द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और धर्म / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
बस, उद्धरणों की बात हो चुकी। इन पर विवाद भी हमने काफी कर दिया। अब एक ही बात और कहके हम आगे बढ़ेंगे। लेनिन ने कहा है कि मार्क्सववाद तो भौतिकवाद है और मार्क्स वादी द्वन्द्ववाद का सिद्धांत मानते हैं। इसलिए उन्हें धर्म या ईश्वर का विचार या खंडन-मंडन भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार ही करना होगा। यही बात जरा समझने को रह जाती है। इसीलिए हमें इस संबंध में दो-चार शब्द कहने पड़ जाते हैं। क्योंकि यदि हम इस बात को, इस कुंजी को, बखूबी समझ जाएँ तो धर्म और ईश्वर के बारे में मार्क्सेवाद का क्या रुख है और उस दृष्टि से हमें खुद क्या करना चाहिए, यह बात अच्छी तरह साफ हो जाएगी। बड़े-बड़े क्रांतिकारी कहे जाने वाले भी इस संबंध में भयंकर भूलें करते आए हैं, यह तो एंगेल्स ने ही खुद कह दिया है। इसलिए थोड़े से स्पष्टीकरण की जरूरत अभी है। अभी तक, हमारे जानते, इसका पूरा स्पष्टीकरण नहीं हो पाया है।
यदि भगवान ऐसा हो कि मरने के बाद की किसी दुनिया का प्रबंध करता हो जिसे स्वर्ग, नरक, बैकुंठ या बिहिश्त कहते हैं; अगर हमारी इस भौतिक दुनिया के कारबार से उसका कोई ताल्लुक न हो, तो मार्क्सश को और मार्क्स वादियों को भी उससे नाहक कलह क्यों हो? जिस दुनिया का जीते-जी हमसे कोई वास्ता नहीं, जो निराली दुनिया है, मगर भौतिक नहीं है, आध्याुत्मिक है, उसकी फिक्र हम क्यों करें, अगर वह बिलकुल ही अलग और जुदी है? अगर वह दुनिया और उसका प्रबंधक हमारे इस भौतिक संसार के कारबार में 'दालभात में मूसरचंद' नहीं बनता और दखल नहीं देता, तो हम भी उसमें क्यों दखल देने जाएँगे? अगर काजी जी शहर की फिक्र से नाहक दुबले हो रहे थे, तो हम भी काजी क्यों बनें? हम यहाँ कुछ यत्न करते और इस प्रकार इस भौतिक संसार एवं समाज को पूर्णत: बदलना चाहते हैं। हमारे इस काम में धर्म और भगवान यदि कोई मदद न करें तो भी हमें उनसे कोई शिकायत नहीं, गिला नहीं। मार्क्सयवादी किसी अदृश्य तथा अलौकिक (Supernatural) शक्ति की मदद चाहते ही नहीं। उन्हें इस काम में ऐसी शक्ति की परवाह और जरूरत नहीं है। बल्कि वे तो ऐसा मानते हैं कि ज्यों ही मदद के भी नाम पर किसी शक्ति ने हमारे काम में दखल दिया कि सारा गुड़ गोबर हुआ। वे तो ऐसी शक्ति का किसी भी तरह इस काम में पड़ना ही खतरनाक मानते हैं। क्योंकि तब तो हमारा अपना यत्न ही ढीला हो जाएगा, शिथिल हो जाएगा और इसी में सारा खतरा है।
(हम इस समाज को अमूल परिवर्तित करने एवं बदलने के लिए किए जाने वाले अपने यत्न में किसी भी वजह से, किसी भी मुरव्वत से जरा भी शिथिलता बरदाश्त नहीं कर सकते। भाग्य और भगवान हमारे विरुद्ध लाठी थोड़े ही चलाते हैं। दरअसल होता है यही कि उनके नाम पर हमारे हाथ-पाँव रुक जाते हैं, हमारे यत्न ढीले पड़ जाते हैं और सफल हो नहीं सकते, हममें आत्मविश्वास नहीं रह जाता, हम उसी को खो देते हैं और अंततोगत्वा चौपट हो जाते हैं। हम लोगों का कुछ ऐसा संस्कार बन गया है कि यदि किसी भी तरह भाग्य और भगवान का नाम हमारे सामने आया कि हम जाल में फँसे और चौपट हुए। हम इस तरह अपने उद्धार की कोशिश में शिथिल होके तबाह होते रहते हैं।) मार्क्स ने हमारे इस असाध्य रोग को खूब ही समझा था। इसीलिए उसने बेदर्दी से इसकी दवा की और भाग्य तथा भगवान का खयाल भी इस भौतिक संसार के कामों में आने न दिया। उसने कह दिया कि भगवन, आप कृपा करें, अलग ही रहें, हम यों ही अच्छे हैं, हमें आपकी कोई जरूरत नहीं, 'बिलार दाई बख्श दें, मुर्ग बेचारा बिना पूँछ का ही रहेगा।' कोई आदमी, जो कमाने वाली जनता के कष्टों से द्रवीभूत हृदय रखता है और जिसे हमारे स्वभावों, संस्कारों तथा धर्म के नाम पर बनी रेशम की चमकीली फाँसी का कड़वा अनुभव है, मार्क्सव की इस बेमुरव्वती और रूखेपन का पूरा समर्थन करेगा। धर्म, भगवान और उनके गण बैकुंठ और स्वर्ग का प्रबंध करें न, और मुक्ति का हिसाब रखें न? उन्हें कौन रोकता है? मगर इधर पाँव हर्गिज न बढ़ायें! खबरदार!