मात्र पर लिखा हुआ है।”...

“आपने हिन्दुस्तान में शराब और अफ़ीम बेचकर हमारी बुद्धि भ्रष्ट की, आप विचित्र कानून बनाकर हिन्दुस्तान का सोना खींचकर विलायत ले गये, आपने हमारे श्रमजीवियों को इतना निर्धन किया कि आज एक-एक छोटी कोठरी में चार-चार परिवार, बीस-बीस प्राणी, आयु बिताने को बाध्य हुए, आपने असहायों पर गोलियाँ चलाई, दंगे करवाए, फिर आपको यह पूछते शर्म नहीं आती कि हम अकृतज्ञ क्यों हैं!”...

“आप अन्याय पर तुले हुए हैं फिर क्यों न्याय का ढोंग करके अपनी हँसी करवाते हैं? जो दंड देना है, आज ही दे डालिए। क्यों व्यर्थ हमारी भूखी प्रजा का रुपया फूँकते हैं?”

“जिसकी गवाही पर आप हमें दण्ड देने चले हैं, उसने पहले सरकार से विश्वासघात किया है, फिर देश से, और फिर सत्य की उपेक्षा करके न जाने कितने झूठ बकता रहा।”

“वह राजद्रोही है, देश-द्रोही है धर्म-द्रोही है। उसकी साक्षी पर हमें दण्ड दे कर क्यों आप न्याय का मुँह काला करते हैं?”

इससे आगे मैं नहीं सुन सका... मुझे बस अपने हृदय की वह धक्! धक्! धक्! ही सुन पड़ने लगी... मेरे हाथ-पैर काँपने लगे...

किसी प्रेरणा ने मेरे कान में कहा, “कमला की ओर देखो! वह तुम्हें शक्ति प्रदान करेगी!”

किस शैतान की प्रेरणा थी वह! मेरा निश्चय उसके आगे उड़ गया - मैंने देखा, तृषित, लालसामय आँखों से, उसकी ओर!

वह मेरी ओर नहीं देख रही थी। वह देख रही थी उस अभियुक्त की ओर, सुन रही थी उसका वक्तव्य। कितनी तल्लीन होकर! उसका प्रत्येक वाक्य सुनकर कैसे खिल उठता था उसका मुखश्री! उस खिलने में थी सन्तुष्टि, उसमें था आनन्द, उसमें था गर्व!

मैं मुग्ध होकर कितनी ही देर उधर देखता रहा... शायद उसे इसका भास हुआ, उसने मानो स्वप्न से जागकर मेरी ओर देखा। क्षण-भर के लिए, फिर आँखें फेर लीं।

क्या था उसकी आँखों में? उपेक्षा, विरक्ति, अनुताप, लज्जा!...

वह शैतान एक विद्रूप हँसी हँसा मेरे कान में। मैंने सुना - ‘कौन है वह? कमला तुम्हारी क्या है, तुम कमला के कौन?”

कमला! यह क्या देख रहा हूँ...

जब तुम उधर, उनकी ओर देखती हो, तब तुम्हारी आँखों में यह क्या हो जाता है?

तुम्हें क्या हो गया है कमला, तुम मुझे भूल गयी...

मेरे जीवन का उद्देश्य... मेरा निश्चय... मेरा प्रण... कहाँ गये?

मेरे लिए अन्धकार ही अन्धकार है!

कमला, मैं नीच था, पतित था, कायर था, द्रोही था, नरक के कीड़े की तरह था, पर तुम्हारे प्रति तो मेरे भाव नहीं बदले थे... तुम्हें तो समझना चाहिए था कि किस प्रेरणा ने मुझे इस पतन की ओर प्रेरित किया था... तुम्हें मैं क्या समझा था-तुम भी मुझे समय पर ठुकराकर चली गयीं...

मैं सबकी आँखों में गिरा हुआ था, पर तुम्हारी आँखों में तो न गिरने का मैंने पूरा प्रयत्न किया था... और तुम्हें भी तो मैंने इतने ऊँचे सिंहासन पर बिठाया था... इस उपेक्षा में दो आदर्श टूट गये-उस सिंहासन से तुम च्युत हो गयीं और मैं... न जाने कहाँ तक गिरता ही जाऊँगा...!

