द्वाभाओं के पार / प्रतिभा सक्सेना
अभी मेरे कमरे को डूबते सूरज की किरणें आलोकित किये हैं। सांध्य-भ्रमण के लिए तैयार होकर नीचे उतरी हूँ।
‘देखो सूरज डूब गया, शाम होने लगी है', पति कहते हैं।वे अपने पाँवों की परेशानी कारण साथ नहीं जा पाते।
नीचे रोशनी काफ़ी कम है। छायायें घिर आई हैं।
'अब सूरज पाँच बजे से पहले डूब जाय तो मैं क्या कर सकती हूँ।' (वैसे मुझे पता है कि यहाँ घड़ी एक घंटा पीछे कर दी गई है-डे लाइट सेविंग)। जानती हूँ न, वे कुछ कहेंगे नहीं इसलिए बोल देती हूँ।
उनका कहना है जल्दी निकलो और रोशनी रहते घूम कर लौट आया। मेरा प्रयत्न यह रहता है कि घर से निकलने में देर कर दूँ। और साक्षात् देखूँ कि किस विधि प्रकृति का मुक्त एकान्त सजाती द्वाभाएं अपना ताफ़्ता रंगोंवाला झीना आंचल सारे परिवेश को उढ़ाती हैं। जब कहीं कोई नहीं होता सड़कों पर भी, भ्रमणकर्ता अधिकतर लौट चुके होते हैं कभी एकाध मिल जाता है तो एक 'हाइ’फेंककर अपनी राह बढ़ जाता है। अब जब,यौवन को कोसों पीछे छोड़ आई हूँ मुझसे किसी को या किसी से मुझे ऐसा-वैसा कोई खतरा नहीं -निश्चिन्त हो कर मनचाहा घूम सकती हूँ,
निविड़ एकान्त का, इस गहन शान्त बेला का कितनी व्यग्रता से इंतज़ार करती हूँ।यह एक घंटा सिर्फ़ मेरा। अगर कोई बाधा आ जाए,तो कहीं व्यस्त रहते हुए भी हुए मन घर की खिड़कियों से बाहर निकल भागता है, जहाँ रंग-डूबी वनस्पतियों में मुक्त विहार करती द्वाभाएँ आकाश से धरती तक जादुई रंग उँडेलती रहती हैं। नवंबर का मध्य और दिसंबर का अधिकांश- यहाँ सुन्दरता चारों ओर बिखरी पड़ती है है।फ़ॉल- कलर्स की कारीगरी -सारी प्रकृति सजी-धजी। बिदाई - समारोह का आयोजन हो रहा है, निसर्ग में रंगों के फव्वारे फूट पड़े हों जैसे। सिन्दूरी, पीले लाल, सुनहरे, बैंगनी कत्थई, वसंती नारंगी, कितने रंगों के उतार-चढ़ाव, सब ओर उत्सव का उल्लास, सारी वनस्पतियाँ मगन। जीवन के चरम पर अपने-अपने रंगों में विभोर! पूरी हो गई है अवधि, आ रही है प्रस्थान की बेला, खेल लो जी भर रंग। वर्ष बीतते सब झर जायेगा, सन्नाटा रह जाएगा। कबीर ने जिसे कहा था -'दिवस चार का पेखना'
ये 'चार दिवस का पेखना’ही तो जीवन है - चित्प्रकृति का मुक्त क्रीड़ा-कौतुक! निसर्ग के इस महाराग पर अपनी कुंठाएँ लादना शुरू करोगे तो शिकायतें ही करते रह जाओगे। ये जो हमारे बनाये खाँचे हैं -आत्म को बहुत सीमित कर देते हैं। कभी इससे बाहर भी निकलो। और कबीर तुम सोचते कभी कि अनगिनत युगों से ये सरिता-जल कहाँ से बहता चला आ रहा है?न कोई आदि न अंत - एक अनंत क्रम। जीवन भी तो अनवरत प्रक्रिया है - अनंत क्रम। कौन बच सका इस आवर्तन से! इसी क्रम में कहीं हम भी समाए हैं। अगर आगमन समारोहमय है तो प्रस्थान भी उत्सवमय क्यों न हो!
