द्वन्द्व / सुदर्शन रत्नाकर
मेरे पासपोर्ट की नियत तिथि समाप्त होने वाली थी इसलिए नवीनीकरण करवाना आवश्यक था। दो चक्कर पहले लगा चुकी थी, आज तीसरी बार फिर आना पड़ा। पहले काँउटर पर लम्बी लाइन थी। वहाँ की औपचारिकातायें तो पूरी हो गईं पर दूसरी पंक्ति इससे भी लम्बी थी। अभी तो तत्काल के अन्तर्गत पासपोर्ट बनवा रही थी साधारण दशा में पता नहीं क्या हाल होता। थकावट हो रही थी इसलिए पंक्ति के पीछे रखे बेंच पर आकर बैठ गई।
थोड़ी देर में वॉकर के सहारे चलती हुई एक वृद्धा मेरे साथ आकर बैठ गईं। वॉकर उन्होंने एक ओर रख दिया। उनकी साँस फूली हुई थी हाथ काँप रहे थे और बैठने में भी कठिनाई हो रही थी। ऐसी दशा में बेचारी पासपोर्ट बनवाने आई है। कोई विवशता तो रही होगी। सहज होते ही वह विवशता उन्होंने स्वयं ही बता दी। "उनकी आयु नब्बे वर्ष है। पिछले मास ही उनके पति का देहांत हो गया था। बेटा विदेश में रहता है। कई वर्षों बाद पिता की मृत्यु का समाचार पाकर वह आया है। अब वह पैतृक मकान बेच कर वापस जाना चाहता है। वृद्धा पति के देहांत के बाद अकेली हो गई है। बेटा चाहता है वह यहीं वृद्धाश्रम में रह जाए। लेकिन वह तैयार नहीं हुई। उसका कहना था कि या तो वह अकेली रहेगी या उसके साथ जायेगी। बेटा उसे साथ ले जाने के लिए तैयार हो गया है। इसीलिए पासपोर्ट बनवाने के चक्कर में आई है।"
वह वृद्धा भाग्यशाली थी जिसका बेटा मकान बेचने के लालच में ही सही उसे साथ ले जाने के लिए तैयार तो हो गया था। मेरी आँखों के समक्ष वृद्धाश्रमों या घर में अकेले जीवनयापन करने वाले वृद्धों के चेहरे आ गये जो संतान का मुख देखने के लिए अंतिम साँस तक प्रतीक्षा करते हैं।