कमला, आज मैं सरकार की इतनी महती शक्ति का तिरस्कार करके तुम्हारे मुख पर से कलंक मिटाने आया था, पर तुमने मुख फेर लिया... मेरे हाथ कलुषित थे, पर अगर तुम्हारी आँखों में भी मैं इतना पतित हो गया हूँ, कमला, तो मेरे जीवन के सभी आधार टूट गये...

मैं पतित था, पर मुझे अपने पतन का ज्ञान तो था... मैं उठना चाहता था, पतन के गह्वर से निकलना चाहता था; तुम मेरी सहायता कर सकती थी, पर तुमने उपेक्षा की, मेरा तिरस्कार किया, मेरी उस उच्च कामना को ठुकरा दिया...

मुझे कठघरे में खड़े अभी पाँच मिनट भी नहीं हुए थे, कितने समुद्र के सुमद्र मेरे आगे से बह गये... मुझे ऐसा मालूम हुआ, मेरे हृदय की धक्! धक! से अन्तराल में कहीं बहुत-से बन्धन एक साथ टूट गये... मेरे नीचे से धरती खिसकने-सी लगी...

मैंने चाहा, चिल्लाऊँ, ‘कमला, कमला, तुमने यह क्या किया!’ पर जब बोला, तो वकील के प्रश्न का उत्तर ही मुँह पर आया!

वह प्रश्न पूछता गया, मैं उत्तर देता रहा... कोई चौंका नहीं, किसी को विस्मय नहीं हुआ, किसी को उत्कंठा नहीं हुई, किसी ने उत्सुक होकर मेरी ओर नहीं देखा...

4

जो एक बार अपनी इच्छा से पतित होता है, उसका उत्थान होना असम्भव है। कोई उसका मित्र नहीं होता, कोई उसकी सहायता नहीं करता। मेरे लिए यही जीवन है - यही जिसे एक दिन मैंने इतनी व्यग्रता से अपनाया था और जिसने आज साँप की तरह मुझे अपने पाश में बाँध लिया है!

मैं द्रोही हूँ और रहूँगा।

द्रोह मेरे हृदय में हैं, मेरी अस्थियों में है, मेरी नस-नस में है। मैं द्रोही हूँ।

पहली बार मैंने सरकार से द्रोह किया था, किसी के मुखश्री से आकृष्ट होकर। दूसरी बार मैंने देश से द्रोह किया, किसी के शरीर की लालसा से। तीसरी बार फिर मैंने धर्म से द्रोह किया, किसी के लिए ईर्ष्या करके।

फिर, अपनी नीचता का परिणाम जब मैं जान पाया, तब मैं प्रायश्चित्त करने गया। पर फल क्या हुआ? प्रायश्चित्त भी नहीं किया और अपनी अन्तरात्मा के प्रति भी द्रोही बनकर लौट आया!

मैं अपना बचाव नहीं करता। मैं अधम हूँ। पर मेरे जीवन के सारे आधार, मेरे उद्देश्य, मेरी आशाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, सब कमला, की उपेक्षा ने एक ही झोंके में मिटा दीं और मेरे लिए उत्थान का कोई मार्ग नहीं छोड़ा!

अगर वह मेरी सहायता करती, तो कौन-सा ऐसा काम था जो मैं न कर पाता? वह जिसका मैंने इतनी एकाग्र वृत्ति से ध्यान किया था, वह जो परीक्षा के समय मुझे ठुकरा कर चली गयी - कमला!

पर अब-! अब नहीं। मेरा भाग्य-निर्णय हो गया है, मेरा इस प्रवाह के विपरीत चलने की स्पर्धा करना बेवकूफ़ी है। मैं कुछ नहीं करूँगा, बह जाऊँगा!

क्यों? मैं द्रोही था, द्रोही हूँ, द्रोही ही रहूँगा!

(दिल्ली जेल, अक्टूबर 1931)