नवंबर का महीना! इन सुरंजित संध्याओँ में साक्षात् हो रहा है निसर्ग की गहन रमणीयता से। सारे पश्चिमी तट को विशाल बाहुओं में समेटे रॉकी पर्वतांचल की किसी सलवट में सिमटा यह छोटा -सा नगर। केलिफ़ोर्निया की राजधानी का एक उपनगर। अभी अपने में प्रकृति के सहज उपादान समेटे है। कोलाहल-हलचल से दूर, मुक्त परिवेश, पर्वतीय तल पर समकोण बनाते ऊँचे-ऊँचे वृक्ष, धरती पर दूर-दूर तक फैला वनस्पतियों का साम्राज्य।कभी ओझल हो जाता कभी साथ चल देता क्रीक जो आगे ताल में परिणत हो गया है! उदय और अस्त बेलाएँ अपने संपूर्ण वैभव के साथ प्रकट होती है। अभिचाररत द्वाभायें अभिमंत्रित जल छिड़कती, टोना कर रही हैं।
संध्या की धुँधलाती बेला, न चाँद न सूरज -केवल एकान्त का विस्तार! ऐसा अकेला पन जब अपनी परछाँईं भी साथ नहीं होती, लगता है मैं भी इस अपरिमित एकान्त का अंग बन इसी में समाती जा रही हूँ। चारों ओर पतझर का पीलापन छाया है। वृक्षों के विरल पातों से डूबते दिन की रोशनी झलक कर चली गई है। हवाएं चलती हैं धुँधलाती रोशनी में रंग प्रतिक्षण बदल रहे हैं है, साँझ ने चतुर्दिक अपनी माया फैला दी है। पतझर की अबाध हवाएं पत्तों को उछालती खड़खड़ाती भागी जा रही हैं। साँझ का रंगीन आकाश ताल में उतर आया है। इस पानी में झाँकते बादल लहराते हैं, किनारे के पेड़ झूम-झूम कर झाँकते हैं।
हर रात्रि अभिमंत्रित सा निरालापन लिए आसमान से उतरती है। क्षण-क्षण नवीनता, पल-पल पुलक, शाम का ढलना, रात का आँचल पसार -धीमे-धीमे उतरना, सारी दिशाओँ को आच्छन्न कर लेना। धुँधलाते आसमान में बगुलों की पाँतें बीच-बीच में कुछ पुकार भरती इस छोर से उस छोर तक उड़ती चली जाती हैं, उनकी आवाज़ें मुझे लगता है कहीं दूर रेंहट चल रहा है। पर यह मन का कोरा भ्रम -यहाँ अमेरिका में रेंहट कहाँ!
गहन एकान्त के ये प्रहर। इस साइडवाक से ज़रा हट कर चलती सड़क के वाहनों से भागते प्रकाश से आलोकित।नहीं तो वही सांध्य-बेला -आकाश में रंगीन बादलों के बदलते रंग धीरे-धीरे गहरी श्यामता में डूबने लगते हैं, जिसमें जल-पक्षियों की का कलरव-क्रेंकार रह रह कर गूँज जाती है। साइडवाक और सड़क के मध्य वृक्षावलियाँ, और घनी झाड़ियाँ, -रोज़मेरी और अनाम सुगंधित फूलों से वातावरण गमकता है। बीच-बीच में सड़कों पर गाड़ियों का आना-जाना,रोशनी और परछाइयाँ बिखेरते गुज़र जाना। उन दौड़ती रोशनियों में पेड़ चमक उठते हैं। अपनी ही परछाईँ प्रकट हो मेरे आगे-पीछे दौड़ लगा कर ग़ायब हो जाती है।
जब चांद की रातें होती हैं तो पीला सा चाँद उगता है, हर दिन नया रूप लिए, धीरे -धीरे साँझ रात में गहराती है, आकाश की धवलिमा धूसर होने लगती है।अभी कुछ दिनों से पानी बरसने लगा है, वातावरण में ठंडक आ गई है। झील के जल में किनारे एक भी पक्षी नहीं दिख रहा। क्वेक-क्वेक की आवाज़ें आ रही है, कहीं दुबके बैठे होंगे। उधर झील के बीच में कुछ आकृतियां हैं। किनारे झाड़ियाँ और बीच-बीच में श्वेत ऊंची-ऊंची काँसों के झुर्मुट। आकाथ श्यामल जल में प्रतिबिंबित हो रहा है। ताल कैसे अँधेरे में अपने को छिपा कर बाहर के सारे प्रतिबिंब अपने में धार लेता है। रात को सारे चाँद-तारे जल में उतर आते हैं
ये हल्के अँधेरे मुझे बहुत अच्छे लगते हैं देर हो जाती है तो और अच्छा, अँधेरे और चाँदनी की मोहक माया। जैसे दूर-दूर तक इन्द्रजाल फैला हो। धरती पर झरे हुए पीले पत्ते, ऊँचे-ऊँचे श्वेत काँस झुण्ड बनाए सिर हिलाते बतियाते रहते हैं।
विशाल वृक्षों की टहनियाँ धरती तक और ऊपर आकाश तक श्यामता को और गहरा देती हैं
आकाश के छोर पर एक तारा झाँकता है पहला तारा, यही तो है, साँझ को संध्यातारा (ईवनिंग स्टार) और प्रातः मार्निंग स्टार।रोज़ इस चमकते तारे को देखती हूं, दृष्टि घुमाती हूँ चतुर्दिक व्याप्त सूना आकाश, कहीं कोई सितारा नहीं।
याद आता है माँ का कथन -
एक तरैया पापी देखे दो देखे चंडाल
और मैं पूरे आकाश में उगा यह अकेला तारा रोज़ देखती हूँ।
झील में डूबती।साँझ बेला और सूने आकाश का पहला तारा। यह दोष भी कितना लोभ-मोह भरा है। झील का रंग गहरा जाता है लहरें चमकती रहती हैं। इस अँधेरे ताल में नक्षत्रयुत आकाश सारी रात झाँकेगा। ,किनारे पर ऊंची-ऊँची सुनहरी घास। बीच में लंबे-लंबे धवल काँस समेटे हवा में लहराती रहेगी। आती-जाती रोशनियाँ ताल पर बिखरती है थाह लेती परछाइयाँ अपरंपार हो उठती हैं। ये साँझ भी अब ताल में समाई जा रही है चारों ओर गहरे श्यामल आकार,रात की परछाइयाँ थाहता ताल खूब गहन होता जा रहा है।
इन फ़ुटपाथों पर हवाओं ने जगह-जगह रंगीन पत्ते बिखेर दिये हैं- लाल-पीले पत्ते -बीच-बीच में और रंग भी जैसे राँगोली रची हो, कोनों और मोड़ों पर ढेर के ढेर। उन्हीं पर पाँव रखते चलते कभी कभी सब-कुछ, बिलकुल अजाना- सा लगने लगता है। चलते-चलते रुक जाती हूँ जैसे सारा परिवेश अजाना हो। कहाँ जा रही हूँ किन राहों पर चलने आ गई कैसे आ गई ? ठिठकी-सी खड़ी, कैसे कदम बढ़ें आगे, किस तरफ़ मुड़ूँ! उस परिवेश में डूबी, अपने से विच्छिन्न, विमूढ़। लगता है इन्द्रियातीत हो गई हूँ। अनगिनती बार चली राहें, अनजानी हो उठती हैं, छलना बन बहकने लगते हैं अपने भान, सब कुछ अवास्तविक-सा। देह में कैसा हल्कापन कि धरती पर न टिक पांव उड़ाये लिये जा रहे हों। बिना प्रयास चलते जाना। कहीं का कहीं लिये जाते हैं स्वचालित हो पग, एक बार तो... नहीं, छोडें उस चर्चा को।
विराट् प्रकृति में छाया और प्रकाश की क्रीड़ा। द्वाभाओं के आर-पार दिवस-रात्रि का मौन गाढ़ालिंगन घटित होता और अनायास गहनता के आवरण में विलीन। मेरा निजत्व डूब जाता है, सब से -अपने से भी विच्छिन्न हो इस महाराग में डूबे रहना -यही हैं - मेरे तन्मय आनन्द के क्षण, जिन्हे किसी कीमत पर खोना नहीं चाहती, अंश मात्र भी गँवाये बिना, पूरा का पूरा आत्मसात् कर लेना चाहती हूँ। उस तन्मयता में और कोई बोध नहीं रहत। इस अपरिसीम एकान्त का अंग बन सबसे अतीत हुई सी। अवकाश, उन सबसे, अन्यथा, जो मुझ पर छाये रहते हैं हर तरफ़ से घेरे रहते हैं। उनके न होने से मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता, काम्य हैं यही मुक्ति के क्षण, जब मन विश्राम पा सृष्टि के अणु-परमाणुओं में गुंजित अनहद में विलीन हो जाए।